शनिवार, 24 सितंबर 2022
रविवार, 18 सितंबर 2022
श्राद्ध का प्रचलन कब शुरू हुआ ।
श्राद्ध का प्रचलन कब शुरु हुआ ? सबसे पहले किसने किया था श्राद्ध
प्राचीन काल में ब्रह्माजी के पुत्र हुए महर्षि अत्रि,उन्हीं के वंश में भगवान दत्तात्रेयजी का आविर्भाव हुआ । दत्तात्रेयजी के पुत्र हुए महर्षि निमि और निमि के एक पुत्र हुआ श्रीमान्। श्रीमान् बहुत सुन्दर था। कठोर तपस्या के बाद उसकी मृत्यु होने पर महर्षि निमि को पुत्र शोक के कारण बहुत दु:ख हुआ। अपने पुत्र की उन्होंने शास्त्रविधि के अनुसार अशौच (सूतक) निवारण की सारी क्रियाएं कीं । फिर चतुर्दशी के दिन उन्होंने श्राद्ध में दी जाने वाली सारी वस्तुएं एकत्रित कीं।
अमावस्या को जागने पर भी उनका मन पुत्र शोक से बहुत व्यथित था । परन्तु उन्होंने अपना मन शोक से हटाया और पुत्र का श्राद्ध करने का विचार किया । उनके पुत्र को जो-जो भोज्य पदार्थ प्रिय थे और शास्त्रों में वर्णित पदार्थों से उन्होंने भोजन तैयार किया।
महर्षि ने सात ब्राह्मणों को बुलाकर उनकी पूजा-प्रदक्षिणा कर उन्हें कुशासन पर बिठाया । फिर उन सातों को एक ही साथ अलोना सावां परोसा । इसके बाद ब्राह्मणों के पैरों के नीचे आसनों पर कुश बिछा दिये और अपने सामने भी कुश बिछाकर पूरी सावधानी और पवित्रता से अपने पुत्र का नाम और गोत्र का उच्चारण करके कुशों पर पिण्डदान किया।
श्राद्ध करने के बाद भी उन्हें बहुत संताप हो रहा था कि वेद में पिता-पितामह आदि के श्राद्ध का विधान है, मैंने पुत्र के निमित्त किया है । मुनियों ने जो कार्य पहले कभी नहीं किया वह मैंने क्यों कर डाला ?
उन्होंने अपने वंश के प्रवर्तक महर्षि अत्रि का ध्यान किया तो महर्षि अत्रि वहां आ पहुंचे । उन्होंने सान्त्वना देते हुए कहा‘डरो मत ! तुमने ब्रह्माजी द्वारा श्राद्ध विधि का जो उपदेश किया गया है, उसी के अनुसार श्राद्ध किया है।’ ब्रह्माजी के उत्पन्न किये हुए कुछ देवता ही पितरों के नाम से प्रसिद्ध हैं; उन्हें ‘उष्णप’ कहते हैं । श्राद्ध में उनकी पूजा करने से श्राद्धकर्ता के पिता-पितामह आदि पितरों का नरक से उद्धार हो जाता है।
सबसे पहले श्राद्ध कर्म करने वाले महर्षि निमि
इस प्रकार सबसे पहले निमि ने श्राद्ध का आरम्भ किया । उसके बाद सभी महर्षि उनकी देखादेखी शास्त्र विधि के अनुसार पितृयज्ञ (श्राद्ध) करने लगे। ऋषि पिण्डदान करने के बाद तीर्थ के जल से पितरों का तर्पण भी करते थे । धीरे-धीरे चारों वर्णों के लोग श्राद्ध में देवताओं और पितरों को अन्न देने लगे।
श्राद्ध में पहले अग्नि का भोग क्यों लगाया जाता है ?
लगातार श्राद्ध में भोजन करते-करते देवता और पितर पूरी तरह से तृप्त हो गये । अब वे उस अन्न को पचाने का प्रयत्न करने लगे। अजीर्ण से उन्हें बहुत कष्ट होने लगा। सोम देवता को साथ लेकर देवता और पितर ब्रह्माजी के पास जाकर बोले ‘निरन्तर श्राद्ध का अन्न खाते-खाते हमें अजीर्ण हो गया है, इससे हमें बहुत कष्ट हो रहा है, हमें कष्ट से मुक्ति का उपाय बताइए।
ब्रह्माजी ने अग्निदेव से कोई उपाय बताने को कहा । अग्निदेव ने कहा देवताओ और पितरो ! अब से श्राद्ध में हम लोग साथ ही भोजन करेंगे । मेरे साथ रहने से आप लोगों का अजीर्ण दूर हो जाएगा।
यह सुनकर सबकी चिन्ता मिट गयी; इसीलिए श्राद्ध में पहले अग्नि का भाग दिया जाता है । श्राद्ध में अग्नि का भोग लगाने के बाद जो पितरों के लिए पिण्डदान किया जाता है, उसे ब्रह्मराक्षस दूषित नहीं करते हैं । श्राद्ध में अग्निदेव को उपस्थित देखकर राक्षस वहां से भाग जाते हैं।
सबसे पहले पिता को, उनके बाद पितामह को और उनके बाद प्रपितामह को पिण्ड देना चाहिए—यही श्राद्ध की विधि है । प्रत्येक पिण्ड देते समय एकाग्रचित्त होकर गायत्री-मन्त्र का जप और ‘सोमाय पितृमते स्वाहा’ का उच्चारण करना चाहिए ।
इस प्रकार मरे हुए मनुष्य अपने वंशजों द्वारा पिण्डदान पाकर प्रेतत्व के कष्ट से छुटकारा पा जाते हैं। पितरों की भक्ति से मनुष्य को पुष्टि, आयु, संतति, सौभाग्य, समृद्धि, कामनापूर्ति, वाक् सिद्धि, विद्या और सभी सुखों की प्राप्ति होती है। सुन्दर-सुन्दर वस्त्र, भवन और सुख साधन श्राद्ध कर्ता को स्वयं ही सुलभ हो जाते है।
पितृदोष के लक्षण व उपाय
इस कारण कुंडली में लगता है पितृ दोष, जानिए इससे होने वाले नुकसान और कैसे पाएं राहत।
जिन लोगों की कुंडली में पितृ दोष होता है, उन्हें कुछ उपाय करना लाभकारी होगा इससे उनकी परेशानियां कुछ कम हो सकती हैं।
सूर्य और राहु की युति से कुंडली में पितृदोष लगता है ,
जानिए पितृदोष से होने वाले नुकसान के बारे में
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, जब व्यक्ति की कुंडली में दूसरे, चौथे, पांचवे, सातवें, नौंवे और दसवें भाव में सूर्य राहु या सूर्य शनि की युति हो रही है तो माना जाता है कि पितृ दोष योग बन रहा है। लग्नेश यदि छठे आठवें बारहवें भाव में हो और लग्न में राहु हो तो भी पितृदोष बनता है। यह एक ऐसा दोष होता है जो दुखों को एक साथ देने की क्षमता रखता है।
पितृ दोष से होने वाले नुकसान
मानसिक और शारीरिक संतुलन बिगड़ जाता है।
किसी भी एग्जाम में सकारात्मक रिजल्ट प्राप्त का नहीं होना।
वैवाहिक जीवन में किसी न किसी तरह से कलह बना रहना।
नौकरी मिलने में परेशानी आना।
सरकारी या प्राइवेट नौकरी में बॉस का नाखुश रहना।
विवाह होने में किसी न किसी तरह की अड़चन आना।
गर्भधारण करने में समस्या होना।
बच्चे की अकाल मृत्यु हो जाना।
किसी भी निर्णय को लेने में परेशानी होना या फिर बिना किसी की सलाह के बगैर निर्णय न ले पाना ।
अधिक पैसा कमाने के बाद भी बरकत न होना ।
अधिक मेहनत करने के बावजूद बिजनेस में नुकसान होना ।
लंबे समय तक कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाना।
घर में किसी न किसी सदस्य का बीमार रहना ।
पितृ दोष के कारण धन हानि का सामना करना पड़ता है।
पितृ दोष के लक्षण --
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घर की दीवारों में दरारें पड़ जाना ।
मांगलिक कामों में किसी न किसी तरह की अड़चन आना ।
आपको बार-बार चोट लगना या फिर किसी दुर्घटना का सामना करना ।
परिवार और मेहमानों का घर आना बद हो जाना ।
विवाह की बात बनते-बनते बिगड़ जाना ।
दिनभर परिवार के लोगों के बीच छोटी सी छोटी बात पर कलह होना ।
पितृ दोष से बचने के उपाय--
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कुंडली से पितृ दोष खत्म करने के लिए अमावस्या के दिन पितरों को श्राद्ध और तर्पण करना।
श्राद्ध पक्ष के दौरान पितरों को ध्यान करके गायों को चारा खिलाएं।
अगर आप श्राद्ध नहीं करते हैं तो पितृ दोष से निजात पाने के लिए नदी में काले तिल डालकर तर्पण करे। ऐसा करने से भी पितर प्रसन्न हो सकते हैं।
अमावस्या के दिन पितरों का ध्यान करके वस्त्र और अन्न का दान करे।
शुक्ल पक्ष के रविवार के दिन भगवान सूर्य को तांबे के लोटे से जल अर्पण करे। इस जल में गुड़, लाल रंग का फूल और रोली डालकर लें।
पीपल के पेड़ पर दोपहर के समय जल, पुष्प, अक्षत, दूध, गंगाजल, काले तिल जाकर चढ़ाएं और स्वर्गीय परिजनों का स्मरण कर उनसे माफी मांगते हुए आशीर्वाद लें।
सूर्यग्रहण (२५ अक्टूबर२०२२)लगने वाला साल का पहला दिखाई वाला ग्रहण है ।
सूर्यग्रहण-
कार्तिककृष्ण ३० मंगलवार ( २५ अक्टूबर २०२२ ) अमावस्या को लगने वाला खण्डसूर्यग्रहण भारत में ग्रस्तास्त सूर्यग्रहण के रूप में दृश्य होगा ।
यह ग्रहण यूरोप , मध्य - पूर्व , उत्तरी अफ्रीका , पश्चिमी एशिया , उत्तरीअटलांटिक महासागर , उत्तर हिन्दमहासागर में दृश्य होगा ।
भारत में यह ग्रहण दिन में सूर्यास्त के पूर्व प्रारम्भ हो जायेगा । यह भारत के अधिकांश भाग से देखा जा सकेगा , किन्तु अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और पूर्वोत्तर के कुछ भागों जैसे आइजॉल , डिब्रूगढ़ , इंफाल , ईटानगर , कोहिमा , शिवसागर , सिलचर , तमेलांग में ग्रहण नहीं देखा जा सकेगा । सूर्यास्त होने के कारण ग्रहण का मोक्ष भारत में दृश्य नहीं होगा ।
ग्रहण का प्रारम्भ --
दिन में २ बजकर २ ९ मिनट पर ,
मध्य सायं ४ बजकर ३० मिनट पर
मोक्ष सायं ६ बजकर ३२ मिनट पर होगा ।
नोट--
बालक , वृद्ध , रोगी को छोड़कर अन्य किसी भी व्यक्ति को ग्रहणकाल एवं ग्रहण के सूतककाल मे भोजन करना निषेध है ।
ग्रहण काल मे देवताओं को जल में रख देना चाहिए ।
ग्रहण के पूर्ण होने पर देवताओं का स्नान करके मंदिर मे स्थापित करना चाहिए ।
ग्रहण काल मे गर्भवती महिलाओं को सावधानी रखते हुए गोपाल मंत्र का जप करना चाहिए।
ग्रहण काल में अन्नादि पेय खाद्य सामग्री में कुश या तुलसी को रखे ।
कुश , तुलसी को खाद्य सामग्री में रखने से ग्रहण का दोष नही लगता है ।
तुलसी अगर ना मिले तो कुशा को प्रयोग कर सकते है ।
ग्रहण का महात्म्य --
ग्रहण के समय गंगा स्नान का विशेष महत्व है । मत्स्य पुराण में कहा कि ग्रहण काल मे तीर्थ स्नान व जप ,तप , दान करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है ।
पितृ पूजा दिन में क्यो होती है । श्राद्ध तर्पण पिण्डदान
पितृ पक्ष, पितरों का याद करने का समय माना गया है। भाद्र शुक्ल पूर्णिमा को ऋषि तर्पण से आरंभ होकर यह आश्विन कृष्ण अमावस्या तक जिसे महालया कहते हैं उस दिन तक पितृ पक्ष चलता है। इस दौरान पितरों की पूजा की जाती है और उनके नाम से तर्पण, श्राद्ध, पिंडदान और ब्राह्मण भोजन करवाया जाता है। पितृ पूजा में कई बातें ऐसी हैं जो रहस्यमयी हैं और लोगों के मन में सवाल उत्पन्न करते हैं कि आखिर ऐसा क्यों होता है..
श्राद्ध का नियम है कि दोपहर के समय पितरों के नाम से श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन करवाया जाता है। शास्त्रों में सुबह और शाम का समय देव कार्य के लिए बताया गया है।लेकिन दोपहर का समय पितरों के लिए माना गया है। इसलिए कहते हैं कि दोपहर में भगवान की पूजा नहीं करनी चाहिए। दिन का मध्य पितरों का समय होता है। दरअसल पितर मृत्युलोक और देवलोक के मध्य लोक में निवास करते हैं जो चंद्रमा के ऊपर बताया जाता है।
दूसरी वजह यह है कि दोपहर से पहले तक सूर्य की रोशन पूर्व दिशा से आती है जो देवलोक की दिशा मानी गई है। दोपहर में सूर्य मध्य में होता है जिससे पितरों को सूर्य के माध्यम से उनका अंश प्राप्त हो जाता है। तीसरी मान्यता यह है कि, दोपहर से सूर्य अस्त की ओर बढ़ना आरंभ कर देता है और इसकी किरणें निस्तेज होकर पश्चिम की ओर हो जाती है। जिससे पितृगण अपने निमित्त दिए गए पिंड, पूजन और भोजन को ग्रहण कर लेते हैं।
पितृपक्ष में पितरों का आगमन दक्षिण दिशा से होता है। शास्त्रों के अनुसार, दक्षिण दिशा में चंद्रमा के ऊपर की कक्षा में पितृलोक की स्थिति है। इस दिशा को यम की भी दिशा माना गया है। इसलिए दक्षिण दिशा में पितरों का अनुष्ठान किया जाता है। रामायण में उल्लेख मिलता है कि जब दशरथ की मृत्यु हुई थी तो भगवान राम ने स्वपन में उनको दक्षिण दिशा की तरफ जाते हुए देखा था। रावण की मृत्य से पहले त्रिजटा ने स्वप्न में रावण को गधे पर बैठकर दक्षिण दिशा की ओर जाते हुए देखा था।
सनातन धर्म के अनुसार, किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है। शरीर को भी पिंड माना जा सकता है। धरती को भी एक पिंड रूप है। हिंदू धर्म में निराकार की पूजा की बजाय साकार स्वरूप की पूजा को महत्व दिया गया है क्योंकि इससे साधना करना आसान होता है। इसलिए पितरों को भी पिंड रूप मानकर यानी पंच तत्वों में व्यप्त मानकर उन्हें पिडदान दिया जाता है।
पिंडदान के समय मृतक की आत्मा को अर्पित करने के लिए चावल को पकाकर उसके ऊपर तिल, शहद, घी, दूध को मिलाकर एक गोला बनाया जाता है जिसे पाक पिंडदान कहते हैं। दूसरा जौ के आटे का पिंड बनाकर दान किया जाता है। पिंड का संबंध चंद्रमा से माना जाता है। पिंड चंद्रमा के माध्यम से पितरों को प्राप्त होता है। ज्योतिषीय मत यह भी है कि पिंड को तैयार करने में जिन चीजों का प्रयोग होता है उससे नवग्रहों का संबंध है। इसके दान से ग्रहों का अशुभ प्रभाव दूर होता है। इसलिए पिंडदान से दान करने वाले को लाभ मिलता है।
पितरों की पूजा में सफेद रंग का इस्तेमाल इसलिए किया जाता है क्योंकि सफेद रंग सात्विकता का प्रतीक है। आत्मा का कोई रंग नहीं है। जीवन के उस पार की दुनियां रंग विहीन पारदर्शी है इसलिए पितरों की पूजा में सफेद रंग का प्रयोग होता है। दूसरी वजह यह है कि सफेद रंग चंद्रमा से संबंध रखता है जो पितरों को उनका अंश पहुंचाते हैं।
पुराणों के अनुसार, व्यक्ति की मृत्यु जिस तिथि को हुई होती है, उसी तिथि में उसका श्राद्ध करना चाहिए। यदि जिनकी मृत्यु के दिन की सही जानकारी न हो, उनका श्राद्ध अमावस्या तिथि को करना चाहिए। श्राद्ध मृत्यु वाली तिथि को किया जाता है। मृत्यु तिथि के दिन पितरों को अपने परिवार द्वारा दिए अन्न जल को ग्रहण करने की आज्ञा है। इसलिए इस दिन पितर कहीं भी किसी लोक में होते हैं वह अपने निमित्त दिए गए अंश को वह जहां जिस लोक में जिस रूप में होते हैं उसी अनुरूप आहार रूप में ग्रहण कर लेते हैं।
श्राद्ध पक्ष में कौए का बड़ा ही महत्व है। श्राद्ध का एक अंश कौए को भी दिया जाता है। कौए के संबंध में पुराणों बहुत ही विचित्र बात बताई गई है, मान्यता है कि कौआ अतिथि आगमन का सूचक एवं पितरों का आश्रम स्थल माना जाता है। श्राद्ध पक्ष में कौआ अगर आपके दिए अन्न को आकर ग्रहण कर ले तो तो माना जाता है कि पितरों की आप पर कृपा हो गई। गरुड़ पुराण में तो कौए को यम का संदेश वाहक कहा गया है। आइए जानते हैं कौए के बारे में और रोचक जानकारी…
श्राद्ध पक्ष में कौए का महत्व बहुत ही अधिक माना गया है। पितृपक्ष में यदि कोई भी व्यक्ति कौए को भोजन कराता है तो यह भोजन कौआ के माध्यम से उनके पितर ग्रहण करते है। शास्त्रों में बताया गया है कि कोई भी क्षमतावान आत्मा कौए के शरीर में विचरण कर सकती है। यहा यम का दूत होता है।
आश्विन महीने में कृष्णपक्ष के 16 दिनों में कौआ हर घर की छत का मेहमान होता है। लोग इनके दर्शन को तरसते हैं। ये 16 दिन श्राद्ध पक्ष के दिन माने जाते हैं। इन दिनों में कौए एवं पीपल को पितृ का प्रतीक माना जाता है। इन दिनों कौए को खाना खिलाकर एवं पीपल को पानी पिलाकर पितरों को तृप्त किया जाता है।
हमारे धर्म ग्रंथ की एक कथा के अनुसार इस पक्षी ने देवताओं और राक्षसों के द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत को रस चख लिया था। यही कारण है कि कौए की कभी भी स्वाभाविक मृत्यु नहीं होती है। यह पक्षी कभी किसी बीमारी अथवा अपने वृद्धा अवस्था के कारण मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। इसकी मृत्यु आकस्मिक रूप से होती है।
यह बहुत ही रोचक है कि जिस दिन कौए की मृत्यु होती है, उस दिन उसका साथी भोजन ग्रहण नहीं करता। यह आपने कभी ख्याल किया हो तो कौआ कभी भी अकेले में भोजन ग्रहण नहीं करता। यह पक्षी किसी साथी के साथ मिलकर ही भोजन करता है। भोजन बांटकर खाने की सीख हर किसी को कौए से लेनी चाहिए।
कौए के बारे में पुराण में बताया गया है कि किसी भविष्य में होने वाली घटनाओं का आभास पूर्व ही हो जाता है। कौए को यमस्वरूप भी माना जाता है और न्याय के देवता शनिदेव का वाहन भी है।
कौआ का सबसे पहला रूप देवराज इंद्र के पुत्र जयंत ने लिया था। त्रेतायुग में एकबार जब भगवान राम ने अवतार लिया और जयंत ने कौए का रूप धारण कर माता सीता के पैर में चोंच मार दी थी। तब श्री राम ने तिनके से जयंत की आंख फोड़ दी थी। जयंत ने अपने किए की माफी मांगी, तब राम ने वरदान दिया कि पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोजन में तुम्हें हिस्सा मिलेगा। तभी से यह परम्परा चली आ रही है कि पितृ पक्ष में कौए को भी एक हिस्सा मिलता है।
बुधवार, 14 सितंबर 2022
जीव माँ के गर्भ से प्राप्त करता है । पांच चीज
मनुष्य प्राणी जीव का जब उद्भव होता है तो पूर्व जीवन चक्र के आधार पर मानव या अन्य प्राणीयों का जीवन चक्र निर्धारित होता है । जिसके आधार पर वह संसार का भोग करते है । प्राणी चाहे जितनी लालसा रख ले मिलेगा उतना ही जितना पूर्व निर्धारित कर्मों से अर्जित रखा पूण्य या पाप जो जीव को भोगना पड़ता है । जैसे बहरा अपने से बहरा नही बनता , चोर अपने से चोर नही बनता , राजा अपने से राजा नही बनता । इसलिए शुभ कर्म का शुभ फल ,अशुभ कर्मो का अशुभ फल जरूर मिलता है । यह निश्चित है कि लूला , लंगड़ा ,बहरा , अंधा , भिखारी , चोर , डाकू , राजा यह सभी पूर्व जन्मार्जित कर्मो का भोग कर रहे है ।
आयु: कर्म वित्तं च विद्या निधन मेव च ।
पंचैतानि ही सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ।।
माँ के गर्भ में जब जीव का आविर्भाव होता है तो उसी समय आयु ,कर्म ,बिद्या , वित्त और मृत्यु निर्धारित हो जाता है । जो जीव को सुख व दुःख के रूप में भागना पड़ता है ।
जीव जब संसार मे प्रविष्ट होता है ।तो मनुष्य जीव प्राणी मात्र की उम्र ,उसका कर्म , वह कितना विद्या व धन अर्जित करेगा। तथा उसकी मृत्यु कब कहाँ कैसे होगी यह सब माँ के गर्भ में ही पूर्व जन्मार्जित कर्मो के आधार पर निर्धारित हो जाता है ।
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