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सोमवार, 4 दिसंबर 2023

गिरिराज गोवर्धन पर्वत की उत्पति

गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति के विषय में नंद जी ने सानंद जी से पूछा।

 गोवर्धन गिरिराज पर्वत की उत्पत्ति कैसे हुई और इनको गिरिराज क्यों कहते हैं।

 सानंद जी ने कहा कि एक समय की बात है हस्तिनापुर में महाराज पांडु ने धर्मधारियों में श्रेष्ठ श्री भीष्म जी से ऐसा ही प्रश्न किया था।

 उनके उन प्रश्न को भीष्म द्वारा दिए गए उत्तर को अन्य बहुत से लोग भी सुन रहे थे उसमें भीष्म जी ने उत्तर दिया वही मैं यहां सुन रहा हूं साक्षात परी पूर्णतम भगवान श्री कृष्णा जो असंख्य ब्रह्मांड के अधिपति गोलोक के नाथ और सब कुछ करने में समर्थ है जब पृथ्वी का भार उतारने के लिए स्वयं इस भूतल पर पधारने लगे उन भगवान जनार्दन देवाधिदेव ने अपनी प्राण बल्लभा राधा से कहा प्रिये तुम मेरे वियोग में भयभीत रहती हो अतः तुम भी भूतल पर चलो.

श्रीराधा जी बोली - प्राणनाथ जहां वृंदावन नहीं है, जहां वह यमुना नदी नहीं है,तथा जहां गोवर्धन पर्वत नहीं है, वहां मेरे मन को सुख नहीं मिल सकता।

श्री राधा जी की बात सुनकर स्वयं श्री हरि ने अपने धाम से 84 कोश विस्तृत भूमि गोवर्धन पर्वत और यमुना नदी को गोलोक भूतल पर भेजा।

उस समय 84 कोश विस्तार वाली गोलोंक की सर्वलोक बंदिता भूमि 24 वनों के साथ यहां आई गोवर्धन पर्वत ने भारतवर्ष से पश्चिम दिशा में  शाल्मली द्वीप के भीतर द्रोणाचल की पत्नी के गर्भ से जन्म ग्रहण किया.

 उस अवसर पर देवताओं ने गोवर्धन के ऊपर फूल बरसाए हिमालय और सुमेर आदि समस्त पर्वतों ने वहां जाकर प्रणाम किया और परिक्रमा करके गोवर्धन का विधिवत पूजन किया पूजन के पश्चात उन महान पर्वतों ने उसकी स्तुति प्रारंभ की.

पर्वत बोले तुम साक्षात पूर्ण परिपूर्णतम भगवान श्री कृष्ण के गोलोक धाम में जहां दिव्य गौ का समुदाय निवास करता है तथा गोपाल एवं गोप सुंदरिया शोभा पाती है  तुम्हीं गोवर्धन नाम से वृंदावन में विराजित हो इस समय तुम ही हम समस्त पर्वतों में गिरिराज हो तुम वृंदावन की गोद में निवास करने वाले गोलोक मे मुकुट मणि हो तुम गोवर्धन को सादर प्रणाम है।

 तभी से यह गिरीश श्रेष्ठ गोवर्धन साक्षात गिरिराज कहलन  लगे।


 एक समय मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्य जी तीर्थ यात्रा के लिए भूतल पर भ्रमण करने लगे उन मुनिश्रेष्ठ ने द्रोणाचल के पुत्र श्याम वर्ण वाले श्रेष्ठ पर्वत गोवर्धन को देखा जिसके ऊपर माधवी लता के सुमन सुशोभित हो रहे थे वहां वृक्ष फलों के भार से लगे हुए थे झरनों के झर झर शब्द वहां गूंज रहे थे उन पर्वत पर उनकी बड़ी शांति विराज रही थी|

पुलस्त्य जी उसे पर्वत से बोले कि तुम पर्वतों के स्वामी हो समस्त देवता तुम्हारा सादर सत्कार करते हैं तुम दिव्य औषधियां से संपन्न तथा मनुष्यों को सदा जीवन देने वाले हो।

 मुनिवर पुलस्त्य जी के मन मे उस पर्वत को प्राप्त करने की इच्छा हुई इसके लिए वह द्रोणाचल के समीप गए ओर द्रोणगिरि ने उनका पूजन सत्कार किया।

 इसके बाद पुलस्त्य जी उस पर्वत से बोले मैं काशी निवासी हूं तुम्हारे निकट याचक बनकर आया हूं

 तुम अपने पुत्र गोवर्धन को मुझे दे दो यहां अन्य वस्तुओं से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है?

 भगवान विश्वेश्वर की महानगरी काशी नाम से प्रसिद्ध है ,जहां मरण को प्राप्त हुआ पापी पुरुष भी तत्काल परम मोक्ष प्राप्त कर लेता है ,जहां गंगा नदी प्राप्त होती है ,जहां साक्षात विश्वनाथ विराजमान है ,मैं वहीं तुम्हारे पुत्र को स्थापित करूंगा जहां कोई दूसरा पर्वत नहीं है ।मैं वहां तुम्हारे ऊपर बैठकर तपस्या करूंगा ऐसी मेरी अभिलाषा है।

 द्रोणाचल बोले -मैं पुत्र स्नेह से आकूल हूं यह पुत्र मेरा अत्यंत प्रिय है तथापि आपके शाप के भय से इसे मैं आपके हाथों में देता हूं।


 पुलस्त्य जी - बेटा तुम मेरे हाथ पर बैठकर सुख पूर्वक चलो जब तक काशी नहीं आ जाती तब तक मैं तुम्हें हाथ पर ही लेके चलूंगा।

गोवर्धन ने कहा - मुनि मेरी एक प्रतिज्ञा है आप जहां कहीं भी भूमि पर मुझे एक बार रख देंगे वहां की भूमि से मैं पुनः उत्थान नहीं करूंगा।

पुलस्त्य जी बोले मैं इस शल्मली द्वीप से लेकर भारत के कौशल देश तक तुम्हें कहीं भी रास्ते में नहीं रखूंगा यह मेरी प्रतिज्ञा है।

 ऋषि पुलस्त्य जी हाथ में  गिरिराज पर्वत को हाथ में रखकर चलने लगे और लोगों को अपना तेज दिखाने लगे चलते चलते ब्रजमंडल पहुंचे और ब्रज मंडल पहुंचते ही मुनिवर को लघुशंका लगी और भूल बस उन्होंने गोवर्धन पर्वत को ब्रज मंडल में रख दिया और लघु शंका स्नान से निवृत्त होकर पर्वत उठाने लगे ओर नहीं उठने पर गोवर्धन पर्वत ने उनकी प्रतिज्ञा याद दिलाई, 

मुनिवर के अथक प्रयास करने के बाद भी पर्वत हिला नहीं ।

मुनिवर ने गिरिराज पर्वत को श्राप दे दिया कि तू बड़ा ढीठ है तूने मेरा मनोरथ पूर्ण नहीं होने दिया, इसलिए तू तिल तिल छोटा होता चला जाएगा ।



ॐ जय गौरी नंदा

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