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बुधवार, 26 मार्च 2025

वंश परम्परा संरक्षण

भारतीय संस्कृति में वंश परम्परा सृष्टि के क्रम से चली आ रही है।वंश वृद्धि से पितृ प्रसन्न होते है। पिता पितृ ऋण से मुक्त होता है। पुरुष व स्त्री एक दूसरे के पूरक है। जो सृष्टि की जीवन यात्रा को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका रखते है। भारतीय दृष्टि से स्त्री और पुरुष का दाम्पत्य - सम्बन्ध जीवन भर का माना जाता है , जिसे हम लोकयात्रा भी कहते हैं । लोकयात्रा के लिये मुख्य साधन देह है । इस लोक यात्रा के करणीय कर्मों में सन्तान प्राप्ति तथा वंश विस्तार भी है । इसी को ध्यान में रखते हुए पुरुष और स्त्री का विवाह विहित है । विवाह के बिना भी किसी स्त्री और पुरुष के पारस्परिक योग से सन्तान प्राप्ति होती है। लेकिन विवाह - संस्कार के बिना इस सन्तान द्वारा वंश का विस्तार नहीं माना जाता है । सन्तान ऐसी हो जिससे लोकहित हो सके। लोकहित के लिये सन्तान आवश्यक गुण और क्षमता प्राप्त कर सके यह उद्देश्य माता पिता का होना चाहिये । सन्तान की आकृति , रूप , रंग ही नहीं  स्वभाव , रुचि आदि भी माता,पिता के स्वभाव के अनुसार बनते हैं । आधुनिक मनोविज्ञान ने भी इस बात को स्वीकार किया है । किसी व्यक्ति के निर्माण में वंश परम्परा के प्राप्त गुणों का महत्त्व अधिक है । व्यक्ति के परिवेश एवं परिस्थिति का महत्त्व भी दूसरे व्यक्तिके परिवेश एवं परिस्थिति के विकास में होता है फिर भी परिवेश एवं परिस्थिति के साथ व्यक्ति जिस प्रकार का तालमेल बैठा लेता है , इसके आधार वंश परम्परा से प्राप्त गुण ही हैं । विज्ञान के अनुसार सन्तान की उत्पत्ति की प्रक्रिया का अध्ययन करने पर पता चलता है कि पुरुष - स्त्री शुक्र धातु ८४ गुणसूत्र अंश होते हैं । इनमें से कोई २८ अंश व्यक्ति स्वयं खाने - पीने के द्वारा प्राप्त कर लेता है , ५६ अंश अपने पूर्वजों से प्राप्त करता है   इन ५६ अंशों में २१ पिता के होते हैं ,१५ अंश दादा के होते हैं।१० अंश परदादा के होते हैं , ६ अंश चौथी पीढ़ी के होते हैं और ४ अंश इसी वंश की पाँचवीं पीढ़ी के होते हैं ।


प्रत्येक व्यक्ति में अपने पूर्व की छ : पीढ़ियों के पुरुष के अंश एकत्रित रहते हैं। संक्षेप में एक स्त्री और एक पुरुष अपने पूर्वज की दस पीढ़ियों के अंशों को स्वयं प्राप्त किये रहते हैं।इसी लिये सन्तान का स्वभाव आदि वंश परम्परा पर निर्भर करता है । यही कारण है कि वंशवृद्धि के लिये भिन्न - भिन्न वंश परम्पराओं के स्त्री - पुरुषों में परस्पर सम्बन्ध करने की प्रथा है । एक ही माता - पिता या दादा - परदादा वाले स्त्री पुरुषों में विवाह - सम्बन्ध वर्जित माना जाता है । ऐसे वर्जित सम्बन्धों को ध्यान में न रखने पर ही वंश नष्ट हो जाता है ।अपनी वंश परम्परा को सही दिशा में अग्रसर रखने के बाद ही कोई अपने पितरों को तृप्त कर सकता है। 

ॐ जय गौरी नंदा

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