मंगलवार, 8 जुलाई 2025

डॉक्टर से कैसे बचें

चैते गुड़ बैसाखे तेल, जेठे पन्थ असाढ़े बेल।

सावन साग न भादों दही, क्वार करेला न कातिक मही।।

अगहन जीरा पूसे धना, माघे मिश्री फागुन चना।

ई बारह जो देय बचाय, वहि घर बैद कबौं न जाय।।

शब्दार्थ- पन्थ-यात्रा, मही- माठा, धना-धनिया।

भावार्थ- यदि व्यक्ति चैत में गुड़, बैसाख में तेल, जेठ में यात्रा, आषाढ़ में बेल, सावन में साग, भादों में दही, क्वाँर में करेला, कार्तिक में मट्ठा अगहन में जीरा, पूस में धनिया, माघ में मिश्री और फागुन में चना, ये वस्तुएँ स्वास्थ्य के लिए कष्टकारक होती हैं। जिस घर में इनसे बचा जाता है, उस घर में वैद्य कभी नहीं आता क्योंकि लोग स्वस्थ बने रहते हैं।

सोमवार, 7 जुलाई 2025

हरिशयनी एकादशी

हरिशयनी या देवसोनी एकादशी ( आषाढ़ शुक्ला एकादशी ) आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को हरिशयनी अथवा देवसोनी एकादशी कहते हैं । इस दिन से भगवान् विष्णु चार मास के लिए क्षीर - सागर में शयन करते है । पुराणों में यह भी कहा गया है कि इस दिन से विष्णु भगवान चार मास तक बलि के द्वार पर पाताल में रहते हैं और कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी को लौटते हैं। इसी कारण इस एकादशी को हरि शयनी एकादशी और कार्तिक शुक्ला एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं । इन चार महीनों में भगवान विष्णु के क्षीर सागर में शयन करने के कारण विवाह आदि कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता । आषाढ़ से कार्तिक तक का यह समय “ चातुर्मास्य " कहलाता है । इन दिनों में साधु एक ही स्थान पर रहकर तपस्या करते हैं । ब्रह्मवैवर्त पुराण में इस एकादशी का विशेष माहात्म्य लिखा है । इस व्रत के करने से सभी पाप - नष्ट होते हैं और भगवान हृषीकेश प्रसन्न होते हैं । लगभग सभी एकादशियों को भगवान विष्णु की पूजा - आराधना की जाती है , परन्तु आज की रात्रि से तो भगवान का शयन प्रारम्भ होगा अतः उनकी विशेष विधि - विधान से पूजा की जाती है । भगवान विष्णु की प्रतिमा को आसन पर आसीन कर उनके हाथों में शंख , चक्र , गदा , पद्म सुशोभित कर उन्हें पीताम्बर , पीत वस्त्रों या पीले दुपट्टे से सजाया जाता है । पंचामृत से स्नान करवा कर तत्पश्चात् भगवान् की धूप , दीप , पुष्प इत्यादि से पूजाकर घृत दीपक से आरती उतारी जाती है । भगवान् को तांबूल ( पान ) और मुंगीफल ( सुपारी ) अर्पित करने के बाद निम्नलिखित मंत्र द्वारा भगवान् की स्तुति की जाती है । " सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जमत्सुप्तं भवेदिदम् । विबुद्धे त्वयि बुद्धं च जगत्सर्व चराचरम् ।। "


भावार्थ - हे जगन्नाथ जी आपके निद्रित हो जाने पर सम्पूर्ण विश्व निद्रित हो जाता है और आपके जाग जाने पर सम्पूर्ण विश्व तथा चराचर भी जाग्रत हो जाते हैं । इस प्रकार प्रार्थना करके भगवान् विष्णु का पूजन करना चाहिये । तत्पश्चात् सात्विक वेद पाठी ब्राह्मणों को प्रेम पूर्वक भोजन कराकर स्वयं फलाहार करना चाहिये । रात्रि में भगवान् के मन्दिर में ही शयन करना चाहिये तथा शयन करते समय भगवान् का भजन एवं स्तुति करनी चाहिये । स्वयं निद्रित होने के पूर्व भगवान् को भी शयन करा देना चाहिये । अनेक परिवारों में आज रात्रि को महिलाए पारिवारिक परम्परा के अनुसार देवों को सुलाती हैं । जो श्रद्धालु जन इस एकादशी को पूर्ण विधिविधान पूर्वक भगवान का पूजन करते और व्रत रखते हैं वे मोक्ष को प्राप्त कर भगवत् लीन हो जाते हैं । कथा - एक बार नारदजी ने ब्रह्माजी से हरिशयनी एकादशी के माहात्म्य के बारे में पूछा । ब्रह्माजी ने कहा कि सत्ययुग मान्धाता नगर में एक चक्रवर्ती राजा राज्य करता था । उसके राज्य में सब प्रजा आनन्द से रहती थी । एक बार लगातार तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण उसके राज्य में भयानक अकाल पड़ा । प्रजा व्याकुल हो गई । सब ओर त्राहि - त्राहि मचने लगी । यज्ञ , हवन , पिण्डदान आदि समस्त शुभ कर्म बन्द हो गए । प्रजा ने राजा से दरबार में जाकर दुहाई मचाई । राजा ने कहा आप लोगों का कष्ट भारी है । मैं प्रजा की भलाई के हेतु पूरा प्रयत्न करूंगा । इस प्रकार प्रजा को समझा - बुझा कर राजा मान्धाता सेना अपने साथ लेकर वन की ओर चल दिये । 

अब वे ऋषि - मुनियों के आश्रम में विचरने लगे । एक दिन वे ब्रह्माजी के तेजस्वी पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम पर पहुंचे । राजा ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया । मुनि ने उन्हें आशीर्वाद देकर कुशल - मंगल पूछी और उनका वन में आने का अभिप्राय जानना चाहा । राजा ने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि हे भगवान सब प्रकार से धर्म का पालन करते हुए भी मेरे राज्य में अकाल पड़ा । मैं इसका कारण नहीं जानता । हे महामुने मेरा संशय दूर कीजिए । ऋषि ने कहा - राजन् ! यह सत्ययुग सब युगों से उत्तम है । इसमें थोड़े से पाप का भी बड़ा भारी फल मिलता है । इसमें लोग ब्रह्म की उपासना करते हैं । इसमें धर्म अपने चारों चरणों में स्थित रहता है । इसमें ब्राह्मणों के अतिरिक्त और कोई तप नहीं करता । तुम्हारे राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है , इसलिए वर्षा नहीं होती । यदि वह न मारा गया तो दुर्भिक्ष शान्त नहीं होगा । उसको मारने से ही पाप की शान्ति होगी । राजा ने उस निरपराध तपस्वी को मारना उचित न विचार कर ऋषि से अन्य उपाय पूछा । तब ऋषि ने बताया कि आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की हरशयनी अर्थात् पद्मा एकादशी का व्रत करो । उसके प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी । यह सुनकर राजा राजधानी में लौट आया और उसने चारों वर्णों सहित पद्या एकादशी का व्रत किया । व्रत के प्रभाव से वर्षा हुई और पृथ्वी अन्न से परिपूर्ण हो गई , जिससे सबका कष्ट दूर हो गया ।




डॉक्टर से कैसे बचें

चैते गुड़ बैसाखे तेल, जेठे पन्थ असाढ़े बेल। सावन साग न भादों दही, क्वार करेला न कातिक मही।। अगहन जीरा पूसे धना, माघे मिश्री फागुन चना। ई बार...