रविवार, 20 जून 2021

हरेला त्यौहार (हरियाली )

उत्तराखंड का लोक त्यौहार हरेला (हरियाली)

(कर्क संक्रान्ति १गते श्रावण मास)

उत्तराखंड में समय समय पर ऋतु व संक्रान्ति के आगमन पर अनेक त्यौहार मनाये जाते है । जिनकी प्रसिद्धि पूरे उत्तराखंड व देश विदेशों में दिखायी देता है । हरेला त्यौहार मूलरूप से उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में विशेष हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है ।

हरेला त्यौहार हरियाली ,प्रकृति संरक्षण का प्रतीक है ,जो हमे पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है।सावन के आगमन पर लोग वृक्षारोपण करते है। यह हरेला त्यौहार प्रकृति की रक्षा व सुख शांति के लिये मनाया जाता है। जिसमें सभी जन मानुष प्रकृति की रक्षा का संकल्प लेते है ।

हरेला का त्यौहार भगवान शिव व शिव परिवार को समर्पित है ।सावन के आगमन पर लोग अपने घरों में मिट्टी से शिव परिवार की मूर्ति बनाकर अभिषेक पूजन करते है । मान्यताओं के अनुसार हरेले के दिन भगवान शिव व पार्वती जी का विवाह हुआ था ।इस लिये भगवान शिव जी को सावन का महीना प्रिय है ।

हरेला त्यौहार -

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हरेला त्यौहार श्रावण मास के १गते कर्क संक्रान्ति को मनाया जाता है । हरेला त्यौहार के नौ दिन ,दश दिन ,ग्यारह दिन पूर्व बांस या रिंगाल से बनी टोकरी में मिट्टी डालकर उसमे पांच या सात प्रकार के धान्य  जौ ,धान ,गहत ,भट्ट ,मक्का , सरसों , झुंगर बोते है । रोज सुबह बोये हरेले में पानी दिया जाता है ।नौ दिन तक हरेले पर सूर्य का प्रकाश नही पड़ना चाहिए । हरेला घर के मंदिर या सामूहिक रूप से गाँव या परिवार के कुलदेवता के मंदिर में बोते है ।

हरेला त्यौहार के दिन प्रातः स्नानादि से निवृत हो हरेला व देवताओं की पूजा करके हरेला काट कर प्रथम देवताओं को अर्पित किया जाता है ।फिर घर के बड़े बुजुर्ग या माताओं के हाथों से सबके सिर व कान में लगाया जाता है ।

हरेला लगाते समय माँ अपने बच्चों को शुभ आशीष देते हुवे कहती है ।

आशीष वचन -

लाग हर्या लाग पंचमी

लाग दशै लाग बोगाव

जी रये जागि रये

यो दिन यो मास भेंटने रया

दुब जस पनपी जाया

अगास जस उच्च 

धरती जस चकाव हे जाया

शेर जस तराण हो 

स्याव जस बुद्धि हो 

हिमालय में हिंयु रण तलक

गंग जमुन में पाणि रण तलक

जी रये जागि रये 

जो परिवार के सदस्य नॉकरी या अन्य कार्यो के लिए दूसरे शहरों में रहते है उन्हें  लिफाफे में हरेला डालकर डाक द्वारा भेजा जाता है । 


बुधवार, 16 जून 2021

दूर्वा( घास) की उत्पत्ति

 दूर्वा (घांस) की उत्पत्ति कैसे हुई-

"त्वं दूर्वे अमृतनामासि सर्वदेवैस्तु वन्दिता।

वन्दिता दह तत्सर्वं दुरितं यन्मया कृतम॥"

पौराणिक कथा के अनुसार- समुद्र मंथन के दौरान एक समय जब देवता और दानव थकने लगे तो भगवान विष्णु ने मंदराचल पर्वत को अपनी जंघा पर रखकर समुद्र मंथन करने लगे। मंदराचल पर्वत के घर्षण से भगवान के जो रोम टूट कर समुद्र में गिरे थे, वही जब किनारे आकर लगे तो दूब के रूप में परिणित हो गये। अमृत निकलने के बाद अमृत कलश को सर्वप्रथम इसी दूब पर रखा गया था, जिसके फलस्वरूप यह दूब भी अमृत तुल्य होकर अमर हो गयी। दूब घास विष्णु का ही रोम है, अतः सभी देवताओं में यह पूजित हुई और अग्र पूजा के अधिकारी भगवान गणेश को अति प्रिय हुई। तभी से पूजा में दूर्वा का प्रयोग अनिवार्य हो गया।

सोमवार, 14 जून 2021

निर्जला एकादशी व्रत का महत्व

अपरा अर्थात निर्जला एकादशी

 ( जेष्ठ शुक्ला एकादशी )

सनातन धर्म में एकादशी व्रत का विशेष महत्व है । पूरे वर्ष में चौबीस एकादशियां आती है । किन्तु इन सब में निर्जला एकादशी सबसे बढ़कर फल देने वाली है । इस निर्जला एकादशी का व्रत रखने से वर्ष भर की सभी एकादशी का फल प्राप्त होता है । यह व्रत अत्यधिक कठिन व संयम - साध्य है । जेष्ठ मास में दिन बड़े होते है ,व प्यास अधिक लगती है । ऐसे में इतना कठिन व्रत रखना साधना का काम है ।

इस एकादशी व्रत के दिन अपनी शक्ति और सामर्थ्यानुसार दान देने का विधान है ।जैसे अनाज छतरी वस्त्र फल जल से पूर्ण कलश सहित दक्षिणा देना चाहिए ।

इस एकादशी का वर्णन स्वयं व्यास जी ने किया है ।

कथा-

एक बार भीमसेन ने व्यास जी से कहा कि हे पितामह युधिष्ठिर अर्जुन नकुल सहदेव माता कुंती और द्रोपदी सभी एकादशी को भोजन का निषेध करते है ।औऱ मुझे भी एकादशी के दिन भोजन न करने के लिए कहते है । मै विधिपूर्वक दान दे दूंगा औऱ भगवान वासुदेव की पूजा करके उन्हें प्रसन्न कर लूंगा किन्तु मै भूखा नही रह सकता ।पितामह आप मुझे कोई ऐसा उपाय बताए कि बिना व्रत के मुझे एकादशी व्रत का फल प्रप्त हो।

व्यासजी बोले -

हे वृकोदर !तुम्हें अगर स्वर्ग पसन्द है औऱ तुम नरक नही जाना चाहते तो पक्ष की दोनों एकादशी में तुम्हें भोजन नही करना चाहिए ।

 भीमसेन ने कहा -

हे पितामह मेरे एक समय के भोजन से निर्वाह नही होता ,मेरे उदर में वृक नाम की अग्नि सदैव जलती रहती है ।बहुत मात्रा में भोजन करने से मेरी भूख शांत होती है ।

हे मुनिराज मुझे कोई एक ऐसा व्रत बताए जिसके करने से मेरा कल्याण हो । उसे में अवश्य ही विधिपूर्वक करूँगा ।

व्यास जी ने कहा- जेष्ठ शुक्ल एकादशी को निर्जला व्रत किया करो , स्नान व आचमन करने का कोई दोष नही है । अन्न बिलकुल नही खायें , अन्न ग्रहण करने से व्रत खण्डित हो जाता है ।हे भीमसेन तुम सदा यही व्रत किया करो । जिससे सभी एकादशी में अन्न खाने का दोष भी समाप्त हो जाएगा और वर्ष की सभी एकादशी का पुण्य भी प्राप्त होगा ।

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बुधवार, 9 जून 2021

वट सावित्री व्रत कथा

वट सावित्री व्रत या बड़ - मावस ( ज्येष्ठ अमावस्या ) 

यह सौभाग्यवती स्त्रियों का प्रमुख पर्व है । इस दिन वट वृक्ष की पूजा की जाती है ।मान्यता है कि सावित्री ने वट वृक्ष के नीचे बैठ कर सत्यवान को दोबारा जीवित किया था। स्त्रियां बड़े सवेरे स्नान करती हैं और केशों को धोती हैं । जल , मोली , रोली , चावल , गुड़ , भीगे चने , फूल , धूप - दीप से वट वृक्ष की पूजा की जाती है और उसके चारों ओर कच्चे सूत का धागा लपेटा जाता है । भीगे हुए चनों का भोग लगाया जाता है । कहीं - कहीं पर यह त्यौहार ज्येष्ठ कृष्णपक्ष त्रयोदशी से अमावस्या तक किया जाता है । यह व्रत स्त्रियों द्वारा अखण्ड सौभाग्यवती की कामना से किया जाता है । सुहागिन नारियां पूर्ण श्रृंगार करके और सुन्दर वस्त्राभूषण धारणकर सामूहिक रूप में पूजा करती हैं । वट वृक्ष के तने पर जल चढ़ाकर रोली चन्दन लगाया जाता हैं ,और पूजन के लिए लाई गई सभी सामग्री चढ़ा दी जाती है । घी का दीपक जलाकर कच्चे सूत के धागे को हल्दी से रंगकर वृक्ष के तने पर लपेटते हुए वृक्ष की सात परिक्रमाएं की जाती हैं । यदि आपके आस - पास बड़ का कोई पेड़ न हो तब भी निराश न हों , कहीं से एक टहनी मंगा लें अथवा दीवार पर वट वृक्ष को अंकित करके पूजा कर लें । पूजा - आराधना में मुख्य महत्व भावना , श्रद्धा , विश्वास और आस्था का है अतः आप दीवार पर बड़ के पेड़ का अंकन करें अथवा वास्तविक वट वृक्ष का पूजन , इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । इस अवसर पर सत्यवान - सावित्री की यह कहानी कही और सुनी जाती है । -

कथा- 

बहुत समय पूर्व मद्रदेश में अश्वपति नामक एक परम ज्ञानी राजा थे । उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए पण्डितों की सम्मति से भगवती सावित्री की आराधना की । इस पूजा से उनके यहां एक पुत्री का जन्म हुआ । उन्होंने इसका नाम सावित्री रखा । सावित्री सर्वगुण सम्पन्न थी । जब वह विवाह योग्य हुई तब राजा ने उसे स्वयं अपना वर चुनने को कहा । एक दिन महर्षि नारद राजा अश्वपति के घर आये हुए थे । तभी सावित्री भी अपने लिए वर चुनकर लौटी । उसने आदरपूर्वक नारदजी को प्रणाम किया । नारदजी के पूछने पर सावित्री ने बताया कि महाराज , राज्यच्युत राजा धुमत्सेन के आज्ञाकारी पुत्र सत्यवान को मैंने अपना पति बनाने का निश्चय किया है । तीनों लोकों में भ्रमण करने वाले नारदजी ने उसके भूत , वर्तमान और भविष्य को देखकर राजा से कहा - राजन् तुम्हारी कन्या ने वर खोजने में निस्सन्देह भारी परिश्रम किया है । सत्यवान गुणवान और धर्मात्मा है । वह सावित्री के लिए सब प्रकार से योग्य है परन्तु उसमें एक भारी दोष है । वह अल्पायु है और एक वर्ष के पश्चात् वह मृत्यु को प्राप्त होगा । नारदजी के वचन सुनकर राजा ने पुत्री को कोई अन्य वर खोजने की सलाह दी । परंतु सावित्री ने दृढ़तापूर्वक कहा कि जिसे मैंने एक बार मन से पति स्वीकार कर लिया है , वह अब चाहे जैस भी है , वही मेरा पति होगा । सावित्री के ऐसे दृढ़ वचन सुनकर राजा अश्वपति ने उसका विवाह सत्यवान के साथ कर दिया । सावित्री अपने पति और अंध सास - ससुर की सेवा करती हुई सुखपूर्वक वन में रहने लगी । नारदजी के कथनानुसार जब उसके पति के जीवन के तीन दिन बचे , तभी से वह उपवास करने लगी । तीसरे दिन उसने पितरों का पूजन किया । तत्पश्चात् वह सत्यवान के साथ वन में जाने की 

उद्यत हुई । इसके लिए उसने सास - ससुर से आज्ञा प्राप्त कर ली । सत्यवान लकड़ी काटने के लिए एक वृक्ष पर चढ़ा , परन्तु शीघ्र ही सिर में पीड़ा होने के कारण नीचे उतर आया और सावित्री की गोद में सिर रखकर लेट गया । तभी सावित्री ने यमराज और उसके दूतों को सत्यवान का जीव निकालकर ले जाते हुए देखा । यह देख वह भी उनके पीछे - पीछे चल पड़ी । यमराज ने उसे.समझाकर वापस लौट जाने के लिए कहा । सावित्री ने कहा - धर्मराज , पति के पीछे जाना ही स्त्री का धर्म है । पतिव्रत के प्रभाव और आपकी कृपा से कोई मेरी गति नहीं रोक सकता । सावित्री के धर्मयुक्त वचनों से प्रसन्न होकर यमराज ने उसे वर मांगने को कहा । सावित्री ने अपने सास - ससुर को दिखाई देने का वरदान मांगा । वर प्राप्त करके भी सावित्री ने अपने पति का साथ नहीं छोड़ा । यमराज ने दूसरी बार वर मांगने को कहा । सावित्री ने अपने ससुर के खोए हुए राज्य की प्राप्ति और अपने पिता के लिए सौ पुत्रों का वरदान मांगा । वर देने के बाद यमराज ने पुनः सावित्री को वापस लौट जाने का आग्रह किया , किन्तु सावित्री अपने प्रण पर अडिग रही । तब यमराज ने उससे अंतिम वर मांगने के लिए कहा । सावित्री ने सत्यवान से सौ पुत्र प्राप्त होने का वरदान मांगा । सावित्री की पतिभक्ति और युक्तिपूर्ण वचनों के बंधन में बंधे यमराज ने सत्यवान के जीव को पाश से मुक्त कर दिया । सावित्री को वर देकर यमराज अंतर्ध्यान हो गये और वह लौटकर वट वृक्ष के नीचे आई । सत्यवान के मृत शरीर में पुनः जीवन का संचार हो गया था । इस प्रकार सावित्री ने अपने पतिव्रत धर्म का पालन करके अपने ससुर कुल एवं पितृकुल दोनों का कल्याण कर दिया । 

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ॐ जय गौरी नंदा

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