सोमवार, 3 जनवरी 2022

महामृत्युंजय मंत्र की रचना कैसे हुई

महामृत्युंजय मंत्र की रचना कैसे हुई


किसने की महामृत्युंजय मंत्र की रचना और जाने इसकी शक्ति


शिवजी के अनन्य भक्त मृकण्ड ऋषि संतानहीन होने के कारण दुखी थे. विधाता ने उन्हें संतान योग नहीं दिया था.


*मृकण्ड ने सोचा कि महादेव संसार के सारे विधान बदल सकते हैं. इसलिए क्यों न भोलेनाथ को प्रसन्नकर यह विधान बदलवाया जाए.


*मृकण्ड ने घोर तप किया. भोलेनाथ मृकण्ड के तप का कारण जानते थे इसलिए उन्होंने शीघ्र दर्शन न दिया लेकिन भक्त की भक्ति के आगे भोले झुक ही जाते हैं.


*महादेव प्रसन्न हुए. उन्होंने ऋषि को कहा कि मैं विधान को बदलकर तुम्हें पुत्र का वरदान दे रहा हूं लेकिन इस वरदान के साथ हर्ष के साथ विषाद भी होगा.


*भोलेनाथ के वरदान से मृकण्ड को पुत्र हुआ जिसका नाम मार्कण्डेय पड़ा. ज्योतिषियों ने मृकण्ड को बताया कि यह विलक्ष्ण बालक अल्पायु है. इसकी उम्र केवल 12 वर्ष है.


*ऋषि का हर्ष विषाद में बदल गया. मृकण्ड ने अपनी पत्नी को आश्वत किया- जिस ईश्वर की कृपा से संतान हुई है वही भोले इसकी रक्षा करेंगे. भाग्य को बदल देना उनके लिए सरल कार्य है.

*मार्कण्डेय बड़े होने लगे तो पिता ने उन्हें शिवमंत्र की दीक्षा दी. मार्कण्डेय की माता बालक के उम्र बढ़ने से चिंतित रहती थी. उन्होंने मार्कण्डेय को अल्पायु होने की बात बता दी.

*मार्कण्डेय ने निश्चय किया कि माता-पिता के सुख के लिए उसी सदाशिव भगवान से दीर्घायु होने का वरदान लेंगे जिन्होंने जीवन दिया है. बारह वर्ष पूरे होने को आए थे.

*मार्कण्डेय ने शिवजी की आराधना के लिए महामृत्युंजय मंत्र की रचना की और शिव मंदिर में बैठकर इसका अखंड जाप करने लगे.

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।

उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥

समय पूरा होने पर यमदूत उन्हें लेने आए. यमदूतों ने देखा कि बालक महाकाल की आराधना कर रहा है तो उन्होंने थोड़ी देर प्रतीक्षा की. मार्केण्डेय ने अखंड जप का संकल्प लिया था.

यमदूतों का मार्केण्डेय को छूने का साहस न हुआ और लौट गए. उन्होंने यमराज को बताया कि वे बालक तक पहुंचने का साहस नहीं कर पाए.

*इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड के पुत्र को मैं स्वयं लेकर आऊंगा. यमराज मार्कण्डेय के पास पहुंच गए.

बालक मार्कण्डेय ने यमराज को देखा तो जोर-जोर से महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते हुए शिवलिंग से लिपट गया.

*यमराज ने बालक को शिवलिंग से खींचकर ले जाने की चेष्टा की तभी जोरदार हुंकार से मंदिर कांपने लगा. एक प्रचण्ड प्रकाश से यमराज की आंखें चुंधिया गईं.

शिवलिंग से स्वयं महाकाल प्रकट हो गए. उन्होंने हाथों में त्रिशूल लेकर यमराज को सावधान किया और पूछा तुमने मेरी साधना में लीन भक्त को खींचने का साहस कैसे किया?

*यमराज महाकाल के प्रचंड रूप से कांपने लगे. उन्होंने कहा- प्रभु मैं आप का सेवक हूं. आपने ही जीवों से प्राण हरने का निष्ठुर कार्य मुझे सौंपा है.

*भगवान चंद्रशेखर का क्रोध कुछ शांत हुआ तो बोले- मैं अपने भक्त की स्तुति से प्रसन्न हूं और मैंने इसे दीर्घायु होने का वरदान दिया है. तुम इसे नहीं ले जा सकते.

*यम ने कहा- प्रभु आपकी आज्ञा सर्वोपरि है. मैं आपके भक्त मार्कण्डेय द्वारा रचित महामृत्युंजय का पाठ करने वाले को त्रास नहीं दूंगा.

*महाकाल की कृपा से मार्केण्डेय दीर्घायु हो गए. उनके द्वारा रचित महामृत्युंजय मंत्र काल को भी परास्त करता है.


रविवार, 2 जनवरी 2022

व्रत या उपवास के प्रकार

व्रत या उपवास कितने प्रकार के होते हैं ।

व्रत रखने के नियम दुनिया को हिंदू धर्म की देन है। व्रत रखना एक पवित्र कर्म है और यदि इसे नियम पूर्वक नहीं किया जाता है तो न तो इसका कोई महत्व है और न ही लाभ बल्कि इससे नुकसान भी हो सकते हैं। आप व्रत बिल्कुल भी नहीं रखते हैं तो भी आपको इस कर्म का भुगतान करना ही होगा। राजा भोज के राजमार्तण्ड में २४ व्रतों का उल्लेख है।


हेमादि में ७०० व्रतों के नाम बताए गए हैं। गोपीनाथ कविराज ने १६२२ व्रतों का उल्लेख अपने व्रतकोश में किया है। व्रतों के प्रकार तो मूलत: तीन है:- 

१. नित्य 

२. नैमित्तिक 

३. काम्य।

 

१.नित्य व्रत👉 उसे कहते हैं जिसमें ईश्वर भक्ति या आचरणों पर बल दिया जाता है, जैसे सत्य बोलना, पवित्र रहना, इंद्रियों का निग्रह करना, क्रोध न करना, अश्लील भाषण न करना और परनिंदा न करना, प्रतिदिन ईश्वर भक्ति का संकल्प लेना आदि नित्य व्रत हैं। इनका पालन नहीं करते से मानव दोषी माना जाता है।

 

२.नैमिक्तिक व्रत👉 उसे कहते हैं जिसमें किसी प्रकार के पाप हो जाने या दुखों से छुटकारा पाने का विधान होता है। अन्य किसी प्रकार के निमित्त के उपस्थित होने पर चांद्रायण प्रभृति, तिथि विशेष में जो ऐसे व्रत किए जाते हैं वे नैमिक्तिक व्रत हैं।

 

३.काम्य व्रत👉 किसी कामना की पूर्ति के लिए किए जाते हैं, जैसे पुत्र प्राप्ति के लिए, धन- समृद्धि के लिए या अन्य सुखों की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले व्रत काम्य व्रत हैं।

 

व्रतों का वार्षिक चक्र 


१.साप्ताहिक व्रत👉  सप्ताह में एक दिन व्रत रखना चाहिए। यह सबसे उत्तम है।

 

२.पाक्षिक व्रत👉  १५-१५ दिन के दो पक्ष होते हैं कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष। प्रत्येक पक्ष में चतुर्थी, एकादशी, त्रयोदशी, अमावस्या और पूर्णिमा के व्रत महतवपूर्ण होते हैं। उक्त में से किसी भी एक व्रत को करना चाहिए।

 

३.त्रैमासिक👉  वैसे त्रैमासिक व्रतों में प्रमुख है नवरात्रि के व्रत। हिंदू माह अनुसार पौष, चैत्र, आषाढ और अश्विन मान में नवरात्रि आती है। उक्त प्रत्येक माह की प्रतिपदा यानी एकम् से नवमी तक का समय नवरात्रि का होता है। इन नौ दिनों तक व्रत और उपवास रखने से सभी तरह के क्लेश समाप्त हो जाते हैं।

 

४.छह मासिक व्रत👉  चैत्र माह की नवरात्रि को बड़ी नवरात्रि और अश्विन माह की नवरात्रि को छोटी नवरात्रि कहते हैं। उक्त दोंनों के बीच छह माह का अंतर होता है। इसके अलावा

 

५.वार्षिक व्रत👉  वार्षिक व्रतों में पूरे श्रावण मास में व्रत रखने का विधान है। इसके अलवा जो लोग चतुर्मास करते हैं उन्हें जिंदगी में किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं होता है। इससे यह सिद्ध हुआ की व्रतों में 'श्रावण माह' महत्वपूर्ण होता है। सोमवार नहीं पूरे श्रावण माह में व्रत रखने से हर तरह के शारीरिक और मानसिक कलेश मिट जाते हैं।


उपवास के प्रकार👉

1.प्रात: उपवास 

2.अद्धोपवास 

3.एकाहारोपवास 

4.रसोपवास 

5.फलोपवास 

6.दुग्धोपवास 

7.तक्रोपवास

8.पूर्णोपवास

9.साप्ताहिक उपवास 

10.लघु उपवास

11.कठोर उपवास 

12.टूटे उपवास

13.दीर्घ उपवास। बताए गए हैं, लेकिन हम यहां वर्ष में जो व्रत होते हैं उसके बारे में बता रहे हैं।

 

1.प्रात: उपवास👉 इस उपवास में सिर्फ सुबह का नाश्ता नहीं करना होता है और पूरे दिन और रात में सिर्फ 2 बार ही भोजन करना होता है।

 

2.अद्धोपवास👉  इस उपवास को शाम का उपवास भी कहा जाता है और इस उपवास में सिर्फ पूरे दिन में एक ही बार भोजन करना होता है। इस उपवास के दौरान रात का भोजन नहीं खाया जाता।

 

3.एकाहारोपवास👉  एकाहारोपवास में एक समय के भोजन में सिर्फ एक ही चीज खाई जाती है, जैसे सुबह के समय अगर रोटी खाई जाए तो शाम को सिर्फ सब्जी खाई जाती है। दूसरे दिन सुबह को एक तरह का कोई फल और शाम को सिर्फ दूध आदि।

 

4.रसोपवास👉  इस उपवास में अन्न तथा फल जैसे ज्यादा भारी पदार्थ नहीं खाए जाते, सिर्फ रसदार फलों के रस अथवा साग-सब्जियों के जूस पर ही रहा जाता है। दूध पीना भी मना होता है, क्योंकि दूध की गणना भी ठोस पदार्थों में की जा सकती है।

 

5.फलोपवास👉 कुछ दिनों तक सिर्फ रसदार फलों या भाजी आदि पर रहना फलोपवास कहलाता है। अगर फल बिलकुल ही अनुकूल न पड़ते हो तो सिर्फ पकी हुई साग-सब्जियां खानी चाहिए।

 

6.दुग्धोपवास👉  दुग्धोपवास को 'दुग्ध कल्प' के नाम से भी जाना जाता है। इस उपवास में सिर्फ कुछ दिनों तक दिन में 4-5 बार सिर्फ दूध ही पीना होता है।

 

7.तक्रोपवास👉  तक्रोपवास को 'मठाकल्प' भी कहा जाता है। इस उपवास में जो मठा लिया जाए, उसमें घी कम होना चाहिए और वो खट्टा भी कम ही होना चाहिए। इस उपवास को कम से कम 2 महीने तक आराम से किया जा सकता है।

 

8.पूर्णोपवास👉 बिलकुल साफ-सुथरे ताजे पानी के अलावा किसी और चीज को बिलकुल न खाना पूर्णोपवास कहलाता है। इस उपवास में उपवास से संबंधित बहुत सारे नियमों का पालन करना होता है।

 

9. साप्ताहिक उपवास👉 पूरे सप्ताह में सिर्फ एक पूर्णोपवास नियम से करना साप्ताहिक उपवास कहलाता है।

 

10. लघु उपवास👉 3 से लेकर 7 दिनों तक के पूर्णोपवास को लघु उपवास कहते हैं।

 

11. कठोर उपवास👉  जिन लोगों को बहुत भयानक रोग होते हैं यह उपवास उनके लिए बहुत लाभकारी होता है। इस उपवास में पूर्णोपवास के सारे नियमों को सख्ती से निभाना पड़ता है।

 

12. टूटे उपवास👉  इस उपवास में 2 से 7 दिनों तक पूर्णोपवास करने के बाद कुछ दिनों तक हल्के प्राकृतिक भोजन पर रहकर दोबारा उतने ही दिनों का उपवास करना होता है। उपवास रखने का और हल्का भोजन करने का यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक कि इस उपवास को करने का मकसद पूरा न हो जाए।

 

13. दीर्घ उपवास👉  दीर्घ उपवास में पूर्णोपवास बहुत दिनों तक करना होता है जिसके लिए कोई निश्चित समय पहले से ही निर्धारित नहीं होता। इसमें 21 से लेकर 50-60 दिन भी लग सकते हैं। अक्सर यह उपवास तभी तोड़ा जाता है, जब स्वाभाविक भूख लगने लगती है अथवा शरीर के सारे जहरीले पदार्थ पचने के बाद जब शरीर के जरूरी अवयवों के पचने की नौबत आ जाने की संभावना हो जाती है।

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त्रिपुण्ड कैसे लगाएं

 त्रिपुण्ड्र कैसे लगाएं

पौराणिक शास्त्रानुसार ब्रह्मदेव को पहले भगवान की संज्ञा प्राप्त थी। सम्पूर्ण संसार मात्र शिव के कारण ही है। इसी भांति शिव ने ब्रह्मदेव को उत्पन्न कर सृष्टि की संरचना का कार्य किया। जब ब्रह्मदेव ब्रह्मांड का निर्माण मानसिक सत्र पर न कर सके तब उन्होंने स्त्री रूप में देवी शत्रुपा अर्थात सरस्वती को उत्पन्न किया। जिस पर स्वयं ब्रह्मा ही मुग्ध हो गए। उत्पतिकारक को पिता माना जाता है। अतः ब्रह्मा के अपनी ही पुत्री शत्रुपा पर मुग्ध होने के पाप पर शिव ने अपनी अनामिका उंगली से ब्रह्मा का पांचवा सिर काट दिया।

अनामिका उंगली का एक नाम अनामा भी है अर्थात ब्रह्महत्या के उपरांत भी जो निंदित न हो वही अनामा है अर्थात जिसे कभी पाप न लगे वही अनामिका है। अनामिका से देवकार्य, मध्यमा से स्वयं कार्य व तर्जनी से पितृ कार्य किए जाते हैं।  शिवलिंग पर या स्वयं के ललाट पर जो त्रिपुंड बनाया जाता है उसमें तर्जनी में ब्रह्मा, मध्यमा में विष्णु व अनामिका में भगवान शंकर विद्यमान रहते हैं।

धार्मिक मान्यता के अनुसार अनामिका अंगुली पर स्वयं भगवान शंकर का वास माना जाता है। इसी कारण अनामिका अंगुली को सर्वथा धार्मिक रूप से पवित्र माना जाता है। शास्त्रों में अनामिका उंगली को अत्यधिक पावन माना गया है। पूजा अनुष्ठान आदि धार्मिक कार्यों में अनामिका उंगली में कुशा से बनी पवित्री धारण करने का विधान है। इसी कारण अनामिका को इसे दैवीय उंगली माना गया है। यही उंगली मान, अभिमान रहित और यश और कीर्ति की सूचक है। अनामिका उंगली का उपयोग सर्वथा दैवीय पूजा के समय किया जाता है क्योंकि यह उंगली आदित्य अर्थात सूर्य का प्रतीक भी है। इशौप्निषद आदि वेदांगो में भी त्रिकाल संध्या में सूर्य को ही पंच देवों में स्थान प्राप्त है। अनामिका उंगली से ही देवगणों को गंध और अक्षत अर्पित किया जाता है। 

तीसरी अंगुली अर्थात मध्यमा और कनिष्ठिका के बीच की अंगुली को अनामिका कहते हैं। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार अनामिका उंगली पर ग्रहों का राजा सूर्य का आधिपत्य है। सूर्य को अदित्य माना गया है अर्थात जो कभी भी दूसरे स्थान पर न हो अर्थात सर्वदा पहले स्थान पर ही रहे। वेदों में सूर्य को ब्रहमाण्ड का आदि कारण माना गया है। पाश्चात्य संस्कृति में भी अनामिका उंगली को रिंग फिंगर कहा गया है अर्थात जिस उंगली में अंगूठी पहनना सर्वथा मान्य माना गया है। इसी कारण इस उंगली से व्यक्ति की यश कीर्ति धन व संतान हस्तरेखा शास्त्र अनुसार उंगूठे व हाथ की चार उंगलियों के सिरे में बसे पर्वत पर ग्रहों का निवास माना जाता है। अंगूठे में शुक्र, तर्जनी में गुरु, मध्यमा में शनि, अनामिका में सूर्य और कनिष्ठा में बुध का वास माना जाता है। ज्योतिषीय दृष्टि से इस उंगली पर बने चक्र से व्यक्ति चक्रवर्ती बनता है। संस्कृत में त्रि का अर्थ तीन और पुण्ड्र को अंगुली कहा जाता है। तीन उंगली से ही त्रिपुण्ड धारण करें। 

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ॐ जय गौरी नंदा

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