शुक्रवार, 27 जून 2025
शुक्रवार, 20 जून 2025
ॐ जय गौरी नंदा
ओम जय गौरी नंदा: भजन (Om Jai Gauri Nanda)
ॐ जय गौरी नंदा,
प्रभु जय गौरी नंदा,
गणपति आनंद कंदा,
गणपति आनंद कंदा,
मैं चरणन वंदा,
ॐ जय गौरी नंदा ॥
सूंड सूंडालो नयन विशालो,
कुण्डल झलकंता,
प्रभु कुण्डल झलकंता,
कुमकुम केसर चन्दन,
कुमकुम केसर चन्दन,
सिंदूर बदन वंदा,
ॐ जय गौरी नंदा ॥
ॐ जय गौरी नंदा,
प्रभु जय गौरी नंदा,
गणपति आनंद कंदा,
गणपति आनंद कंदा,
मैं चरणन वंदा,
ॐ जय गौरी नंदा ॥
मुकुट सुगढ़ सोहंता,
मस्तक सोहंता,
प्रभु मस्तक सोहंता,
बईया बाजूबन्दा,
बईया बाजूबन्दा,
ओंची निरखंता,
ॐ जय गौरी नंदा ॥
ॐ जय गौरी नंदा,
प्रभु जय गौरी नंदा,
गणपति आनंद कंदा,
गणपति आनंद कंदा,
मैं चरणन वंदा,
ॐ जय गौरी नंदा ॥
मूषक वाहन राजत,
शिव सूत आनंदा,
प्रभु शिव सूत आनंदा,
कहत शिवानन्द स्वामी,
जपत शिवानन्द स्वामी,
मिटत भव फंदा,
ॐ जय गौरी नंदा ॥
ओम जय गौरी नंदा,
प्रभु जय गौरी नंदा,
गणपति आनंद कंदा,
गणपति आनंद कंदा,
मैं चरणन वंदा,
ॐ जय गौरी नंदा ॥
हरेला त्योहार (हरियाली )
उत्तराखंड का लोक त्योहार हरेला (हरियाली)
(कर्क संक्रान्ति १ गते श्रावण मास)
उत्तराखंड में समय समय पर ऋतु व संक्रान्ति के आगमन पर अनेक त्योहार मनाये जाते है । जिनकी प्रसिद्धि पूरे उत्तराखंड व देश विदेशों में दिखायी देता है । हरेला त्यौहार मूलरूप से उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में विशेष हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है ।
हरेला त्यौहार हरियाली ,प्रकृति संरक्षण का प्रतीक है ,जो हमे पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है।सावन के आगमन पर लोग वृक्षारोपण करते है। यह हरेला त्यौहार प्रकृति की रक्षा व सुख शांति के लिये मनाया जाता है। जिसमें सभी जन मानुष प्रकृति की रक्षा का संकल्प लेते है ।
हरेला का त्यौहार भगवान शिव व शिव परिवार को समर्पित है ।सावन के आगमन पर लोग अपने घरों में मिट्टी से शिव परिवार की मूर्ति बनाकर अभिषेक पूजन करते है । मान्यताओं के अनुसार हरेले के दिन भगवान शिव व पार्वती जी का विवाह हुआ था ।इस लिये भगवान शिव जी को सावन का महीना प्रिय है ।
हरेला त्यौहार -
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हरेला त्यौहार श्रावण मास के १गते कर्क संक्रान्ति को मनाया जाता है । हरेला त्यौहार के नौ दिन ,दश दिन ,ग्यारह दिन पूर्व बांस या रिंगाल से बनी टोकरी में मिट्टी डालकर उसमे पांच या सात प्रकार के धान्य जौ ,धान ,गहत ,भट्ट ,मक्का , सरसों ,कपास, झुंगर बोते है । रोज सुबह बोये हरेले में पानी दिया जाता है ।नौ दिन तक हरेले पर सूर्य का प्रकाश नही पड़ना चाहिए । हरेला घर के मंदिर या सामूहिक रूप से गाँव या परिवार के कुलदेवता के मंदिर में बोते है ।
हरेला त्यौहार के दिन प्रातः स्नानादि से निवृत हो हरेला व देवताओं की पूजा करके हरेला काट कर प्रथम देवताओं को अर्पित किया जाता है ।फिर घर के बड़े बुजुर्ग या माताओं के हाथों से सबके सिर व कान में लगाया जाता है ।
हरेला लगाते समय माँ अपने बच्चों को शुभ आशीष देते हुवे कहती है ।
आशीष वचन -
लाग हर्या लाग पंचमी
लाग दशै लाग बोगाव
जी रये जागि रये
यो दिन यो मास भेंटने रया
दुब जस पनपी जाया
अगास जस उच्च
धरती जस चकाव हे जाया
शेर जस तराण हो
स्याव जस बुद्धि हो
हिमालय में हिंयु रण तलक
गंग जमुन में पाणि रण तलक
जी रये जागि रये
जो परिवार के सदस्य नॉकरी या अन्य कार्यो के लिए दूसरे शहरों में रहते है। उन्हें लिफाफे में हरेला डालकर डाक द्वारा भेजा जाता है ।
आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
रविवार, 15 जून 2025
संध्योपासन विधि
सध्या वंदन
( १ ) पवित्रीकरणम्
बाये हाथ मे जल लेकर दाहिने हाथ से जल का छिड़काव शरीर पर करें ।
ॐ अपवित्र: पवित्रो वेत्यस्य वामदेव ऋषि: विष्णुर्देवता गायत्रीच्छन्द: हृदि पवित्रकरणे विनियोग:।
ॐ अपवित्र पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:।।
( २ ) त्रिराचमनम्
तीन बार जल पीवे चौथे में जल छोड़ दे ।
अन्तर्जानुहस्त: संहताङ्गुलिना शुद्धजलं गृहीत्वा मुक्ताङगुष्ठकनिष्ठेनवामेनान्वारब्धपाणिना ब्रह्मतीर्थेन त्रिरप: पिबेत्।
१ ॐ केशवाय नमः
२ ॐ नारायणाय नमः
३ ॐ माधवाय नमः
४ ॐ हृषीकेशाय नमः
( ३ ) आसनशुद्धि:
एक चम्मच जल लेकर आसन शुद्धि करे ।
ॐ पृथ्वीतिमन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषि: सुतलं छन्द: कूर्मो देवता आसने विनियोग:।
ॐ पृथ्वि त्वया धता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम्।।
( ४ ) पवित्रीधारणम्
कुश से निर्मित पवित्री अनामिका अंगुली में धारण करें ।
ॐ पवित्रेस्थोव्वैष्णव्यौ सवितुर्व: प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभि: । तस्य ते पवित्रते पवित्रपूतस्य यत्काम: पुनेतच्छकेयम्।।
( ५ ) त्र्यायुषमित्यस्य नारायण ऋषि: रुद्रो देवता उष्णिक्छन्द: भस्मधारणे विनियोग:।
( ६ ) स्वस्ति - तिलक धारणम्
चंदन या कुमकुम का तिलक धारण करें ।
ॐ स्वस्ति नऽइन्द्रोव्वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषाव्विश्ववेदा:। स्वस्ति नस्तार्क्षोऽअरिष्टनेमि: स्वस्ति नो बृहस्पतिर्द्दधातु।।
( ७ ) ॐ मानस्तोक इति मन्त्रस्य कुत्स ऋषि: जगती छन्द: एको रुद्रो देवता शिखाबन्धने विनियोग:।
ॐ मानस्तोकेतनये मानऽआयुषि मानोगोषु मानोऽअश्वेषुरीरिष:। मानोव्वीरान्नुद् द्रभामिनोव्वधी र्हविष्म्मन्त: सदमित्वाहवामहे।।
चिद्रूपिणि महामाये दिव्यतेज: समन्विते।
तिष्ठ देवि शिखाबन्धे तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे।।
( ८ )संकल्प:
ॐ शुभे शोभनेमुहुर्ते अद्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेयवाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशान्तर्गते पुण्यक्षेत्रे ------ कलियुगे कलिप्रथमचरणे ------- सम्वत्सरे ------- मासे ------- पक्षे -------- तिथौ -------- वासरे ------- नक्षत्रे ------- योग -------- ममोपात्तदुरितक्षयार्थं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं ब्रह्मवर्चस्वाप्तये
प्रात:/मध्याह्न/सायं संध्योपासनं करिष्ये।
( ९ ) अघमर्षणाचमनम्
विनियोग:--
ॐ ऋतं चेति त्र्यचस्य माधुच्छन्दसोऽघमर्षण ऋषिरनुष्टुप्छन्दो भाववृत्तं दैवतमपामुपस्पर्शने विनियोग:।
ॐ ऋतं च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।
ततो रात्र्यजायत तत: समुद्रोअर्णव:।।
समुद्रादर्णवादधिसंवत्सरो अजायत।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वंशी।।
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।
दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्व:।।
( १० ) प्राणायाम:
विनियोगः--
ॐ कारस्यब्रह्मऋषिर्दैवीगायत्रीछन्द: परमात्मादेवता सप्तव्याहृतीनां प्रजापतिर्ऋषिर्गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहती पंक्तित्रिष्टुब्जगत्यश्छन्दांस्यग्नि वायु सूर्य बृहस्पतिर्वरुणेन्द्रविश्वेदेवादेवता: तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्द: सविता देवता आपोज्योतिरितिशिरस: प्रजापतिर्ऋषिर्यजुश्छन्दो ब्रह्माग्निवायुसूर्या देवता: प्राणायामे विनियोग:।
ॐ भू: ॐ भुव: ॐ स्व: ॐ मह: ॐ जन: ॐ तप: ॐ सत्यम् ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
ॐ आपो ज्योति रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्।।
( ११ ) प्रातराचमनम्
सूर्यश्च मेति नारायण ऋषि: प्रकृति श्छन्द: सूर्यमन्युमन्युपतयो रात्रिश्च देवता अपामुपस्पर्शने विनियोग:।
ॐ सूर्यश्च मामन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्य: पापेभ्योरक्षन्ताम् यद्रात्र्या पापमकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां पभ्द्यामुदरेण शिश्ना रात्रिस्तदवलुम्पतु । यत्किञ्च दुरितं मयि इदमहं माममृतयोनौ सूर्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा ।।
( १२ ) मध्याह्नाचमनम्
आप: पुनन्त्विति मंत्रस्य नारायण ऋषि: अनुष्टुप् छन्द: आप: पृथिवी, ब्रह्मणस्पतिर्ब्रह्म च देवता अपामुस्पर्शने विनियोग: ।
ॐ आप: पुनन्तु पृथिवीं पृथिवी पूता पुनातु माम् ।
पुनन्तु ब्रह्मणस्पतिर्ब्रह्मपूता पुनातु माम्।
यदुच्छिमभोज्यं च यद्वा दुश्चरितं मम।
सर्वे पुनन्तु मामापोऽसतां च प्रति ग्रह गुं स्वाहा ।।
( १३ ) सायमाचमनम्
अग्निश्चमेति नारायण ऋषि: प्रकृतिश्छन्दोग्निमन्युमन्युपतयोऽहश्च देवता अपामुपस्पर्शने विनियोग: ।
ॐ अग्निश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्य: पापेभ्यो रक्षन्ताम् यदह्ना पापमकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां पभ्द्यामुदरेण शिश्ना अहस्तदवलुम्पतु ।
यत्किञ्च दुरितं मयि इदमहं माममृतयोनौ सत्ये जुहोमि स्वाहा ।।
( १३ ) मार्जनम्
ॐ आपो हिष्ठेति त्र्यचस्य सिन्धुद्विप ऋषिर्गायत्री छन्द: आपोदेवता मार्जने विनियोग: ।
ॐ आपो हिष्ठा मयो भुव:।
ॐ ता न ऊर्जे दधितन।
ॐ महे रणाय चक्षसे।
ॐ तो व: शिवतमो रस:।
ॐ तस्य भाजयतेह न:।
ॐ ऊशतीरिव मातर।
ॐ तस्या अरङ्गमाम व:।
ॐ यस्य क्षयाय जिन्वथ।
ॐ आपो जनयथा च न:।
( १४ ) अभिमन्त्रणम्
द्रुपदादिवेत्यश्विसरस्वतीन्द्रा ऋषियोऽनुष्टुप्छन्द आपो देवता शिरस्सेके विनियोग।
ॐ द्रुपदादिव मुमुचान: स्विन्न: स्नातो मलादिव ।
पूतं पवित्रेणेवाज्यमाप: शुन्धन्तु मैनस:।।
( १५ ) अघमर्षणम्
ऋतञ्चेतित्र्यचस्यमाधुच्छन्दसोऽघमर्षण ऋषि: अनुष्ठुप्छन्दोभाववृतं दैवतमघमर्षणे विनियोग:।
ॐ ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।
ततो रात्र्यजायत तत: समुद्रोअर्णव।।
समुद्रादर्णवादधिसंवत्सरो अजायत।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।।
सुर्याचन्द्रमासौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत्।
दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्व:।।
( १६ ) आचमनम्
अन्तश्चरसीति तिरश्चीन ऋषिरनुष्टुप्छन्द: आपो देवता अपामुपस्पर्शने विनियोग:।
ॐ अन्तश्चरसि भूतेषु गुहायां विश्वतोमुख: ।
त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कार आपो ज्योती रसोऽमृतम्।।
( १७ ) सूर्यार्घ्यम्
कारस्य ब्रह्म ऋषिर्दैवी गायत्री छन्द: परमात्मा देवता तिसृणां महाव्याहृतीनां प्रजापतिर्ऋषिर्गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्छन्दांस्यग्निवायुसूर्यो देवता तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्द: सविता देवता सूर्यार्घ्यदाने विनियोग:।
ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेणयं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
( इस मंत्र से सूर्यनारायण भगवान को तीन बार अर्घ्य दें )
( १८ ) सूर्योपस्थानम्
उद्वयमिति प्रस्कण्व ऋषि: अनुष्टुप्छन्द: सूर्यो देवता उदुत्यमिति प्रस्कण्व ऋषि: निचृद्गायत्री छन्द: सूर्यो देवता तच्चक्षुरिति दध्यडाथर्वण ऋषि: एकाधिका ब्राह्मी त्रिष्टुप्छन्द: सूर्यो देवता सूर्योपस्थाने विनियोग:।
ॐ उद्वयं तमसस्परि स्व: पश्यन्त उत्तरम्।
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ।।
ॐ उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतव:।
दृशे विश्वाय सूर्यम् ।।
ॐ चित्रं देवानामुदनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्ने:।आप्राद्यावापृथ्वी अन्तरिक्ष गुं सूर्यऽआत्मा जगतस्तस्थुषश्च।।
ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छक्रमुच्चरत्।
पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शत गुं श्रृणुयाम शरद: शतं प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: स्याम शरद: शतं भूयश्च शरद: शतात् ।।
( १९ ) न्यास:
प्रतिमत्रं दक्षिणेन पाणिना वामकरस्थितोयैरभिषिञ्चेत्।
ॐ भू: पुनातु - शिरसि।
ॐ भुव: पुनातु - नेत्रयो:।
ॐ स्व: पुनातु - कण्ठे।
ॐ मह: पुनातु - हृदये।
ॐ जन: पुनातु - नाभ्याम्।
ॐ तप: पुनातु - पादयो:।
ॐ सत्यं पुनातु - पुनः शिरसि।
( २० ) गायत्र्यावाहनम्
तेजोऽसीति धामनामासि च परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिर्यजुस्त्रिष्टुबुगुष्णिहौछन्दसा सविता देवता गायत्र्यावाहने विनियोग:।
ॐ तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि।
धामनामासि प्रियं देवनामनाधृष्टं देवयजनमसि।।
गायत्रीध्यानम्
ॐ श्वेतवर्णा समुद्दिष्टा कौशेयवसना तथा ।
श्वेतैर्विलेपनै: पुष्पैरलङ्कारैश्च भूषिता ।।
आदित्यमण्डलस्था च ब्रह्मलोकगताऽथवा ।
अक्षसूत्रधरा देवी पद्मसनगता शुभा ।।
( २१ ) गायत्र्युपस्थानम्
गायत्र्यसीति विवस्वान् ऋषि: स्वराण्महापंक्तिश्छन्द: परमात्मादेवता गायत्र्युपस्थाने विनियोग: ।
ॐ गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि न हि पद्यसे नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परोरजसेऽसावदो मा प्रापत्।।
( २२ ) गायत्री - शापविमोचन
(१) ब्रह्म शापविमोचन
ॐ अस्य श्री ब्रह्म शापविमोचन मन्त्रस्य ब्रह्माऋषिर्भुक्तिमुक्तिप्रदा ब्रह्म शापविमोचनी गायत्री शक्तिर्देवता गायत्री छन्द: ब्रह्मशापविमोचने विनियोग: ।
ॐ गायत्रीं ब्रह्मेत्युपासीत यद्रुपं ब्रह्मविदो विदु:।
तां पश्यन्ति धीरा: सुमनसो वाचमग्रत:।।
ॐ वेदान्तनाथाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्।
ॐ देवि! गायत्री! त्वं ब्रह्मशापाद्विमुक्ता भव।
(२) वसिष्ठ - शापविमोचन
ॐ अस्य श्री वसिष्ठ शापविमोचनमन्त्रस्य निग्रहानुग्रहकर्ता वसिष्ठ ऋषिर्वसिष्ठानुगृहहीता गायत्री शक्तिर्देवता विश्वोद्भवा गायत्री छन्द: वसिष्ठशापविमोचनार्थं जपे विनियोग:।
ॐ सोऽहमर्कमयं ज्योतिरात्मज्योतिरहं शिव:।
आत्मज्योतिरहं शुक्र: सर्वज्योतीरसोऽस्म्यहम्।।
( योनिमुद्रा दिखाकर तीन बार गायत्री जपे )
ॐ देवि!गायत्री! त्वं वसिष्ठशापाद्विमुक्ताभव।
(३) विश्वामित्र - शापविमोचन
ॐ अस्य श्री विश्वामित्र शापविमोचनमन्त्रस्य नूतनसृष्टिकर्ता विश्वामित्र ऋषिर्विश्वामित्रानुगृहीता गायत्री शक्तिर्देवता वाग्देहा गायत्री छन्द: विश्वामित्र शापविमोचनार्थं छपे विनियोग: ।
ॐ गायत्रीं भजाम्यग्निमुखीं विश्वगर्भां यदुद्भवा:।
देवाश्चक्रिरे विश्वसृष्टिं तां कल्याणीमिष्टकरीं प्रपद्ये।।
ॐ देवि!गायत्री! त्वं विश्वामित्रशापाद्विमुक्ता भव।
(४) शुक्र - शापविमोचन
ॐ अस्य श्री शुक्रशापविमोचनमन्त्रस्य श्री शुक्रऋषि: अनुष्टुप्छन्द: देवी गायत्री देवता शुक्रशापविमोचनार्थं जपे विनियोग: ।
सोऽहमर्कमयं ज्योतिरात्मज्योतिरहं शिव:।
आत्मज्योतिरहं शुक्र: सर्वज्योतीरसोऽस्म्यहम्।।
( पुनः फिर यौनी मुद्रा बनाकर तीन बार गायत्री जपे )
ॐ देवि गायत्री त्वं शुक्रशापाद्विमुक्ता भव ।
( प्रार्थना )
ॐ अहो देवि महादेवि संध्ये विद्ये सरस्वति।
अजरे अमरे चैव ब्रह्मयोनिर्नमोऽस्तु ते।।
( जप के पूर्व चौबीस मुद्राऐं )
सुमुखं सम्पुटं चैव विततं तथा।
द्विमुखं त्रिमुखं चैव चतुष्पञ्चमुखं तथा।।
षण्मुखाऽधोमुखं चैव। व्यापकाञ्जलिकं तथा।
शकटं यमपाशं च ग्रथितं चोन्मुखोन्मुखम्।।
प्रलम्बं मुष्टिकं चैव मत्स्य: कूर्मो वराहककम्।
सिंहाक्रान्तं महाक्रान्तं मुद्गरं पल्लवं तथा।।
एता मुद्राश्चतुर्विंशज्जपादौ परिकीर्तिता:।
( २४ ) गायत्री जप
ॐ कारस्य ब्रह्मऋषि: र्दैवी गायत्री छन्द: परमात्मा देवता तिसृणां महाव्याहृतीनां प्रजापतिर्ऋषिर्गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दास्यग्निवायुसूर्या देवता तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्द: सविता देवता जपे विनियोग: ।
ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेणयं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्
( जप के बाद आठ मुद्रायें )
सुरभिर्ज्ञानवैराग्ये योनि: शङ्खोऽथ पङ्कजम्।
लिङ्गनिर्वाणमुद्राश्च जपान्तेऽष्टौ प्रदर्शयेत्।।
( २५ ) जपसमर्पणम्
ॐ देवा गातुविद इति मनसस्पतिर्ऋषिर्विराडनुष्टुप्छन्द: वातो देवता जपनिवेदने विनियोग: ।
ॐ देवा गातुविद गातुं वित्त्वा गातुमित।
मनसस्पत इमं देव यज्ञ गुं स्वाहा व्वाते धा:।।
( २६ ) गायत्री कवच
ॐ अस्य श्री गायत्री कवचस्य ब्रह्मा ऋषिर्गायत्री छन्दो गायत्री देवता ॐ भू: बीजम् भुव: शक्ति: स्व: कीलकम् गायत्री प्रीत्यर्थं जपे विनियोग: ।
ध्यानम्
पञ्चवक्त्रां दशभुजा सूर्यकोटिसमप्रभम्।
सावित्रीं ब्रह्मवरदां चन्द्रकोटिसुशीतलाम्।।
त्रिनेत्रां सितवक्त्रां च मक्ताहारविराजिताम्।
वराभयाङ् कुशकशाहेमपात्राक्षमालिकाम्।।
शङ्खचक्राब्जयुगलं कराभ्यां दधतीं वराम्।
सितपंकजसंस्थां च हंसारूढां सुखस्मिताम्।।
ध्यात्वैवं मानसाम्भोजे गायत्राकवचं जपेत्।
ॐ ब्रह्मोवाच
विश्वामित्र! महाप्राज्ञ ! गायत्री कवचं श्रृणु।
यस्य विज्ञानमात्रेण त्रैलोक्यं वशयेत् क्षणात्।।
सावित्री में सिर: पातु सिखायाम मृतेश्वरी।
ललाटंं ब्रह्मदवत्या भ्रुवौ म पातु वैष्णवी।।
कर्णौ मे पातु रुद्राणी सूर्या सावित्रिकाऽम्बिके।
गायत्री वदनं पातु शारदा दशनच्छदौ।।
द्विजान यज्ञप्रिया पातु रसनायां सरस्वती।
सांख्यायनी नासिकां मे कपोलौ चंद्रहासिनी ।।
चिबुकं वेदगर्भा कंठ पात्वघनाशिनी।
स्तनौ मे पातु इन्द्राणी हृदयं ब्रह्मवादिनी ।।
उदरं विश्वभोक्ती च नाभौ पातु सुरप्रिया।
जघनं नारसिंही च पृष्ठं ब्रह्माण्डधारणी।।
पाश्वौ मे पातु पद्माक्षी गुह्यं गोगोप्त्रिकाऽवतु।
ऊर्वोरोंकाररूपा च जान्वो: संध्यात्मिकाऽवतु।।
जङ्घयो: पातु आक्षोभ्या गुल्फयोर्ब्रह्मशीर्षका।
सूर्या पदद्वयं पातु चन्द्रा पादाङगुलीषु च।।
सर्वाङ्गं वेदजननी पातु मे सर्वदा घना।
इत्येतत् कवचं ब्रह्मन् गायत्र्या: सर्वपावनम्।
पुण्यं पवित्रं पापघ्नं सर्व रोगनिवारणम्।।
त्रिसंध्यं य: पठेद्विद्वान् सर्वान् कामानवाप्नुयात।
सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञ: स भवेद्वेदवित्तम:।।
सर्वयज्ञफलं प्राप्य ब्रह्मान्ते समवाप्नुयात्।
प्राप्नोति जप मात्रेण पुरुषार्थांश्चतुर्विधान्।।
इति विश्वामित्र संहितोक्तं गायत्री कवचं संपूर्णम्।।
( २७ ) सूर्यप्रदक्षिणा
विश्वतश्चक्षुरिति भौवन ऋषि: त्रिष्टुप्छन्दो विश्वकर्मा देवता सूर्यप्रदक्षिणायां विनियोग:।
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात्।
सम्बाहुभ्यां धमति सम्पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन् देव एक:।
( २८ ) क्षमा प्रार्थना
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन।
यत्पूजितं मया देवी प्रसीद परमेश्वरी।।
उत्तमे शिखरे इत्यस्य वामदेव ऋषिर्नुष्टुप् छन्द: गायत्री देवता गायत्री विसर्जने विनियोग:।
उत्तमे शिखरे देवी भूम्यां पर्वतमूर्धनि।
ब्राह्मणेभ्योऽभ्यनुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखम्।।
अनेन संध्योपासनाख्येन कर्मणा श्रीपरमेश्वर: प्रीयतां न मम।ॐ तत्सत् श्रीब्रह्मार्पणमस्तु।
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्।।
( श्रीविष्णवे नमः ) तीन बार बोलें
श्री विष्णु स्मरणात् परिपूर्णतास्तु।
बुधवार, 4 जून 2025
गंगा दशहरा
गंगा दशहरा
( ज्येष्ठ शुक्ला दशमी )
सनातनी हिन्दू धर्म मे गंगा स्नान का विशेष महत्व है। पाप मोचनी गंगा जी का स्नान एवम् पूजन तो जब अवसर मिल जाय तब ही पुण्य प्रदायक है , और प्रत्येक अमावस्या एवं अन्य पर्वो पर भक्तगण दूर - दूर से आकर पुण्य सलिला गंगा जी में स्नान करते हैं । परन्तु ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तो गंगा जी का जन्मदिन ही है । आज के दिन ही महाराज भागीरथ के कठोर तप से प्रसन्न होकर स्वर्ग से पृथ्वी पर आई थीं गंगा जी । भगवान विष्णु के नाखून से उत्पन्न गंगा माता ब्रह्माजी के कमण्डलु से निकाल कर किस प्रकार पृथ्वी पर आईं और किस तरह भगवान शिव ने उनके वेग को जटाओं में धारण किया इसे प्रत्येक हिन्दू जानता है । आज के दिन गंगाजी के विभिन्न तटों और विशिष्ट घाटों पर तो बड़े - बड़े मैले लगते ही हैं अन्य पवित्र नदियों में भी लाखों व्यक्ति स्नान करते हैं । सम्पूर्ण भारत में पवित्र नदियों में स्नान के विशिष्ट पर्व के रूप में मनाया जाता है यह गंगा दशहरा ।
यदि गंगाजी अथवा अन्य किसी पवित्र नदी पर सपरिवार स्नान हेतु जाया जा सके तो सर्वश्रेष्ठ है । वहीं स्नान के बाद आप गंगाजी की प्रत्यक्ष अथवा उस नदी को गंगाजी का रूप मानकर पूजा - आराधना कर लेंगे । आज के दिन दान देने का भी विशिष्ट महत्व है । ब्राह्मणों को छतरी , जूते - चप्पल , वस्त्र आदि के दान प्रायः ही दिए जाते हैं ।
यदि गंगा जी जाना संभव न हो तो घर में गंगाजल रखा रहता है । किसी पात्र में गंगाजल रखकर स्नान करें ,औऱ गंगाजी की पूजा - आराधना , जप , दान , व्रत - उपवास और गंगाजी की पूजा करने पर सभी पाप जड़ से कट जाते हैं ।
ऐसी शास्त्रों की मान्यता है । गंगाजल सम्मुख रखकर धूप - दीप , नैवेद्य से उसकी पूजा करने और प्याऊ लगवाने से आज विशेष पुण्य प्राप्त होता है । अनेक व्यक्ति आज ठण्डे जल , मीठे शर्बत और दूध की लस्सी का प्याऊ व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से लगवाते हैं। इसी प्रकार परिवार के प्रत्येक -व्यक्ति के हिसाब से सवा सेर या एक किलो ढाई सौ ग्राम चूरमा बनाकर भी साधुओं और ब्राह्मणों में बांटने का रिवाज है । ब्राह्मणों को बड़ी मात्रा में अनाज भी आज दान के रूप में दिया जाता है । लोक व्यवहार में आज आम खाने और आम दान करने को भी विशिष्ट महत्व दिया जाने लगा है ।
वैसे जहां तक व्यावहारिकता की बात है गंगा दशहरा का यह धार्मिक पर्व आज गंगा स्नान का एक सामाजिक उत्सव है ।
पवित्र गंगा स्तोत्रम् -
देवि सुरेश्वरि भगवति गंगे
त्रिभुवन तारिणि तरल तरंगे ।
शंकर मौलि विहारिणि विमले
मम मति रास्तां तव पदकमले ।।1।।
भागीरथि सुखदायिनि मातस्तव
जल महिमा निगमे ख्यात: ।
नाहं जाने तव महिमानं
पाहि कृपामयि मा मज्ञानम ।।2।।
हरिपद पाद्य तरंगिणि गंगे
हिम विधुमुक्ता धवल तरंगे ।
दूरीकुरू मम दुष्कृति भारं
कुरु कृपया भव सागर पारम ।।3।।
तव जलममलं येन निपीतं
परमपदं खलु तेन गृहीतम ।
मातर्गंगे त्वयि यो भक्त:
किल तं द्रष्टुं न यम: शक्त: ।।4।।
पतितोद्धारिणि जाह्रवि गंगे
खण्डित गिरिवर मण्डितभंगे ।
भीष्मजननि हेमुनिवरकन्ये पतितनिवारिणि त्रिभुवनधन्ये ।।5।।
कल्पलतामिव फलदां लोके प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके ।
पारावारविहारिणि गंगे विमुखयुवतिकृततरलापांगे ।।6।।
तव चेन्मात: स्रोत: स्नात: पुनरपि जठरे सोsपि न जात: ।
नरकनिवारिणि जाह्रवि गंगे कलुषविनाशिनि महिमोत्तुंगे ।।7।।
पुनरसदड़्गे पुण्यतरंगे जय जय जाह्रवि करूणापाड़्गे ।
इन्द्रमुकुट मणिराजितचरणे सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये ।।8।।
रोगं शोकं तापं पापं हर मे भगवति कुमतिकलापम ।
त्रिभुवनसारे वसुधाहारे त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे ।।9।।
अलकानन्दे परमानन्दे कुरु करुणामयि कातरवन्द्ये ।
तव तटनिकटे यस्य निवास: खलु वैकुण्ठे तस्य निवास: ।।10।।
वरमिह: नीरे कमठो मीन: कि वा तीरे शरट: क्षीण: ।
अथवा श्वपचो मलिनो दीनस्तव न हि दूरे नृपतिकुलीन: ।।11।।
भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।
गंगास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरो य: सजयति सत्यम ।।12।।
येषां ह्रदये गंगाभक्तिस्तेषां भवति सदा सुख मुक्ति: ।
मधुराकान्तापंझटिकाभि: परमानन्द कलितललिताभि:
गंगास्तोत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम ।
शंकरसेवकशंकरचितं पठति सुखी स्तव इति च समाप्त: ।।
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