मनुष्य का खाता -
बड़े भाग मानुष तन पावा
मनुष्य जीवन तप्त लोह पिण्ड की भांति है जिस प्रकार के सांचे में ढालों वैसा ही जीवन का पथ चलता रहता है । मनुष्य जीवन कर्म करने के लिए जिसके द्वारा सृष्टि का संचार , निरन्तर उत्थान करने न कि व्यर्थ जीवन यापन करने के लिए नही मिला है ।
तन पवित्र सेवा करी ,धन पवित्र कर दान ।
मन पवित्र हरि भजन सो , त्रिविध होत कल्याण।।
जीव के जन्म लेने के साथ ही उसका जीवन खाता खुल जाता है । उसके अच्छे बुरे सभी कर्मो का लेखा जोखा यमराज के दूत चित्रगुप्त के पास जमा होता रहता है ।
मनुष्य के जीवन मे कितने भी बैंक खाते हौ कितनी भी जमा पूंजी हो सब यही रहेगा। साथ जाएगा शुभ कर्मों द्वारा अर्जित पुण्य , इस लिये मनुष्य को धन के द्वारा धर्म अर्जित करना चाहिए।
कर्मो के द्वारा किया गया शुभ अशुभ कार्य का फल समय-समय पर मनुष्य को मिलता रहता है।
मनुष्य जीवन के शुभ कर्म --
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मनुष्य अपने जीवन यात्रा को सावधानी से निर्वाह करते हुए सर्व प्रथम अपने जीवन की रक्षा करें ,परिवार का रक्षण करें ,नित्य पूजा , जप ,होम ,नित्य ब्राह्मण को दान दे ,नित्य देव दर्शन,गौ को चार खिलायें , पक्षीयों को दाना दे ,गरीब भूखे को खाना खिलायें किया गया परमार्थ धर्म बनकर मनुष्य के खाते में जुड़ता है । किन्तु दिन-रात मेहनत करके कमाया धन यही रह जाता है ।
इसलिए जीवन मे सभी कार्यो को संपादित करते हुए धर्म रूपी पुण्य का रास्ता कभी नही छोड़ें ।जीव के हाथों से किया गया दान पुण्य शुभ कर्म मरने के बाद उसके साथ चलता है। पर जीवन मे कमाया धन जमीन जायदाद यही रह जायेगा। कुछ भी साथ नही होगा सिर्फ धर्म रूपी खाते में जमा पुण्य साथ होगा। तन,मन,धन के द्वारा धर्म रूपी पुण्य अर्जित किया जा सकता है ।
धन सभी साधनों में श्रेष्ठ है धन से धर्म किया जा सकता है पर धर्म खरीदा नही जा सकता ।
इस लिए गृहस्थ का निर्वाह करते हुए जब तक धन अपने हाथ है। तब तक आप अपने धन से तीर्थ, देवदर्शन,यज्ञ,दान,पुण्य कर सकते है।धन के पराधीन होने पर मनुष्य कुछ भी नही कर सकता। इसलिए समय रहते अपने धन से धर्म रूपी पुण्य स्तम्भ तैयार करें ।
मनुष्य के विशेष दो खाते -
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१- पूर्वजन्म कर्म - मान्यताओं के आधार पर मनुष्य को पूर्व जन्मार्जित कर्मों का भोग।
२- पूर्व जन्म कर्म -इस जन्म में किये गए कर्मो का अर्जित कर्मो का भोग इन दोनों कर्मो के आधार पर मनुष्य का भाग्य इंगित होता है। जिससे जीवन में अच्छे बुरे कर्मफल का भोग मनुष्य को करना पड़ता है ।इसलिए जीवन मे शुभ कर्मों को करें अपने मनुष्य जीवन खाता को पुण्य से भरते रहे।
शिवपुराण का वचन --
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पुण्यक्षेत्रे कृतं पुण्यं बहुधा ऋद्धिमृच्छति।
पुण्यक्षेत्रे कृतं पापं महदण्वति जायते ।।
तत्कालं जीवनार्थश्चेतपुण्येन क्षयमेष्यति।
पुण्यमैश्वर्यदं प्राहु: कायिकं वाचिकं तथा।।
मानसं च तथा पापं तादृशं नाशयेद द्विजः।
मानसं वज्रलेपं तु कल्पकल्पानुगं तथा।।
ध्यानादेव हि तन्नश्येन्नान्यथा नाशमृच्छति।
वाचिकं जपजालेन कायिकं कायशोषणात।।
बीजांशश्चैव वृद्ध्यंशो भोगांशः पुण्यपापयो:।
ज्ञाननाश्यो हि बीजांशो वृद्धिरुक्तप्रकारतः।।
भोगांशो भोगनाश्यस्तु नान्यथा पुण्यकोटिभिः।
बीजप्ररोहे नष्टे तु शेषो भोगाय कल्पते।।
मनुष्य को अपने जीवन सतत निरन्तर सदैव धर्म और पुण्य कर्मों का आचरण करना चाहिए तथा अधर्म अन्याय और पाप कर्मों से सदैव दूर रहना चाहिए । उसमे से भी जानते हुए या जानबूझकर पाप कर्मों को कभी भी नही करना चाहिए उसमे भी तीर्थ क्षेत्र और धर्मक्षेत्र में तो कभी भी जानबूझकर अधर्म अन्याय और पाप कर्मों का आचरण नही करना चाहिए तीर्थ क्षेत्र और धर्म क्षेत्र में किया हुआ छोटा से पुण्य कर्म भी अनन्त फल देने वाला तथा पूर्व कृत पापों से मुक्ति देने वाला होता है ।
वही यहां किया हुआ छोटा सा पाप भी पूर्व कृत पुण्यों को नष्ट कर देता है । मनुष्य से कायिक (शरीर के द्वारा ) वाचिक (वचन के द्वारा ) तथा मानसिक (मन के द्वारा सोच विचार और समझ कर) तीन प्रकार के पाप होते है ।
मानसिक पाप वज्रलेप के समान कठोर होता है। जो कई जन्मों तक पीछा नही छोड़ता है। और केवल ध्यान से ही क्षयः संभव होता है ।वाचिक पाप जप से क्षय होता है । तथा कायिक पाप कठोर तप से क्षय होता है। जानबूझकर अतिशय मात्रा में किये गए पापा धर्म कर्मो से अर्जित पुण्य को भी नष्ट कर देते है। वस्तुतः मनुष्य के पाप और पुण्य दोनों का बीजांश वृद्ध्यंश और भोगांश होता है । बीजांश का नाश ज्ञान से वृद्धयांश का नाश ध्यान जप और तप से तथा भोगांश का नाश केवल फल भोग (सुख दुःख स्वर्ग नरक के भोग से)से क्षय होता है।
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