शनिवार, 24 सितंबर 2022

शारदीय नवरात्र २६सितम्बर२०२२

शारदीय नवरात्र दुर्गा पूजा --

शारदीय नवरात्र दुर्गा पूजन आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से लेकर नवमी पर्यन्त तक चलने वाले उत्सव जिसमे माता रानी का व्रतपूजन पाठ आदि का विशेष महत्व है । जो आस्थावान जन होते है वे मातारानी को रिझाने सुख संपत्ति का आशीर्वाद  पाने के लिए कही कमी नही रखते ।नव रात्रियों तक व्रत करने से व्रत पूर्ण होता है ।

दुर्गा पूजन विधि--

माता रानी की स्थापना के लिए पूर्व , ईशान दिशा में कही पर गोबर से लिप् कर स्वस्ति वाचन गणपति ,कलश मातृका ,ग्रह स्थापन पूजन के नंतर दुर्गा जी को सुंदर घट के ऊपर "सुवर्ण ,रजत,कांस्य, ताम्र , मिट्टी से बनी मूर्ति की स्थापना करके पंचोपचार ,षोडशोपचार पूजन करें किसी विद्वान ब्राह्मण से सप्तसती का पाठ करवाएं देवी का आवाहन, स्थापन ,पूजन, विसर्जन प्रातःकाल में किया जाता है ।

किसी बाँस या मिट्टी के पात्र में जयंती कुल परम्परा के अनुसार बोनी चाहिए ।

नवरात्र व्रत सारणी --

 💐शारदीय नवरात्रि व्रत सारणी💐

सोमवार २६-  सितम्बर- प्रतिपदा- शैलपुत्री 

मंगलवार २७ - सितम्बर - द्वितीया- ब्रह्मचारिणी

बुधवार २८- सितम्बर - तृतीया-   चंद्रघंटा 

बृहस्पतिवार २९-सितम्बर चतुर्थी-    कुष्मांडा 

शुक्रवार ३० - सितम्बर पंचमी-   स्कन्धमाता 

शनिवार ०१- अक्टूबर - षष्ठी      कात्यायनि 

रविवार ०२- अक्टूबर - सप्तमी- कालरात्री 

सोमवार०३ -अक्टूबर - दुर्गाष्टमी- महागौरी 

मंगलवार ०४ -अक्टूबर - रामनवमी- सिद्धिधात्री व दशहरा रावण दहन ४ तारीख को किया जायेगा ।

 बुधवार ०५-अक्टूबर - विजयी दशमी व्रत परायण विसर्जन

व्रत विधि--

 यदि कोई नवरात्र पर्यन्त व्रत रखने में असमर्थ हो तो प्रतिपदा से सप्तमी तक 'दूसरा सप्तमी ,अष्टमी ,नवमी व्रत रखें ' तीसरा पहला व नवां 'चौथ एक समय भोजन प्रसाद लेकर व्रत करके अभीष्ट सिद्ध किया जा सकता है ।

रविवार, 18 सितंबर 2022

श्राद्ध का प्रचलन कब शुरू हुआ ।

श्राद्ध का प्रचलन कब शुरु हुआ ? सबसे पहले किसने किया था श्राद्ध 

प्राचीन काल में ब्रह्माजी के पुत्र हुए महर्षि अत्रि,उन्हीं के वंश में भगवान दत्तात्रेयजी का आविर्भाव हुआ । दत्तात्रेयजी के पुत्र हुए महर्षि निमि और निमि के एक पुत्र हुआ श्रीमान्। श्रीमान् बहुत सुन्दर था। कठोर तपस्या के बाद उसकी मृत्यु होने पर महर्षि निमि को पुत्र शोक के कारण बहुत दु:ख हुआ। अपने पुत्र की उन्होंने शास्त्रविधि के अनुसार अशौच (सूतक) निवारण की सारी क्रियाएं कीं । फिर चतुर्दशी के दिन उन्होंने श्राद्ध में दी जाने वाली सारी वस्तुएं एकत्रित कीं।


अमावस्या को जागने पर भी उनका मन पुत्र शोक से बहुत व्यथित था । परन्तु उन्होंने अपना मन शोक से हटाया और पुत्र का श्राद्ध करने का विचार किया । उनके पुत्र को जो-जो भोज्य पदार्थ प्रिय थे और शास्त्रों में वर्णित पदार्थों से उन्होंने भोजन तैयार किया। 

महर्षि ने सात ब्राह्मणों को बुलाकर उनकी पूजा-प्रदक्षिणा कर उन्हें कुशासन पर बिठाया । फिर उन सातों को एक ही साथ अलोना सावां परोसा । इसके बाद ब्राह्मणों के पैरों के नीचे आसनों पर कुश बिछा दिये और अपने सामने भी कुश बिछाकर पूरी सावधानी और पवित्रता से अपने पुत्र का नाम और गोत्र का उच्चारण करके कुशों पर पिण्डदान किया। 


श्राद्ध करने के बाद भी उन्हें बहुत संताप हो रहा था कि वेद में पिता-पितामह आदि के श्राद्ध का विधान है, मैंने पुत्र के निमित्त किया है । मुनियों ने जो कार्य पहले कभी नहीं किया वह मैंने क्यों कर डाला ?


उन्होंने अपने वंश के प्रवर्तक महर्षि अत्रि का ध्यान किया तो महर्षि अत्रि वहां आ पहुंचे । उन्होंने सान्त्वना देते हुए कहा‘डरो मत ! तुमने ब्रह्माजी द्वारा श्राद्ध विधि का जो उपदेश किया गया है, उसी के अनुसार श्राद्ध किया है।’ ब्रह्माजी के उत्पन्न किये हुए कुछ देवता ही पितरों के नाम से प्रसिद्ध हैं; उन्हें ‘उष्णप’ कहते हैं । श्राद्ध में उनकी पूजा करने से श्राद्धकर्ता के पिता-पितामह आदि पितरों का नरक से उद्धार हो जाता है।


सबसे पहले श्राद्ध कर्म करने वाले महर्षि निमि


इस प्रकार सबसे पहले निमि ने श्राद्ध का आरम्भ किया । उसके बाद सभी महर्षि उनकी देखादेखी शास्त्र विधि के अनुसार पितृयज्ञ (श्राद्ध) करने लगे। ऋषि पिण्डदान करने के बाद तीर्थ के जल से पितरों का तर्पण भी करते थे । धीरे-धीरे चारों वर्णों के लोग श्राद्ध में देवताओं और पितरों को अन्न देने लगे। 


श्राद्ध में पहले अग्नि का भोग क्यों लगाया जाता है ?


लगातार श्राद्ध में भोजन करते-करते देवता और पितर पूरी तरह से तृप्त हो गये । अब वे उस अन्न को पचाने का प्रयत्न करने लगे। अजीर्ण से उन्हें बहुत कष्ट होने लगा। सोम देवता को साथ लेकर देवता और पितर ब्रह्माजी के पास जाकर बोले ‘निरन्तर श्राद्ध का अन्न खाते-खाते हमें अजीर्ण हो गया है, इससे हमें बहुत कष्ट हो रहा है, हमें कष्ट से मुक्ति का उपाय बताइए।


ब्रह्माजी ने अग्निदेव से कोई उपाय बताने को कहा । अग्निदेव ने कहा देवताओ और पितरो ! अब से श्राद्ध में हम लोग साथ ही भोजन करेंगे । मेरे साथ रहने से आप लोगों का अजीर्ण दूर हो जाएगा।


यह सुनकर सबकी चिन्ता मिट गयी; इसीलिए श्राद्ध में पहले अग्नि का भाग दिया जाता है । श्राद्ध में अग्नि का भोग लगाने के बाद जो पितरों के लिए पिण्डदान किया जाता है, उसे ब्रह्मराक्षस दूषित नहीं करते हैं । श्राद्ध में अग्निदेव को उपस्थित देखकर राक्षस वहां से भाग जाते हैं।


सबसे पहले पिता को, उनके बाद पितामह को और उनके बाद प्रपितामह को पिण्ड देना चाहिए—यही श्राद्ध की विधि है । प्रत्येक पिण्ड देते समय एकाग्रचित्त होकर गायत्री-मन्त्र का जप और ‘सोमाय पितृमते स्वाहा’ का उच्चारण करना चाहिए ।


इस प्रकार मरे हुए मनुष्य अपने वंशजों द्वारा पिण्डदान पाकर प्रेतत्व के कष्ट से छुटकारा पा जाते हैं। पितरों की भक्ति से मनुष्य को पुष्टि, आयु, संतति, सौभाग्य, समृद्धि, कामनापूर्ति, वाक् सिद्धि, विद्या और सभी सुखों की प्राप्ति होती है। सुन्दर-सुन्दर वस्त्र, भवन और सुख साधन श्राद्ध कर्ता को स्वयं ही सुलभ हो जाते है।

पितृदोष के लक्षण व उपाय

इस कारण कुंडली में लगता है पितृ दोष, जानिए इससे होने वाले नुकसान और कैसे पाएं राहत।

जिन लोगों की कुंडली में पितृ दोष होता है, उन्हें कुछ उपाय करना लाभकारी होगा इससे उनकी परेशानियां कुछ कम हो सकती हैं।

सूर्य और राहु की युति से कुंडली में पितृदोष लगता है ,

जानिए पितृदोष से होने वाले नुकसान के बारे में

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, जब व्यक्ति की कुंडली में दूसरे, चौथे, पांचवे, सातवें, नौंवे और दसवें भाव में सूर्य राहु या सूर्य शनि की युति हो रही है तो माना जाता है कि पितृ दोष योग बन रहा है। लग्नेश यदि छठे आठवें बारहवें भाव में हो और लग्न में राहु हो तो भी पितृदोष बनता है। यह एक ऐसा दोष होता है जो दुखों को एक साथ देने की क्षमता रखता है। 

पितृ दोष से होने वाले नुकसान

मानसिक और शारीरिक संतुलन बिगड़ जाता है।

किसी भी एग्जाम में सकारात्मक रिजल्ट प्राप्त का नहीं होना।

वैवाहिक जीवन में किसी न किसी तरह से कलह बना रहना।

नौकरी मिलने में परेशानी आना।

सरकारी या प्राइवेट नौकरी में बॉस का नाखुश रहना।

विवाह होने में किसी न किसी तरह की अड़चन आना।

गर्भधारण करने में समस्या होना।

बच्चे की अकाल मृत्यु हो जाना।

किसी भी निर्णय को लेने में परेशानी होना या फिर बिना किसी की सलाह के बगैर निर्णय न ले पाना ।

अधिक पैसा कमाने के बाद भी बरकत न होना ।

अधिक मेहनत करने के बावजूद बिजनेस में नुकसान होना ।

लंबे समय तक कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाना।

घर में किसी न किसी सदस्य का बीमार रहना ।

पितृ दोष के कारण धन हानि का सामना करना पड़ता है।


पितृ दोष के लक्षण --

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घर की दीवारों में दरारें पड़ जाना ।

मांगलिक कामों में किसी न किसी तरह की अड़चन आना ।

आपको बार-बार चोट लगना या फिर किसी दुर्घटना का सामना करना ।

परिवार और मेहमानों का घर आना बद हो जाना ।

विवाह की बात बनते-बनते बिगड़ जाना ।

दिनभर परिवार के लोगों के बीच छोटी सी छोटी बात पर कलह होना ।

पितृ दोष से बचने के उपाय--

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कुंडली से पितृ दोष  खत्म करने के लिए अमावस्या के दिन पितरों को श्राद्ध और तर्पण करना। 


श्राद्ध पक्ष के दौरान पितरों को ध्यान करके गायों को चारा खिलाएं। 

अगर आप श्राद्ध नहीं करते हैं तो पितृ दोष से निजात पाने के लिए नदी में काले तिल डालकर तर्पण करे। ऐसा करने से भी पितर प्रसन्न हो सकते हैं। 

अमावस्या के दिन पितरों का ध्यान करके वस्त्र और अन्न का दान करे। 

शुक्ल पक्ष के रविवार के दिन भगवान सूर्य को तांबे के लोटे से जल अर्पण करे। इस जल में गुड़, लाल रंग का फूल और रोली डालकर लें। 

पीपल के पेड़ पर दोपहर के समय जल, पुष्प, अक्षत, दूध, गंगाजल, काले तिल जाकर चढ़ाएं और स्वर्गीय परिजनों का स्मरण कर उनसे माफी मांगते हुए आशीर्वाद लें।

सूर्यग्रहण (२५ अक्टूबर२०२२)लगने वाला साल का पहला दिखाई वाला ग्रहण है ।

 सूर्यग्रहण- 

कार्तिककृष्ण ३० मंगलवार ( २५ अक्टूबर २०२२ ) अमावस्या को लगने वाला खण्डसूर्यग्रहण भारत में ग्रस्तास्त सूर्यग्रहण के रूप में दृश्य होगा । 

यह ग्रहण यूरोप , मध्य - पूर्व , उत्तरी अफ्रीका , पश्चिमी एशिया , उत्तरीअटलांटिक महासागर , उत्तर हिन्दमहासागर में दृश्य होगा । 

भारत में यह ग्रहण दिन में सूर्यास्त के पूर्व प्रारम्भ हो जायेगा । यह भारत के अधिकांश भाग से देखा जा सकेगा , किन्तु अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और पूर्वोत्तर के कुछ भागों जैसे आइजॉल , डिब्रूगढ़ , इंफाल , ईटानगर , कोहिमा , शिवसागर , सिलचर , तमेलांग में ग्रहण नहीं देखा जा सकेगा । सूर्यास्त होने के कारण ग्रहण का मोक्ष भारत में दृश्य नहीं होगा । 

 ग्रहण का प्रारम्भ --

दिन में २ बजकर २ ९ मिनट पर , 

मध्य सायं ४ बजकर ३० मिनट पर

मोक्ष सायं ६ बजकर ३२ मिनट पर होगा । 

नोट--

बालक , वृद्ध , रोगी को छोड़कर अन्य किसी भी व्यक्ति को ग्रहणकाल एवं  ग्रहण के सूतककाल मे भोजन करना निषेध है ।

ग्रहण काल मे देवताओं को जल में रख देना चाहिए ।

ग्रहण के पूर्ण होने पर देवताओं का स्नान करके मंदिर मे स्थापित करना चाहिए ।

ग्रहण काल मे गर्भवती महिलाओं को  सावधानी रखते हुए गोपाल मंत्र का जप करना चाहिए।

ग्रहण काल में अन्नादि पेय खाद्य सामग्री में कुश या तुलसी को रखे ।

कुश , तुलसी को खाद्य सामग्री में रखने से ग्रहण का दोष नही लगता है ।

तुलसी अगर ना मिले तो कुशा को प्रयोग कर सकते है ।

ग्रहण का महात्म्य --

ग्रहण के समय गंगा स्नान का विशेष महत्व है । मत्स्य पुराण में कहा कि ग्रहण काल मे तीर्थ स्नान व जप ,तप , दान करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है ।


पितृ पूजा दिन में क्यो होती है । श्राद्ध तर्पण पिण्डदान


पितृ पक्ष, पितरों का याद करने का समय माना गया है। भाद्र शुक्ल पूर्णिमा को ऋषि तर्पण से आरंभ होकर यह आश्विन कृष्ण अमावस्या तक जिसे महालया कहते हैं उस दिन तक पितृ पक्ष चलता है। इस दौरान पितरों की पूजा की जाती है और उनके नाम से तर्पण, श्राद्ध, पिंडदान और ब्राह्मण भोजन करवाया जाता है। पितृ पूजा में कई बातें ऐसी हैं जो रहस्यमयी हैं और लोगों के मन में सवाल उत्पन्न करते हैं कि आखिर ऐसा क्यों होता है..


श्राद्ध का नियम है कि दोपहर के समय पितरों के नाम से श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन करवाया जाता है। शास्त्रों में सुबह और शाम का समय देव कार्य के लिए बताया गया है।लेकिन दोपहर का समय पितरों के लिए माना गया है। इसलिए कहते हैं कि दोपहर में भगवान की पूजा नहीं करनी चाहिए। दिन का मध्य पितरों का समय होता है। दरअसल पितर मृत्युलोक और देवलोक के मध्य लोक में निवास करते हैं जो चंद्रमा के ऊपर बताया जाता है।


दूसरी वजह यह है कि दोपहर से पहले तक सूर्य की रोशन पूर्व दिशा से आती है जो देवलोक की दिशा मानी गई है। दोपहर में सूर्य मध्य में होता है जिससे पितरों को सूर्य के माध्यम से उनका अंश प्राप्त हो जाता है। तीसरी मान्यता यह है कि, दोपहर से सूर्य अस्त की ओर बढ़ना आरंभ कर देता है और इसकी किरणें निस्तेज होकर पश्चिम की ओर हो जाती है। जिससे पितृगण अपने निमित्त दिए गए पिंड, पूजन और भोजन को ग्रहण कर लेते हैं।


पितृपक्ष में पितरों का आगमन दक्षिण दिशा से होता है। शास्त्रों के अनुसार, दक्षिण दिशा में चंद्रमा के ऊपर की कक्षा में पितृलोक की स्थिति है। इस दिशा को यम की भी दिशा माना गया है। इसलिए दक्षिण दिशा में पितरों का अनुष्ठान किया जाता है। रामायण में उल्लेख मिलता है कि जब दशरथ की मृत्यु हुई थी तो भगवान राम ने स्वपन में उनको दक्षिण दिशा की तरफ जाते हुए देखा था। रावण की मृत्य से पहले त्रिजटा ने स्वप्न में रावण को गधे पर बैठकर दक्षिण दिशा की ओर जाते हुए देखा था।


सनातन धर्म के अनुसार, किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है। शरीर को भी पिंड माना जा सकता है। धरती को भी एक पिंड रूप है। हिंदू धर्म में निराकार की पूजा की बजाय साकार स्वरूप की पूजा को महत्व दिया गया है क्योंकि इससे साधना करना आसान होता है। इसलिए पितरों को भी पिंड रूप मानकर यानी पंच तत्वों में व्यप्त मानकर उन्हें पिडदान दिया जाता है।


 पिंडदान के समय मृतक की आत्मा को अर्पित करने के लिए चावल को पकाकर उसके ऊपर तिल, शहद, घी, दूध को मिलाकर एक गोला बनाया जाता है जिसे पाक पिंडदान कहते हैं। दूसरा जौ के आटे का पिंड बनाकर दान किया जाता है। पिंड का संबंध चंद्रमा से माना जाता है। पिंड चंद्रमा के माध्यम से पितरों को प्राप्त होता है। ज्योतिषीय मत यह भी है कि पिंड को तैयार करने में जिन चीजों का प्रयोग होता है उससे नवग्रहों का संबंध है। इसके दान से ग्रहों का अशुभ प्रभाव दूर होता है। इसलिए पिंडदान से दान करने वाले को लाभ मिलता है।


पितरों की पूजा में सफेद रंग का इस्तेमाल इसलिए किया जाता है क्योंकि सफेद रंग सात्विकता का प्रतीक है। आत्मा का कोई रंग नहीं है। जीवन के उस पार की दुनियां रंग विहीन पारदर्शी है इसलिए पितरों की पूजा में सफेद रंग का प्रयोग होता है। दूसरी वजह यह है कि सफेद रंग चंद्रमा से संबंध रखता है जो पितरों को उनका अंश पहुंचाते हैं।


पुराणों के अनुसार, व्यक्ति की मृत्यु जिस तिथि को हुई होती है, उसी तिथि में उसका श्राद्ध करना चाहिए। यदि जिनकी मृत्यु के दिन की सही जानकारी न हो, उनका श्राद्ध अमावस्या तिथि को करना चाहिए। श्राद्ध मृत्यु वाली तिथि को किया जाता है। मृत्यु तिथि के दिन पितरों को अपने परिवार द्वारा दिए अन्न जल को ग्रहण करने की आज्ञा है। इसलिए इस दिन पितर कहीं भी किसी लोक में होते हैं वह अपने निमित्त दिए गए अंश को वह जहां जिस लोक में जिस रूप में होते हैं उसी अनुरूप आहार रूप में ग्रहण कर लेते हैं।

  

श्राद्ध पक्ष में कौए का बड़ा ही महत्व है। श्राद्ध का एक अंश कौए को भी दिया जाता है। कौए के संबंध में पुराणों बहुत ही विचित्र बात बताई गई है, मान्यता है कि कौआ अतिथि आगमन का सूचक एवं पितरों का आश्रम स्थल माना जाता है। श्राद्ध पक्ष में कौआ अगर आपके दिए अन्न को आकर ग्रहण कर ले तो तो माना जाता है कि पितरों की आप पर  कृपा हो गई। गरुड़ पुराण में तो कौए को यम का संदेश वाहक कहा गया है। आइए जानते हैं कौए के बारे में और रोचक जानकारी…


श्राद्ध पक्ष में कौए का महत्व बहुत ही अधिक माना गया है। पितृपक्ष में यदि कोई भी व्यक्ति कौए को भोजन कराता है तो यह भोजन कौआ के माध्यम से उनके पितर ग्रहण करते है। शास्त्रों में बताया गया है कि कोई भी क्षमतावान आत्मा कौए के शरीर में विचरण कर सकती है। यहा यम का दूत होता है।


आश्विन महीने में कृष्णपक्ष के 16 दिनों में कौआ हर घर की छत का मेहमान होता है। लोग इनके दर्शन को तरसते हैं। ये 16 दिन श्राद्ध पक्ष के दिन माने जाते हैं। इन दिनों में कौए एवं पीपल को पितृ का प्रतीक माना जाता है। इन दिनों कौए को खाना खिलाकर एवं पीपल को पानी पिलाकर पितरों को तृप्त किया जाता है।


हमारे धर्म ग्रंथ की एक कथा के अनुसार इस पक्षी ने देवताओं और राक्षसों के द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत को रस चख लिया था। यही कारण है कि कौए की कभी भी स्वाभाविक मृत्यु नहीं होती है। यह पक्षी कभी किसी बीमारी अथवा अपने वृद्धा अवस्था के कारण मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। इसकी मृत्यु आकस्मिक रूप से होती है।


यह बहुत ही रोचक है कि जिस दिन कौए की मृत्यु होती है, उस दिन उसका साथी भोजन ग्रहण नहीं करता। यह आपने कभी ख्याल किया हो तो कौआ कभी भी अकेले में भोजन ग्रहण नहीं करता। यह पक्षी किसी साथी के साथ मिलकर ही भोजन करता है। भोजन बांटकर खाने की सीख हर किसी को कौए से लेनी चाहिए।


कौए के बारे में पुराण में बताया गया है कि किसी भविष्य में होने वाली घटनाओं का आभास पूर्व ही हो जाता है। कौए को यमस्वरूप भी माना जाता है और न्याय के देवता शनिदेव का वाहन भी है।


कौआ का सबसे पहला रूप देवराज इंद्र के पुत्र जयंत ने लिया था। त्रेतायुग में एकबार जब भगवान राम ने अवतार लिया और जयंत ने कौए का रूप धारण कर माता सीता के पैर में चोंच मार दी थी। तब श्री राम ने तिनके से जयंत की आंख फोड़ दी थी। जयंत ने अपने किए की माफी मांगी, तब राम ने वरदान दिया कि पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोजन में तुम्हें हिस्सा मिलेगा। तभी से यह परम्परा चली आ रही है कि पितृ पक्ष में कौए को भी एक हिस्सा मिलता है।

बुधवार, 14 सितंबर 2022

जीव माँ के गर्भ से प्राप्त करता है । पांच चीज

मनुष्य प्राणी जीव का जब उद्भव होता है तो पूर्व जीवन चक्र के आधार पर मानव या अन्य प्राणीयों का जीवन चक्र निर्धारित होता है । जिसके आधार पर वह संसार का भोग करते है । प्राणी चाहे जितनी लालसा रख ले मिलेगा उतना ही जितना पूर्व निर्धारित कर्मों से अर्जित रखा  पूण्य या पाप जो जीव को भोगना पड़ता है । जैसे बहरा अपने से बहरा नही बनता , चोर अपने से चोर नही बनता , राजा अपने से राजा नही बनता । इसलिए  शुभ कर्म का शुभ फल ,अशुभ कर्मो का अशुभ फल  जरूर मिलता है । यह निश्चित है कि लूला , लंगड़ा ,बहरा , अंधा , भिखारी , चोर , डाकू , राजा यह सभी पूर्व जन्मार्जित कर्मो का भोग कर रहे है । 


आयु: कर्म वित्तं च विद्या निधन मेव च ।

पंचैतानि ही सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव  देहिनः ।।


माँ के गर्भ में जब जीव का आविर्भाव होता है तो उसी समय आयु ,कर्म ,बिद्या , वित्त और मृत्यु निर्धारित हो जाता है । जो जीव को सुख व दुःख के रूप में भागना पड़ता है ।

जीव जब संसार मे प्रविष्ट होता है ।तो मनुष्य  जीव प्राणी मात्र की उम्र  ,उसका कर्म , वह कितना विद्या व धन अर्जित करेगा। तथा उसकी मृत्यु कब कहाँ कैसे होगी यह सब माँ के गर्भ में ही पूर्व जन्मार्जित कर्मो के आधार पर निर्धारित हो जाता है । 

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गुरुवार, 17 मार्च 2022

कन्या विवाह हेतु सिद्ध अनुष्ठान

आजकल कन्या विवाह में हो रहे विलम्ब की समस्या प्रायः प्रत्येक घरो में बनी हुई है ।

माता पिता को अनेक कठिनाई का सामना करना पड़ता है । 

शास्त्रो में वर्णित कात्यायनी देवी का अनुष्ठान बड़ा ही सिद्धप्रद है । विधि पूर्वक मंत्र का अनुष्ठान करना चाहिये। जिसमे केले के पत्तो का आसन कमल गट्टे की माला होनी चाहिये ।जप के समय कड़वा तेल का दीपक जलता रहना चाहिये ,लाल या पिला वस्त्र धारण कर २१ दिन तक जप करें। जप के काल मे ब्रह्मचर्य का पालन व पान खाते हुये जप करें ।

इस जप का ४१००० हजार पुरश्चरण है । जप को वृद्धि क्रम में करे ।

नित्य केले के वृक्ष का पूजन करें ।भोग प्रसाद में पीले पेड़े का प्रयोग करें ।

मंत्र--

कात्यायनी महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ।

नन्दगोप सुतं देवि पतिं में कुरु ते नमः ।।

अनुष्ठान के अंत मे दशांश हवन, मार्जन,तर्पण करें ।

ब्राह्मण भोजन में पीला अन्न जरूर परोसे 

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आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा

नव संवत्सर २०७९

नव संवत्सर फल संवत २०७९

इस वर्ष के प्रारम्भ में राक्षस नामक संवत्सर रहेगा ।किन्तु अप्रैल से नल नाम संवत्सर का प्रवेश होगा । संकल्प आदि कार्यों में नल नाम संवत्सर का प्रयोग होगा ।

इस वर्ष राजा शनि व मंत्री गुरु होंगे । राजा व मंत्री में समभाव होने से वर्ष भर मिलाजुला प्रभाव होगा ।

राजा-- शनि

मंत्री-- गुरु 

राजा शनि के होने से प्रजा को कष्टों का सामना करना पड़ेगा । देश ,देशो में आपसी तनाव , विमान दुर्घटना ,रोग व्याधि का अधिक प्रभाव होगा ।भयंकर प्राकृतिक प्रकोप से हानि का भय होगा । भीषण गर्मी, भूकंप ,जलप्रलय आदि प्रकोप होगा । वर्षा के निम्न योग है जिसके कारण कुछ स्थानों में सुखा पड़ने से फसलों में कमी होगी । राजा व मंत्रियों के द्वारा प्रजा के कल्याण हेतु अनेक योजनाएं बनेगें किन्तु महंगाई से प्रजा त्रस्त होगी ।

वर्ष अपैट --

यह वर्ष मेष ,सिंह ,धनु राशि वालो के लिए वर्ष अपैट रहेगा ।शुभ वार त्योहारों में सफेद वस्तु का दान करें ।

राशि फल --

१ - मेष राशि - उन्नति

२- वृष - सुख

३ - मिथुन - संधर्ष

४ - कर्क - उत्तम

५ - सिंह - शुभकारक

६ - कन्या - मिलाजुला

७ - तुला - कष्टकारक 

८ - वृश्चिक -  सावधानी रखें

९ - धनु - शुभ

१० - मकर - चिंता

११ - कुम्भ - संघर्ष

 १२ - मीन - अनुकूल

शनि की साढ़ेसाती--

इस वर्ष शनि महाराज मकर राशि मे रहेंगे। धनु , मकर ,कुम्भ राशि के जातकों पर शनि की साढ़ेसाती का प्रभाव रहेगा । मिथुन तुला राशि के जातकों पर शनि की ढय्या चलेगी । शनि की साढ़ेसाती कुम्भ के सिर ,मकर के हृदय, धनु के पैर में प्रभाव रहेगा। फाल्गुन कृष्ण १४ फरवरी२०२३ से शनिदेव कुम्भ राशि पर प्रवेश करने से मकर ,कुम्भ ,मीन राशि के जातकों पर शनि की साढ़ेसाती रहेगी और कर्क , वृश्चिक राशि के जातकों को ढय्या का प्रभाव रहेगा ।

जिन राशि के जातकों पर शनि की ढय्या या साढेसाती चल रही है वे हनुमान चालीसा ,सुन्दर कांड का पाठ व शनि का व्रत करें । शनिवार को पीपल में जलदान व सायं में दीप दान करें। शनिवार को लोहे की अंगूठी धारण करें । शनिवार को शनिदान करें।

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सोमवार, 3 जनवरी 2022

महामृत्युंजय मंत्र की रचना कैसे हुई

महामृत्युंजय मंत्र की रचना कैसे हुई


किसने की महामृत्युंजय मंत्र की रचना और जाने इसकी शक्ति


शिवजी के अनन्य भक्त मृकण्ड ऋषि संतानहीन होने के कारण दुखी थे. विधाता ने उन्हें संतान योग नहीं दिया था.


*मृकण्ड ने सोचा कि महादेव संसार के सारे विधान बदल सकते हैं. इसलिए क्यों न भोलेनाथ को प्रसन्नकर यह विधान बदलवाया जाए.


*मृकण्ड ने घोर तप किया. भोलेनाथ मृकण्ड के तप का कारण जानते थे इसलिए उन्होंने शीघ्र दर्शन न दिया लेकिन भक्त की भक्ति के आगे भोले झुक ही जाते हैं.


*महादेव प्रसन्न हुए. उन्होंने ऋषि को कहा कि मैं विधान को बदलकर तुम्हें पुत्र का वरदान दे रहा हूं लेकिन इस वरदान के साथ हर्ष के साथ विषाद भी होगा.


*भोलेनाथ के वरदान से मृकण्ड को पुत्र हुआ जिसका नाम मार्कण्डेय पड़ा. ज्योतिषियों ने मृकण्ड को बताया कि यह विलक्ष्ण बालक अल्पायु है. इसकी उम्र केवल 12 वर्ष है.


*ऋषि का हर्ष विषाद में बदल गया. मृकण्ड ने अपनी पत्नी को आश्वत किया- जिस ईश्वर की कृपा से संतान हुई है वही भोले इसकी रक्षा करेंगे. भाग्य को बदल देना उनके लिए सरल कार्य है.

*मार्कण्डेय बड़े होने लगे तो पिता ने उन्हें शिवमंत्र की दीक्षा दी. मार्कण्डेय की माता बालक के उम्र बढ़ने से चिंतित रहती थी. उन्होंने मार्कण्डेय को अल्पायु होने की बात बता दी.

*मार्कण्डेय ने निश्चय किया कि माता-पिता के सुख के लिए उसी सदाशिव भगवान से दीर्घायु होने का वरदान लेंगे जिन्होंने जीवन दिया है. बारह वर्ष पूरे होने को आए थे.

*मार्कण्डेय ने शिवजी की आराधना के लिए महामृत्युंजय मंत्र की रचना की और शिव मंदिर में बैठकर इसका अखंड जाप करने लगे.

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।

उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥

समय पूरा होने पर यमदूत उन्हें लेने आए. यमदूतों ने देखा कि बालक महाकाल की आराधना कर रहा है तो उन्होंने थोड़ी देर प्रतीक्षा की. मार्केण्डेय ने अखंड जप का संकल्प लिया था.

यमदूतों का मार्केण्डेय को छूने का साहस न हुआ और लौट गए. उन्होंने यमराज को बताया कि वे बालक तक पहुंचने का साहस नहीं कर पाए.

*इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड के पुत्र को मैं स्वयं लेकर आऊंगा. यमराज मार्कण्डेय के पास पहुंच गए.

बालक मार्कण्डेय ने यमराज को देखा तो जोर-जोर से महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते हुए शिवलिंग से लिपट गया.

*यमराज ने बालक को शिवलिंग से खींचकर ले जाने की चेष्टा की तभी जोरदार हुंकार से मंदिर कांपने लगा. एक प्रचण्ड प्रकाश से यमराज की आंखें चुंधिया गईं.

शिवलिंग से स्वयं महाकाल प्रकट हो गए. उन्होंने हाथों में त्रिशूल लेकर यमराज को सावधान किया और पूछा तुमने मेरी साधना में लीन भक्त को खींचने का साहस कैसे किया?

*यमराज महाकाल के प्रचंड रूप से कांपने लगे. उन्होंने कहा- प्रभु मैं आप का सेवक हूं. आपने ही जीवों से प्राण हरने का निष्ठुर कार्य मुझे सौंपा है.

*भगवान चंद्रशेखर का क्रोध कुछ शांत हुआ तो बोले- मैं अपने भक्त की स्तुति से प्रसन्न हूं और मैंने इसे दीर्घायु होने का वरदान दिया है. तुम इसे नहीं ले जा सकते.

*यम ने कहा- प्रभु आपकी आज्ञा सर्वोपरि है. मैं आपके भक्त मार्कण्डेय द्वारा रचित महामृत्युंजय का पाठ करने वाले को त्रास नहीं दूंगा.

*महाकाल की कृपा से मार्केण्डेय दीर्घायु हो गए. उनके द्वारा रचित महामृत्युंजय मंत्र काल को भी परास्त करता है.


रविवार, 2 जनवरी 2022

व्रत या उपवास के प्रकार

व्रत या उपवास कितने प्रकार के होते हैं ।

व्रत रखने के नियम दुनिया को हिंदू धर्म की देन है। व्रत रखना एक पवित्र कर्म है और यदि इसे नियम पूर्वक नहीं किया जाता है तो न तो इसका कोई महत्व है और न ही लाभ बल्कि इससे नुकसान भी हो सकते हैं। आप व्रत बिल्कुल भी नहीं रखते हैं तो भी आपको इस कर्म का भुगतान करना ही होगा। राजा भोज के राजमार्तण्ड में २४ व्रतों का उल्लेख है।


हेमादि में ७०० व्रतों के नाम बताए गए हैं। गोपीनाथ कविराज ने १६२२ व्रतों का उल्लेख अपने व्रतकोश में किया है। व्रतों के प्रकार तो मूलत: तीन है:- 

१. नित्य 

२. नैमित्तिक 

३. काम्य।

 

१.नित्य व्रत👉 उसे कहते हैं जिसमें ईश्वर भक्ति या आचरणों पर बल दिया जाता है, जैसे सत्य बोलना, पवित्र रहना, इंद्रियों का निग्रह करना, क्रोध न करना, अश्लील भाषण न करना और परनिंदा न करना, प्रतिदिन ईश्वर भक्ति का संकल्प लेना आदि नित्य व्रत हैं। इनका पालन नहीं करते से मानव दोषी माना जाता है।

 

२.नैमिक्तिक व्रत👉 उसे कहते हैं जिसमें किसी प्रकार के पाप हो जाने या दुखों से छुटकारा पाने का विधान होता है। अन्य किसी प्रकार के निमित्त के उपस्थित होने पर चांद्रायण प्रभृति, तिथि विशेष में जो ऐसे व्रत किए जाते हैं वे नैमिक्तिक व्रत हैं।

 

३.काम्य व्रत👉 किसी कामना की पूर्ति के लिए किए जाते हैं, जैसे पुत्र प्राप्ति के लिए, धन- समृद्धि के लिए या अन्य सुखों की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले व्रत काम्य व्रत हैं।

 

व्रतों का वार्षिक चक्र 


१.साप्ताहिक व्रत👉  सप्ताह में एक दिन व्रत रखना चाहिए। यह सबसे उत्तम है।

 

२.पाक्षिक व्रत👉  १५-१५ दिन के दो पक्ष होते हैं कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष। प्रत्येक पक्ष में चतुर्थी, एकादशी, त्रयोदशी, अमावस्या और पूर्णिमा के व्रत महतवपूर्ण होते हैं। उक्त में से किसी भी एक व्रत को करना चाहिए।

 

३.त्रैमासिक👉  वैसे त्रैमासिक व्रतों में प्रमुख है नवरात्रि के व्रत। हिंदू माह अनुसार पौष, चैत्र, आषाढ और अश्विन मान में नवरात्रि आती है। उक्त प्रत्येक माह की प्रतिपदा यानी एकम् से नवमी तक का समय नवरात्रि का होता है। इन नौ दिनों तक व्रत और उपवास रखने से सभी तरह के क्लेश समाप्त हो जाते हैं।

 

४.छह मासिक व्रत👉  चैत्र माह की नवरात्रि को बड़ी नवरात्रि और अश्विन माह की नवरात्रि को छोटी नवरात्रि कहते हैं। उक्त दोंनों के बीच छह माह का अंतर होता है। इसके अलावा

 

५.वार्षिक व्रत👉  वार्षिक व्रतों में पूरे श्रावण मास में व्रत रखने का विधान है। इसके अलवा जो लोग चतुर्मास करते हैं उन्हें जिंदगी में किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं होता है। इससे यह सिद्ध हुआ की व्रतों में 'श्रावण माह' महत्वपूर्ण होता है। सोमवार नहीं पूरे श्रावण माह में व्रत रखने से हर तरह के शारीरिक और मानसिक कलेश मिट जाते हैं।


उपवास के प्रकार👉

1.प्रात: उपवास 

2.अद्धोपवास 

3.एकाहारोपवास 

4.रसोपवास 

5.फलोपवास 

6.दुग्धोपवास 

7.तक्रोपवास

8.पूर्णोपवास

9.साप्ताहिक उपवास 

10.लघु उपवास

11.कठोर उपवास 

12.टूटे उपवास

13.दीर्घ उपवास। बताए गए हैं, लेकिन हम यहां वर्ष में जो व्रत होते हैं उसके बारे में बता रहे हैं।

 

1.प्रात: उपवास👉 इस उपवास में सिर्फ सुबह का नाश्ता नहीं करना होता है और पूरे दिन और रात में सिर्फ 2 बार ही भोजन करना होता है।

 

2.अद्धोपवास👉  इस उपवास को शाम का उपवास भी कहा जाता है और इस उपवास में सिर्फ पूरे दिन में एक ही बार भोजन करना होता है। इस उपवास के दौरान रात का भोजन नहीं खाया जाता।

 

3.एकाहारोपवास👉  एकाहारोपवास में एक समय के भोजन में सिर्फ एक ही चीज खाई जाती है, जैसे सुबह के समय अगर रोटी खाई जाए तो शाम को सिर्फ सब्जी खाई जाती है। दूसरे दिन सुबह को एक तरह का कोई फल और शाम को सिर्फ दूध आदि।

 

4.रसोपवास👉  इस उपवास में अन्न तथा फल जैसे ज्यादा भारी पदार्थ नहीं खाए जाते, सिर्फ रसदार फलों के रस अथवा साग-सब्जियों के जूस पर ही रहा जाता है। दूध पीना भी मना होता है, क्योंकि दूध की गणना भी ठोस पदार्थों में की जा सकती है।

 

5.फलोपवास👉 कुछ दिनों तक सिर्फ रसदार फलों या भाजी आदि पर रहना फलोपवास कहलाता है। अगर फल बिलकुल ही अनुकूल न पड़ते हो तो सिर्फ पकी हुई साग-सब्जियां खानी चाहिए।

 

6.दुग्धोपवास👉  दुग्धोपवास को 'दुग्ध कल्प' के नाम से भी जाना जाता है। इस उपवास में सिर्फ कुछ दिनों तक दिन में 4-5 बार सिर्फ दूध ही पीना होता है।

 

7.तक्रोपवास👉  तक्रोपवास को 'मठाकल्प' भी कहा जाता है। इस उपवास में जो मठा लिया जाए, उसमें घी कम होना चाहिए और वो खट्टा भी कम ही होना चाहिए। इस उपवास को कम से कम 2 महीने तक आराम से किया जा सकता है।

 

8.पूर्णोपवास👉 बिलकुल साफ-सुथरे ताजे पानी के अलावा किसी और चीज को बिलकुल न खाना पूर्णोपवास कहलाता है। इस उपवास में उपवास से संबंधित बहुत सारे नियमों का पालन करना होता है।

 

9. साप्ताहिक उपवास👉 पूरे सप्ताह में सिर्फ एक पूर्णोपवास नियम से करना साप्ताहिक उपवास कहलाता है।

 

10. लघु उपवास👉 3 से लेकर 7 दिनों तक के पूर्णोपवास को लघु उपवास कहते हैं।

 

11. कठोर उपवास👉  जिन लोगों को बहुत भयानक रोग होते हैं यह उपवास उनके लिए बहुत लाभकारी होता है। इस उपवास में पूर्णोपवास के सारे नियमों को सख्ती से निभाना पड़ता है।

 

12. टूटे उपवास👉  इस उपवास में 2 से 7 दिनों तक पूर्णोपवास करने के बाद कुछ दिनों तक हल्के प्राकृतिक भोजन पर रहकर दोबारा उतने ही दिनों का उपवास करना होता है। उपवास रखने का और हल्का भोजन करने का यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक कि इस उपवास को करने का मकसद पूरा न हो जाए।

 

13. दीर्घ उपवास👉  दीर्घ उपवास में पूर्णोपवास बहुत दिनों तक करना होता है जिसके लिए कोई निश्चित समय पहले से ही निर्धारित नहीं होता। इसमें 21 से लेकर 50-60 दिन भी लग सकते हैं। अक्सर यह उपवास तभी तोड़ा जाता है, जब स्वाभाविक भूख लगने लगती है अथवा शरीर के सारे जहरीले पदार्थ पचने के बाद जब शरीर के जरूरी अवयवों के पचने की नौबत आ जाने की संभावना हो जाती है।

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त्रिपुण्ड कैसे लगाएं

 त्रिपुण्ड्र कैसे लगाएं

पौराणिक शास्त्रानुसार ब्रह्मदेव को पहले भगवान की संज्ञा प्राप्त थी। सम्पूर्ण संसार मात्र शिव के कारण ही है। इसी भांति शिव ने ब्रह्मदेव को उत्पन्न कर सृष्टि की संरचना का कार्य किया। जब ब्रह्मदेव ब्रह्मांड का निर्माण मानसिक सत्र पर न कर सके तब उन्होंने स्त्री रूप में देवी शत्रुपा अर्थात सरस्वती को उत्पन्न किया। जिस पर स्वयं ब्रह्मा ही मुग्ध हो गए। उत्पतिकारक को पिता माना जाता है। अतः ब्रह्मा के अपनी ही पुत्री शत्रुपा पर मुग्ध होने के पाप पर शिव ने अपनी अनामिका उंगली से ब्रह्मा का पांचवा सिर काट दिया।

अनामिका उंगली का एक नाम अनामा भी है अर्थात ब्रह्महत्या के उपरांत भी जो निंदित न हो वही अनामा है अर्थात जिसे कभी पाप न लगे वही अनामिका है। अनामिका से देवकार्य, मध्यमा से स्वयं कार्य व तर्जनी से पितृ कार्य किए जाते हैं।  शिवलिंग पर या स्वयं के ललाट पर जो त्रिपुंड बनाया जाता है उसमें तर्जनी में ब्रह्मा, मध्यमा में विष्णु व अनामिका में भगवान शंकर विद्यमान रहते हैं।

धार्मिक मान्यता के अनुसार अनामिका अंगुली पर स्वयं भगवान शंकर का वास माना जाता है। इसी कारण अनामिका अंगुली को सर्वथा धार्मिक रूप से पवित्र माना जाता है। शास्त्रों में अनामिका उंगली को अत्यधिक पावन माना गया है। पूजा अनुष्ठान आदि धार्मिक कार्यों में अनामिका उंगली में कुशा से बनी पवित्री धारण करने का विधान है। इसी कारण अनामिका को इसे दैवीय उंगली माना गया है। यही उंगली मान, अभिमान रहित और यश और कीर्ति की सूचक है। अनामिका उंगली का उपयोग सर्वथा दैवीय पूजा के समय किया जाता है क्योंकि यह उंगली आदित्य अर्थात सूर्य का प्रतीक भी है। इशौप्निषद आदि वेदांगो में भी त्रिकाल संध्या में सूर्य को ही पंच देवों में स्थान प्राप्त है। अनामिका उंगली से ही देवगणों को गंध और अक्षत अर्पित किया जाता है। 

तीसरी अंगुली अर्थात मध्यमा और कनिष्ठिका के बीच की अंगुली को अनामिका कहते हैं। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार अनामिका उंगली पर ग्रहों का राजा सूर्य का आधिपत्य है। सूर्य को अदित्य माना गया है अर्थात जो कभी भी दूसरे स्थान पर न हो अर्थात सर्वदा पहले स्थान पर ही रहे। वेदों में सूर्य को ब्रहमाण्ड का आदि कारण माना गया है। पाश्चात्य संस्कृति में भी अनामिका उंगली को रिंग फिंगर कहा गया है अर्थात जिस उंगली में अंगूठी पहनना सर्वथा मान्य माना गया है। इसी कारण इस उंगली से व्यक्ति की यश कीर्ति धन व संतान हस्तरेखा शास्त्र अनुसार उंगूठे व हाथ की चार उंगलियों के सिरे में बसे पर्वत पर ग्रहों का निवास माना जाता है। अंगूठे में शुक्र, तर्जनी में गुरु, मध्यमा में शनि, अनामिका में सूर्य और कनिष्ठा में बुध का वास माना जाता है। ज्योतिषीय दृष्टि से इस उंगली पर बने चक्र से व्यक्ति चक्रवर्ती बनता है। संस्कृत में त्रि का अर्थ तीन और पुण्ड्र को अंगुली कहा जाता है। तीन उंगली से ही त्रिपुण्ड धारण करें। 

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ॐ जय गौरी नंदा

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