रविवार, 2 अगस्त 2020

रक्षाबन्धन व श्रवणी उपाकर्म


                 ( श्रावण पूर्णिमा ) 

राखी का त्योहार कब शुरू हुआ यह कोई नहीं जानता। लेकिन भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है। कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नज़र आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बाँध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन, शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है।

पुराणों मे कृष्ण और द्रौपदी की कहानी प्रसिद्ध है, जिसमे युद्ध के दौरान श्री कृष्ण की उंगली घायल हो गई थी, श्री कृष्ण की घायल उंगली को द्रौपदी ने अपनी साड़ी मे से एक टुकड़ा बाँध दिया था, और इस उपकार के बदले श्री कृष्ण ने द्रौपदी को किसी भी संकट मे द्रौपदी की सहायता करने का वचन दिया था। 

स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब सौ यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा माँगने पहुँचे। गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नापकर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकनाचूर कर देने के कारण यह त्योहार बलेव नाम से भी प्रसिद्ध है। कहते हैं एक बार बलि रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया।भगवान के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया। उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और अपने पति भगवान बलि को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी। विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिये फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।

श्रावण मास के अन्तिम दिन पूर्णमासी को भाई - बहिनों के अटूट प्रेम का त्यौहार रक्षाबन्धन मनाया जाता है ।और वैदिक ब्राह्मणों के द्वारा श्रावणी उपाकर्म मनाया जाता है। वैदिक ब्राह्मणों को वर्ष भर में आत्मशुद्धि का अवसर भी प्रदान करता है। वैदिक परंपरा अनुसार वेदपाठी ब्राह्मणों के लिए श्रावण मास की पूर्णिमा सबसे बड़ा त्योहार है।

होली , दीपावली और दशहरे के समान ही यह भी हिन्दूओं का एक प्रमुख त्यौहार है । परन्तु आज इसका रूप लगभग एकदम बदल चुका है । प्राचीन काल में आज के दिन ब्राह्मण अपने यजमानों को रक्षा का धागा अर्थात राखी बांधते थे और साधु - संत एक स्थान पर चार माह रहकर गहन अध्ययन - मनन और पठन - पाठन प्रारम्भ करते थे । ऋषि - मुनि और साधु - संन्यासी तपोवनों से आकर नगरों व गांवों के निकट रहने लगते थे।

एक स्थान पर चार मास तक रुककर पठन - पाठन , उपदेशों और ज्ञानचर्चा द्वारा जनता में धर्म का प्रचार करते थे । इस प्रक्रिया को श्रावणी - उपाकर्म कहा जाता है , परन्तु आज की व्यस्त जिंदगी और भौतिक युग में तो बीते कल की बात बनकर रह गया है यह उपाक्रम का कर्म । रक्षाबन्धन की प्राचीन परम्परा तो ब्राह्मणों और पुरोहितों द्वारा अपने यजमानों को रक्षा का धागा बांधने की थी । 


रक्षाबंधन की विधि--

धर्मपरायण व्यक्ति को चाहिए कि इस दिन ब्रह्ममुहूर्त में उठकर शौचादि से निवृत्त होकर स्नान करे और शुद्ध वस्त्र धारण करे । फिर देवता , पितरों और सप्तऋषियों हेतु तर्पण करे । दोपहर बाद सूती अथवा ऊनी वस्त्र लेकर उनमें चावल रखकर गांठ लगा दे और हल्दी या केसर में रंग कर उन्हें एक बर्तन में रख दे । घर को गोबर से या गेरू से लिपवाकर और चावलों का चौक पुरवाकर उस पर अन्न से भरा कलश स्थापित करे । पीले वस्त्र में सूत के धागे से लिपटी हुई चावल की एक या अनेक पोटलियां रख दे । यजमान चौकी पर बैठकर शास्त्रोक्त विधि से अपने कुल - पुरोहित अथवा विद्वान - ब्राह्मण द्वारा कलश का पूजन कराये ।

पूजन के बाद पुरोहित रक्षा की एक पोटली यजमान के हाथ में बांधे और परिवार के अन्य लोगों के हाथों में भी अलग - अलग पोटलियाँ बांधे । इस समय पुरोहित नीचे लिखा मंत्र

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः ।
तेन त्वामभिवध्नामि रक्षे माचल माचलः ।।

आजकल रक्षाबन्धन के दिन बहनें अपने भाइयों के हाथ में राखी बांधती हैं , उन्हें मिठाई व वस्त्रादि देती हैं और भाई बहिन को कुछ रुपए देकर इसका प्रत्युत्तर सा दे देते हैं । परन्तु बड़ा भारी आध्यात्मिक , धार्मिक और एतिहासिक महत्व है इस राखी का । यह स्नेह का वह अमूल्य बंधन है जिसका बदला धन तो क्या सर्वस्व देकर भी नहीं चुकाया जा सकता । द्रौपदी भगवान कृष्ण को भाई कहती थी , उसने मुधसूदन की कटी उंगली पर एक पट्टी बांधी थी और इसके एवज में जीवन भर श्रीकृष्ण करते रहे द्रौपदी की सहायता । भाई - बहिन का हार्दिक प्रेम और भावना ही इस त्यौहार का वास्तविक महत्व है , न कि वह प्रदर्शन जिसके हम आज शिकार हो चुके हैं । रक्षा बंधन वाले दिन महिलाएं सर्वप्रथम नहा - धोकर अपने घर में दीवारों पर सोन रखती हैं और फिर सेवइयों , चावल की खीर और मिठाई से करती हैं इन सोनों की पूजा । सोनों के ऊपर मिठाई की सहायता से राखी के धागे भी चिपकाए जाते हैं । जो महिलाएं नागपंचमी को गेहूं आदि होती हैं वे इन छोटे - छोटे पौधों को उखाड़कर इस पूजा में रखती हैं और भाइयों के राखी बांधने के वाद इन दुर्वा जैसे पौधों को उनके कान में लगा देती हैं । कुछ स्थानों पर राखी से भी अधिक महत्व दिया जाता है इन पौधों को । बुन्देलखण्ड में इन पौधों को कजरी कहा जाता है और इनका जलूस भी निकाला जाता है । लगभग पूरे ही देश में धूमधाम से मनाया जाता है राखी का यह त्यौहार

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English translation

 (Shravan Poornima)

 On the last day of the month of Shravan, Purnamasi is celebrated as Rakshabandhan, a festival of unwavering love of brothers and sisters, and Shravani Upakarma is celebrated by Vedic Brahmins.  The Vedic also offers Brahmins an opportunity for self-purification throughout the year.  According to Vedic tradition, the full moon of the month of Shravan is the biggest festival for Vedpathi Brahmins.

 Like Holi, Deepawali and Dussehra, it is also a major festival of Hindus.  But today its form has changed almost completely.  In ancient times, on this day, Brahmins used to tie a thread of defense i.e. Rakhi to their priests and sages and saints stayed in one place for four months and started deep study - meditation and reading.  Sages - monks and monks - ascetics used to come from the Tapovan and live near the cities and villages.

 He used to stop at one place for four months and preach religion in public through reading, teaching, preaching and discussion.  This process is called Shraavani-Upakarma, but in today's busy life and material age, it is left as a thing of the past.  The ancient tradition of Rakshabandhan was to tie the thread of protection by Brahmins and priests to their priests.


 Method of Rakshabandhan

 A pious person should wake up in Brahmamuhurta on this day and take a bath after retiring from toilet and wear pure clothes.  Then the deity should make sacrifices for the fathers and the saptarishis.  After noon, take cotton or woolen cloth, put rice in them and make a knot and paint them in turmeric or saffron and place them in a vessel.  Make a house filled with cow dung or ocher and prepare a urn full of grain on it, by offering a square of rice.  Put one or several pieces of rice wrapped in cotton cloth in a cotton cloth.  Sitting at the Yajaman post, worship the Kalash by your clan - priest or scholar - Brahmin by scripture method.
 After the worship, the priest should tie a bundle of protection in the hands of Yajaman and also tie different portals in the hands of other family members.  At this time the priest chanted below

 
 Yen Badho Bali Raja Danvendra Mahabalah.
 Ten Tvambhivadhnami Rakshe Machal Machal:

 Nowadays, on the day of Rakshabandhan, the sisters tie a rakhi in the hands of their brothers, give them sweets and clothes and the brothers give a few rupees to the sister and respond to it.  But this Rakhi has great spiritual, religious and historical significance.  This is that invaluable bond of affection, which cannot be repaid even by giving money to everyone.  Draupadi used to call Lord Krishna a brother, she tied a bandage on Mudhusudan's severed finger and in return, Draupadi's help continued throughout her life.  Brother - Sister's heartfelt love and feeling is the real significance of this festival, not the performance we have fallen victim to today.  On the day of Raksha Bandhan, women first take a bath - put a son on the walls in their house and then worship these sons with servants, rice pudding and sweets.  Rakhi threads are also pasted on the sonnets with the help of sweets.  The women who have wheat etc. on Nagpanchami uproot these small plants and keep them in this puja and after the brothers tie the rakhi, they plant these Durva-like plants in their ears.  In some places these plants are given more importance than Rakhi.  In Bundelkhand these plants are called Kajri and their procession is also taken out.  This festival of Rakhi is celebrated with pomp in almost the entire country.

 Mythological theme

 No one knows when the festival of Rakhi started.  But there is a description in the Bhavishya Purana that when the war started between Devas and Demons, demons started dominating.  Lord Indra panicked and went to Jupiter.  Indrani, Indra's wife, was listening to everyone sitting there.  She sanctified the silk thread with the power of mantras and tied it on her husband's hand.  Incidentally, it was the day of Shravan Purnima.  People believe that Indra was victorious in this battle only by the mantra power of this thread.  From the same day on the day of Shravan Purnima, the practice of tying this thread is going on.  This thread is considered fully capable of giving wealth, power, joy and victory.

 In the Puranas, the story of Krishna and Draupadi is famous, in which Shri Krishna's finger was injured during the war, Draupadi tied a piece of her sari to the injured finger of Shri Krishna, and in return for this favor, Shri Krishna gave Draupadi  Had pledged to assist Draupadi in any crisis.

 In the Skandha Purana, Padmapuran and Srimad Bhagwat, the story of Rakshabandhan is found in the story called Vamnavatara.  The story goes something like this: When Danavendra King Bali tried to seize the kingdom of heaven after completing a hundred yajna, Indra and other gods prayed to Lord Vishnu.  Then Lord Vamana took incarnation as a Brahmin and came to seek alms from King Bali.  Even after the Guru's refusal, Bali donated three steps of land.  God measured the whole sky in three steps and sent King Bali to the abyss, measuring the earth.  Thus, this festival is also famous as Balev due to Lord Vishnu shattering the pride of the sacrificial king.  It is said that once the sacrifice went into the abyss, then with the power of devotion, Bali took the promise of being in front of God night and day. Narada ji told Laxmi ji that he was troubled by the Lord not returning home.  Following that remedy, Lakshmi went to King Bali and tied her Rakshabandhan and made her her brother and brought her husband Lord Bali with her.  That day was the full moon date of Shravan month.  In a passage in the Vishnu Purana it is said that on the full moon day of Shravan, Lord Vishnu took the incarnation as Hayagreeva and reclaimed the Vedas for Brahma.  Hayagreeva is considered a symbol of learning and wisdom.

शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

महर्षि वेदव्यास

तं  नमामि  महेशानं  मुनिं  धर्मविदां  वरम् ।

श्यामं जटाकलापेन  शोभमानं  शुभाननम् ॥ 

मुनीन् सूर्यप्रभान् धर्मान् पाठयन्तं सुवर्चसम् । 

नाना  पुराण  कर्तारं   वेदव्यासं   महाप्रभम् ॥ 


जो धर्म के निगूढ़ तत्त्व को जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ हैं ,जिनका वर्ण श्याम है। और जिनका मंगलकारी मुखमण्डल जटाजूट से सुशोभित है तथा जो सूर्यके समान प्रभा वाले मुनियों को धर्मशास्त्रों का पाठ पढ़ाने वाले हैं ।ज्योतिर्मय हैं ,अत्यन्त कान्तिमान् हैं , सभी पुराणों तथा उपपुराणों के रचयिता हैं । उन महेशान वेदव्यासजी को बारम्बार नमस्कार है।

साक्षात् नारायण ही जगद्गुरु व्यासके रूप में अज्ञानान्धकार में निमग्न प्राणियों को सदाचार एवं धर्माचरण की शिक्षा देने के लिये अवतीर्ण हुए और प्रसिद्धि यही है कि व्यासजी आज भी अजर  अमर हैं । सच्चे भक्तों को आज भी उनके दर्शन होते हैं । वे वसिष्ठ जी के प्रपौत्र शक्ति ऋषि के पौत्र पराशर जी के पुत्र तथा महाभागवत शुकदेवजी के पिता हैं । वे शंकराचार्य , गोविन्दाचार्य और गौडपादाचार्य आदि विभूतियोंके परमगुरु रहे हैं । पुराणों में प्रसिद्धि है कि यमुना के द्वीप में उनका प्राकट्य हुआ , इसलिये वे ' द्वैपायन ' कहलाये और श्याम ( कृष्ण ) वर्णके थे , इसलिये ' कृष्णद्वैपायन ' कहलाये । वेदसंहिता का उन्होंने विभाजन किया , इसलिये वे ' व्यास ' किंवा ' वेदव्यास ' के नामसे प्रसिद्ध हुए । इतिहास , पुराण , उपपुराण , ब्रह्मसूत्र , व्यासस्मृति आदि धर्मशास्त्रों , योगदर्शन आदिके भाष्यों के वे ही रचयिता हैं । 

आज के विश्व का सारा ज्ञान - विज्ञान महर्षि वेदव्यासजी का ही उच्छिष्ट है ,अतः 'व्यासोच्छिष्टं जगत् सर्वम् ' की उक्ति प्रसिद्ध है। 'यन्न भारते तन्न भारते 'के अनुसार धर्म , अर्थ , काम तथा मोक्ष आदिके विषयमें उनके द्वारा विरचित महाभारत में जो कुछ कहा गया है , वही अन्य लोगों ने कहा है और जो उन्होंने नहीं कहा , वह अन्यत्र भी नहीं मिलता अर्थात् अन्यत्र कोई नवीनता नहीं है , जो व्यासजी ने कह दिया , वही सबके लिये आधेय बन गया। भगवान् व्यासदेव का शुद्ध सत्संगरूपी धर्म - सत्र विविधरूप से निरन्तर चलता रहता था । उनकी धर्मगोष्ठी में ब्रह्मतत्त्व का निरूपण , परमात्मा के निर्गुण - सगुण स्वरूपों का विचार , धर्म - कर्मों की व्यापकता तथा उनके फलाफल की मीमांसा , धर्माचरण की महिमा आदि विषयों पर गहन चर्चा होती रहती थी । वे स्वयं भी धर्म के आचरण तथा सदाचार के पालन में निरन्तर निरत रहते थे । वस्तुतः धर्म - तत्त्व के विषय में आज संसार जो कुछ भी जानता है , वह वेदव्यासजी की ही देन है । वेद तो धर्म संहिताएँ ही हैं । पुराणों में धर्म , दर्शन एवं आचार मीमांसा पद - पदपर भरी पड़ी है । महाभारत तो धर्मविषयक कोश ही है । वह व्यासजी की ही रचना है । स्मृतियाँ तो ' व्यास ' लघुव्यास  इस प्रकारसे उनके नाम से ही - प्रसिद्ध हैं ।

वस्तुतः सच्चा धर्म और सम्यक् आचारदर्शन व्यासदेव की वाणी में ही संनिहित है । इसके लिये सारा विश्व अनन्तकाल तक उनका ऋणी रहेगा । उनकी  महिमा अपार है । शास्त्रों में उनका दिव्य चरित्र अनेक प्रकारसे गुम्फित है । वेदव्यासजी ने एक ही वेदके ऋक् , यजुः , साम और अथर्व नामसे चार विभाग किये । उन्होंने ऋग्वेद पैल को , सामवेद जैमिनि को , यजुर्वेद वैशम्पायन को और अथर्ववेद सुमन्तु को पढ़ाया था । उन्होंने परमहंसों की संहिता भागवत की रचनाकर उसे अपने निवृत्तिपरायण पुत्र शुकदेवजी को पढ़ाया था ।वेदव्यास जी की महिमा अपार है। व्यास जी ने सभी वेद धर्म गर्न्थो की रचना बद्रीनाथ धाम में की जो आज व्यास गुफा के रूप में स्थित है।जहाँ से ज्ञानगंगा का प्रवाह निकालकर पूरे विश्व को सिंचित करता है ,ऐसे भगवान वेदव्यासजी के चरणों मे कोटि कोटि नमन वन्दन करते है।

शनिवार, 25 जुलाई 2020

विवाह मङ्गलाष्टकम्

 
             ।।मङ्गलाष्टकम्।।

गंगा गोमति गोपतिर्गणपतिर्गोविन्द गोवर्द्धनो 
गीता गोमय गौरिजा गिरिसुता गंगाधरो गौतमः ।
गायत्री गरुडो गदा गिरिगजो गम्भीर गोदावरी  
गन्धर्व ग्रह गोप गोकुल गणाः कुर्वन्तु वो मंगलम् ।।१।। 

यावत्तोयधरा धरा धर धरा धारा धरा भूधरा 
यावच्चारु सुचारु चारु चमरं चामीकरं चामरम् । 
यावद् राघव राम राम रमणं रामायणं श्रूयते 
तावद् भोग विभोग भोग भुवन भोगाय ते नित्यशः ।।२।।

ईशानो गिरिशो मृडः पशुपतिः शूली शिवःशंकरः 
भूतेशः प्रमथाधिपः स्मर हरो मृत्युञ्जयो धुंर्जटि:। 
श्रीकण्ठो वृषभध्वजो हर भवो गंगाधरस्त्र्यम्बकः 
श्रीरुद्र सुरवृन्दवन्दित पदः कुर्यात् सदा मंगलम् ।।३।।

लक्ष्मीस्ते पंकजाक्षी निवसतु भवने भारती कंठदेशे,
वर्द्धन्ता बन्धुवर्गः सकलरिपुगणा यान्तु पातालमूलम् ।
देशे देशे च कीर्तिः प्रभवतु भवतां पूर्ण कुन्देन्दुशुभ्रा 
जीव त्वं पुत्र पौत्रैः स्वजन परिवृत्तो भुक्ष्व राज्यं विशालम् ।।४।। 

सिंहादुत्थाय कोपाद् ध धड़ धड़ धावमाना भवानी 
दैत्यानां दिव्यशस्त्रैस्त तड तड़ त्रोटयन्ती शिरांसि ।
तेषां रक्तं पिबन्ती घु घुट घुट प्रेक्षणीया पिशाची 
तृप्ता तृप्ता हसन्ती ख खत खत शाम्भवी वः पुनातु।।५।।

गंगा सिन्धु सरस्वती च यमुना गोदावरी नर्मदा  
कावेरी सरयू महेन्द्रतनया चर्मण्वती वेदिका ।
क्षिप्रा वेत्रवती महासुरनदी ख्याता गया गण्डकी 
पूर्णा पुण्य जलैः समुद्र सहिताः कुर्वन्तु वो मंगलम् ।।६।। 

नाना रूप सुरूपिता सुखकरा सामीप्य सायुज्यदा 
लाना धाम विराजिता पर पदा पूज्यापरा पापहा ।
नाना नाम सुपूजिता सुफलदा सेव्या सदा सौख्यदा 
ध्येया सा भुवनेश्वरी भगवती मातेश्वरी अम्बिका ।।७।।

अन्तर्बाह्य गता च या रिपुकृता बाधा सदा नाशिनी 
नाना क्लेशहरा वराभयकरा वाञ्छामनो दायिनी ।
या नित्या करुणामयी मतिमयी माता घनानन्ददा 
सा पूज्या जगदीश्वरी भगवती शाकम्भरी अम्बिका ।।८।।
 
चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पट धरो 
जटाधारी कण्ठे भुजगपति हारी पशुपतिः ।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशेक पदवीं 
भवानि त्वत्पाणिग्रहण परिपाटी फलमिदम् ।।९।।

श्रीमत्पङ्कजविष्टरो हरिहरौ वायुर्महेन्द्रोऽनल- 
श्चन्द्रो भास्कर वित्तपालवरुणाः प्रेताधिपादिग्रहाः।
प्रद्युम्नो नलकूवरः सुरगजश्चिंतामणिः कौस्तुभः
स्वामी शक्तिधरश्च  लांगलधरः कुर्वन्तु नो मङ्गलम्।।१०।।

गङ्गा गोमतिगोपतिर्गणपतिर्गोविन्द गोवर्द्धनो 
गीतागोमय गौरिजो गिरिसुता गङ्गाधरो गौतमः । 
गायत्री गरुडो गदाधर गया गम्भीर गोदावरी गन्धर्वग्रहगोपगोकुलगणाः कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥११॥

नेत्राणां  त्रितयं  शिवं  पशुपतेरग्नित्रयं पावनं 
पुण्यं विष्णुपद त्रयं त्रिभुवनं ख्यातं च रामत्रयम् । 
गङ्गावाह पथत्रयं  सुविमलं  देव  त्रयं  ब्राह्मणं
सन्ध्यानां त्रितयं द्विजैः सुविहितं कुर्वन्तु नो मङ्गलम्  ॥१२॥ 

गौरी श्रीः कुलदेवता च सुभगा भूमिः प्रपूर्णा शुभा 
सावित्री च सरस्वती सुरनदी सत्यव्रतारुन्धती ।
सत्या जाम्बवती च रुक्मभगिनी दुःस्वप्नविध्वंसिनी 
वेला चाम्बुनिधेः सुमीनमकराः कुर्वन्तु गे मङ्गलम्  ।।१३ ।। 

अश्वत्थो वटवृक्षचन्दनतरुर्मन्दारकल्पद्रुमौ
जम्बूनिम्बकदम्बआम्रसरला वृक्षाश्च ये क्षीरिणः । 
सर्वे ते फलसंयुताः प्रतिदिनं विम्राजनं राजते
रम्यं चैत्ररथं च नन्दनवनं कुर्वन्तु नो मङ्गलम्  ॥१४ ॥ 

वाल्मीकिः सनकः सनन्दन तरुर्व्यासो वशिष्ठो भृगु-
र्जावालिर्जमदग्निकच्छजनको गर्गाऽङ्गिरा गौतमः ।
मान्धाता भरतो नृपश्च सगरो धन्यो दिलीपो नलः 
पुण्यो धर्मसुतो ययातिनहुषौ कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ।।१५।।

लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुरा धन्वतरिश्चन्द्रमा 
गावः काम दुघाः सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवाङ्गनाः । 
अश्वः सप्तमुखः सुधा हरिधनुः शंखो विषं चाम्बुधे 
रत्नानीति चतुर्दश प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ।। १६।।

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

कृपानुभूति

जीवन मे अनायास बिना सोच विचार के कोई कार्य घटित हो जाय वह घटना है।घटनाओं का जीवन मे होना रहस्य की तरह होते है।कुछ घटनाओं का अच्छा, बुरा होना जीवन को परिवर्तित कर देते है,और कुछ घटना चिन्तन करने को मजबूर कर देती है।घटना जीवन मे खाते,सोते,जागते,यात्रा करते कभी भी हो सकते है,जिन्हें हम अच्छा,बुरा सोचकर विचार करते है।आमतौर पर हर किसी के जीवन मे कुछ न कुछ रहस्यों से भरी घटनाये होती रहती है।कभी ,कभी हमे घटनाओं के द्वारा संकेत मिलते है।जो हमे सतर्क करती है।

एक घटना तब की है जब में काशी में रहकर पढ़ाई करता था।मेरे मित्र ने कहा आपको आश्विन नवरात्र में उत्तराखंड के जनपद पौड़ी जाना है।मित्र के कहने पर में नवरात्रि में पाठ के लिए  यजमान के घर पहुँच गया।विधिवत ढंग से नवरात्र सम्पन्न करके अपने घर जाने लगा तो  यजमान मुझे कुछ दूर छोड़ने के लिए आये,यजमान ने रास्ता बताया वो लौट गए।पैदल सुनशान रास्ते पर चलता चला गया ।कुछ दूर जाने पर विशाल जंगल मे प्रवेश किया कुछ दूर जाने पर रास्ता भटक गया ,जंगल से न घर का रास्ता मिला न वापस बाहर जाने का रास्ता ,रात होने में 2 घंटा बाकी था ,कुछ भी समझ नही पा रहा था दूर दूर तक कोई घर गांव इंसान नही दिखाई दे रहे थे।पैदल चलते थकान बहुत हो रही थी। कहते जब सारे रास्ते बन्द हो जाय तो एक रास्ता हमेशा खुला रहता है।वो है भगवान कि शरण,मैंने मन ही मन माता रानी को याद किया आगे चलकर देखा एक बच्चा दिखाई दिया मैने बच्चे से पूछा तुम यहाँ क्या कर रहे हो ,वो कुछ भी नही बोला, में घबराने लगा ,फिर साहस किया ,और पूछा तुम यहाँ क्या कर रहे हो ,तब बच्चे ने एक ओर इशारा किया ,बच्चे ने जिस ओर इशारा किया में उस रास्ते पर चलने लगा ,कुछ आगे चलने पर पीछे मुड़कर देखा जंगल मे कोई नही था ।तब मन मे विश्वास हुआ कि वो बच्चा कोई नही बल्कि माता रानी का चमत्कार था ।जिन्होंने मेरी सहायता की और में आराम से घर पहुँच गया।  

हर व्यक्ति घर से बाहर निकलता है,अपने दैनिक कार्यो को संपादित करता है।बनते कार्य बिगड़ना या बिगड़े काम बन जाय ये सब घटना क्रम है।कभी छोटी घटना तो कभी बड़ी दुघर्टना कभी शाररिक कभी सांसर्गिक घटनाऐ जीवन मे अधिक धन कि पिपासा भाग दौड़ ने घटना क्रम को अधिक बढाया जिससे जन धन की हानि होती है।

   

जीवन मे सत्य पर चलने वाले और भक्ति मार्ग पर चलने वालो कि रक्षा ,सत्य व धर्म के द्वारा होती रहती है।



पुरुषोत्तम वन्दना

    सशंखचक्रं सकिरीट कुण्डलं 
    सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम् ।। 
    सहारवक्षः स्थलकोस्तुभश्रियं 
    नमामि विष्णु शिरसा चतुर्भुजम् ।।

हे रामाः पुरूषोत्तमा नरहरे नारायणाः केशवाः।
गोविन्दा गरुडध्वजाः गुणनिधेदामोदराः माधवा ।।
हे कृष्णाः कमलापते  यदुपते सीतापते श्रीपते।
बैकुण्ठाधिपते  चराचरपते लक्ष्मीपते पाहिमाम् ।।  

आदौ राम तपोवनादिगमनं हत्वा मृगं कांचनम्। 
बैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव  संभाषणम् ।। 
बाली निर्दलनं  समुद्र तरणं लंकापुरी दाहनम् । 
पश्चात् रावण कुम्भकर्णहननं एतद्धि रामायणम् ।। 

आदौ देवकी देवगर्भ जननम् गोपीगृहे वर्द्धनम् । 
मायापूतन  जीवितापहरणं    गोवर्धनो  धारणं ।।
कंसच्छेदन कौरवादि हननं कुन्तीसुता पालनम् ।
एतद्ध श्रीमद्भागवतपुराणकथितं श्रीकृष्ण लीलामृतम् ।।

आदौ पाण्डव धार्तराष्ट्र जननं लाक्षागृहे दाहनम् ।
द्यूतस्त्रीहरणम् वने विचरणं मत्स्यालया वेधताम् ।। 
लीला गोहरणं वने विचरणं संध्या क्रिया वर्धनम् । 
पश्चाद् भीष्म सुयोधनादि हननं चैतन् महाभारतम् ।। 

कस्तूरीतिलकं ललाटपटले वक्षःस्थले कौस्तुभम्।
नासाग्रेवरमौक्तिकं करतले वेणुः करे कंकणम् । ।
सर्वांगे हरिचन्दनम् सुललितं कण्ठे च मुक्ताबलिः।
गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते गोपाल  चूड़ामणि: ।।

फुल्लेन्दी  वरकान्ति  मिन्दुवदनं   वर्हवतंसप्रियं।
श्री वत्सांक मुदार कौस्तुभधरं पीताम्बर सुन्दरम् ।।
गोपीनां नयनत्पलार्चिततनुं गोगोप  संघावृतम् ।
गोविन्द कलवेणु वादनपरं  दिव्यांगभूषं भजे ।।

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं ।
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभांगम् ।।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं ।
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ।। 

यं ब्रह्मावरुणेन्द्ररुद्रमरुतःस्तुन्वन्ति दिव्यैःस्तवैः। 
वेदैःसांगपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति  यं   सामगाः।।
ध्यानावस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो।
यस्यान्तं न विदुःसुरासुरगणाः    देवाय तस्मै न ।।

एकोपि कृष्णस्य कृत प्रणामो।
दशाश्व  मेधा  भृथेन   तुल्य: ।।
दशाश्व  मेधे  पुनरेपी   जन्म।
कृष्ण  प्रणामो  न  पुनर्भवाम।।

आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा

मंगलवार, 21 जुलाई 2020

श्री बजरंग बाण




कुछ दुष्ट अदृश्य शक्तियां कभी कभी चिन्ता व तनावग्रस्त कमजोर मानस वाले व्यक्तियों को ग्रह दशा अथवा अपवित्रता रूपी  दोष के कारण सताती हैं । इस प्रकार की बाधाओ को दूर करने के लिए मन मे आत्म विश्वास और मनोबल जगाकर बजरंग बाण का अमोघ अस्त्र है । नियमित पाठ से अनायास उत्पन्न भय ओर सब प्रकार के कष्टों का अंत होता है।

 सर्वप्रथम पवित्र हो  धूप दीप उपचार से श्री हनुमान जी की पूजा कर उनका अपने हृदय में ध्यान करे । 


         अतुलित बल धामं  हेम शेलाभदेहं।

         दनुज बन कृशानु ज्ञानिनामग्रगण्यम।।

         सकल गुण निधानं वानराणामधीशं  ।

         रघुपति प्रिय भक्तं वातजातं नमामि ।।


  ।।  श्री बजरंग बाण।।

निश्चय प्रेम प्रतीति ते विनय करै सन्मान।

तेहि के कारज सकल शुभ सिध्द करै हनुमान ।।


           जय हनुमंत संत हितकारी

           सुन लीजै प्रभु विनय हमारी

           जन के काज विलंब न कीजे

           आतुर होहि महासुख दीजे । ।


            जैसे कूदि सिन्धु के  पारा 

            सुरसा बदन पैठि विस्तारा 

           आगे जाय  लंकिनी रोका 

            मारेहु लात गई सुर लोका ।।


           जाय विभीषण को सुख दीन्हा 

           सीता निरखि परमपद लीन्हा 

           बाग उजारि सिंधु महँ बोरा 

           अति आतुर जमकातर तोरा । ।


          अक्षयकुमार मारि संहारा 

          लूप लपेटि लंक को जारा

          लाह समान लंक जरि गई 

          जय जय धुनि सुरपुर नभ भई । ।


       अब विलम्ब केहि कारण स्वामी 

        कृपा  करहुं  उर  अंतरयामी 

        जय जय लखन प्राण के दाता 

       आतुर हो दुःख कर हु निपाता । ।


         जय हनुमान जयति बल सागर

         सुर समूह समरथ भटनागर 

     ॐ हनु  हनु  हनु  हनुमत  हठीले 

         बैरिहि  मारू बज्र  की  कीले ।।


      ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमन्त कपीशा

      ॐ हुँ हुँ हुँ हनु अरि ऊर शीशा

          जय अंजनि कुमार बलवंता

         शंकर सुवन   बीर हमुमन्ता ।।


        वदन कराल काल कुल घालक

        रामसहाय सदा प्रतिपालक

        भूत प्रेत पिशाच निशाचर 

        अगनि बेताल काल मारी मर ।।


         इन्हे मांरू तोहि शपथ राम की 

         राखु नाथ मरजाद नाम की

         सत्य होहु हरि शपथ पाइ के

         राम दूत धरू मारि धाई के ।।


          जय जय जय हनुमंत अगाधा

          दुःख पावत जन केहि अपराधा

          पूजा  जप  तप नेम  अचारां 

          नहिं जानत कछु दास तुम्हारा ।।


          वन उपवन मग गिरि गृह मांही

          तुम्हरे बल हो डर पत नाही 

          जनक सुता हरि दास कहावो 

          ताकी शपथ विलम्ब न लावो ।।


            जय जय जय धुनि होत आकाश

            सुमिरत होय दुसह दुःख नाशा 

            चरन पकरि कर जोरी मनावों 

            येही ओसर अब केहि गोहरावों । ।


            उठ उठ चलु तोहि राम दोहाई 

            पाय परों कर जोरि मनाई 

         ॐ चम चम चम चम चपल चलंता

         ॐ हनु हनु हनु हनु हनु हनुमन्ता।।


          ॐ हँ हँ हाँक देत कपि चंचल

          ॐ सँ सँ सहमि पराने खल दल 

             अपने जन को तुरंत उबारो 

             सुमिरत होय आनन्द हमारो ।।


            यह बजरंग बाण जेहि मारै 

            ताहि कहो फिर कोन उबारे 

            पाठ करे बजरंग बाण की 

            हनुमत रक्षा करै प्राण की । ।


            यह बजरंग बाण जो जापै

            तासों भूत प्रेत सब कांपे

            धूप देय जो जपे हमेशा 

            ताके तन नहीं रहे कलेशा । ।


        दोहा 

    उर प्रतीति दृढ़ शरण ह्वै पाठ करे धरि ध्यान ।

    बाधा सब हर करें सब काम सफल हनुमान ।।

      ।। सिया वर रामचंद्र की जय।।

      ।। पवनसुत हनुमान की जय।।

      ।।उमापति महादेव की जय।।

रुक्मणि जी ने भगवान कृष्ण जी को पति रूप में पाने के लिये किया पाठ

कन्याओ के विवाह में विलम्भ हो राह हो उन कन्याओ को इन मंत्रो का पाठ करना चाहिए ।पाठ करने से शीघ्र विवाह योग व मन इच्छित वर की प्राप्ति होती है।इसका21 पाठ करने के बाद लिखकर सदक्षिणा ब्राह्मण को दान दे ।शीघ्र मनोकामनापूर्ण होगी।             

                रुक्मिण्युवाच 
श्रुत्वा गुणान् भुवनसुन्दर शृण्वतां ते
निर्विश्य कर्ण विवरैर्हरतोऽङ्गतापम् । 
रूपं दृशां दृशिमता मखिलार्थ लाभं 
त्वय्यच्युता विशति चित्तमपत्रपं मे ॥१।।

              का त्वा मुकुन्द महती कुलशीलरूप ।
              विद्या वयो द्रविण धाम भिरात्मतुल्यम
              धीरा पतिं कुलवती न वृणीत कन्या 
              काले नृसिंह नरलोक मनोभिरामम् ॥२।।

तन्मे भवान् खलु वृतः पतिरङ्ग जाया
मात्मार्पितश्च भवतोऽत्र विभो विधेहि ।
मावीर भाग मभिमर्शतु  चैद्य आराद् 
गोमा  युवन्मृगपतेर्बलि   मम्बुजाक्ष ॥३ ।।

                   पूर्तेष्ट  दत्त  नियम व्रत  देव  विप्र
                   गुर्वर्चनादि भिरलं भगवान्  परेशः । 
                   आराधितो यदि गदाग्रज एत्य पाणिं 
                   गृह्णातु मे न दमघोष सुतादयोऽन्ये ॥ ४।।

श्वो भाविनि त्वमजितोद्वहने विदर्भान्
गुप्तः समेत्य पृतना पतिभिः परीतः ।
निर्मथ्य चैद्य  मगधेन्द्र    बलं प्रसह्य
मां राक्षसेन विधिनो द्वह वीर्यशुल्काम् ॥ ५ ।।

                   अन्तः पुरान्तर  चरीमनिहत्य  बन्धूं
                   स्त्वा मुद्वहे कथमिति प्रवदाम्यु पायम् ।
                   पूर्वे   धुरस्ति   महती   कुलदेवियात्रा
                   यस्यां बहिर्नववधूर्गिरिजा मुपेयात् ॥६।।

यस्याध्रि पङ्कज रजःस्नपनं महान्तो 
वाञ्छन्त्यु मापति रिवात्म तमोऽपहत्यै । 
यर्ह्यम्बुजाक्ष    न   लभेय    भवत्प्रसादं 
जह्या मसून् व्रतकृशाञ्छत जन्मभिः स्यात् ॥ ७।।

                  ब्राह्मण उवाच
 इत्येते गुह्यसन्देशा यदुदेव मयाऽऽहृताः ।
 विमृश्य कर्तुं यच्चात्र क्रियतां तदनन्तरम् ॥8।।



आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
      वसई मुम्बई
  

सोमवार, 20 जुलाई 2020

पृथ्वी को धारण करने वाले सात तत्व व उनका महत्व

        

        गोभिर्विप्रैश्च वेदैश्च सतीभिः सत्यवादिभिः ।

        अलुब्धैर्दान  शीलैश्च   सप्तभिर्धार्यते मही ।।

गौ, ब्राह्मण , वेद , सती , सत्यवादी , निर्लोभी और दानशील इन सातो ने पृथ्वी को धारण कर रखा है।

    1.गौ -

 गाय का आध्यात्मिक रूप तो पृथ्वी है ही ,प्रत्यक्ष रूप में भी उसने पृथ्वीको धारण कर रखा है । समस्त मानव - जातिको किसी - न - किसी प्रकार से गौ के द्वारा जीवन तथा पोषण प्राप्त होता है । प्राचीन काल से यज्ञों में घृत की प्रधानता। दैव - पित्र्य आदि समस्त कार्य घृत से ही सुसम्पन्न होते हैं । दुर्भाग्य है कि आज गोघृतके बदले में नकली घी हमारे घरों में आ गया है। गाय, दूध , दही , घी, गोबर , गोमूत्र देती है । उसके बछड़े बैल बनकर सब प्रकार के अन्न आदि उत्पन्न करते हैं । दुःख की बात है। कि हमारी जीवनस्वरूपा वह गौ आज भारतवर्ष में है, प्रतिदिन हजारोंकी संख्यामें कट रही है । अतः आज आवश्यक है कि हम गौ का संरक्षण कर उसकी सेवा करें। अपने जीवन को उत्तम बनायें । 

    2.विप्र -

 पता नहीं , किस अतीतकालसे ब्राह्मणने त्यागमय जीवन बिताकर विद्योपार्जन तथा विद्या - वितरण का महान् कार्य आरम्भ किया था , जो किसी न किसी रूप में अब तक चल रहा है। ब्राह्मणने पृथ्वी के लोगों को ज्ञान के प्रकाश का दान न दिया होता तो वे सर्वथा अज्ञानान्धकार में पड़े रहते , अतः मनुष्य मात्र का कर्तव्य है। कि वह अपनी जीवनचर्या में इनके प्रति कृतज्ञ भाव रखे ।

   3. वेद - 

परमात्मा के यथार्थ ज्ञान या ज्ञान कराने वाले ईश्वरीय वचनों का नाम वेद है । यह वेद अनादि है । वेदमें , समस्त ज्ञान भरा है । इतिहास - पुराणादि भी उसी के अनुवाद है।समस्त कर्म पद्धति तथा संस्कार  एवं ज्योतिष आदि सभी का उदगम स्थान वेद ही है। 

    4.सती - 

सती स्त्रियाँ पृथ्वी की दृढ़ स्तम्भरूपा है । सतियोंके त्याग , तेज प्रताप से मानव का बड़ा विलक्षण सात्त्विक बल मिलता रहा है ।और अब भी मिल रहा है । सती की स्मृति ही पुण्यदायिनी है । नारियों के लिये पातिव्रत और पुरुषोंके लिये एकपत्नीव्रत भारतीय जीवन में एक गरिमामय अंग है । सतियों की पवित्र सन्तान से ही लोक का संरक्षण अभ्युदय होता है।

   5.सत्यवादी -

 जगत्का सारा व्यवहार सत्यपर आधारित है। झूठ बोलनेवाले भी सत्यकी महिमा स्वीकार करते हैं।सत्य भगवान्का स्वरूप है। इस सत्यको स्वीकार करके सत्यभाषणपरायण पुरुषोंने अपनी जीवनचर्यासे जगत्के मानवोंके सामने एक महान् आदर्श रखा , सत्यसम्पन्न जीवनचर्या जीवनको सरल,शुद्ध तथा शक्तिशाली बनानेमें भी सहायता करती है। झूठ भ्रमवश पनपता भले ही दीखे , अन्तमें विजय सत्यकी ही होती है । 

सत्य तथा सत्यवादियोंके द्वारा उपजाये हुए विश्वासपर ही जगत के व्यवहार टिके हैं । जबतक जगत में सत्यवादी मानवोंका अस्तित्व बना रहेगा - चाहे वे थोड़े ही हों , तबतक जगत्की स्थिति रहेगी । 

    6. निर्लोभी -

 पापका बाप लोभ है । लोभ के कारण ही विविध प्रकार के नये - नये दुर्गुण , दोष तथा पाप उत्पन्न होते हैं तथा परिणाम में महान् संताप की प्राप्ति होती है । चोरी , बेईमानी , चोरबाजारी , घूसखोरी , डकैती , ठगी , लूट ,

वस्तुओंमें मिलावट आदि चरित्रको भ्रष्ट करनेवाले सारे अपराधोंका मूल लोभ ही है , अतः मनुष्य को अपनी जीवनचर्या में इससे बचना चाहिये । लोभी मानव स्वयं सदा अशान्त तथा दु : खी रहता है और सबको दुःखी बनाता है । वह पृथ्वीके सद्गुणोंका उच्छेदक है । इसके विपरीत जो लोभहीन है , वही सच्चा मानव समस्त दुर्गुणों , दोषों तथा पापोंसे स्वयं बचता तथा सबको बचाता हुआ मानवता का विकास , संरक्षण तथा संवर्धन करता है - इस प्रकार वह पृथ्वी को धारण करता है ।

     7.दानशील -

 सारी सुख - शान्तिका मूल प्रेम है तथा प्रेम का मूल त्याग है । दानमें त्याग की प्रधानता है । जो मानव अपने धन  विद्या  ज्ञान अन्य साधन सामग्री का दान करता है ,वही दानशील है।दानशील मानव लोभ,कृपणता, परिग्रहवृति आदि का नाश करता है,लोगो मे सेवा सहायता की भावना उत्पन्न करता है,उदारता का विस्तार होता है।दान इहलोक व परलोक में कल्याणकारी है,मानव को जीवन मे सातो तत्वों को महत्व देते हुए इन्हें जीवन मे धारण करना चाहिये । ये सात तत्व नर को नारायण बना देते है।


           
       
                
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रविवार, 19 जुलाई 2020

षोडश संस्कार


जीवनचर्या में संस्कारों की अत्यन्त आवश्यकता  परम उपयोगिता है । संस्कारसम्पन्न मनुष्य सुसंस्कृत और चरित्रवान तथा सदाचारी होता है ।संस्कार के बहुत अर्थ है , संस्कार मतलब शुद्ध करना, मनुष्य के जीवनचर्या में सोलह संस्कार होते है।मनुष्य जीवन भगवान का दिया एक वरदान है,जिसे सुसज्जित रखना जीव का कार्य है।अच्छे व बुरे कर्मो की परख से जीवन को सुखमय बनाकर गृहस्थ के नियमो में रहकर जीवन को आनन्दित करना चाहियें।जीव जब काल चक्र में प्रवेश करता है, तो माया उसे घेर लेती है।जीव को माया से बचने के लिए धर्म का पथ अपनाना चाहिये, जो हमे हमारे संस्कारो द्वारा प्राप्त होता है।संस्कारवान मनुष्य सदैव पूजनीय होता है,भारतीय संस्कृति में संस्कारों का सर्वाधिक महत्व है, षोडशसंस्कार इस प्रकार है।जो गर्भसे प्रारम्भ होकर अन्त्येष्टि पर समाप्त होता है।
                 💐 षोडश संस्कार💐



संस्कार पाँच भागोंमें होता है -
१ .गार्भिकसंस्कार , 
२. शैशवसंस्कार ,
३ .शैक्षणिकसंस्कार , 
४. आश्रमिकसंस्कार 
५. प्रयाणसंस्कार

( १ ) गर्भीकसंस्कार तीन होते हैं -
१ . गर्भाधानसंस्कार , 
२. पुंसवनसंस्कार और 
३. सीमन्तोन्नयनसंस्कार ।
    ये तीनों संस्कार माता पिता द्वारा सम्पन्न होते हैं ।

( २ ) शैशवसंस्कार छ : होते हैं -
१ . जातकर्मसंस्कार ,
२. नामकरणसंस्कार , 
३. निष्क्रमणसंस्कार ,
४. अन्नप्राशन संस्कार , 
५. चूडाकर्मसंस्कार ,
६. कर्णवेधसंस्कार ,
ये सभी संस्कार बाल्यकाल में मातापिता द्वारा संपादित किये होते है।

( ३ )शैक्षणिकसंस्कार तीन होते हैं -
१ .उपनयनसंस्कार , 
२. वेदारम्भसंस्कार,
३. समावर्तनसंस्कार ,
ये तीनों  संस्कार ब्रह्मचर्य -आश्रम में आचार्य द्वारा सम्पन्न कराये जाते हैं । 

( ४ ) आश्रमिकसंस्कार भी तीन होते हैं -
१ . विवाहसंस्कार , 
२. वानप्रस्थसंस्कार,
३. संन्याससंस्कार,
 १. विवाहसंस्कार चाहे पुत्र का विवाह हो या पुत्री का , माता और पिताके द्वारा सम्पन्न कराया जाता है ।
2. वानप्रस्थसंस्कार पुत्रको गृहभार सौंपकर वनमें जाकर सम्पन्न किया जाता है।
3.संन्यास संस्कार स्वयं संपन्न किया जाता है
( ५ ) प्रयाणसंस्कार अंत्येष्टि संस्कार को कहते है।यह संस्कार देहान्त के बाद पुत्रादि द्वारा सम्पन्न कराया जाता है
                 1.गर्भाधानसंस्कार
सोलह संस्कारों में सर्व प्रमुख गर्भाधान संस्कार है।सन्तानके लिये पुरुष स्त्रीसै विवाह करता है,पुरुष स्त्री गर्भाधान संस्कार के द्वारा सन्तान के लिये अपने कर्तव्य का पालन करते है। 
               २. पुंसवनसंस्कार
गर्भ के  व्यक्त होने पर द्वितीय मास में और गर्भके व्यक्त न होने पर तृतीय अथवा चतुर्थमासमें पुंसवनसंस्कारका विधान है । पुत्रोत्पत्ति की इच्छा से इस संस्कार को किया जाता है। 

           ३. सीमन्तोन्नयनसंस्कार 
पति द्वारा पत्नी के केशो में तैल डालकर कंधी द्वारा केशों को उन्नतकर माँग निकालने को सीमन्तोन्नयन कहते है। इसे चौथे मास में सम्पन्न कराने चाहिये।

               ४. जातकर्मसंस्कार
 यह संस्कार शिशु के उत्पन्न होने पर मनाया जाता है । उत्पन्न शिशु को पिता की गोद मे दिया जाता है । शिशुकी जिह्वा पर पिता अपनी अंगुलि से शहद द्वारा ॐ लिखता है और उसके दोनों कानों में  ' वेदोऽसि ' वाक्यका उच्चारण करता है । ' शतायुर्भव ' इस वाक्यसे पिता शिशुको आशीर्वाद देता है । महिलाओंद्वारा मांगलिक गीत गायन का विधान है । इस अवसर पर मोदकवितरण किया जाता है। 

              ५. नामकरणसंस्कार
 गोभिल और शौनक कृत गृह्यसूत्रों के अनुसार नवजात  शिशु का ग्यारहवें दिन नाम रखा जाता है । पुरोहित द्वारा पूजा हवनकर्म के बाद जातकका नाम रखा जाता है , उसे नामकरण संस्कार कहते है। जातक का नाम रखना चाहिए जातक का नाम लौकिक व्यवहारों में उसके भाग्योदय का हेतु है। जातक अपने नामसे जीवनचर्या में कीर्ति प्राप्त करता है।


              ६. निष्क्रमणसंस्कार 
चतुर्थ मास में निष्क्रमण संस्कार किया जाता है ,शिशु को घर के बाहर निकलकर सूर्य नारायण के दर्शन कराया जाता है।

              ७. अन्नप्राशनसंस्कार
 शिशु को छ : महीने के होनेपर अन्न का प्राशन कराया जाता है । खीर चटनी चटानी चाहिये।

                ८. चूडाकर्मसंस्कार 
 शिशु के प्रथमवर्ष में अथवा तृतीयवर्ष में केशच्छेदन का विधान है , इसे मुण्डनसंस्कार भी कहते हैं ।

               ९ . कर्णवेधसंस्कार
 शिशु के तृतीय अथवा पंचमवर्षमें उसके कान छेदे जाते हैं , रोग से रक्षा व आभूषण धारण करने के लिए कर्णवेध संस्कार किया जाता है।
                  
               १०. उपनयनसंस्कार 
 उपनयनका अर्थ है समीप में ले जाना ।जातक का आचार्य द्वारा उपनयन किया जाता है। उस जातक को वेदाध्ययन का अधिकार प्राप्त हो जाता है।इस संस्कार को यज्ञोपवीत संस्कार भी कहते है।यज्ञोपवीत होने से हव्य ,कव्य का अधिकार प्राप्त होता है।

                ११. वेदारम्भसंस्कार
माता पिता अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए। जातक को गुरुकुल में वेदाध्ययन के लिए प्रवेश कराते है।जातक गुरुकल में रह कर बृह्मचर्य का पालन कर ,जीवन की कलाओ को ग्रहण करता है।

                १२. समावर्तनसंस्कार
गुरुकल से वेदाध्ययन के बाद आचार्य की आज्ञा से गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के लिये आज्ञा प्राप्त कर गृह गमन करता है।।इसे दीक्षान्त संस्कार भी कहते है।

               १३. विवाहसंस्कार
  विद्याध्ययन के बाद सन्तान की उत्पत्तिके लिये नर द्वारा नारी के पाणिग्रहण को विवाह कहते हैं । इसमें कन्या के माता पिता द्वारा कन्यादान किया जाता है ।वर बधू एक सूत्र के बन्धन से गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते है।

             १४. वानप्रस्थसंस्कार 
 विवाहके बाद पुत्रको गृहभार सौंपकर वनगमन को वानप्रस्थसंस्कार कहते हैं । इसमें पचास वर्ष के बाद प्रवेश का  विधान है । जो पुरुष वानप्रस्थाश्रम में जगन्नियन्ता परमेश्वर का भजन करते हैं ।वे पापरहित हो परमात्माको प्राप्त करते है। 

               १५. संन्याससंस्कार
सर्वत्याग को ही सन्यास कहते है।इसमें वानप्रस्थ के नियमो के पालन से साथ सभी आशक्तियों का त्याग करना उपदेश करना उपदेश सुनना दण्डग्रहण और भिक्षा पात्रग्रहण का विधान है ।परम मोक्ष की कामना से देवदर्शन, देवपूजन ,गंगा स्नान जप दान जीव के कल्याण अन्नदान करना चाहिये।

              १६. अन्त्येष्टिसंस्कार
यह संस्कार जीव मृत्यु के बाद पुत्रादि के द्वारा पूर्ण किया जाता है ,यहां पर मनुष्य की जीवन यात्रा समाप्त हो जाती है,इसके बाद मनुष्य द्वारा किये शुभ कर्मों से सदैव पूजित होता है।  इस प्रकार मनुष्यकी जीवनचर्या में संस्कारों की अन्त्यन्त आवश्यकता है । संस्कारोंसे मनुष्य में श्रेष्ठ गुणों का विकास होता है । मनुष्य के व्यक्तित्व के निर्माण में और अनुशासित जीवन के विधान में संस्कारों की अत्यन्त उपयोगिता है । अतः मनुष्यके जीवनमें संस्कारों का विशेष महत्त्व और उनकी यथाविधि कर्तव्यता होती है , जिससे मनुष्य संस्कारसम्पन्न , चरित्रवान् , सुशील , सदाचारी और  सभ्य बनता है । इसलिये जीवनचर्या में संस्कारोंकी प्रधानता है ।
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              आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
                        वसई मुम्बई
                    मो 9004013983

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     English translation




 The utmost necessity of rituals is the ultimate utility in life.  A person who is rich in culture is cultured and characterful and virtuous. The meaning of the ritual is to purify, the sacrament means sixteen rites in the life of a human being. Human life is a boon given by God, to keep it equipped is the work of the living. Good and bad.  One should rejoice in life by living in the rules of the householder by making life happier by the action of karma. When life enters the cycle of cycle, Maya surrounds it. Jeeva must follow the path of religion to escape from Maya, which we should  Our sacraments are received. A man of honor is always revered, rites are of paramount importance in Indian culture, this is the way the shodash samskar begins from the womb and ends at the funeral.

 💐 hexadecracy


 Sanskar is performed in five parts -

 1 . Garbheek  ceremony,

 2.  Childhood ceremony,

 3.Culturalism,

 4.  Religious ceremony

 5.  Prayers


 (1) Garbheek ceremony is three -

 1.  Conception ceremony,

 2.  Resume and

 3.  Simultaneous Promotion.

 These three rites are performed by the parents.


 (2) The six ceremonies are six -

 1.  Caste work

 2.  Naming ceremony ,

 3.  Exodus

 4.  Annaprashan Sanskar,

 5.  Chudakarma ceremony,

 4.  Ear-piercing ceremony

 All these rites are performed by the parents during childhood.


 (3) There are three educational ceremonies -

 1.Upayan Samman,

 2.  Vedambhaskaram,

 3.  Inclusion ceremony,

 These three rites are performed by the Acharya in Brahmacharya-Ashram.


 (4) There are also three religious ceremonies -

 1.  Wedding ceremony ,

 2.  Vanaprastha Sanskar,

 3.  Renunciation

 1.  Marriage ceremony, whether a son is married or a daughter, is performed by mother and father.

 2. Vanaprastha ceremony is done by handing over the house to the son and going to the forest.

 3. The renunciation ceremony is performed manually

 (5) Prayan Sanskar is called funeral rites. This rite is performed by the son after the death.

 1.Galamanda ceremony

 Among the sixteen samskaras, the most important conception is rite. For the sake of the child, the male woman marries, the male woman performs her duty for the child through the conception ceremony.

 2.  Respect

 In the second month when the womb is expressed and in the third or fourth month, when the womb is not expressed, there is a law of punsavanamaskar.  This rite is performed with the desire of sonship.

 3.  Limited promotion ceremony

 Putting oil in the wife's hair by the husband and expanding the hair by the carding and removing the demand is called Seemantonnayan.  It should be completed in the fourth month.


 4.  Caste work

 This rite is celebrated when the baby is born.  The baby born is given in the father's lap.  On Shishu's tongue, the father writes द्वारा by honey with his finger and pronounces the sentence 'Vedosi' in both his ears.  With this sentence, 'Shatayughav' blesses the infant.  There is a law to sing Manglik songs by women.  Modification is done on this occasion.


 5.  Naming ceremony

 According to the Gobhil and Shaunak kriyasutras, the newborn is named on the eleventh day.  Jataka is named after the puja havanakarma by the priest, it is called naming ceremony.  Jataka should be named, Jataka is named for his fortune in cosmic practices.  The native gets fame in his name.

 4.  Exodus

 Exodus is performed in the fourth month, the child is taken out of the house and seen by Surya Narayana.

 4.  Annaprashan Sanskar

 Food is administered to the infant when he is six months old.  Kheer chutney should be chutney.

 4.  Chudakarma ceremony

 There is a law of haircut in the first year or third year of the infant, it is also known as Mundansara.

 4.  Ear-nail

 In the third or fifth year of the infant, his ears are pierced, Karnavedh is performed to protect him from diseases and to wear jewelery.

 10.  Thread ceremony

 Upanayana means to bring near. The native is upanayana by Acharya.  That person gets the right of Vedhyayana. This sacrament is also known as Yajnopavit Sanskar. Being a Yajnopavit, one gets the right of Havya, Kavya.

 11.  Altar ceremony

 Parents performing their duties.  The Jataka enters the Gurukul for Vedhyayana. The Jataka takes the arts of life by staying in the Gurukul and following Brihacharya.

 12.  Inclusion ceremony

 After Vedhyayan from Gurukal, after receiving the permission of Acharya to enter the Grihastha Ashram, the house moves. It is also called convocation ceremony.

 13.  Wedding ceremony

 Marriage is the marriage of female to male by male for the genesis of children after learning.  In this, Kanyadaan is performed by the parents of the girl. Ever Badhu enters the Grihastha Ashram with the bonding of a sutra.

 14.  Vanaprastha ceremony

 After the marriage, the handing over of the son to the son is called Vanaprasthan Sanskar.  It has the law of admission after fifty years.  Men who worship Lord Jagannata in Vanpastrashram, they receive God without sin.

 15.  Retirement

 Omnipotence is called sanyas. In this, following the rules of Vanaprastha, renouncing all the beliefs along with preaching, listening to sermons is the law of worship and begging and worshiping. Devdarshan, Devpujan, Ganga Snan chanting and donating the welfare of the living creature  Want

 14.  Funeral

 This rite is completed by the death of a son after death, here the life journey of a man ends, after which the man is always worshiped with auspicious deeds.  In this way, rites are an absolute necessity in the life of man.  Rituals develop superior qualities in humans.  Rites have great utility in building the personality of man and in the discipline of disciplined life.  Therefore, in human life, sanskars have special importance and their proper duty, so that a person becomes sanskriti, characterful, gentle, virtuous and civilized.  That is why rites have precedence in life.

 

 Acharya Harish Chandra Lakheda

 Vasai Mumbai

 Mo 9004013983




शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

लिंगाष्टक स्त्रोत्र

  

शिव जी की प्रसन्नता हेतु लिंगाष्टकम स्त्रोत्र पाठ करने से भुक्ति मुक्ति कामना पूर्ण होती है। 

                    ।। अथ लिंगाष्टकम्।।


 ब्रह्म मुरारि सुरार्चित लिंगं

 निर्मल भासित शोभित लिंगम् ।

 जन्मज दुःख विनाशक लिंगं

 तत्प्रणमामि सदाशिव  लिंगम् ।।१ ।। 


                        देवमुनि प्रवरार्चित लिंगं

                        कामदहं करुणाकरलिंगम् ।

                        रावण दर्प विनाशन लिंगं 

                        तत्प्रणमामि सदाशिव - लिंगम् ।। २ ।।


 सर्व सुगन्धि सुलेपित लिंगं

 बुद्धि - विवर्धन कारण लिंगम् ।

 सिद्ध सुरासुर वन्दित लिंगं

 तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगम् ।।३ ।। 


                          कनक महामणि भूषितलिंगं 

                          फणिपति वेष्टित शोभितलिंगम्।

                          दक्ष सुयज्ञ विनाशन लिंगं

                          तत्प्रणमामि सदाशिव-लिंगम् ।। ४।। 


कुम - कुम चंदन लेपित लिंगं

पंकजहार सुशोभित लिंगम् । 

संचित पाप विनाशन लिंगं 

तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगम् ।।५ ।।


                             देव गणार्चित सेवित लिंगं 

                             भावै भक्तिभिरे व च लिंगम् ।

                             दिनकर कोटिप्रभाकर लिंगं 

                             तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगम्।।६।।


 अष्टदलो परि वेष्टित लिंग

 सर्व समुद्भव कारण लिंगम् ।

 अष्ट दरिद्र विनाशन लिंगं

 तत्प्रणमामि सदाशिव -लिंगम् ।।७ ।। 


                            सुरगुरु - सुरवर - पूजितलिंगं

                            सुरवन पुष्प सदाचिंत लिंगम् ।

                            परात्परं   परमात्मक   लिंगं 

                           तत्प्रणमामि सदाशिव-लिंगम्।।८।।


    लिगाष्टकमिदं पुण्यं , यः पठेच्छिवसन्निधौ ।

    शिवलोकमवाप्नोति , शिवेन सह मोदते ।।९ ।।

  

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।। 

      
                        हरि ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!      

गुरुवार, 16 जुलाई 2020

एकादशी व्रत निर्णय



एकादशी के दिन शंखसे जल न पीये , कूर्म और शूकरको न खाय और दोनों पखवारो में एकादशी को भोजन न करे यह कूर्मपुराण और देवलादि का वचन है ।
 अग्निपुराण में लिखा है -- गृहस्थ , ब्रह्मचारी , अग्निहोत्री यह दोनों एकादशी को भोजन न करें । यहां कोई कहै कि भोजन के निषेध से व्रतकी विधि प्राप्त हो जायगी , सो उचित नहीं। व्रतका स्वरूप तो ब्रह्मवैवर्त ने लिखा है । एकादशी के प्राप्त होने पर रात्रि में सम्यक् प्रकार से नियम करके नियम पूर्वक दशमी के दिन हीं वैष्णव व्रतका संकल्प करै । यह व्रत शिव के भक्तों को भी करना उचित है । शिवधर्ममें लिखा है - वैष्णव शैव कोई हो , एकादशी व्रत करना चाहिये ।

 सौरपुराण में लिखा है - वैष्णव , शैव , सूर्यभक्त कोई हो , यह व्रत करना चाहिये । यह भी नित्य और काम्यभेद से दो प्रकारका है । गरुडमें लिखा है , दोनों पक्षकी एकादशी में नित्य उपवास करना नित्य है । 
नारद कहते हैं प्रत्येक पक्षमें एकादशी का उपवास करना चाहिये। जिसकी विष्णु के सायुज्य की इच्छा हो , अपने कल्याण की इच्छा हो , श्री और सन्तानकी इच्छा हो तो एकादशी दोनों पखवारे में भोजन न करे, दोनों एकादशी का व्रत गृहस्थ से अतिरिक्तों को ही नित्य है । गृहस्थ को तो शुक्ल में ही नित्यव्रत कृष्णा में नहीं कारना,देवल कहते हैं , दोनों पक्षकी एकादशी में भोजन न करे , यह वनवासी और  यतियों का धर्म है , और गृहस्थी को शुक्ला का व्रत करना चाहिये । 

यदि कोई कहै कि इस वचन से वानप्रस्थ और संन्यासी के विषय में निषेध के पालनका ही उपसंहार करते हैं व्रतका नहीं , सो उचित नहीं कारण कि यह वाक्य पर्युदासद्वारा व्रतकी विधिका कहने वाला है , यदि यह न मानोगे तो अग्निपुराण के वचनमें निषेधपालनमें जो गृहस्थीको अधिकार लिखा है,अभाव कभी किसी का धर्मभी नहीं हो सकता इस कारण इस सम्पूर्ण सामान्य वाक्य जो एकादशी व्रतके बोधक हैं उनका वनवासी और संन्यास के विषयमें उपसंहार होनेसे गृहस्थ को नित्यव्रत को विधि कृष्णपक्षमें प्राप्त नही होता ॥ और यदि ऐसा है तो क्यों नारदजी ऐसा कहते हैं कि , संक्राति कृष्णपक्षको एकादशी सूर्य चन्द्रमाका ग्रहण इसमें पुत्रवान् गृहस्थी उपवास न करे , इत्यादि वचनोंसे सिद्ध है कि , निषेध प्राप्ति के विना नहीं हो सकता ऐसी शंका पर यह समाधान है कि , देवशयनी और देवोत्थान इन दोनों एकादशियों के मध्य में जो कृष्णपक्ष की एकादशी है वहीं गृहस्थीको करनी चाहिये दूसरी नहीं इस पद्मपुराण के वाक्य से आषाढ और कार्तिक के मध्य में जो कृष्णपक्षीय एकादशी हैं उनमें उपवास करना कहा है। और पुत्र वाले को पूर्व कहे वचन से उसका ही निषेध कहा है ।और कृष्णएकादशी का तो विधान नहीं है।

 एकादशी को पुत्रवाला भी गृहस्थी करै । मदनरत्न में भविष्यपुराण का वचन है । जैसी शुक्ला वैसा ही कृष्णा द्वादशी मुझ को सदा प्यारी है , शुक्ला गृहस्थियों को करनी चाहिये यह भोग और सन्तान की बढाने वाली है , मुमुक्षुओं को कृष्णा करनी चाहिये। निषेधका पालन और काम्यव्रत तो सब कृष्णा एकादशियों में सब गृहस्थी करें , ' कारण कि , नारद यह कहते हैं कि , पुत्रवान् भार्यायुक्त और बन्धुसम्पन्न गृहस्थी विष्णु के काम्यव्रत को दोनों पखवारे में करै , वह सब कालादर्श में कहा है कि , विधवा , वानप्रस्थ और संन्यासी यह दोनों एकादशी और पुत्रवान् गृहस्थी शुक्लामें व्रत कर और भोजन का निषेध तो गृहस्थी को कृष्णा में भी है , इससे उसका व्रत सिद्ध होताहै , प्राच्यों का यह कथन है कि , वैष्णव गृहस्थियों को कृष्णा एकादशी भी नित्य है ,  नारदने यह लिखा है कि , विष्णुको भक्ति में तत्पर मनुष्य प्रत्येक पक्ष में एकादशी का व्रत करै , पुत्र स्त्री बंधु सम्पन्न भक्तिमान् मनुष्य भी दोनों पक्षोंकी एकादशी का व्रत करै।।


           आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
                जय बद्री विशाल

ॐ जय गौरी नंदा

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