रविवार, 16 अगस्त 2020
ऋषि - पंचमी
ऋषि - पंचमी
( भाद्रपद शुक्ला पंचमी )
यह व्रत स्त्री - पुरुष दोनों ही कर सकते हैं । जाने या अनजाने किये हुए पापों के प्रायश्चित की कामना से यह व्रत किया जाता है । व्रत आरम्भ करने से पहले निकट के किसी नदी या तालाब में स्नान करना चाहिए । फिर घर आकर वेदी बनाकर और उसे गोबर से लीपकर और अनेक रंगों से सर्वतोभद्र मण्डल बनाकर उस पर तांबे या मिट्टी का घड़ा रखना चाहिए । उसी स्थान पर अष्टदल कमल बनाकर अरुन्धती और सप्त - ऋषियों की मूर्ति बनाकर विधिपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिए । पूजा के बाद ब्राह्मणों को भोजन और आचार्य को पूजा की सामग्री दे देनी चाहिए । इस व्रत की कथा ब्रह्म पुराण में इस प्रकार है
कथा - प्राचीनकाल में सिताश्व नाम के एक राजा थे । उन्होंने एक बार ब्रह्माजी से पूछा कि पितामह ! सब व्रतों में श्रेष्ठ और तुरन्त फल देने वाले व्रत का वर्णन आप मुझसे कहिए । ब्रह्माजी ने कहा - हे राजन् ! ऋषि - पंचमी का व्रत सब व्रतों में श्रेष्ठ और सब पापों को नष्ट करने वाला है । विदर्भ में उत्तक नाम एक सदाचारी ब्राह्मण के घर में दो सन्तानें थीं - एक पुत्र और एक कन्या । विवाह योग्य होने पर उसने समान कुल - शील वाले गुणवान् वर के साथ कन्या का विवाह कर दिया । पर कुछ ही दिनों बाद वह कन्या विधवा हो गई । उसके दुःख से अत्यन्त दुःखी हो ब्राह्मण - दम्पति अपनी उस कन्या समेत गंगाजी के किनारे कुटिया बनाकर रहने लगे । एक दिन सोती हुई कन्या के शरीर में अचानक कीड़े पड़ गए । अपनी यह दशा देखकर कन्या ने माता से अपना दुःख कहा । माता सुशीला ने जाकर पति से सब बातें कहीं और पूछा कि देव ! मेरी साध्वी कन्या की यह गति होने का क्या कारण है ।
उत्तक ने समाधि लगाकर इस घटना के कारण पर विचार किया और अपनी पत्नी को बतलाया कि पूर्वजन्म में यह कन्या ब्राह्मणी थी । इसने रजस्वला होते हुए भी घर के बर्तनों को छुआ तथा इस जन्म में भी और लोगों को ऋषि - पंचमी का व्रत करते हुए देखकर भी स्वयं नही किया।इसी कारण इसके शरीर मे कीड़े पड़ गए है। धर्मशास्त्रों में लिखा है कि रजस्वला स्त्री पहले दिन चाण्डालिनी के समान , दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी के समान और तीसरे दिन धोबिन के समान अपवित्र रहती है । फिर चौथे दिन स्नान करके शुद्ध होती है । यदि यह शुद्ध मन से अब भी ऋषि - पंचमी का व्रत करेगी तो इसका दुःख छूट जायगा और यह अगले जन्म में अटल सौभाग्य प्राप्त कर सकेगी । पिता की आज्ञा से कन्या ने विधिपूर्वक ऋषि - पंचमी का व्रत किया और वह व्रत के प्रभाव से सारे दुःखों से मुक्त हो गई । अगले जन्म में उसने अटल सौभाग्य , धन - धान्य और पुत्र प्राप्ति करके अक्षय सुख भोगा ।
श्रीराधा अष्टमी और दुर्वाष्टमी
श्रीराधा अष्टमी और दुर्वाष्टमी
( भाद्रपद शुक्ल अष्टमी )
हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष अष्टमी को राधा अष्टमी के रूप में मनाया जाता है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के एक पखवारे बाद आज के दिन राधा अष्टमी का व्रत किया जाता है , कृष्णा प्रिय राधाजी का जन्म हुआ था । इस दिन बरसाने में हजारों भक्तों के द्वारा श्रीराधाजी का विशेष पूजन और उनका व्रत करते है । बरसाने में आज के दिन राधाजी की अनूपम छटा देखने को मिलती है।
स्नानादि से शरीर शुद्ध करके मण्डप के भीतर मण्डल बनाकर उसके बीच में मिट्टी या तांबे का बरतन रखकर उस पर दो वस्त्रों से ढकी हुई श्री राधाजी की सोने की या अन्य धातु की बनी सुन्दर मूर्ति स्थापित करनी चाहिए । तब ठीक मध्याह्न में श्रद्धा - भक्ति - पूर्वक राधाजी की पूजा करनी चाहिए । शक्ति हो तो उस दिन उपवास करके दूसरे दिन सुवासिनी स्त्रियों को भोजन कराकर आचार्य को दान दक्षिणा देनें के बाद स्वयं भोजन करना चाहिए । इस बारे में कहा जाता है, कि जो राधा जी का व्रत करता है ,उसे राधा जी दर्शन देती है।
शिवजी के उपासक आज के दिन शिव - पार्वती जी की विशेष पूजा व व्रत भी करते है।आज के दिन शिव पूजा में अन्य वस्तुओं के साथ साथ दूर्वा नामक घास का भी अनिवार्य रूप से प्रयोग किया जाता है,और इसलिए इसे शिवभक्त दुर्बाष्टमी भी कहते है।
बुधवार, 12 अगस्त 2020
श्री राम वंशावली (सूर्यवंश)
1-मनु
2-इक्ष्वाकु
3-विकुक्शी - शषाद
4-ककुत्स्थ
5-अनेनस
6 -पृथ
7-विश्वरास्व
8-आर्द्र
9 -युवनाश्य- प्रथम
10-श्रावस्त
11-वृहदष्व
12-कुवलयाष्व
13-दृढाष्व
14-प्रमोद
15-हर्यश्व
16-निकुम्भ
17-संहताष्य
18-अकृषाश्व
19-प्रसेनजित
20 -युवनाष्व- द्वितीय
21 -मांधातृ
22-पुरुकुत्स
23-त्रसदस्यु
24-सम्भूत
25-अनरण्य
26-पृष्दष्व
27-हर्यष्व- द्वितीय
28-बसुमाता
29-तृधन्वन
30 -त्रैयारूण
31-त्रिशंकु
32- सत्यव्रत
33-हरिश्चंद्र
34-रोहित
35 -हरित , केनकु
36-विजय
37 -रूरूक
38-वृक
39-वाहु
40-सगर
41-असमंजस
42-अशुमान
43 -दिलीप -प्रथम
44 -भगीरथ
45 -श्रुत
46 -नाभाग
47-अंबरीश
48- सिंधुद्विप
49-अयुतायुस
50-ऋतुपर्ण
51 -सर्वकाम
52-सुदास
53-मित्राशा
54-अष्मक
55-मूलक
56 -सतरथ
57-अदिविद्य
58- विश्वसह- प्रथम
59- दिलीप- द्वितीय
60 -दीर्घबाहु
61-रघु
62-अज
63- दशरथ.
64- रामचद्र
65-कुश
66-अतिथि
67 -निशध
68- नल
69- नाभस
70-पुंडरीक
71-क्षेमधन्वन
72-देवानीक
73-अहीनगु
74-पारिपात्र
75 -बाला
76 -उकथ
77-वज्रनाभ
78-शंखन
79-व्युशिताष्य
80 -विष्वसह -द्वितीय
81-हिरण्यनाभ
82-पुष्य
83-धुवसंधि
84 -सुदर्षन
85-अग्निवर्ण
86-शीघ्र
87-मरु
88- प्रथुश्रुत
89 -सुसधि
90-अमर्श
91-महाष्वत
92-विश्रुतवत
93-बृहदबाला
94 -वृहतक्षय
शुक्रवार, 7 अगस्त 2020
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी
( भाद्रपद कृष्ण अष्टमी )
एकोपि कृष्णस्य कृत प्रणामो।
दशाश्व मेधा भृथेन तुल्य: ।।
दशाश्व मेधे पुनरेपी जन्म।
कृष्ण प्रणामो न पुनर्भवाम।।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी हमारे देश का एक प्रमुख त्यौहार है । रक्षाबन्धन के आठ दिन बाद मनाए जाने वाला भगवान श्रीकृष्ण का यह जन्मोत्सव ब्रज मण्डल और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो बहुत अधिक धूमधाम से मनाया जाता हैं । यह व्रत रात्रि को बारह बजे ही खोला जाता है । भक्ति के रस में रंगा हुआ यह त्यौहार है।
भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि को घनघोर बरसती रात्रि में ठीक बारह बजे मथुरा के कारागार में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। उनके पिता वासुदेव ने रात्रि में ही यमुना नदी पार करके किस प्रकार भगवान कृष्ण को नन्दबाबा के यहां पहुचाया , वहां उन्होंने बालपन में ही बड़े - बड़े दैत्यों को मारा और बाललीलाएं कीं , इसे प्रत्येक हिन्दू जानता है।
भगवान श्रीकृष्ण के मन्दिरों में आज विशेष रूप से सजावट की जाती है । भगवान के हिण्डोले झूले डाले जाते हैं और तरह - तरह को झांकियां सजाई जाती हैं । ब्रज मण्डल में तो लगभग प्रत्येक घर में सजाए जाते हैं । भगवान श्रीकृष्ण के सुन्दर हिण्डोले , हिण्डोले अर्थात विशिष्ट पालने को ऊंचे स्थान पर रखकर उसमें नए वस्त्र पहिनाकर श्रीकृष्ण का विग्रह या धातुनिर्मित मूर्ति रखते हैं । इसके सामने की और खिलौने रखकर सजावट की जाती है । कारगार में कृष्णजन्म , वसुदेव द्वारा श्री कृष्ण को नन्दगांव ले जाने , भगवान के रास और गोपाल द्वारा गाय चराने , कंस वध और गीता उपदेश आदि के दृश्य बनाए और सजाए जाते हैं । मन्दिरों में , घरों में और सड़कों के किनारे सार्वजनिक रूप से सजाई जाती हैं ये झांकियां ।
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद अष्टमी- तिथि रोहणी - नक्षत्र में रात्रि को बारह बजे हुआ था । रात्रि बारह बजे से कुछ पूर्व एक मोटे खीरे में भगवान कृष्ण की मूर्ति को रख दिया जाता है । और ठीक बारह बजे इस मूर्ति को खीरे से निकालकर पंचामृत और शुद्ध जल में स्नान कराकर वस्त्रादि पहिनाकर सम्पूर्ण श्रृंगार करते हैं । भगवान की आरति करने के बाद उन्हें भोग लगाते है। इसके बाद भक्त व्रत खोलते है। यह व्रत रात्रि बारह बजे के बाद खोला जाता है। प्रायः फलाहार के रूप मे फल सूखा मेवा और मावे की बर्फियों का प्रयोग होता है। कूटू के आटे की पकोड़ियां और सिंघाड़े के आटे का हलुवा बनाया जाता है और फलों का उपयोग तो करते ही हैं । अधिकांश परिवारों में तो उपरोक्त विधि से ही भगवान कृष्ण की पूजा करके श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मना लिया जाता है । जबकि धार्मिक व्यक्ति मन्त्रों के साथ पूर्ण विधि - विधान से भगवान कृष्ण की पूजा - आराधना करते हैं । आज दिन भर श्री कृष्ण भगवान की लीलाओं , क्रीड़ाओं और कार्यों का अध्ययन - मनन , उनके भजनों का गायन तथा विशिष्ट मन्त्रों का जप करना चाहिए ।

गणेश चतुर्थी
गणेश चतुर्थी व सिद्धि विनायक व्रत
( भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी )
गणेश जी के व्रत प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष की चौथ को किए जाते हैं , परन्तु भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तो गणेश जी के पूजन और उनके नाम का व्रत रखने का विशिष्ट दिन है । प्राचीन काल में बालकों का विद्या - अध्ययन आज के दिन से ही प्रारम्भ होता था । आज बालक छोटे - छोटे डण्ड को बजाकर खेलते हैं । यही कारण है कि लोकभाषा में इसे डण्ड चौथ भी कहा जाता है । विनायक , सिद्ध विनायक और वरद विनायक भी गणेश जी के ही नाम हैं और यही कारण है कि अलग - अलग कई नामों से पुकारा जाता है । प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर घर में किसी धातु , पत्थर अथवा मिट्टी से निर्मित गणेश जी की मूर्ति रखी जाती है । इनके अभाव में पीली मिट्टी की डली पर कलावा लपेटकर उसे ही गणेशजी मान लेते हैं । कुछ क्षेत्रों में गाय के गोबर से भी गणेशजी की मूर्ति बनाई जाती है । एक कोरे घड़े में जल भरकर उसके मुंह पर सकोरा रखकर नया वस्त्र ढकने के बाद गणेशजी की प्रतिमा को उस पर स्थापित करते हैं । पूर्ण विधि विधान से सभी पूजन - सामग्री का प्रयोग करते हुए पूजा की जाती है। गणेश जी की पूजा सर्वप्रथम इस मन्त्र से गणेश जी का ध्यान किया जाता है ।
प्रथम गणपति वन्दना।
गजाननं भूत गणादि सेवितं।
कपित्थ जम्बू फल चारु भक्षणं।।
उमा सुतं शोक विनाश कारकं ।
नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम।।
एकदन्तं शूर्पकर्णं गजवक्त्रं चतुर्भुजम् ।
पाशांकुशधरं देवं ध्यायेत्सिद्धिविनायकम्
पूजा विधि--
इसके पश्चात् आवाहन , आसन , अर्घ्य , पाद्य ,आचमन, पंचामृत स्नान , शुद्धोदक स्नान , वस्त्र , यज्ञोपवीत , गन्ध, अक्षत ,सिंदूर ,फूलमाल, आभूषण , दूर्वा , धूप , दीप , नैवेद्य,फल,पान,दक्षिणा, आदि से विधिवत् पूजन करें और दो लाल वस्त्रों का दान करें । पूजन के समय घी से बने इक्कीस पुए या इक्कीस लड्डू गणेशजी के पास रखें । पूजन समाप्त करके उनको गणेशजी की मूर्ति के पास रहने दें । दस पुए या लड्डू ब्राह्मण को दे दें और शेष ग्यारह अपने लिए रखकर बाद में प्रसाद के रूप में बांट दें । गणेश जी की मूर्ति को दक्षिणा समेत ब्राह्मण को दे दें और ब्राह्मण को भोजन करावे स्वयं भोजन करें ।
कुछ व्यक्ति श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से आज तक लगातार एक माह तक गणेशजी का पूजन व व्रत करते हैं । वे भी आज के दिन गणेशजी का पूजन तो इसी प्रकार करते हैं , परन्तु एक मास तक व्रत करने के कारण अधिक दान - पुण्य भी दी जाती हैं । इस व्रत के समापान स्वरूप आज अठ्ठाइस मुट्ठी चावल और श्रद्धानुसार मिठाई भी किसी बालक , अवधूत या ब्रह्मचारी को दी जाती है।
शुक्ल पक्ष की चतुर्थियों को किए जाने वाले गणेश व्रतों और व्रत में एक विशेष अंतर भी है। उन व्रतों को करते समय तो चंद्रदेव को आर्य चढ़ाने के बाद व्रत खोला जाता है, परन्तु आज के दिन तो चंद्रमा के दर्शन का भी निषेद हैै। इस व्रत में गणेश जी का पूजन करते समय गणेश जन्म कथा भी कही जाती है, जो इस प्रकार है-
एक समय की बात है,महादेव जी स्नान करने के लिए कैलास से भोगावती गए । स्नान करते हुए पार्वती जी ने अपने शरीर के मेल से एक पुतला बनाया और उसे जल में डालकर सजीव किया , मेल से बने हुए उस पुतले का नाम पार्वतीजी ने गणेश रखा और उसे आज्ञा दी कि तुम मुद्गर लेकर द्वार पर बैठ जाओ , किसी भी पुरुष को भीतर न आने देना । भोगावती स्नान करके लौटने पर जब शिवजी पार्वती के पास भीतर जाने लगे तो उस बालक ने उनको रोक लिया , महादेवजी ने अपने इस अपमान से कुपित होकर बालक का सिर काट लिया और स्वयं भीतर चले गए । पार्वती ने शंकरजी की मुखाकृति देख कर समझा कि वे कदाचित भोजन में विलम्ब हो जाने के कारण क्रुद्ध है । इसलिए उन्होंने तुरन्त भोजन तैयार करके दो थालों में परोस दिया और महादेवजी को भोजन के लिए बुलाया । शंकरजी ने आकर देखा कि भोजन दो थालों में परोसा गया है तो उन्होंने पार्वतीजी से पूछा कि यह दूसरा थाल किसके लिए है । पार्वती जी ने कहा कि यह मेरे पुत्र गणेश के लिए है , जो बाहर द्वार पर पहरा दे रहा है । यह सुनकर शिवजी ने कहा कि मैंने तो उसका सिर काट डाला है । शिवजी के बात से पार्वतीजी बहुत व्याकुल हुई और उन्होंने उनसे उसे जीवित करने की प्रार्थना की । पार्वती को प्रसन्न करने के लिए शिवजी ने एक हाथी के बच्चे का सिर काट कर बालक के धड़ से जोड़ दिया और उसे जीवित कर दिया । पार्वतीजी अपने पुत्र गणेश को पाकर बहुत प्रसन्न हुई । उन्होंने पति और पुत्र को भोजन कराकर पीछे स्वयं भी भोजन किया ।
रविवार, 2 अगस्त 2020
श्रीराम मन्दिर शिलान्यास ५अगस्त2020
सनातन हिन्दू धर्म गर्न्थो के अनुसार भगवान श्रीराम जी का जन्म अयोध्या में हुआ था, वहाँ पर राजा श्रीराम चन्द्र जी का भव्य मंदिर था, किन्तु राम जी के भक्तो के अथक साहस व प्रयास से पुनःराम मंदिर का पुनर्निर्माण होने जा रहा है। शिलान्यास 5 अगस्त 2020 को होगा।जिसमे सभी राम भक्तो का अकल्पनीय सहयोग से हर्षोल्लास के द्वारा पुनः अपने ईस्ट श्री राममंदिर का शिलान्यास होगा।जो समस्त मानवजाति के लिए कल्याणकारी होगा। जिसमें भारत के साथ पूरे विश्व मे राम जी को अपनी आस्था व आदर्श प्ररेणाश्रोत मनाने वालो को अपनी सहभागिता अवश्य स्थापित करनी चाहिये, जिससे आने वाली पीढ़ी आप पर गर्व कर सके।
शास्त्रो में अयोध्या को मोक्षदायिनी क्षेत्र कहा गया है।जो भगवान विष्णु जी के चक्र में स्थापित है।और अयोध्या को पूरे विश्व की राजधानी भी कहा जाता है,जो सरयू नदी के तट पर स्थापित है,अयोध्या सूर्यवंशी राजाओ की राजधानी रही है।उसी सूर्यवंश में श्रीराम जी का जन्म हुआ था।जिन्हें समस्त मानव जाति के लोग अपने आदर्श के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम राम जी की पूजा करते है।
बुद्धिजीवी मनुष्य हमेशा ऐसे समय की प्रतिक्षा में रहते है, जो धर्म सम्बन्धी कार्यो में बढ़चढ़ कर भाग लेकर समस्त मानवजाति का कल्याण कर सके ,उन विभूतियो को याद करे जिन्होंने धर्म व मानव कल्याण के लिए अपना बलिदान दिया।क्यों ना हम सभी अयोध्या में निर्माण होने वाले भगवान श्री राम मंदिर शिलान्यास में अपना योगदान देकर अपने जीवन को कृतार्थ करें।
तन पवित्र सेवा करी धन पवित्र कर दान।
मन पवित्र हरि भजन सो त्रिविध होत कल्याण।।
सभी श्रीराम भक्तो का आह्वान करता हूँ ,किश्रीराम जी के मंदिर निर्माण में एक रुपया से लेकर यथाशक्ति दान देकर अपनी सहभगिता दर्ज करें।
आपका दिया दान महादान के रूप में भगवान राम जी के कार्यो में लग सके।
इतिहास के पन्नो में ५ अगस्त २०२०का दिन इतिहास के पन्नो में दर्ज हो चुुका है।
।।जय श्री राम।।
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आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
वसई मुम्बई
जय बद्री विशाल
रक्षाबन्धन व श्रवणी उपाकर्म
( श्रावण पूर्णिमा )
राखी का त्योहार कब शुरू हुआ यह कोई नहीं जानता। लेकिन भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है। कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नज़र आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बाँध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन, शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है।
पुराणों मे कृष्ण और द्रौपदी की कहानी प्रसिद्ध है, जिसमे युद्ध के दौरान श्री कृष्ण की उंगली घायल हो गई थी, श्री कृष्ण की घायल उंगली को द्रौपदी ने अपनी साड़ी मे से एक टुकड़ा बाँध दिया था, और इस उपकार के बदले श्री कृष्ण ने द्रौपदी को किसी भी संकट मे द्रौपदी की सहायता करने का वचन दिया था।
स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब सौ यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा माँगने पहुँचे। गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नापकर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकनाचूर कर देने के कारण यह त्योहार बलेव नाम से भी प्रसिद्ध है। कहते हैं एक बार बलि रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया।भगवान के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया। उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और अपने पति भगवान बलि को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी। विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिये फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।
श्रावण मास के अन्तिम दिन पूर्णमासी को भाई - बहिनों के अटूट प्रेम का त्यौहार रक्षाबन्धन मनाया जाता है ।और वैदिक ब्राह्मणों के द्वारा श्रावणी उपाकर्म मनाया जाता है। वैदिक ब्राह्मणों को वर्ष भर में आत्मशुद्धि का अवसर भी प्रदान करता है। वैदिक परंपरा अनुसार वेदपाठी ब्राह्मणों के लिए श्रावण मास की पूर्णिमा सबसे बड़ा त्योहार है।
होली , दीपावली और दशहरे के समान ही यह भी हिन्दूओं का एक प्रमुख त्यौहार है । परन्तु आज इसका रूप लगभग एकदम बदल चुका है । प्राचीन काल में आज के दिन ब्राह्मण अपने यजमानों को रक्षा का धागा अर्थात राखी बांधते थे और साधु - संत एक स्थान पर चार माह रहकर गहन अध्ययन - मनन और पठन - पाठन प्रारम्भ करते थे । ऋषि - मुनि और साधु - संन्यासी तपोवनों से आकर नगरों व गांवों के निकट रहने लगते थे।
एक स्थान पर चार मास तक रुककर पठन - पाठन , उपदेशों और ज्ञानचर्चा द्वारा जनता में धर्म का प्रचार करते थे । इस प्रक्रिया को श्रावणी - उपाकर्म कहा जाता है , परन्तु आज की व्यस्त जिंदगी और भौतिक युग में तो बीते कल की बात बनकर रह गया है यह उपाक्रम का कर्म । रक्षाबन्धन की प्राचीन परम्परा तो ब्राह्मणों और पुरोहितों द्वारा अपने यजमानों को रक्षा का धागा बांधने की थी ।
रक्षाबंधन की विधि--
धर्मपरायण व्यक्ति को चाहिए कि इस दिन ब्रह्ममुहूर्त में उठकर शौचादि से निवृत्त होकर स्नान करे और शुद्ध वस्त्र धारण करे । फिर देवता , पितरों और सप्तऋषियों हेतु तर्पण करे । दोपहर बाद सूती अथवा ऊनी वस्त्र लेकर उनमें चावल रखकर गांठ लगा दे और हल्दी या केसर में रंग कर उन्हें एक बर्तन में रख दे । घर को गोबर से या गेरू से लिपवाकर और चावलों का चौक पुरवाकर उस पर अन्न से भरा कलश स्थापित करे । पीले वस्त्र में सूत के धागे से लिपटी हुई चावल की एक या अनेक पोटलियां रख दे । यजमान चौकी पर बैठकर शास्त्रोक्त विधि से अपने कुल - पुरोहित अथवा विद्वान - ब्राह्मण द्वारा कलश का पूजन कराये ।
पूजन के बाद पुरोहित रक्षा की एक पोटली यजमान के हाथ में बांधे और परिवार के अन्य लोगों के हाथों में भी अलग - अलग पोटलियाँ बांधे । इस समय पुरोहित नीचे लिखा मंत्र
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः ।
तेन त्वामभिवध्नामि रक्षे माचल माचलः ।।
आजकल रक्षाबन्धन के दिन बहनें अपने भाइयों के हाथ में राखी बांधती हैं , उन्हें मिठाई व वस्त्रादि देती हैं और भाई बहिन को कुछ रुपए देकर इसका प्रत्युत्तर सा दे देते हैं । परन्तु बड़ा भारी आध्यात्मिक , धार्मिक और एतिहासिक महत्व है इस राखी का । यह स्नेह का वह अमूल्य बंधन है जिसका बदला धन तो क्या सर्वस्व देकर भी नहीं चुकाया जा सकता । द्रौपदी भगवान कृष्ण को भाई कहती थी , उसने मुधसूदन की कटी उंगली पर एक पट्टी बांधी थी और इसके एवज में जीवन भर श्रीकृष्ण करते रहे द्रौपदी की सहायता । भाई - बहिन का हार्दिक प्रेम और भावना ही इस त्यौहार का वास्तविक महत्व है , न कि वह प्रदर्शन जिसके हम आज शिकार हो चुके हैं । रक्षा बंधन वाले दिन महिलाएं सर्वप्रथम नहा - धोकर अपने घर में दीवारों पर सोन रखती हैं और फिर सेवइयों , चावल की खीर और मिठाई से करती हैं इन सोनों की पूजा । सोनों के ऊपर मिठाई की सहायता से राखी के धागे भी चिपकाए जाते हैं । जो महिलाएं नागपंचमी को गेहूं आदि होती हैं वे इन छोटे - छोटे पौधों को उखाड़कर इस पूजा में रखती हैं और भाइयों के राखी बांधने के वाद इन दुर्वा जैसे पौधों को उनके कान में लगा देती हैं । कुछ स्थानों पर राखी से भी अधिक महत्व दिया जाता है इन पौधों को । बुन्देलखण्ड में इन पौधों को कजरी कहा जाता है और इनका जलूस भी निकाला जाता है । लगभग पूरे ही देश में धूमधाम से मनाया जाता है राखी का यह त्यौहार
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English translation
(Shravan Poornima)
On the last day of the month of Shravan, Purnamasi is celebrated as Rakshabandhan, a festival of unwavering love of brothers and sisters, and Shravani Upakarma is celebrated by Vedic Brahmins. The Vedic also offers Brahmins an opportunity for self-purification throughout the year. According to Vedic tradition, the full moon of the month of Shravan is the biggest festival for Vedpathi Brahmins.
Like Holi, Deepawali and Dussehra, it is also a major festival of Hindus. But today its form has changed almost completely. In ancient times, on this day, Brahmins used to tie a thread of defense i.e. Rakhi to their priests and sages and saints stayed in one place for four months and started deep study - meditation and reading. Sages - monks and monks - ascetics used to come from the Tapovan and live near the cities and villages.
He used to stop at one place for four months and preach religion in public through reading, teaching, preaching and discussion. This process is called Shraavani-Upakarma, but in today's busy life and material age, it is left as a thing of the past. The ancient tradition of Rakshabandhan was to tie the thread of protection by Brahmins and priests to their priests.
Method of Rakshabandhan
A pious person should wake up in Brahmamuhurta on this day and take a bath after retiring from toilet and wear pure clothes. Then the deity should make sacrifices for the fathers and the saptarishis. After noon, take cotton or woolen cloth, put rice in them and make a knot and paint them in turmeric or saffron and place them in a vessel. Make a house filled with cow dung or ocher and prepare a urn full of grain on it, by offering a square of rice. Put one or several pieces of rice wrapped in cotton cloth in a cotton cloth. Sitting at the Yajaman post, worship the Kalash by your clan - priest or scholar - Brahmin by scripture method.
After the worship, the priest should tie a bundle of protection in the hands of Yajaman and also tie different portals in the hands of other family members. At this time the priest chanted below
Yen Badho Bali Raja Danvendra Mahabalah.
Ten Tvambhivadhnami Rakshe Machal Machal:
Nowadays, on the day of Rakshabandhan, the sisters tie a rakhi in the hands of their brothers, give them sweets and clothes and the brothers give a few rupees to the sister and respond to it. But this Rakhi has great spiritual, religious and historical significance. This is that invaluable bond of affection, which cannot be repaid even by giving money to everyone. Draupadi used to call Lord Krishna a brother, she tied a bandage on Mudhusudan's severed finger and in return, Draupadi's help continued throughout her life. Brother - Sister's heartfelt love and feeling is the real significance of this festival, not the performance we have fallen victim to today. On the day of Raksha Bandhan, women first take a bath - put a son on the walls in their house and then worship these sons with servants, rice pudding and sweets. Rakhi threads are also pasted on the sonnets with the help of sweets. The women who have wheat etc. on Nagpanchami uproot these small plants and keep them in this puja and after the brothers tie the rakhi, they plant these Durva-like plants in their ears. In some places these plants are given more importance than Rakhi. In Bundelkhand these plants are called Kajri and their procession is also taken out. This festival of Rakhi is celebrated with pomp in almost the entire country.
Mythological theme
No one knows when the festival of Rakhi started. But there is a description in the Bhavishya Purana that when the war started between Devas and Demons, demons started dominating. Lord Indra panicked and went to Jupiter. Indrani, Indra's wife, was listening to everyone sitting there. She sanctified the silk thread with the power of mantras and tied it on her husband's hand. Incidentally, it was the day of Shravan Purnima. People believe that Indra was victorious in this battle only by the mantra power of this thread. From the same day on the day of Shravan Purnima, the practice of tying this thread is going on. This thread is considered fully capable of giving wealth, power, joy and victory.
In the Puranas, the story of Krishna and Draupadi is famous, in which Shri Krishna's finger was injured during the war, Draupadi tied a piece of her sari to the injured finger of Shri Krishna, and in return for this favor, Shri Krishna gave Draupadi Had pledged to assist Draupadi in any crisis.
In the Skandha Purana, Padmapuran and Srimad Bhagwat, the story of Rakshabandhan is found in the story called Vamnavatara. The story goes something like this: When Danavendra King Bali tried to seize the kingdom of heaven after completing a hundred yajna, Indra and other gods prayed to Lord Vishnu. Then Lord Vamana took incarnation as a Brahmin and came to seek alms from King Bali. Even after the Guru's refusal, Bali donated three steps of land. God measured the whole sky in three steps and sent King Bali to the abyss, measuring the earth. Thus, this festival is also famous as Balev due to Lord Vishnu shattering the pride of the sacrificial king. It is said that once the sacrifice went into the abyss, then with the power of devotion, Bali took the promise of being in front of God night and day. Narada ji told Laxmi ji that he was troubled by the Lord not returning home. Following that remedy, Lakshmi went to King Bali and tied her Rakshabandhan and made her her brother and brought her husband Lord Bali with her. That day was the full moon date of Shravan month. In a passage in the Vishnu Purana it is said that on the full moon day of Shravan, Lord Vishnu took the incarnation as Hayagreeva and reclaimed the Vedas for Brahma. Hayagreeva is considered a symbol of learning and wisdom.
शुक्रवार, 31 जुलाई 2020
महर्षि वेदव्यास
तं नमामि महेशानं मुनिं धर्मविदां वरम् ।
श्यामं जटाकलापेन शोभमानं शुभाननम् ॥
मुनीन् सूर्यप्रभान् धर्मान् पाठयन्तं सुवर्चसम् ।
नाना पुराण कर्तारं वेदव्यासं महाप्रभम् ॥
जो धर्म के निगूढ़ तत्त्व को जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ हैं ,जिनका वर्ण श्याम है। और जिनका मंगलकारी मुखमण्डल जटाजूट से सुशोभित है तथा जो सूर्यके समान प्रभा वाले मुनियों को धर्मशास्त्रों का पाठ पढ़ाने वाले हैं ।ज्योतिर्मय हैं ,अत्यन्त कान्तिमान् हैं , सभी पुराणों तथा उपपुराणों के रचयिता हैं । उन महेशान वेदव्यासजी को बारम्बार नमस्कार है।
साक्षात् नारायण ही जगद्गुरु व्यासके रूप में अज्ञानान्धकार में निमग्न प्राणियों को सदाचार एवं धर्माचरण की शिक्षा देने के लिये अवतीर्ण हुए और प्रसिद्धि यही है कि व्यासजी आज भी अजर अमर हैं । सच्चे भक्तों को आज भी उनके दर्शन होते हैं । वे वसिष्ठ जी के प्रपौत्र शक्ति ऋषि के पौत्र पराशर जी के पुत्र तथा महाभागवत शुकदेवजी के पिता हैं । वे शंकराचार्य , गोविन्दाचार्य और गौडपादाचार्य आदि विभूतियोंके परमगुरु रहे हैं । पुराणों में प्रसिद्धि है कि यमुना के द्वीप में उनका प्राकट्य हुआ , इसलिये वे ' द्वैपायन ' कहलाये और श्याम ( कृष्ण ) वर्णके थे , इसलिये ' कृष्णद्वैपायन ' कहलाये । वेदसंहिता का उन्होंने विभाजन किया , इसलिये वे ' व्यास ' किंवा ' वेदव्यास ' के नामसे प्रसिद्ध हुए । इतिहास , पुराण , उपपुराण , ब्रह्मसूत्र , व्यासस्मृति आदि धर्मशास्त्रों , योगदर्शन आदिके भाष्यों के वे ही रचयिता हैं ।
आज के विश्व का सारा ज्ञान - विज्ञान महर्षि वेदव्यासजी का ही उच्छिष्ट है ,अतः 'व्यासोच्छिष्टं जगत् सर्वम् ' की उक्ति प्रसिद्ध है। 'यन्न भारते तन्न भारते 'के अनुसार धर्म , अर्थ , काम तथा मोक्ष आदिके विषयमें उनके द्वारा विरचित महाभारत में जो कुछ कहा गया है , वही अन्य लोगों ने कहा है और जो उन्होंने नहीं कहा , वह अन्यत्र भी नहीं मिलता अर्थात् अन्यत्र कोई नवीनता नहीं है , जो व्यासजी ने कह दिया , वही सबके लिये आधेय बन गया। भगवान् व्यासदेव का शुद्ध सत्संगरूपी धर्म - सत्र विविधरूप से निरन्तर चलता रहता था । उनकी धर्मगोष्ठी में ब्रह्मतत्त्व का निरूपण , परमात्मा के निर्गुण - सगुण स्वरूपों का विचार , धर्म - कर्मों की व्यापकता तथा उनके फलाफल की मीमांसा , धर्माचरण की महिमा आदि विषयों पर गहन चर्चा होती रहती थी । वे स्वयं भी धर्म के आचरण तथा सदाचार के पालन में निरन्तर निरत रहते थे । वस्तुतः धर्म - तत्त्व के विषय में आज संसार जो कुछ भी जानता है , वह वेदव्यासजी की ही देन है । वेद तो धर्म संहिताएँ ही हैं । पुराणों में धर्म , दर्शन एवं आचार मीमांसा पद - पदपर भरी पड़ी है । महाभारत तो धर्मविषयक कोश ही है । वह व्यासजी की ही रचना है । स्मृतियाँ तो ' व्यास ' लघुव्यास इस प्रकारसे उनके नाम से ही - प्रसिद्ध हैं ।
वस्तुतः सच्चा धर्म और सम्यक् आचारदर्शन व्यासदेव की वाणी में ही संनिहित है । इसके लिये सारा विश्व अनन्तकाल तक उनका ऋणी रहेगा । उनकी महिमा अपार है । शास्त्रों में उनका दिव्य चरित्र अनेक प्रकारसे गुम्फित है । वेदव्यासजी ने एक ही वेदके ऋक् , यजुः , साम और अथर्व नामसे चार विभाग किये । उन्होंने ऋग्वेद पैल को , सामवेद जैमिनि को , यजुर्वेद वैशम्पायन को और अथर्ववेद सुमन्तु को पढ़ाया था । उन्होंने परमहंसों की संहिता भागवत की रचनाकर उसे अपने निवृत्तिपरायण पुत्र शुकदेवजी को पढ़ाया था ।वेदव्यास जी की महिमा अपार है। व्यास जी ने सभी वेद धर्म गर्न्थो की रचना बद्रीनाथ धाम में की जो आज व्यास गुफा के रूप में स्थित है।जहाँ से ज्ञानगंगा का प्रवाह निकालकर पूरे विश्व को सिंचित करता है ,ऐसे भगवान वेदव्यासजी के चरणों मे कोटि कोटि नमन वन्दन करते है।
शनिवार, 25 जुलाई 2020
विवाह मङ्गलाष्टकम्
।।मङ्गलाष्टकम्।।
गंगा गोमति गोपतिर्गणपतिर्गोविन्द गोवर्द्धनो
गीता गोमय गौरिजा गिरिसुता गंगाधरो गौतमः ।
गायत्री गरुडो गदा गिरिगजो गम्भीर गोदावरी
गन्धर्व ग्रह गोप गोकुल गणाः कुर्वन्तु वो मंगलम् ।।१।।
यावत्तोयधरा धरा धर धरा धारा धरा भूधरा
यावच्चारु सुचारु चारु चमरं चामीकरं चामरम् ।
यावद् राघव राम राम रमणं रामायणं श्रूयते
तावद् भोग विभोग भोग भुवन भोगाय ते नित्यशः ।।२।।
ईशानो गिरिशो मृडः पशुपतिः शूली शिवःशंकरः
भूतेशः प्रमथाधिपः स्मर हरो मृत्युञ्जयो धुंर्जटि:।
श्रीकण्ठो वृषभध्वजो हर भवो गंगाधरस्त्र्यम्बकः
श्रीरुद्र सुरवृन्दवन्दित पदः कुर्यात् सदा मंगलम् ।।३।।
लक्ष्मीस्ते पंकजाक्षी निवसतु भवने भारती कंठदेशे,
वर्द्धन्ता बन्धुवर्गः सकलरिपुगणा यान्तु पातालमूलम् ।
देशे देशे च कीर्तिः प्रभवतु भवतां पूर्ण कुन्देन्दुशुभ्रा
जीव त्वं पुत्र पौत्रैः स्वजन परिवृत्तो भुक्ष्व राज्यं विशालम् ।।४।।
सिंहादुत्थाय कोपाद् ध धड़ धड़ धावमाना भवानी
दैत्यानां दिव्यशस्त्रैस्त तड तड़ त्रोटयन्ती शिरांसि ।
तेषां रक्तं पिबन्ती घु घुट घुट प्रेक्षणीया पिशाची
तृप्ता तृप्ता हसन्ती ख खत खत शाम्भवी वः पुनातु।।५।।
गंगा सिन्धु सरस्वती च यमुना गोदावरी नर्मदा
कावेरी सरयू महेन्द्रतनया चर्मण्वती वेदिका ।
क्षिप्रा वेत्रवती महासुरनदी ख्याता गया गण्डकी
पूर्णा पुण्य जलैः समुद्र सहिताः कुर्वन्तु वो मंगलम् ।।६।।
नाना रूप सुरूपिता सुखकरा सामीप्य सायुज्यदा
लाना धाम विराजिता पर पदा पूज्यापरा पापहा ।
नाना नाम सुपूजिता सुफलदा सेव्या सदा सौख्यदा
ध्येया सा भुवनेश्वरी भगवती मातेश्वरी अम्बिका ।।७।।
अन्तर्बाह्य गता च या रिपुकृता बाधा सदा नाशिनी
नाना क्लेशहरा वराभयकरा वाञ्छामनो दायिनी ।
या नित्या करुणामयी मतिमयी माता घनानन्ददा
सा पूज्या जगदीश्वरी भगवती शाकम्भरी अम्बिका ।।८।।
चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पट धरो
जटाधारी कण्ठे भुजगपति हारी पशुपतिः ।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशेक पदवीं
भवानि त्वत्पाणिग्रहण परिपाटी फलमिदम् ।।९।।
श्रीमत्पङ्कजविष्टरो हरिहरौ वायुर्महेन्द्रोऽनल-
श्चन्द्रो भास्कर वित्तपालवरुणाः प्रेताधिपादिग्रहाः।
प्रद्युम्नो नलकूवरः सुरगजश्चिंतामणिः कौस्तुभः
स्वामी शक्तिधरश्च लांगलधरः कुर्वन्तु नो मङ्गलम्।।१०।।
गङ्गा गोमतिगोपतिर्गणपतिर्गोविन्द गोवर्द्धनो
गीतागोमय गौरिजो गिरिसुता गङ्गाधरो गौतमः ।
गायत्री गरुडो गदाधर गया गम्भीर गोदावरी गन्धर्वग्रहगोपगोकुलगणाः कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥११॥
नेत्राणां त्रितयं शिवं पशुपतेरग्नित्रयं पावनं
पुण्यं विष्णुपद त्रयं त्रिभुवनं ख्यातं च रामत्रयम् ।
गङ्गावाह पथत्रयं सुविमलं देव त्रयं ब्राह्मणं
सन्ध्यानां त्रितयं द्विजैः सुविहितं कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥१२॥
गौरी श्रीः कुलदेवता च सुभगा भूमिः प्रपूर्णा शुभा
सावित्री च सरस्वती सुरनदी सत्यव्रतारुन्धती ।
सत्या जाम्बवती च रुक्मभगिनी दुःस्वप्नविध्वंसिनी
वेला चाम्बुनिधेः सुमीनमकराः कुर्वन्तु गे मङ्गलम् ।।१३ ।।
अश्वत्थो वटवृक्षचन्दनतरुर्मन्दारकल्पद्रुमौ
जम्बूनिम्बकदम्बआम्रसरला वृक्षाश्च ये क्षीरिणः ।
सर्वे ते फलसंयुताः प्रतिदिनं विम्राजनं राजते
रम्यं चैत्ररथं च नन्दनवनं कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥१४ ॥
वाल्मीकिः सनकः सनन्दन तरुर्व्यासो वशिष्ठो भृगु-
र्जावालिर्जमदग्निकच्छजनको गर्गाऽङ्गिरा गौतमः ।
मान्धाता भरतो नृपश्च सगरो धन्यो दिलीपो नलः
पुण्यो धर्मसुतो ययातिनहुषौ कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ।।१५।।
लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुरा धन्वतरिश्चन्द्रमा
गावः काम दुघाः सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवाङ्गनाः ।
अश्वः सप्तमुखः सुधा हरिधनुः शंखो विषं चाम्बुधे
रत्नानीति चतुर्दश प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ।। १६।।
शुक्रवार, 24 जुलाई 2020
कृपानुभूति
जीवन मे अनायास बिना सोच विचार के कोई कार्य घटित हो जाय वह घटना है।घटनाओं का जीवन मे होना रहस्य की तरह होते है।कुछ घटनाओं का अच्छा, बुरा होना जीवन को परिवर्तित कर देते है,और कुछ घटना चिन्तन करने को मजबूर कर देती है।घटना जीवन मे खाते,सोते,जागते,यात्रा करते कभी भी हो सकते है,जिन्हें हम अच्छा,बुरा सोचकर विचार करते है।आमतौर पर हर किसी के जीवन मे कुछ न कुछ रहस्यों से भरी घटनाये होती रहती है।कभी ,कभी हमे घटनाओं के द्वारा संकेत मिलते है।जो हमे सतर्क करती है।
एक घटना तब की है जब में काशी में रहकर पढ़ाई करता था।मेरे मित्र ने कहा आपको आश्विन नवरात्र में उत्तराखंड के जनपद पौड़ी जाना है।मित्र के कहने पर में नवरात्रि में पाठ के लिए यजमान के घर पहुँच गया।विधिवत ढंग से नवरात्र सम्पन्न करके अपने घर जाने लगा तो यजमान मुझे कुछ दूर छोड़ने के लिए आये,यजमान ने रास्ता बताया वो लौट गए।पैदल सुनशान रास्ते पर चलता चला गया ।कुछ दूर जाने पर विशाल जंगल मे प्रवेश किया कुछ दूर जाने पर रास्ता भटक गया ,जंगल से न घर का रास्ता मिला न वापस बाहर जाने का रास्ता ,रात होने में 2 घंटा बाकी था ,कुछ भी समझ नही पा रहा था दूर दूर तक कोई घर गांव इंसान नही दिखाई दे रहे थे।पैदल चलते थकान बहुत हो रही थी। कहते जब सारे रास्ते बन्द हो जाय तो एक रास्ता हमेशा खुला रहता है।वो है भगवान कि शरण,मैंने मन ही मन माता रानी को याद किया आगे चलकर देखा एक बच्चा दिखाई दिया मैने बच्चे से पूछा तुम यहाँ क्या कर रहे हो ,वो कुछ भी नही बोला, में घबराने लगा ,फिर साहस किया ,और पूछा तुम यहाँ क्या कर रहे हो ,तब बच्चे ने एक ओर इशारा किया ,बच्चे ने जिस ओर इशारा किया में उस रास्ते पर चलने लगा ,कुछ आगे चलने पर पीछे मुड़कर देखा जंगल मे कोई नही था ।तब मन मे विश्वास हुआ कि वो बच्चा कोई नही बल्कि माता रानी का चमत्कार था ।जिन्होंने मेरी सहायता की और में आराम से घर पहुँच गया।
हर व्यक्ति घर से बाहर निकलता है,अपने दैनिक कार्यो को संपादित करता है।बनते कार्य बिगड़ना या बिगड़े काम बन जाय ये सब घटना क्रम है।कभी छोटी घटना तो कभी बड़ी दुघर्टना कभी शाररिक कभी सांसर्गिक घटनाऐ जीवन मे अधिक धन कि पिपासा भाग दौड़ ने घटना क्रम को अधिक बढाया जिससे जन धन की हानि होती है।
जीवन मे सत्य पर चलने वाले और भक्ति मार्ग पर चलने वालो कि रक्षा ,सत्य व धर्म के द्वारा होती रहती है।
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