गुरुवार, 8 जुलाई 2021
बुधवार, 7 जुलाई 2021
रुद्राष्टाकम्
रुद्राष्टाकम् का नित्य पाठ करने से बड़े से बड़े विघ्नों पर विजय प्राप्त कर सकते है ।
नमामी शमीशान निर्वाणरूपं
विभुं व्यापकं ब्रह्मवेद स्वरूपम् ।
अजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाश माकाशवास भजेऽहं ।।१ ।।
निराकार मोंकार मूलं तुरीयं
गिरा ज्ञान गोती तमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकाल कालं कृपालु
गुणागार संसार पारं नतोऽहं ।।२ ।।
तुषाराद्रि - संकाश - गौरं गभीरं
मनोभूतकोटि - प्रभा- श्रीशरीरम् ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा
लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ।।३ ।।
चलत्कुण्डलं भू सुनेत्रं विशालं
प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालुम् ।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्ड - मालम्
प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि ।।४ ।।
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं
अखण्डं अजं भानुकोटि प्रकाशम् ।
त्रयः शूल - निर्मूलनं शूलपाणिं
भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ।।५ ।।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी
सदा सज्जना नन्द दाता पुरारी ।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी
प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ।।६ ।।
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं
भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावत्सुखं शान्ति - सन्तापनाशं
प्रसीद प्रभो सर्वभूताधि वासम् ।।७ ।।
न जानामि योगं जपं नैव पूजां
नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ।।८ ।।
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रदीदति ।। ९ ।।
।। इति श्री गोस्वामितुलसीदासकृतं श्री रुद्राष्टकं सम्पूर्णम् ।।
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रविवार, 4 जुलाई 2021
चमत्कारी सर्प सूक्त
चमत्कारी सर्प सूक्त
यह सर्प सूक्त सर्प शाप दोष शान्ति के लिए अत्यन्त प्रभावकारी है।
एक जोड़ी स्वर्ण सर्प पूजन करके किसी वेदपाठी विद्वान को दान देने से सर्प शाप दोष परिहार हो जाता है ।
सर्प शाप के कारण यदि सन्तान बाधा , बुरे स्वप्न, कार्यो में विघ्न हो तो सर्प सूक्त का 101 पाठ करके हवन करें । तत्पश्चात् गो दान करें या गो निष्क्रिय दक्षिणा देकर ब्राह्मणों से आशीर्वाद लें । इस विधि को करने से उत्तम सन्तान की प्राप्ति होती है ।
सर्प सूक्त --
ब्रह्मलोकेषु ये सर्पाः शेषनाग पुरोगमाः ।
नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदाः।।१।।
इन्द्रलोकेषु ये सर्पाः वासुकि प्रमुखादयः ।
नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीता : मम सर्वदा ॥२।।
कद्रवे याश्च ये सर्पाः मातृभक्ति परायणा ।
नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीता : मम सर्वदा ॥३।।
इन्द्रलोकेषु ये सर्पाः तक्षका प्रमुखादयः ।
नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीता : मम सर्वदा ॥४।।
सत्यलोकेषु ये सर्पाः वासुकिना च रक्षिता ।
नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीता : मम सर्वदा ।।५।।
मलये चैव ये सर्पाः कर्कोटक प्रमुखादयः ।
नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीता : मम सर्वदा ॥६।।
पृथिव्यांश्चैव ये सर्पाः ये साकेत वासिना ।
नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीता : मम सर्वदा ॥७।।
सर्वग्रामेषु ये सर्पाः वंसुतिषु संच्छिता ।
नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीता : मम सर्वदा ॥८।।
ग्रामे वा यदि वा रण्ये ये सर्पाः प्रचरन्ति च ।
नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ॥९।।
समुद्रतीरे ये सर्पाः सर्वाजलवासिनः ।
नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीता : मम सर्वदा ॥१०।।
रसातलेषु ये सर्पाः अनन्तादि महाबलाः ।
नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ॥११।।
योगिनी एकादशी
योगिनी एकादशी
( आषाढ़ कृष्ण एकादशी )
आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की इस एकादशी को भगवान नारायण की पूजा - आराधना की जाती है । श्रीनारायण भगवान विष्णु का ही एक नाम है अतः अन्य एकादशियों के समान ही भगवान विष्णु अथवा उनके लक्ष्मीनारायण रूप की पूजा - आराधना करें । इस एकादशी का व्रत करने से सम्पूर्ण पापों का क्षय होता है , और पीपल का पेड़ काटने जैसे पाप तक से मुक्ति मिल जाती है । किसी के दिए हुए शाप तक का निवारण हो जाता है । योगिनी एकादशी का व्रत करने से कुष्ट रोग नष्ट होता है ।अन्य एकादशियों के समान ही इस एकादशी के व्रत का विधान है । इस व्रत को करने वाला भी इस लोक में सभी सुख भोगकर अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर श्रीहरि के चरणों में निवास प्राप्त करता है , ऐसा शास्त्रों में परिणीत है ।
कथा -
अति प्राचीन काल में अलकापुरी के राजा कुबेर के यहां हेममाली नामक एक अनुचर था । उसका कार्य नित्यप्रति पूजा के फूल लाना था । एक दिन भार्या के साथ विहार करते रहने के कारण उसे फूल लाने में बहुत देर हो गई । इससे क्रोधित होकर कुबेर ने उसे कोढ़ी होने का शाप दे दिया । इस शाप से कोढ़ी हुआ हेममाली इधर - उधर भटकता हुआ एक दिन दैवयोग से मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम में जा पहुंचा । ऋषि ने अपने योग बल से उसके दुःखी होने का कारण जान लिया । उन्होंने उसे योगिनी एकादशी व्रत करने को कहा । व्रत के प्रभाव से हेममाली का कोढ़ समाप्त हो गया और वह दिव्य शरीर धारण करके पुनः स्वर्ग लोक को प्रस्थान कर गया ।
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रविवार, 20 जून 2021
हरेला त्यौहार (हरियाली )
उत्तराखंड का लोक त्यौहार हरेला (हरियाली)
(कर्क संक्रान्ति १गते श्रावण मास)
उत्तराखंड में समय समय पर ऋतु व संक्रान्ति के आगमन पर अनेक त्यौहार मनाये जाते है । जिनकी प्रसिद्धि पूरे उत्तराखंड व देश विदेशों में दिखायी देता है । हरेला त्यौहार मूलरूप से उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में विशेष हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है ।
हरेला त्यौहार हरियाली ,प्रकृति संरक्षण का प्रतीक है ,जो हमे पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है।सावन के आगमन पर लोग वृक्षारोपण करते है। यह हरेला त्यौहार प्रकृति की रक्षा व सुख शांति के लिये मनाया जाता है। जिसमें सभी जन मानुष प्रकृति की रक्षा का संकल्प लेते है ।
हरेला का त्यौहार भगवान शिव व शिव परिवार को समर्पित है ।सावन के आगमन पर लोग अपने घरों में मिट्टी से शिव परिवार की मूर्ति बनाकर अभिषेक पूजन करते है । मान्यताओं के अनुसार हरेले के दिन भगवान शिव व पार्वती जी का विवाह हुआ था ।इस लिये भगवान शिव जी को सावन का महीना प्रिय है ।
हरेला त्यौहार -
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हरेला त्यौहार श्रावण मास के १गते कर्क संक्रान्ति को मनाया जाता है । हरेला त्यौहार के नौ दिन ,दश दिन ,ग्यारह दिन पूर्व बांस या रिंगाल से बनी टोकरी में मिट्टी डालकर उसमे पांच या सात प्रकार के धान्य जौ ,धान ,गहत ,भट्ट ,मक्का , सरसों , झुंगर बोते है । रोज सुबह बोये हरेले में पानी दिया जाता है ।नौ दिन तक हरेले पर सूर्य का प्रकाश नही पड़ना चाहिए । हरेला घर के मंदिर या सामूहिक रूप से गाँव या परिवार के कुलदेवता के मंदिर में बोते है ।
हरेला त्यौहार के दिन प्रातः स्नानादि से निवृत हो हरेला व देवताओं की पूजा करके हरेला काट कर प्रथम देवताओं को अर्पित किया जाता है ।फिर घर के बड़े बुजुर्ग या माताओं के हाथों से सबके सिर व कान में लगाया जाता है ।
हरेला लगाते समय माँ अपने बच्चों को शुभ आशीष देते हुवे कहती है ।
आशीष वचन -
लाग हर्या लाग पंचमी
लाग दशै लाग बोगाव
जी रये जागि रये
यो दिन यो मास भेंटने रया
दुब जस पनपी जाया
अगास जस उच्च
धरती जस चकाव हे जाया
शेर जस तराण हो
स्याव जस बुद्धि हो
हिमालय में हिंयु रण तलक
गंग जमुन में पाणि रण तलक
जी रये जागि रये
जो परिवार के सदस्य नॉकरी या अन्य कार्यो के लिए दूसरे शहरों में रहते है उन्हें लिफाफे में हरेला डालकर डाक द्वारा भेजा जाता है ।
बुधवार, 16 जून 2021
दूर्वा( घास) की उत्पत्ति
दूर्वा (घांस) की उत्पत्ति कैसे हुई-
"त्वं दूर्वे अमृतनामासि सर्वदेवैस्तु वन्दिता।
वन्दिता दह तत्सर्वं दुरितं यन्मया कृतम॥"
पौराणिक कथा के अनुसार- समुद्र मंथन के दौरान एक समय जब देवता और दानव थकने लगे तो भगवान विष्णु ने मंदराचल पर्वत को अपनी जंघा पर रखकर समुद्र मंथन करने लगे। मंदराचल पर्वत के घर्षण से भगवान के जो रोम टूट कर समुद्र में गिरे थे, वही जब किनारे आकर लगे तो दूब के रूप में परिणित हो गये। अमृत निकलने के बाद अमृत कलश को सर्वप्रथम इसी दूब पर रखा गया था, जिसके फलस्वरूप यह दूब भी अमृत तुल्य होकर अमर हो गयी। दूब घास विष्णु का ही रोम है, अतः सभी देवताओं में यह पूजित हुई और अग्र पूजा के अधिकारी भगवान गणेश को अति प्रिय हुई। तभी से पूजा में दूर्वा का प्रयोग अनिवार्य हो गया।
सोमवार, 14 जून 2021
निर्जला एकादशी व्रत का महत्व
अपरा अर्थात निर्जला एकादशी
( जेष्ठ शुक्ला एकादशी )
सनातन धर्म में एकादशी व्रत का विशेष महत्व है । पूरे वर्ष में चौबीस एकादशियां आती है । किन्तु इन सब में निर्जला एकादशी सबसे बढ़कर फल देने वाली है । इस निर्जला एकादशी का व्रत रखने से वर्ष भर की सभी एकादशी का फल प्राप्त होता है । यह व्रत अत्यधिक कठिन व संयम - साध्य है । जेष्ठ मास में दिन बड़े होते है ,व प्यास अधिक लगती है । ऐसे में इतना कठिन व्रत रखना साधना का काम है ।
इस एकादशी व्रत के दिन अपनी शक्ति और सामर्थ्यानुसार दान देने का विधान है ।जैसे अनाज छतरी वस्त्र फल जल से पूर्ण कलश सहित दक्षिणा देना चाहिए ।
इस एकादशी का वर्णन स्वयं व्यास जी ने किया है ।
कथा-
एक बार भीमसेन ने व्यास जी से कहा कि हे पितामह युधिष्ठिर अर्जुन नकुल सहदेव माता कुंती और द्रोपदी सभी एकादशी को भोजन का निषेध करते है ।औऱ मुझे भी एकादशी के दिन भोजन न करने के लिए कहते है । मै विधिपूर्वक दान दे दूंगा औऱ भगवान वासुदेव की पूजा करके उन्हें प्रसन्न कर लूंगा किन्तु मै भूखा नही रह सकता ।पितामह आप मुझे कोई ऐसा उपाय बताए कि बिना व्रत के मुझे एकादशी व्रत का फल प्रप्त हो।
व्यासजी बोले -
हे वृकोदर !तुम्हें अगर स्वर्ग पसन्द है औऱ तुम नरक नही जाना चाहते तो पक्ष की दोनों एकादशी में तुम्हें भोजन नही करना चाहिए ।
भीमसेन ने कहा -
हे पितामह मेरे एक समय के भोजन से निर्वाह नही होता ,मेरे उदर में वृक नाम की अग्नि सदैव जलती रहती है ।बहुत मात्रा में भोजन करने से मेरी भूख शांत होती है ।
हे मुनिराज मुझे कोई एक ऐसा व्रत बताए जिसके करने से मेरा कल्याण हो । उसे में अवश्य ही विधिपूर्वक करूँगा ।
व्यास जी ने कहा- जेष्ठ शुक्ल एकादशी को निर्जला व्रत किया करो , स्नान व आचमन करने का कोई दोष नही है । अन्न बिलकुल नही खायें , अन्न ग्रहण करने से व्रत खण्डित हो जाता है ।हे भीमसेन तुम सदा यही व्रत किया करो । जिससे सभी एकादशी में अन्न खाने का दोष भी समाप्त हो जाएगा और वर्ष की सभी एकादशी का पुण्य भी प्राप्त होगा ।
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बुधवार, 9 जून 2021
वट सावित्री व्रत कथा
वट सावित्री व्रत या बड़ - मावस ( ज्येष्ठ अमावस्या )
यह सौभाग्यवती स्त्रियों का प्रमुख पर्व है । इस दिन वट वृक्ष की पूजा की जाती है ।मान्यता है कि सावित्री ने वट वृक्ष के नीचे बैठ कर सत्यवान को दोबारा जीवित किया था। स्त्रियां बड़े सवेरे स्नान करती हैं और केशों को धोती हैं । जल , मोली , रोली , चावल , गुड़ , भीगे चने , फूल , धूप - दीप से वट वृक्ष की पूजा की जाती है और उसके चारों ओर कच्चे सूत का धागा लपेटा जाता है । भीगे हुए चनों का भोग लगाया जाता है । कहीं - कहीं पर यह त्यौहार ज्येष्ठ कृष्णपक्ष त्रयोदशी से अमावस्या तक किया जाता है । यह व्रत स्त्रियों द्वारा अखण्ड सौभाग्यवती की कामना से किया जाता है । सुहागिन नारियां पूर्ण श्रृंगार करके और सुन्दर वस्त्राभूषण धारणकर सामूहिक रूप में पूजा करती हैं । वट वृक्ष के तने पर जल चढ़ाकर रोली चन्दन लगाया जाता हैं ,और पूजन के लिए लाई गई सभी सामग्री चढ़ा दी जाती है । घी का दीपक जलाकर कच्चे सूत के धागे को हल्दी से रंगकर वृक्ष के तने पर लपेटते हुए वृक्ष की सात परिक्रमाएं की जाती हैं । यदि आपके आस - पास बड़ का कोई पेड़ न हो तब भी निराश न हों , कहीं से एक टहनी मंगा लें अथवा दीवार पर वट वृक्ष को अंकित करके पूजा कर लें । पूजा - आराधना में मुख्य महत्व भावना , श्रद्धा , विश्वास और आस्था का है अतः आप दीवार पर बड़ के पेड़ का अंकन करें अथवा वास्तविक वट वृक्ष का पूजन , इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । इस अवसर पर सत्यवान - सावित्री की यह कहानी कही और सुनी जाती है । -
कथा-
बहुत समय पूर्व मद्रदेश में अश्वपति नामक एक परम ज्ञानी राजा थे । उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए पण्डितों की सम्मति से भगवती सावित्री की आराधना की । इस पूजा से उनके यहां एक पुत्री का जन्म हुआ । उन्होंने इसका नाम सावित्री रखा । सावित्री सर्वगुण सम्पन्न थी । जब वह विवाह योग्य हुई तब राजा ने उसे स्वयं अपना वर चुनने को कहा । एक दिन महर्षि नारद राजा अश्वपति के घर आये हुए थे । तभी सावित्री भी अपने लिए वर चुनकर लौटी । उसने आदरपूर्वक नारदजी को प्रणाम किया । नारदजी के पूछने पर सावित्री ने बताया कि महाराज , राज्यच्युत राजा धुमत्सेन के आज्ञाकारी पुत्र सत्यवान को मैंने अपना पति बनाने का निश्चय किया है । तीनों लोकों में भ्रमण करने वाले नारदजी ने उसके भूत , वर्तमान और भविष्य को देखकर राजा से कहा - राजन् तुम्हारी कन्या ने वर खोजने में निस्सन्देह भारी परिश्रम किया है । सत्यवान गुणवान और धर्मात्मा है । वह सावित्री के लिए सब प्रकार से योग्य है परन्तु उसमें एक भारी दोष है । वह अल्पायु है और एक वर्ष के पश्चात् वह मृत्यु को प्राप्त होगा । नारदजी के वचन सुनकर राजा ने पुत्री को कोई अन्य वर खोजने की सलाह दी । परंतु सावित्री ने दृढ़तापूर्वक कहा कि जिसे मैंने एक बार मन से पति स्वीकार कर लिया है , वह अब चाहे जैस भी है , वही मेरा पति होगा । सावित्री के ऐसे दृढ़ वचन सुनकर राजा अश्वपति ने उसका विवाह सत्यवान के साथ कर दिया । सावित्री अपने पति और अंध सास - ससुर की सेवा करती हुई सुखपूर्वक वन में रहने लगी । नारदजी के कथनानुसार जब उसके पति के जीवन के तीन दिन बचे , तभी से वह उपवास करने लगी । तीसरे दिन उसने पितरों का पूजन किया । तत्पश्चात् वह सत्यवान के साथ वन में जाने की
उद्यत हुई । इसके लिए उसने सास - ससुर से आज्ञा प्राप्त कर ली । सत्यवान लकड़ी काटने के लिए एक वृक्ष पर चढ़ा , परन्तु शीघ्र ही सिर में पीड़ा होने के कारण नीचे उतर आया और सावित्री की गोद में सिर रखकर लेट गया । तभी सावित्री ने यमराज और उसके दूतों को सत्यवान का जीव निकालकर ले जाते हुए देखा । यह देख वह भी उनके पीछे - पीछे चल पड़ी । यमराज ने उसे.समझाकर वापस लौट जाने के लिए कहा । सावित्री ने कहा - धर्मराज , पति के पीछे जाना ही स्त्री का धर्म है । पतिव्रत के प्रभाव और आपकी कृपा से कोई मेरी गति नहीं रोक सकता । सावित्री के धर्मयुक्त वचनों से प्रसन्न होकर यमराज ने उसे वर मांगने को कहा । सावित्री ने अपने सास - ससुर को दिखाई देने का वरदान मांगा । वर प्राप्त करके भी सावित्री ने अपने पति का साथ नहीं छोड़ा । यमराज ने दूसरी बार वर मांगने को कहा । सावित्री ने अपने ससुर के खोए हुए राज्य की प्राप्ति और अपने पिता के लिए सौ पुत्रों का वरदान मांगा । वर देने के बाद यमराज ने पुनः सावित्री को वापस लौट जाने का आग्रह किया , किन्तु सावित्री अपने प्रण पर अडिग रही । तब यमराज ने उससे अंतिम वर मांगने के लिए कहा । सावित्री ने सत्यवान से सौ पुत्र प्राप्त होने का वरदान मांगा । सावित्री की पतिभक्ति और युक्तिपूर्ण वचनों के बंधन में बंधे यमराज ने सत्यवान के जीव को पाश से मुक्त कर दिया । सावित्री को वर देकर यमराज अंतर्ध्यान हो गये और वह लौटकर वट वृक्ष के नीचे आई । सत्यवान के मृत शरीर में पुनः जीवन का संचार हो गया था । इस प्रकार सावित्री ने अपने पतिव्रत धर्म का पालन करके अपने ससुर कुल एवं पितृकुल दोनों का कल्याण कर दिया ।
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गुरुवार, 27 मई 2021
शिवजी की पूजा में ध्यान रखने योग्य बात
।। शिवजी की पूजा में ध्यान रखने योग्य बात।।
शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव को कौन सी चीज़ चढाने से मिलता है क्या फल ,
किसी भी देवी-देवता का पूजन करते समय उनको अनेक चीज़ें अर्पित की जाती है। प्रायः भगवान को अर्पित की जाने वाली हर चीज़ का फल अलग होता है। शिव पुराण में इस बात का वर्णन मिलता है की भगवान शिव को अर्पित करने वाली अलग-अलग चीज़ों का क्या फल होता है। शिवपुराण के अनुसार जानिए कौन सा अनाज भगवान शिव को चढ़ाने से क्या फल मिलता है:
१. भगवान शिव को चावल चढ़ाने से धन की प्राप्ति होती है।
२. तिल चढ़ाने से पापों का नाश हो जाता है।
३. जौ अर्पित करने से सुख में वृद्धि होती है।
४. गेहूं चढ़ाने से संतान वृद्धि होती है।यह सभी अन्न भगवान को अर्पण करने के बाद गरीबों में वितरीत कर देना चाहिए।
शिव पुराण के अनुसार जानिए भगवान शिव को कौन सा रस (द्रव्य) चढ़ाने से उसका क्या फल मिलता है -
१. ज्वर (बुखार) होने पर भगवान शिव को जलधारा चढ़ाने से शीघ्र लाभ मिलता है। सुख व संतान की वृद्धि के लिए भी जलधारा द्वारा शिव की पूजा उत्तम बताई गई है।
२. नपुंसक व्यक्ति अगर शुद्ध घी से भगवान शिव का अभिषेक करे, ब्राह्मणों को भोजन कराए तथा सोमवार का व्रत करे तो उसकी समस्या का निदान संभव है।
३. तेज दिमाग के लिए शक्कर मिश्रित दूध भगवान शिव को चढ़ाएं।
४. सुगंधित तेल से भगवान शिव का अभिषेक करने पर समृद्धि में वृद्धि होती है।
५. शिवलिंग पर ईख (गन्ना) का रस चढ़ाया जाए तो सभी आनंदों की प्राप्ति होती है।
६. शिव को गंगाजल चढ़ाने से भोग व मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।
७. मधु (शहद) से भगवान शिव का अभिषेक करने से राजयक्ष्मा (टीबी) रोग में आराम मिलता है।
शिव पुराण के अनुसार जानिए भगवान शिव को कौन का फूल चढ़ाया जाए तो उसका क्या फल मिलता है -
१. लाल व सफेद आंकड़े के फूल से भगवान शिव का पूजन करने पर भोग व मोक्ष की प्राप्ति होती है।
२. चमेली के फूल से पूजन करने पर वाहन सुख मिलता है।
३. अलसी के फूलों से शिव का पूजन करने से मनुष्य भगवान विष्णु को प्रिय होता है।
४. शमी पत्रों (पत्तों) से पूजन करने पर मोक्ष प्राप्त होता है।
५. बेला के फूल से पूजन करने पर सुंदर व सुशील पत्नी मिलती है।
६. जूही के फूल से शिव का पूजन करें तो घर में कभी अन्न की कमी नहीं होती।
७. कनेर के फूलों से शिव पूजन करने से नए वस्त्र मिलते हैं।
८. हरसिंगार के फूलों से पूजन करने पर सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है।
९. धतूरे के फूल से पूजन करने पर भगवान शंकर सुयोग्य पुत्र प्रदान करते हैं, जो कुल का नाम रोशन करता है।
१०. लाल डंठलवाला धतूरा पूजन में शुभ माना गया है।
११. दूर्वा से पूजन करने पर आयु बढ़ती है।
बिल्व वृक्ष लगाने का फल
बिल्व वृक्ष-
जीवन काल मे प्रत्येक मनुष्य को वृक्षारोपण करना चाहिये । मनुष्य जब एक वृक्ष का रोपण करता है तो उसे दस पुत्रों के सदृश फल प्राप्त होता हैं।प्रयास यह हो कि हम ऐसे वृक्षों का रोपण करें की मानव जाती को उसका लाभ पीढ़ी दर पीढ़ी हो, साथ साथ प्रकृति की सुंदरता बनी रहे। वृक्ष होंगे तो मानव जाति भी सुरक्षित रहेगी ।
१. बिल्व वृक्ष के आसपास सांप नहीं आते ।
२. अगर किसी की शव यात्रा बिल्व वृक्ष की छाया से होकर गुजरे तो उसका मोक्ष हो जाता है ।
३. वायुमंडल में व्याप्त अशुध्दियों को सोखने की क्षमता सबसे ज्यादा बिल्व वृक्ष में होती है ।
४. चार, पांच, छः या सात पत्तो वाले बिल्व पत्र पाने वाला परम भाग्यशाली और शिव को अर्पण करने से अनंत गुना फल मिलता है।
५. बेल वृक्ष को काटने से वंश का नाश होता है एवं बेल वृक्ष लगाने से वंश की वृद्धि होती है।
६. सुबह शाम बेल वृक्ष के दर्शन मात्र से पापो का नाश होता है।
७. बेल वृक्ष को सींचने से पित्र तृप्त होते है।
८. बेल वृक्ष और सफ़ेद आक् को जोड़े से लगाने पर अटूट लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
९. बेल पत्र और ताम्र धातु के एक विशेष प्रयोग से ऋषि मुनि स्वर्ण धातु का उत्पादन करते थे ।
१०. जीवन में सिर्फ एक बार और वो भी यदि भूल से भी शिव लिंग पर बेल पत्र चढ़ा दिया हो तो भी जीव सभी पापों से मुक्त हो जाते है l
११. बेल वृक्ष का रोपण, पोषण और संवर्धन करने से महादेव से साक्षात्कार करने का अवश्य लाभ मिलता है।
कृपया बिल्व पत्र का पेड़ जरूर लगाये और बिल्व पत्र के लिए पेड़ को क्षति न पहुचाएं ।
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बुधवार, 26 मई 2021
पार्थिव शिवलिंग के पूजन का महात्म्य
पार्थिव शिवलिंग पूजन का महत्वएक बार ऋषि गणों के पूछने पर सूत जी महाराज ने पार्थिव शिवलिंग पूजन का महात्म्य बताते हुवे कहा ।
पार्थिव शिवलिंग पूजन का महत्व
ब्रह्मा , विष्णु , प्रजापति तथा अनेक ऋषियों ने पार्थिव लिंग की पूजा करके अभीष्ट को प्राप्त किया है । देव , असुर ,मनुष्य , गन्धर्व ,नाग , राक्षसगण और अन्य प्राणियों ने भी पार्थिव लिंग पूजा करके परम सिद्धि को प्राप्त किया है ।
सतयुग में मणि लिंग ,त्रेतायुग में स्वर्ण लिंग, द्वापरयुग में पारद लिँग और कलयुग में पार्थिव लिङ्ग पूजन को श्रेष्ठ माना गया है ।
भगवान शिव की सभी पूजा में पार्थिव मूर्ति श्रेष्ठ है ।नव निर्मित पार्थिव मूर्ति की पूजा करने से तपस्या से भी अधिक फल मिलता है ।
जैसे सभी देवताओं में शंकर श्रेष्ठ है उसी प्रकार सभी लिंग मुर्तियों मे पार्थिव लिंग श्रेष्ठ है ।
जैसे सभी नदियों में गंगा जेष्ठ व श्रेष्ठ कही गयी है ,वैसे ही सभी लिंग मुर्तियों मे पार्थिव लिंग श्रेष्ठ कहा जाता है ।
जैसे सभी मंत्रो में प्रणव (ॐ) महान कहा गया है , उसी प्रकार शिव का पार्थिव शिवलिंग श्रेष्ठ आराध्य तथा पूजनीय है ।
जैसे मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है ,उसी प्रकार देवों में शिव पार्थिव लिंग पूजन श्रेष्ठ है।
जो मनुष्य पार्थिव शिवलिंग का निर्माण करके विल्बपत्रों से ग्यारह वर्ष तक पूजन करता है ,वह मनुष्य रुद्रलोक में प्रतिष्ठित होता है।उसके दर्शन ,स्पर्श से मनुष्यों के पाप नष्ट हो जाते है ।
जो मनुष्य जीवन पर्यंत पार्थिव लिंग का पूजन करता है , वह असंख्य वर्षो तक शिवलोक में वास करता है । जो मनुष्य निष्काम भाव से विधिवत पार्थिव शिवलिंग पूजन करता है ,वह सदा के लिये शिवलोक में वास करता है और शिव सायुज्य को प्राप्त कर लेता है।
निष्कामः पूजयेन्नित्यं पार्थिवं लिंग मुत्तमम् ।
शिवलोके सदा तिष्ठेत्तस्य सायुज्यमाप्नुयात् ।।
शिव पार्थिव लिंग पूजन से मनुष्यों की सभी प्रकार मनोकामना पूर्ण होती है ।
आचार्य हरीश लखेड़ा
9004013983
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