सोमवार, 19 अक्टूबर 2020

नवरात्रि के तृतीय दिवस में माँ चन्द्रघंटा की उपासना से परमकल्याण होता है।

 चन्द्रघण्टा--

 पिण्डज प्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्र कैर्युता ।

प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघण्टे ति विश्रुता ।। 

माँ दुर्गाजी की तीसरी शक्ति का नाम चन्द्रघण्टा है । इनका यह स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है । इनके मस्तक में घण्टा के आकार का अर्धचन्द्र है , इसी कारण इन्हें चन्द्रघण्टा देवी कहा जाता है । ये लावण्यमयी दिव्य मूर्ति हैं । सुवर्ण के समान इनके शरीर का रंग है । इनके तीन नेत्र और दस हाथ हैं , जिनमें दस प्रकार के खड्ग आदि शस्त्र तथा बाण आदि अस्त्र विभूषित हैं । इनका वाहन सिंह है । इनकी मुद्रा लड़ने के लिए युद्ध में जाने के लिए उन्मुख रहने की है । ये वीररस की अपूर्व मूर्ति हैं । इनके घण्टे की सी भयानक चन्डजाने से सभी दुष्ट दैत्य दावन एवं राक्षस त्रस्त हो जाते हैं । नवरात्र उपासना में तीसरे दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन किया जाता है ।

 इसदिन साधक का मन मणिपूर ' चक्र में प्रविष्ठ होता है । माँ चन्द्रघण्टा की कृपा से उसे अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं । दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है , दिव्य ध्वनियां सुनाई देती हैं । इनकी आराधना सद्यफलदायी है । माँ चन्द्रघण्टा का ध्यान इहलोक और परलोक दोनों के लिए परमकल्याणकारी और सद्गति को देने वाला है । 

शनिवार, 17 अक्टूबर 2020

💐ब्रह्मचारिणी💐

ब्रह्मचारिणी--

 दधाना कर पद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू ।

 देवि प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा ।। 

भगवती ब्रह्मचारिणी ब्रह्म ( तप ) का आचरण करने वाली हैं । ( वेदस्तत्त्वं तपोब्रह्म - वेद , तत्व एवं तप ब्रह्म शब्द का अर्थ हैं ) इनका स्वरूप पूर्ण ज्योर्तिमय एवं अत्यन्त भव्य है । इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बांये हाथ में कमण्डलु है तथा ये आनन्द से परिपूर्ण हैं ।

ये पूर्व जन्म में पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती हेमवती थी । तब नारद के उपदेश से इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी । इसी दुष्कर तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात् ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया । कई हजार वर्ष तप करते - करते पहले इन्होंने केवल फल - फूल खाये फिर शाक पर निर्वाह किया , कुछ समय कठिनउपवास रख खुले आकाश के बीच वर्षा , धूप , शीत के आघात सहे , इसके पश्चात् केवल जमीन पर पड़े हुए सूखे बेल पत्ते खाकर आराधना की । अन्त में सूखे बेल पत्तों को भी खाना छोड़ दिया तथा निर्जल और निराहार तपस्या करती रही । पत्तों को भी खाना छोड़देने के कारण इनका नाम अर्पणा पड़गया । 


कठिन तपस्या से जब इनका शरीर अत्यंत कृश हो गया तब इनकी माता मेनका अत्यन्त दुःखी हो उठी । उन्होंने कहा पुत्री उ - मा ! ( तप मत करो ) तबसे इनका नाम उमा भी प्रसिद्ध हो गया । उनकी इस तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने आकाशवाणी के द्वारा इन्हें संबोधित करते हुए कहा - हे देवि तुम्हारी मनोकामना सर्वतोभावेन परिपूर्ण होगी । भगवान चन्द्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे ।

माँ दुर्गा का यह दूसरा स्वरूप भक्तों को अनन्त फल देने वाला हैं । इनकी उपासना से मनुष्य में तप , त्याग , वैराग्य , सदाचार , संयम की वृद्धि होती है । उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय प्राप्ति होती है । दुर्गा पूजा के दूसरे दिन इन्हीं के स्वरूप की उपासना की जाती है । इस दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित होता है । इस चक्र में अवस्थित मन वाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है । 

शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

शरद पूर्णिमा के दिन गिरती हैं आसमान से अमृत की बूंदे।

💐  शरद् पूर्णिमा 💐

                     ( आश्विन पूर्णिमा ) 

आश्विन मास की पूर्णिमा को ' शरदपूर्णिमा 'रास पूर्णिमा, कोजागरी पूर्णिमा कहते हैं । इस दिन प्रातःकाल आराध्यदेव को सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुशोभित करके आवाहन , आसन , आचमन , स्नान , वस्त्र , गन्ध , अक्षत , पुष्प , धूप , दीप , नैवेद्य , ताम्बूल , सुपारी , दक्षिणा आदि से उनका पूजन करना चाहिए ।

बरसेगा अमृत--

रात्रि के समय गाय के दूध से बनी खीर में घी और सफेद खांड मिला कर अर्द्धरात्रि के समय भगवान चंद्रदेव को अर्पण करें । पूर्ण चन्द्रमा के आकाश के मध्य में स्थित हो जाने पर उनका पूजन करें और बनाई गई खीर का नैवेद्य अर्पण करके दूसरे दिन उसका प्रसाद ग्रहण करें ।

शरद ऋतु का महत्व--

शरद ऋतु में मौसम एकदम साफ रहता है । आकाश में न तो बादल होते हैं और न ही धूल - गुबार । आज की रात्रि चन्द्रदेव अपनी अमृत - सुधा को पूर्ण शक्ति से पृथ्वी पर बरसाते हैं । यही कारण है कि ताजमहल जैसी संगमरमर से बनी इमारतें बहुत ही सुन्दर लगती हैं ।

इस रात्रि में भ्रमण करने से चन्द्र किरणों का शरीर पर पड़ना बहुत ही शुभ माना जाता है । शरीर की बहुत सारी व्याधियों का नाश होता है। जहां तक धार्मिक महत्व का प्रश्न है विवाह होने के बाद पूर्णमासी के व्रत का नियम शरद पूर्णिमा से ही लेना चाहिए । कार्तिक का व्रत भी शरद पूर्णिमा से ही आरम्भ होता है ।ज्योतिष के अनुसार शरद पूर्णिमा के दिन चंद्र अपनी पूर्ण कलाओं में रहते है।


पूर्णिमा के व्रत की कथा इस प्रकार है।

 कथा -

एक साहूकार की दो पुत्रियां थीं । वे दोनों पूर्णमासी का व्रत करती थीं । बड़ी बहन तो पूरा व्रत करती और छोटी बहन अधूरा । छोटी बहन के जो भी संतान होती वह जन्म लेते ही मर जाती और बड़ी बहन की सभी संतानें जीतीं । एक दिन छोटी बहन ने बड़े - बड़े पण्डितों को बुलाकर अपना दुःख निवेदन किया और उनसे कारण पूछा । उन्होंने बताया कि तू पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती है , इसी दोष से तेरी संतान मर जाती हैं । अब तू पूरा व्रत किया कर , तब तेरे बच्चे जीवित रहेंगे । पण्डितों की आज्ञा मानकर उसने पूर्णिमा का पूरा व्रत किया । बाद में उसको लड़का हुआ किन्तु वह भी मर गया । तब उसने लड़के को पीढ़े पर सुलाकर उसके ऊपर कपड़ा ढक दिया और अपनी बड़ी बहन को बुलाकर वही पीढ़ा बैठने को दिया । जब बड़ी बहन | बैठने लगी तो उसका घाघरा छूते ही लड़का जीवित होकर रोने लगा । बड़ी बहन ने कहा कि तू मुझे कलंक लगाना चाहती थी । यदि मैं बैठ जाती तो लड़का मर जाता । तब छोटी बहन ने कहा कि यह तो मरा हुआ ही था । तेरे ही भाग्य से जीवित हुआ है । हम दोनों बहनें पूर्णिमा का व्रत करती हैं । तू पूरा करती है और मैं अधूरा करती हूं जिसके दोष से मेरी सन्तान मर जाती है । इसलिए तेरे पुण्य से यह बालक जीवित हुआ । इसके बाद उसने पूरे नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि सब कोई पूर्णिमा का व्रत करें और पूरा करें।

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बुधवार, 7 अक्टूबर 2020

विजया दशमी

विजया दशमी

(आश्विन शुक्ल दशमी)

आश्विन मास के शुक्लपक्ष की दशमी तिथि को विजया दशमी और लौक व्यवहार की भाषा में दशहरा कहते हैं । भगवान ने इसी दिन लंका पर चढ़ाई करके विजय प्राप्त की थी । 

'ज्योति र्निबन्ध में लिखा है- आश्विन शुक्ला दशमी को तारा उदय होने के समय ' विजय ' नामक काल होता है । वह सब कार्यों को सिद्ध करने वाला होता है । विजया दशमी हमारा राष्ट्रीय पर्व है । दशमी के दिन रामचन्द्रजी की सवारी बड़ी धुमधाम के साथ निकलती है। और रावण - वध की लीला का प्रदर्शन होता है । इस दिन नीलकंठ का दर्शन बहुत शुभ माना जाता है । 


होली , दीपावली और रक्षाबंधन के समान ही हमारे चार प्रमुख त्यौहार में से एक है विजया दशमी ,पूरे भारतवर्ष में उत्तर से दक्षिण तक सभी वर्ण और वर्ग के व्यक्ति पूरी धूमधाम से मनाते हैं यह त्यौहार । 

क्षत्रियों का विशेष दिन--

प्राचीनकाल से ही इसे क्षत्रियों , राजाओं और वीरों का विशेष त्यौहार माना जाता रहा है । आज के दिन अस्त्र - शस्त्रों , घोड़ों और वाहनों की विशेष पूजा की जाती है । प्राचीन काल में तो राजा - महाराजा आज विशेष सवारियां और सैनिक परेड निकालते थे तथा ब्राह्मणों को प्रचुर दान देते थे । 

वैसे दशमी को रामलीला का समापन और रावण , उसके पुत्र मेघनाद और भाई कुम्भ कर्ण के पुतलों का दहन ही आज का विशिष्ट उत्सव रह गया है । बंगाली भाई आज नौ दिन के दुर्गा और काली पूजन के बाद मूर्तियों का नदियों में विसर्जन भी बड़ी धूमधाम से करते हैं तथा बड़े - बड़े जलूस निकालते हैं ।

इनके अतिरिक्त प्रत्येक क्षेत्र और परिवार में दशहरा मनाने के अलग - अलग कुछ विधान भी हैं । कुछ क्षेत्रों में गोबर का दशहरा रखकर उसकी पूजा भी की जाती है । इसी प्रकार अनेक परिवारों में आज बहिनें भाइयों के तिलक भी करती हैं । प्रथम नौ रात्रे के दिन देवी के नाम के जौ बोकर आज के दिन उनके छोटे - छोटे पौधे उखाड़ कर  भाइयों को देने का रिवाज भी कुछ क्षेत्रों में है।

आज के दिन जगह जगह रामचरितमानस, सुन्दरकाण्ड  पाठ,का आयोजन किया जाता है,और राम लक्ष्मण सीता जी और हनुमानजी की विशेष पूजन, झाकियां निकाली जाती है। 

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शनिवार, 26 सितंबर 2020

मूर्ति प्रतिष्ठा में विशेष विचार

 प्रतिष्ठाविषये विशेष विचार --

सनातन धर्म हिन्दू जाति का प्राचीन धर्मग्रंथ वेद है।वेदों में ही कर्मकाण्ड,उपासनाकाण्ड,ज्ञानकाण्ड ये तीनो विषयो का वर्णन है।इन तीनो में कर्मकाण्ड का मुख्य स्थान है।सनातन धर्म मे तैतीस कोटि के देवी देवताओं का समावेश है,इनमे अधिकतर देवी देवताओं के देवालय आज भी भारत प्राप्त है ,इन देवालय में जो भी मूर्ति स्थापित है,वह सांगोपांग विधि से प्रतिष्ठित है।

इस समय भारत वर्ष में जो देवालय बन रहे है,उनमे भी जिस देवी देवता की मूर्ति स्थापित की जाती है।उसकी प्रतिष्ठा सविधि होती है।क्योंकि बिना प्रतिष्ठा के देवता में देवत्व का भाव नही आ सकता ।किसी भी देवी देवता की प्रतिष्ठा करवाने के लिए उसकी पद्धति का होना आवश्यक है।

१. मत्स्यपुराण के अनुसार - सूर्य , गणेश , दुर्गा , शिव और विष्णु को ही पञ्चदेव कहा गया है । इनकी प्रतिष्ठा करने से सभी कार्यों में सिद्धि होती है । 

२. देवप्रतिष्ठा के लिए विहित मास -धर्मसिन्धु तृतीय परिच्छेद के अनुसार - वैशाख , ज्येष्ठ और फाल्गुन मास में सभी देवताओं की प्रतिष्ठा की जा सकती है । केवल माघ मास में विष्णु की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती , यदि कोई यजमान माघ मास में विष्णु की प्रतिष्ठा करवाता है , तो नि : सन्देह उसका विनाश होता है । देवताओं की प्रतिष्ठा के लिए उत्तरायण सूर्य शुभ कहा गया है और दक्षिणायण सूर्य निन्दित कहा गया है । रत्नावली के अनुसार माघ , फाल्गुन , वैशाख , ज्येष्ठ और आषाढ़ इन पाँच मासों में तथा शुक्ल पक्ष में शिवलिंग की प्रतिष्ठा उत्तम कही गयी है ।

 ३. देवी की प्रतिष्ठा का मुहूर्त - देवी पुराणों के अनुसार - किसी भी देवी की प्रतिष्ठा माघ मास में और आश्विन मास में उत्तम व समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाली होती है ।I देवी की प्रतिष्ठा में तिथिवार , नक्षत्र और उपवास आदि का विचार अनावश्यक है । इसलिए देवी की प्रतिष्ठा सभी समय में की जा सकती है , किन्तु विशेषरूप से कृष्णपक्ष में प्रतिष्ठा करवाना उत्तम होता है ।

 ४. उग्र देवी - देवताओं की प्रतिष्ठा - नृसिंह पुराण के अनुसार - उग्र देवी - देवताओं की प्रतिष्ठा के लिये आश्विन मास उत्तम और समस्त कामनाओं को देनेवाला कहा गया है । देवी , भैरव , वाराह , नृसिंह , विष्णु और दुर्गा की प्रतिष्ठा दक्षिणायन सूर्य में भी की जा सकती है । मुक्ति की कामना के लिए दक्षिणायन सूर्य में शिव आदि देवताओं की प्रतिष्ठा हो सकती है । 

५. अप्रतिष्ठित मूर्ति - जिस देवी या देवता की प्राणप्रतिष्ठा न की गयी हो , यदि ऐसी मूर्ति की जो लोग स्थापना करवा के पूजा करते हैं , उनके अन्न को देवता ग्रहण नहीं करते । इसलिए ऐसी मूर्ति का परित्याग कर देना चाहिए ।

 ६. प्रतिष्ठा के दो प्रकार किसी भी मूर्ति की प्रतिष्ठा चल और अचल दो प्रकार से की जा सकती है । अचल मूर्ति में तथा शालिग्राम में आवाहन व विसर्जन नहीं होता , किन्तुं चल मूर्ति में आवाहन और विसर्जन होता है । घर में चल प्रतिष्ठा तथा मंदिर में अचल प्रतिष्ठा ही करवानी चाहिए ।

७. प्रतिष्ठा के अधिकारी - देवीपुराण के अनुसार - शुभ की अभिलाषा चाहने वाले चारो वर्णों के लोगों को विष्णु की प्रतिष्ठा ही करनी चाहिए । इसके अतिरिक्त चारो वर्णों को और शूद्रों को भैरव की स्थापना करनी चाहिए । समस्त लोकों में सभी देवताओं में  श्रेष्ठ मातृकाओं का स्थापन और प्रतिष्ठापन व पूजन सभी वर्गों के लोगों को करना चाहिए । 

८. मूर्ति के स्थापन में दिशा का निर्णय - देवतामूर्ति प्रकरण के अनुसार - देवताओं का मुख पूर्वदिशा व पश्चिमदिशा में उत्तम कहा गया है । दक्षिण दिशा और उत्तर दिशा में श्रेष्ठ नहीं कहा गया है । ब्रह्मा , विष्णु , शिव , सूर्य , इन्द्र , कार्तिकेय , का मुख , पूर्वदिशा और पश्चिमदिशा में करने का निर्देश आज भी प्रतिष्ठा के ग्रन्थों में प्राप्त होता है । इसी प्रकार शिव , ब्रह्मा , विष्णु इन देवताओं का मुख सभी दिशाओं में शुभ माना गया है । गणेश , भैरव , चण्डी इनका मुख दक्षिण दिशा में शुभ कहा गया है । 

९ . घर के लिए प्रतिमा का परिमाण - 

अंगुष्ठपर्व से बित्तापरिमाण की प्रतिमा घर में रखनी चाहिए । इससे अधिक परिमाण की प्रतिमा विद्वानों ने अप्रशस्त कही है । वैसे सात अंगुल से लेकर बारह अंगुल तक की प्रतिमा घरों में प्रशस्त कही गई है । मंदिर में इससे अधिक परिमाण की मूर्ति रखना शुभ कहा गया है । 

१०. सूर्यादि सप्तवारों में प्रतिष्ठा का निर्णय - रविवार को की गई प्रतिष्ठा तेजस्विनी , सोमवार को कल्याणकारिणी , मंगलवार को अग्निदाहकारिणी , बुधवार को धनदायिनी , गुरुवार को बलदायिनी , शुक्रवार को आनन्दकारिणी तथा शनिवार को सामर्थ्यविनाशिनी होती है । 

शिवपञ्चायतन -

 जहाँ शिव मध्य में हों , वहाँ विष्णु , सूर्य , गणेश और दुर्गा को क्रमशः ईशानकोण , अग्निकोण , नैर्ऋत्यकोण श्री और वायव्यकोण में स्थापित करना चाहिए ।

 विष्णुपञ्चायतन - 

जहाँ विष्णु मध्य में हों , वहाँ शिव , गणेश , सूर्य और दुर्गा को क्रमशः  ईशानकोण , अग्निकोण , नैर्ऋत्यकोण और वायव्यकोण में स्थापित करना चाहिए ।

 गणेशपञ्चायतन -

 जहाँ गणेश मध्य में हों , वहाँ  विष्णु , शिव , सूर्य और दुर्गा को क्रमश : ईशानकोण , अग्निकोण , नैर्ऋत्यकोण और वायव्यकोण में स्थापित करना चाहिए । 

दुर्गापञ्चायतन - 

जहाँ भगवती दुर्गा मध्य में हों , वहाँ विष्णु , शिव , गणेश और सूर्य को क्रमश : ईशानकोण , अग्निकोण , नैर्ऋत्यकोण और वायव्यकोण में स्थापित करना चाहिए । 

सूर्यपञ्चायतन -

 जहाँ सूर्य मध्य में हों , वहाँ शिव , गणेश , दुर्गा और विष्णु को क्रमश : ईशानकोण , अग्निकोण , नैऋत्यकोण और वायव्यकोण में स्थापित करना चाहिए । 

रविवार, 13 सितंबर 2020

🌹 राम नाम महिमा🌹

            ।।श्री जानकीवल्लभो विजयते।।

   राम रामेति रामेति  रमे रामे मनोरमे।

   सहस्रनाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने।।


यह शरीर परमात्मा का दिया एक सुन्दर उपहार है।जिसे मनुष्य अपने जीवन को सुन्दर विचार व शुभकार्यों के द्वारा सुशोभित करता है।मनुष्य का पहला कर्तव्य है कि जीवन में शुभकर्म करते हुए ,इस शरीर को मुक्ति मार्ग तक ले जाना ,पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,जन्म मृत्यु के बन्धन से मुक्त करना।

मनुष्य दैनिक दिनचर्या में इतना व्यस्त हो जाता है ,कि उपासना कर्म से दूर होकर नरक रूपी दलदल में फसता चला जाता है।फल स्वरूप नरक की यातना भोगनी पड़ती है।जो मनुष्य नित्य जप तप या एक बार भी सच्चे मन से प्रभु का स्मरण करता है। बह जीवन मुक्त होता है।क्या है एक बार राम नाम जप का फल-

दृष्टान्त--

किसी नगर में एक बनिया रहता था ,व्यापार कर्म में कुशल बनिया को दो सन्तान थी ।बनिया नित व्यापार करने चला जाता और रात में लौटने पर धन का आंकलन करके सो जाता ।रोज बनिये की यही दिनचर्या थी।जिसके कारण वह भक्ति मार्ग से कोशो दूर हो गया ।किन्तु काल की प्रेरणा से उसके दोनों बच्चे बड़े होने पर धर्मिक विचारधारा वाले हुए।

एक दिन दोनों के मन मे विचार आया कि पिता जी रोज व्यापार में लगे रहते है। पिताजी जप तप नही कर पाते इस लिए हमे पिता जी से जप तप करवाना चाहिये।

एक दिन सुबह  सुबह दोनों लड़को ने पिता से कहा, पिता जी आप कभी जप तप नही करते कभी आप भी राम नाम जप किया कीजिये,बच्चो की बाते सुनकर पिता जी ने मुँह मोड़ते हुए बोले मुझे तुम्हारे इस नाम से कोई लेना देना नही है ।पिता की बाते सुनकर बच्चें घर से निकल कर कही दूर नदी किनारे पर बैठ गये।और सोचने लगे कैसे पिता जी से जप तप कराया जाय।

उधर से जा रहे एक सन्त ने उन्हें देखा और बोले बेटा क्या बात है।दोनों चिंतित लग रहे हो।बाबा की बात सुनकर दोनों ने अपनी व्यथा व्यक्त कर दी।सन्त बोले बेटा आपकी चिंता समाप्त हो गयी ।आप दोनों घर जाओ।दोनों बालक घर लौट आये।

दूसरे दिन बाबा घर पर आ गये,दरवाजे से आवाज दी ,भिक्षां देहि,बाबा की आवाज सुनकर बनिया बोला बाबा ये लीजिये भिक्षा बनिया को देखकर बाबा बोले में अन्न धन की भिक्षा नही लेता।मुझे तो राम नाम की भिक्षा चाहिये, बनिया बोला बाबा जो चाहिए में दूंगा,पर नाम वाम क्या रहा है।

बाबा बोले एक बार बोल राम जीवन तर जायेगा, बाबा की बात सुनकर घर के अन्दर चला गया।बाबा बनिये को बोले जब तक राम नाम नही बोलोगे तब तक मै यहाँ से नही जाऊँगा।

दिन के दो बज गये, बनिये को काम पर जाना था।बाबा को बोले दरवाजें से हट जाओ मुझे काम पर जाना है।सन्त बोले बेटा राम बोल जीवन तर जाएगा।बनियां बाबा के ऊपर से कूदकर भाग गया और बोला ,बाबा आप बैठे रहो मै गया काम पर ,बनिये को भागता देख बाबा जी भी पीछे से भागे बोले बेटा रुक ,बनिया भागते भागते एक नदी के किनारे पर गया ।पानी की प्यास लगी थी बनिये ने एक चुल्लू पानी पिया और पानी गले मे अटक गया ।तुरन्त बाबा से पुछा क्या होता है ,एक बार राम नाम लेने से,इतने में बनिया ने शरीर त्याग दिया।मरने के बाद यमलोक गया।यमराज ने पूछा चित्रगुप्त इस मनुष्य का जीवन काल कैसा था।चित्रगुप्त बोला महाराज इस मनुष्य ने कभी कोई धर्मकर्म, जप, तप नही किया इस लिए इसे घोर नरक यातना भोगनी पड़ेगी ।

इतने में बनिया बोला मेने मरने से पहले एक बार रामनाम लिया था।चित्रगुप्त में यमराज से पुछा एक बार राम नाम लेने का क्या फल है।यमराज बोले इस विषय मे मुझे नही मालूम चलो ब्रह्मा जी से पूछते है। यमराज बनिये से बोले चलो ब्रह्मलोक ,बनिया बोला मै कभी अपने घर मे पैदल नही चला ।मेरे पास तो गाड़ी घोड़ा सब है।इस लिए में पैदल नही चलूंगा ।यमराज ने बनिये को कन्धे में उठाकर ब्रह्म लोक चल पड़े।

ब्रह्म लोक पहुँचने पर सारी बात ब्रह्मा जी से कह दी।ब्रह्मा जी बोले कि एक बार रामनाम का क्या फल होता है ,में नही जानता।इस लिए शिव जी के पास जाओ।

शिव लोक जाने पर शिव जी ने भी कह दिया ,इस विषय मे श्रीहरि ही आपकी मदद कर सकते है। बैकुण्ठ पहुँचने पर  यम ने अपनी बात विष्णु जी को कही।प्रभु इस जीव ने कभी जप तप नही किया ये बोलता है ,कि मरते समय मैने राम नाम लिया था।

प्रभु आप बताये एक बार राम नाम का क्या फल है।

विष्णु जी ने कहा जो जीव यमलोक से यम के कन्धे पर बैठकर  ब्रह्मा, शिव और विष्णु के दर्शन कर लिया । अब यह सदा के लिए बैकुण्ठ में वास करेगा।एक बार रामनाम का यही फल है।।

🌹🌹🌹  बोलों जय श्री राम🌹🌹🌹

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शारदीय नवरात्र व दुर्गाष्टमी

 शारदीय नवरात्र व दुर्गाष्टमी 

  ( आश्विन शुक्ला प्रतिपदा से )

सर्व मंगल मंगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके ।

शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणी नमोस्तुते ।।

हमारे सनातन धर्म में तैतीस करोड़ देवी - देवता हैं , परन्तु साक्षात् ईश्वर अर्थात् पारब्रह्म परमेश्वर भगवान ब्रह्मा ,विष्णु,महेश और उनके राम कृष्ण अवतारों को ही माना जाता है मातृशक्ति में यही स्थान भगवती भवानी को प्राप्त है।माता भगवती के तीन रूप विशेष है,

जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी ।

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते ।।

1श्री महाकाली

2 श्री महालक्ष्मी

3श्री महासरस्वती 

माँ पार्वती जी धनधान्य की अधिष्ठात्री महालक्ष्मी जी तथा वीणा वादिनि सरस्वती जी आप के ही रूप है।जब - जब धरा पर पाप व पापियों का बोझ बढ़ जाता है।माँ भवानी कभी दुर्गा , कभी काली तो कभी विकराल चण्डी के रूप में अवतार धारण करती हैं ।और अपने बच्चों पर दया करती है। माता के रूप और अवतार अनेक है , परन्तु इनमें नौ रूप तो बहुत ही प्रसिद्ध और जनजन में पूज्य है ।

प्रथमं शैलपुत्री  च  द्वितीयं  ब्रह्मचारिणी । 

तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥ 

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च । 

सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।। 

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः । 

वैसे तो भगवती भवानी की पूजा - आराधना नित्य ही भक्त करते हैं ,  वर्ष में दो बार नौ - नौ दिन तक मातेश्वरी की विशेष पूजाएं की जाती हैं । 


ये नवरात्रे स्त्री - पुरुषों दोनों को चाहिए कि वह नवरात्रों के इन नौ दिनों तक व्रत करें। यदि यह संभव न हो सके तो पहले और अन्तिम नवरात्र व्रत करें ।नित्य व्रत मे एक समय फलाहार कर सकते है,निराहारी यथाशक्ति व्रत का पालन करे।नित्य पूजा में परिवार के सभी सदस्य पूजा करें और पूजा के बाद ही फल प्रसाद ग्रहण करें ।

 पूजा की विधि एवं विधान -

नवरात्रि पूजा घर पर ही किसी एक निश्चित स्थान पर प्रतिदिन की जाती है। पूजास्थल कच्चा होने पर गोबर से लीपकर और पक्का होने पर जल से धोकर शुद्ध करने के बाद वहां लकड़ी का चौरंग या पाट रखा जाता है,उस  पाट मेंं लाल कपड़ा बिछाकर चावल से गणपति ,कलश, मातृका ,नवग्रह स्थापन पीठ बनाना चाहिये।

 सर्व प्रथम गणेश पूजा करके,लोटा या घड़े में मौली बांधकर नारियल पर लाल कपड़ा लपेटकर कलश को जल से पूर्ण कर पंचपल्लव लगाये कलश के अन्दर सुपारी, हल्दीगांठ, दुर्वा ,पैसा डालकर नारियल रख कलश स्थापन करें।मातृका ,नवग्रह स्थापना के बाद ,भगवती भवानी की नवदुर्गा की फोटो या प्रतिमा को चौरंग में स्थापित कर माता भगवती की विधिवत पूजा करें। माता का आवाहन कर चावल से प्रतिष्ठा करें।माता नवदुर्गा को पाद्य अर्घ्य आचमनी दूध दही घी शहद शक्कर पंचामृत से स्नान करावे,मातारानी को सुन्दर वस्त्र भेंट करें, गंध अक्षत पुष्पहार श्रृंगार चढ़ाये।नैवेद्य फल दक्षिणा चढ़ाकर आरति स्त्रोत्रादि क्षमा नमस्कार करें।नव दुर्गा की प्रसन्नता के लिए ब्राह्मण के द्वारा नित्य सप्तसती पाठ करना चाहिये। नवरात्रि में माता सिंहवाहिनी के नव रूपों की पूजा करें। माता रानी के मण्डप के दोनों ओर किसी बाँस या मिट्टी के पात्र में जौ या सप्तधान्य बोना चाहिये।

कुल परम्परा के अनुसार अष्टमी या नवमी में परिवार के सभी सदस्य हवन में विशेष आहुति प्रदान करते है। तत्पश्चात छोटे बालक व बालिकाओं को कन्या लांगुर के रूप मे पूजन करके हलवा ,पूरी,काले चने की सूखी सब्जी का भोजन कराकर खिलौना वस्त्र रुपया आदि दिया जाता है।फिर प्रसाद ग्रहण करे है।

भक्तगण प्रतिदिन  दुर्गा , महाकाली , चण्डी आदि रूपों की पूजा - आराधना और उपासना करते हैं , परन्तु वर्ष में दो बार विशेष रूप से  भगवती भवानी की आराधना करते है । भगवती के नौ प्रमुख रूप या अवतार हैं और प्रत्येक बार नौ - नौ दिन ही की जाती हैं ये विशिष्ट पूजाएं । इस काल को नवरात्रि या नवराते कहा जाता है । इनमें एक नवरात्र तो नववर्ष की प्रथम दिन से चैत्र शुक्ला नवमी तक होते है और दूसरे श्राद्धपक्ष के दूसरे दिन आश्विन शुक्ला प्रतिपदा से दशहरे के एक दिन पहले अर्थात आश्विन शुक्ला नवमी तक । आश्विन मास के इन नवरात्र को शारदीय नवरात्र कहा जाता है क्योंकि इस समय शरद ऋतु होती है । इन नवरात्रों में भगवती की पूजा - आराधना होती है।

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शनिवार, 12 सितंबर 2020

मलमास कैसे बना पुरुषोत्तम मास

।।मलमास कैसे बना पुरुषोत्तम मास।।

मंगलं भगवान विष्णु मंगलं गरुड़ ध्वज:।

मंगलं पुण्डरीकाक्ष मंगलाय तनो हरि:।।

मलमास के नाम से बहुत से लोगों के मन अनेक भ्रान्ति होती है।इसी प्रकार मलमास के नाम से देवता भी दूर भागते थे।किन्तु मलमास भाग्यशाली था ,श्रीहरि ने मलमास को शरण देकर उसे पुरूषोत्तम मास का वरदान दिया ।

स्वामी विहीन होने के कारण अधिकमास को मलमास कहने से उसकी निन्दा होने लगी।हिरण्यकश्यप दैत्य को मारने के लिये भगवान श्रीहरि ने तेरहवाँ महीना बनाया ।जो अधिकमास मलमास कहलाया।इस महीने को किसी देवता ने स्वीकार नही किया और न अपना नाम दिया। तो देवताओं से पूछा गया अपने मलमास का चयन क्यो नही किया।देवताओं ने उत्तर दिया जिस महीने में विवाह यज्ञोपवीत यज्ञ अनुष्ठान  दान पुण्य आदि नही होते उस महीने को कौन देवता अपना नाम व स्थान देगा।

देवताओं की बातों से ऋषी मुनि चिंतित हो गये। श्रीहरि के पास गये ,अपनी सारी बातें भगवान को कह दी।भगवान श्रीहरि मलमास को लेकर गौ लोक में श्रीकृष्ण के पास गये ।श्रीकृष्ण ने मलमास को अपना नाम दिया,औऱ कहा आज से मलमास, पुरुषोत्तम मास के नाम से जाना जाएगा ,और वरदान दिया जो इस मास में जप तप कथा यज्ञ दान पुण्य करेगा ।उसका फल अक्षय रहेगा। इस पुरुषोत्तम मास में निष्काम भावना से किया दान पुण्य अक्षय होता है।सकाम दान पुण्य इस माह में करना उपयुक्त नही है।

पुरुषोत्तम मास में द्वादशाक्षर मंत्र जप,श्रीमद्भागवत कथा का पाठ,विष्णु सहस्रनाम का पाठ, गीता जी का पाठ, सूर्य पूजा, जप, तप, दानादि जग कल्याण कि कामना के लिए करना चाहिये।

।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।।

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शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

पुरुषोत्तम अधिकमास व्रत

               ।।अधिकमास।।

पुरुषोत्तम मास के व्रत-

हमारा भारतीय मास चन्द्रमा पर आधारित है अतः कुछ महीने तीस दिन के होते हैं और कुछ तिथि क्षय होने के कारण उन्तीस दिन के । इस प्रकार तीन सौ पचपन अथवा तीन सौ छप्पन दिन का होता है एक भारतीय वर्ष।सूर्य तीन सौ पैंसठ दिन पांच घंटे छप्पन मिनट में पृथ्वी की एक परिक्रमा पूर्ण करता है । इस मध्य भगवान भास्कर क्रम से बारह राशियों में भ्रमण करते हैं । इस प्रकार अंग्रेजी के प्रत्येक मास में एक राशि से दूसरी राशि में सूर्यदेव भ्रमण करते हैं । परन्तु चन्द्रमा पर आधारित भारतीय मासों में ऐसा नहीं हो पाता । प्रत्येक बत्तीस महीने , सोलह दिन और चार घड़ी बाद एक ऐसा महीना आता है । जिसमें सूर्य देव एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण नहीं करते । सूर्य संक्रान्ति - विहीन इस मास को ' पुरुषोत्तम मास ' मलमास ' अधिमास ' अथवा ' लोंद का महीना ' कहा जाता है । हमारी संस्कृति और धर्म अधिमास में विवाह , मुण्डन , जनेऊ जैसे सामाजिक समारोहों का निषेध करते हैं और कोई त्यौहार भी नहीं पड़ता मलमास में । परन्तु धार्मिक दृष्टि से इस पूरे मास के व्रत करने का विशिष्ट महत्व है । इसी प्रकार इस मास की दोनों एकादशियां भी विशिष्ट फलकारक कहीं गई हैं।


अधिमास फल--

अधिमास में फल - प्राप्ति की कामना से किये जाने वाले कार्य वर्जित हैं , फल की आशा से मुक्त होकर सभी आवश्यक कार्य करा सकते हैं । जो महीना अधिमास होता है, उसके सम्पूर्ण सवाहनों में से प्रथम मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ करके द्वितीय मास की अमावस्या तक तीस दिनों तक अधिमास के निमत्त उपवास और यथाशक्ति दान - पुण्य करना चाहिए ।अधिकमास में किया गया दान पूण्य व्रत अक्षय फल देने वाला होता है।

जिस प्रकार छोटा - सा बीज बोने से वट जैसा दीर्घ विशाल वृक्ष उत्पन्न होता है वैसे ही मलमास में दिया हुआ दान अनन्त फल देने वाला होता है । 

शास्त्रों का कथन है कि पुरुषोत्तम मास में किए जाने वाले व्रत और दान- पुण्य से भगवान विष्णु , महादेव शिवजीऔर सूर्यदेव परम प्रसन्न होते हैं।और करने वाले को इस लोक में सभी सुख तथा अन्त में मोक्ष की प्राप्ति होती है। 

अधिमास व्रत का विधान बहुत ही सुगम है । साधक प्रतिदिन सायं एक समय भोजन करता है , परन्तु फलाहार अनिवार्य नहीं है । प्रातःकाल शौचादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर विष्णु - स्वरूप ' सहस्रांशु ( हजार किरणों वाले भगवान् सूर्य नारायण ) का विधिपूर्वक पूजन करना चाहिए । घी , गुड़ और अन्न नित्य दान करना चाहिए और घी , गेहूं और गुड़ के बने पैंतीस - पुओं को कांसे के बरतन में रखकर विष्णुरूपी सहस्रांशु के निमित्त दान करना चाहिए । इस प्रकार धन - धान्य और पुत्र - पौत्रादि की वृद्धि होती हैं । 💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐

सोमवार, 31 अगस्त 2020

तर्पणविधि

                                          ।। श्रीगणेशाय नमः ।।

                     ।।अथ तर्पणविधिः ।।

श्राद्ध कर्ता प्रातः स्नानादि निवृत्ति के बाद शुद्ध आसान में पूर्वाभिमुख बैठकर आचमन प्राणायाम करके गणपति स्मरण करें।

यं ब्रह्म वेदान्तविदो वदन्ति ,परे प्रधानं पुरुष तथान्ये।

विश्वोद्गते: कारणमीश्वरं वा तस्मै नमो विघ्नविनाशनाय ॥ 

अभीप्सितार्थसिद्धयर्थं पूजितो यः सुरैरपि ।

सर्वविघ्नच्छिदे    तस्मै   गणाधिपतये नमः ।।

हाथ मे कुश जौ तिल जल लेकर संकल्प करें-

ॐ विष्णुः ३ नमः परमात्मने श्रीपुराणपुरुषोत्तमाय अत्र पृथिव्यां विष्णुप्रजापतिक्षेत्रे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतेऽमुक पुण्यक्षेत्रे ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमकलियुगस्य प्रथमचरणे षष्टयब्दानां मध्ये अमुक नाम संवत्सरे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकवासरान्वितायाम् अमुकतिथौ अमुकगो त्रोत्पन्नो अमुक नामाऽहं ममोपात्तदुरितक्षयाय देवर्षिमनुष्यपितॄणां स्वपितॄणा ञ्चाक्षयतृप्तितकामनया तर्पणमहं करिष्ये ।

जल में कुशा घुमावें --

 ॐविश्वेदेवासआगत शृणुता मऽइमं हवम् । एवं व्वर्हीनिषीदत ॥१ ॥ ॐ विश्वेदेवाः शृणुतेमं हवम्मे येऽअन्तरिक्ष य उपद्यविष्ठ । येऽअग्निजिह्वा ऽउत वा यजत्रा आसद्यास्मिन्वर्हिषि मादयध्वम् ॥ 

नदी में अथवा जिस पात्र में तर्पण करना हो उसमें जो डाले। 

ॐ भूर्नुवः स्वः ब्रह्मादयो देवा इहागच्छन्तु । इहतिष्ठन्तु । गृह्णन्त्वेताञ्जला ञ्जलीन् ।

 पूर्व की ओर मुंह करके कुश और जो मिले हुए जल से देवतीर्य हथेली में चारों अंगुलियो जहां से निकलती हैं , से एक एक अंजलि देकर तर्पण करें । 

ॐ ब्रह्मातृप्यताम् । ॐ विष्णुस्तृप्यताम् । ॐ रुद्रस्तृप्यताम् । ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम् । ॐ देवास्तृप्यन्ताम् । ॐ छन्दांसि तृप्यन्ताम् । ॐ वेदास्तृप्यन्ताम् । ॐ ऋषयस्तृप्यन्ताम् । ॐ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम् । ॐ गन्धर्वास्तुप्यन्ताम् । ॐ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम् । ॐ सव्वत्सर : सावयवास्तृप्यन्ताम् । ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम् । ॐ अप्सरसस्तृप्यन्ताम् । ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम् । ॐ नागास्तृप्यन्ताम् । ॐ सागरास्तृप्यन्ताम् । ॐ पर्वतास्तृप्यन्ताम् । ॐ सरितस्तृप्यन्ताम् । ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम् । ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम् । ॐ रक्षांसितृप्यन्ताम् । ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम् । ॐ सुपर्णास्तृप्यन्ताम् । ॐ भूतानि तृप्यन्ताम् । ॐ पशवस्तृप्यन्ताम् । ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् । ॐ ओषधयस्तृप्यन्ताम् । ॐ भूतनामश्चतुर्विधस्तृप्यताम् । 

 निवीती होकर  जनेऊ माला की तरह गले में लटका कर उत्तर की ओर मुंह करके अक्षतों से आवाहन करें फिर कुश और अक्षत मिले जल से मनुष्य तीर्थ अनामिका और कनिष्ठिका के मूल भाग से प्रत्येक को दो - दो अंजलि देकर तपंण करें  ।  

ॐ भूर्भुवः स्वःसनकादिसप्तमनुष्या इहागच्छन्त्विहतिष्ठन्तु गृह्णन्त्वेताजलाञ्जलीन् ।

ॐ सनकस्तृप्यताम् २ । ॐ सनन्दनस्तृप्यताम् २ ।ॐ सनातनस्तृप्यताम् २ । ॐ कपिलस्तृप्यताम् २। ॐ आसुरिस्तृप्यताम् २। ॐ वोढुस्तृप्यताम् २। ॐ पञ्चशिखस्तृप्यताम् २ । 

( तिलों से पितरों का आवाहन करें  अपसव्य  जनेऊ दायें कन्धे के ऊपर बायें हाथ से नीचे  होकर दक्षिण की ओर मुख कर के तिल और कुशमोटक दोहरा मोड़ा हुआ कुश  से पितृतीर्थ से  अंगुष्ठ और तर्जनी के बीच से  प्रत्येक को तीन - तीन अंजलि दे । ) 

ॐ उशन्तस्त्वा निधीमहयुशन्तः समिधीमहि उशन्नुशतऽआवह पितॄन्हविषे अत्तवे ।

ॐ भूर्भुवः स्वः कव्यवाडनलादयो दिव्यपितर इहागच्छन्तु , इहतिष्ठन्तु गृह्णन्त्वेताञ्जलाञ्जलीन्  । 

ॐ कव्यवाडनलस्तृप्यताम् ३ । ॐ सोमस्तृप्यताम् ३।ॐ यमस्स्तृप्यताम् ३ । ॐ अर्यमा तृप्यताम् ३ । ॐ अग्निष्वात्ताः पितरस्तृप्यन्ताम् ३ । ॐ सोमपा पितरस्तृप्यन्ताम् ३ । ॐ बहिषदः पितरस्तृप्यन्ताम् ३ । 

( तिलों से १४ यमों का आवाहन करे और पितृतीर्थ से ही प्रत्येक को कुशमोटक और तिलमिश्रित ३/३ अंजलि दे । )

ॐ भूर्भुवः स्वः चतुर्दशयमा इहागच्छन्त्विह तिष्ठन्तु गृह्णन्त्वेताञ्जलाञ्जलीन् ।

 ॐ यमाय नमः ३। ॐ धर्मराजाय नमः ३ । ॐ मृत्यवे नमः ३। ॐ अन्तकाय नमः ३ । ॐ वैवस्वताय नमः ३ । ॐ कालाय नमः ३ । ॐ सर्वभूतक्षयाय नमः ३ । ॐ औदुम्बराय नमः ३ ।ॐ दध्नाय नमः ३ । ॐ नीलाय नमः ३ । ॐ परमेष्ठिने नमः३ । ॐ वृकोदराय नमः३ । ॐ चित्राय नमः ३ । ॐचित्र गुप्ताय नमः ३।

 इसके बाद इन मन्त्रों को पढ़े और फिर अपने पितरों का तर्पण करने के लिये तिलों से आवाहन करें । 


ॐ उदीरतामवरऽउत्परासऽउन्मद्धयमाः पितरः सोम्यासः । असुय्यऽईयुरवृकाऽऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु ।। ३ ।।

ॐ अङ्गिरसो नः पितरो नवग्रवाऽअथर्वाणो भृगवः सोम्यासः । तेषां व्वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ।। ४ ।। 

ॐ आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः । अस्म्मिन्यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ।। ५ ।। 

ॐ ऊज वहन्तीरमृतघृतम्पयः कीलालम्परिस्रुतम् । स्वधास्थ तर्पयत मे पितृन् । ६ ।।

ॐ पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः पितामहेभ्यः स्वधा यिभ्यः स्वधा नमः प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः । अक्षल्पितरोऽमीमदन्त पितरोऽतीतूपन्त पितरः शुन्धध्वम् ।। ७ ।।

ॐ ये चेह पितरो ये च नेह यांश्च विद्म याँ २॥ उच न प्रविद्म । त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञ सुकृतञ्जुषस्व ॥ ८ ॥ 

ॐ मधुव्वाताऽऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः माध्वीनः सन्त्वोषधीः ।। ९ ।। मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः मधुद्यौरस्तु नः पिता ।। १० ।। मधुमान्नो व्वनस्पतिर्मधुमाँ शाऽअस्तु सूर्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः ।। ११ ।। 

 ॐ मधु । मधु । मधु । ॐ तृप्यध्वम् । तृप्यध्वम् । तृप्यध्वम् । 


ॐ भूर्भुवः स्वः अस्मत्पितर इहागच्छन्त्विहतिष्ठन्तु गृह्णन्त्वेताञ्जलाञ्जलीन् । 

 पिता पितामह प्रपितामह , माता , पितामही , प्रपिता मही का तर्पण करे , सकल्पपूर्वक गोत्र नाम उच्चारण करके तृप्यताम् , इदं जलं तस्मै स्वधा नमः कहे और तृप्यध्वम् को ३ बार उच्चारण करें । यदि सौतेली माँ हो तो उसका तर्पण भी मां के साथ ही करें । 

 ॐ अद्येहेत्यादि देशकालौ संकीर्त्य अमुकगोत्रोऽस्मत्पिता अमुकशर्मा ( वर्मा गुप्तो वा ) वसुस्वरूपस्तृप्यताम् , तृप्यताम् , तृप्यताम् इदं जलं सतिलं तस्मै स्वधा नमः । तृप्यध्वम् , तृप्यध्वम् , तृप्यध्वम् ।।

 ॐ अमुकगोत्रः अस्मत्पितामहोऽमुकशर्मा रुद्रस्वरूपस्तृप्यताम् ३ । इदं जलं सतिलं तस्मै स्वधानमः तृप्यध्वम् ३ । 

ॐ अमुकगोत्रोऽस्मत्प्रपितामहोऽमुकशर्मा आदित्यस्वरूपस्तृप्यताम् ३। इदं जलं सतिलं तस्मै स्वधानमः । तृप्यध्वम् ३ ॥

 ततो मातृतर्पणम् । 

ॐ अमुकगोत्रा ऽस्मन्माता अमुक सुन्दरी देवी वसुस्वरूपा तृप्यताम् ३। इदं जलं सतिलं तस्यै स्वधानमः तृप्यध्वम् ३ । 

ॐ अमुकगोत्रास्मपितामही अमुकसुन्दरी देवी तृप्यताम् ३ । इदं जलं सतिलं तस्यै स्वधानमः तृप्यध्वम् ३।

 ॐ अमुकगोत्रा अस्मत्प्रपितामही अमुकसुन्दरो देवी आदित्यस्वरूपा तृप्यताम् ३। इदं जलं तस्य स्वधानमः तृप्यध्वम् ३ ।

ॐ नमो वः पितरो रसाय नमो वः पितरः शोषाय नमो वः पितरो जीवाय नमो वः पितरः स्वधायै नमो वः पितरो घोराय नमो वः पितरो मन्यवे नमो वः पितरः पितरो नमो वो गृहान्नः पितरो दत्त सतो वः पितरो द्वेषम्मैतद्वः पितरो व्वासऽआधत्त ।। आधत्त पितरो गर्भकुमारम्पुष्करस्रजम् । यथेह पुरुषो सत् ।। 

पूर्वोक्त प्रकार से मातामह आदि का तर्पण करें, नेनिहाल पक्ष 

ॐ अद्यहेत्यादि - अमुक गोत्रोऽस्मन्मातामहः अमुक शर्मा सपत्नीको वसुस्वरूपस्तृप्यताम् ३ । इदं जलं तस्मै स्वधा नमः । तृप्यध्वम् ३ ।

 ॐ अद्येह अमुकगी त्रोऽस्मत्प्रमातामहः अमुकशर्मा सपत्नीकः रुद्रस्वरूपस्तृप्यताम् ३ । इदं जलं तस्मै स्वधा नमः । तृप्यध्वम् ३ । ॐ अमुकगोत्रोऽस्मद्वद्धप्रमातामहोऽमुकशर्मा सप त्नीक आदित्यस्वरूपस्तृप्यताम् ३ । इदं जलं तस्मै स्वधा नमः । तृष्यध्वम् ३ ।

  इसी प्रकार अन्य सपिण्डों आदि का तर्पण करके सामान्य तपंण करें । 

 गुरवस्तृप्यन्ताम् ॐ आचार्यास्तृप्यन्ताम् ॐ शिष्यास्तृप्यन्ताम् ॐ बान्ध वास्तृप्यन्ताम् ॐ ज्ञातयस्तृप्यन्ताम् ।


ॐ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवर्षिपितुमानवाः । 

तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमातामहादयः ।। १ ।।

अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम् । 

आब्रह्म भुवनाल्लोकानिदमस्तु तिलोदकम् ।। २ ॥

आब्रह्मणो ये पितृवंशजाता मातुस्तथा वंशभवा मदीयाः । 

कुलद्वये ये मम संगताश्च तेभ्यः स्वधातोयमिदं ददामि ।।

देवासुरास्तथा नागा यक्षगन्धर्वकिन्नराः ।

पिशाचा गुह्यकाश्चैव कूष्माण्डा तरवस्तथा ।। 

जलेचरा भूमिचरा वाय्वाहाराश्च जन्तवः ।

ते सर्वे तप्तिमायान्तु मद्दत्तेनाम्बुनाऽखिलाः ।।

नरकेषु समस्तेषु यातनासु च संस्थिता ।

तेषामाप्यायनायेतद्दीयते सलिलं मया ।।

यत्र क्वचन संस्थानां क्षुषोपहतात्मनाम् । 

इदमक्षय्यमेवास्तु मया दत्तं तिलोदकम् ।।

मातृवंशे मृता ये च पितृवंशे च ये मृताः ।

गुरुश्वसुरबन्धूनां ये चान्ये बान्धवा मृताः ।।

ये मे कुले लुप्तपिण्डाः पुत्रदारविजिताः ।

क्रियालोपगता ये च जात्यन्धाः पङ्गवस्तथा ॥ 

विख्पा आमगर्भाश्च ज्ञाताऽज्ञाताः कुले मम ।

तेषामाप्यायनायै तद, दीयते  सलिलं  मया ।।

येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवाः ।

ते सर्वे तृप्तिमायान्तु येऽस्मत्तोयाभिकाक्षिणः । ।


यदि नदी में स्नान करके तर्पण कर रहे हों तो स्नान वस्त्र अन्यथा यज्ञोपवीत जल में भिगोकर इस मन्त्र से गार दें । 


ये चास्माकं कुले जाता अपुत्रा गोत्रिणो मृताः । 

ते गृह्णन्तु मया दत्तं वस्त्रनिष्पीडनोदकम् ।।


सव्य  जनेऊ बायें कन्धे दाहिने हाथ के नीचे करके आचमन करें , चन्दन से तर्पण के जल में षड़दल कमल बनाकर गन्धाक्षत फूल और तुलसीदल से ब्रह्मा आदि का पूजन करें । 


ॐ ब्रह्मयज्ञानम्प्रथमम्पुरस्ताद्विसीमतः सुरुचो व्वेन आवः ।

स बुध्न्याऽउपमा अस्यविष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च व्विव ।।

ॐ ब्रह्मणे नमः ।। १ ।।

ॐ इदं विष्णु विचक्रमे त्रेधा निदघे पदम् ।समूढमस्य पांसुरे स्वाहा । 

ॐ विष्णवे नमः ॥२ ॥

ॐ नमस्ते रुद्रमन्यव उतोतइषवे नमः बाहुभ्यामुतते नमः । 

ॐ रुद्राय नमः ।।३ ।। 

ॐ आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च हिरण्ययेन सविता रथेन देवो याति भुवनानि पश्यन् । 

ॐ सूर्याय नमः ।। ४ ।।

ॐ मित्रस्य चर्षणी धृतो वो देवस्य सानसि । 

द्युम्नं चित्रश्रवस्तमम्। 

ॐ मित्राय नमः ।। ५ ।। 

ॐ इमम्मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृडय त्वामवस्यु राचके । 

ॐ वरुणाय नमः ।। ६ ।। 

 सूर्य को अर्ध दें । 

 एहि   सूर्य   सहस्रांशो   तेजोराशे   जगत्पते । 

अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणा गृहाणार्घ्यं दिवाकर ।। 

सूर्योपस्थानम्-

ॐ अदृश्श्रमस्य केतवो चिरश्मयो जना अनुभ्राजन्तोऽअग्नयो 

ॐ हंसः शुचिषद्वसुरंन्तरिक्षसद्धोताव्वेदिसदतिथिर्दुरोणसत् वृषद्वरस दृतसद्वयोमसदब्जा गोजाऽऋतजाअद्रिजाऽनतम्बृहत् ॥ २॥

 दिशाओं और उनके देवताओं को नमस्कार करें -

 ॐ प्राच्यै दिशे नमः ॐ इन्द्राय नमः । ॐ आग्नेय्य दिशे नमः ॐ अग्नये नमः । ॐ दक्षिणायै दिशे नमः । ॐ यमाय नमः ।ॐ नैऋत्यै दिशे नमः । ॐ निऋतये नमः । ॐ पश्चिमायै दिशे नमः । ॐ वरुणाय नमः । ॐ वायव्यै दिशे नमः । ॐ वायवे नमः । ॐ उदीच्यै दिशे। ॐ कुबेराय नमः । ॐ ऐशान्यै नमः । ॐ ईशानाय नमः । ॐ ऊर्ध्वायै दिशे नमः । ॐ ब्रह्मणे नमः । ॐ अधोदिशे नमः । ॐ अनन्ताय नमः। 

  पुनः देवतीर्थ से केवल जल से तर्पण करें । 

ॐ ब्रह्मणे नमः ॐ अग्नये नमः ॐ पृथिव्यै नमः ॐ ओषधिभ्यो नमः ॐ वाचे नमः ॐ वाचस्पतये नमः ॐ विष्णवे नमः ॐ महद्भूयो नमः ॐ अद्भयो नमः ॐ अपांपतये वरुणाय नमः । तर्पण किये हुए जल से मुख का मार्जन करें  । 

ॐ संब्वर्चसा पयसा संतनूभिरगन्महि मनसा सं शिवेन ।।

 त्वष्टा सुदत्त्रो विदधातुरायो न माष्टुं तन्न्वो यद्विलिष्टम् ।। 

 विसर्जन करें --

 ॐ देवा गातु विदो गातु वित्त्वा गातुमित ।

 मनसस्पतऽइमं देवयज्ञं स्वाहा व्वातेधाः ।।


 आचमनी करके विष्णु जी का स्मरण करें।


 यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु ।

 न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम् ।। 

             ।।ॐ अच्युतायनमः ३ ।।

          ।इति तर्पणविधिः सम्पूर्णः ।

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आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
 मो 9004013983

पितृपक्ष महालया पार्वण श्राद्ध

महालया पार्वण श्राद्ध

लोकभाषा में प्रायः आश्विन माह को  क्वार का महीना कहा जाता है वर्ष के इस सातवें मास में वर्षा बीतकर शरद् ऋतु का आगमन हो जाता है । दिन छोटे और रातें लम्बी होने लगती हैं । न तो अधिक गर्मी होती है और न ही अधिक सर्दी। पितरों के श्राद्ध भी इसी माह में होते हैं तो दुर्गापूजन के शारदीय नवरात्रे और विजयदशमी का त्यौहार भी इसी मास में पड़ता है ।

श्राद्ध--

श्राद्ध शब्द ही श्रध्दा का द्योतक है।अथार्त हम अपने पितरों की तृप्ति के लिये श्रद्धापूर्वक जो सत्कर्म करते है वही श्राद्ध है। संसार मे ऐसा कोई देश जाति सम्प्रदाय नही जो अपने धर्मग्रंथों या परमपरा के अनुसार किसी न किसी रूप में अपने मृत पितरो के प्रति श्रद्धा जरूर व्यक्त करता है।

श्राद्ध केवल मृत पितरो का होता है।पितर दो प्रकार के होते है।

१-दिव्यपितर

मानव जाति के आरंभिक पूर्वज जो पितृलोक में रहते है ,वे दिव्यपितर होते है।

२-मनुष्यपितर

हमारे वे सभी वंशज जो हमेशा श्राद्ध की अपेक्षा रखते है,वे मानुष पितर होते है।

पितृपक्ष महालया पार्वण श्राद्ध--

भादों की पूर्णिमा के दूसरे दिन से प्रारम्भ हो जाता है आश्विनी अर्थात क्वार मास । आश्विनी कृष्ण प्रतिपदा से अमावस्या तक के ये पन्द्रह दिन हमारे यहां पितृपक्ष कहलाते हैं । इस पूरे पक्ष में कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता है और न ही नए वस्त्र बनवाए अथवा पहने जाते हैं । अपने मृतक पूर्वजों को याद करने और उनकी मृत्य की तिथि को उनका श्राद्ध करने की परम्परा वैदिक काल से ही चली आ रही है ।

तिथि निर्णय--

इस पक्ष में मृतक माता - पिता , दादा - दादी और अन्य परिजनों के श्राद्ध उस तिथि को किए जाते हैं जिस तिथि को मृतक का दाह - संस्कार हुआ था । वर्ष के किसी भी मास के किसी भी पक्ष में मृत्यु हुई हो , श्राद्ध इन पन्द्रह दिनों में ही उस तिथि को किया जाता है । पुर्णिमा का श्राद्ध भादों शुक्ल पूर्णिमा को किया जाता है, कुल सोलह श्राद्ध होते है।

प्रायः घर के मुखिया द्वारा तर्पण श्राद्ध कर्म  किया जाता है।मृतक पुरुष  हेतु ब्राह्मण को भोजन कराने के बाद उन्हें श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार वस्त्र तथा दक्षिणा दी जाती है तो महिला के लिए किसी ब्राह्मणी को भोजन कराया जाता है । 


ब्रह्मपुराण में लिखा है कि आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में यमराज यमपुरी से पितरों को मुक्त कर देते हैं और वे अपनी संतानों तथा वंशजों से पिण्ड दान लेने के लिए भूलोक में आ जाते हैं ।

सूर्य के कन्या राशि में आने पर वे यहां आते हैं और अमावस्या के दिन तक घर के द्वार पर ठहरते हैं । सूर्य के कन्या राशि में आने के कारण ही आश्विन मास के कृष्ण पक्ष का नाम ' कनागत ' अर्थात् कन्या + गत पड़ गया है । जिन लोगों के माता - पिता स्वर्गवासी हो गए हैं उन्हें चाहिए कि वे इस पक्ष में प्रातःकाल उठकर किसी नदी में स्नान करके तिल , अक्षत और कुश हाथ में लेकर वैदिक मंत्रों द्वारा सूर्य के सामने खड़े होकर पितरों को जलांजलि दें ।

यह कार्य पितृ - पक्ष में प्रतिदिन होना चाहिए । पितरों को मृत्यु - तिथि को श्राद्ध करके ब्राह्मणों को भोजन कराना और दक्षिणा देनी चाहिए । इस पक्ष में गयाजी में श्राद्ध करने का विशेष महत्व है ।


श्राद्ध पक्ष अमावस्या को पूर्ण हो जाता है , परन्तु श्राद्धकर्म और तान्त्रिक दृष्टिकोण से बहुत अधिक महत्व है इस अमावस्या को भूले - भटके पितरों के नाम से ब्राह्मण को इस दिन भोजन प्रसाद कराया जाता है , यदि किसी कारणवश किसी तिथि विशेष को श्राद्धकर्म नहीं हो पाता तब उन पित्तरों का श्राद्ध भी इस दिन किया जा सकता है। 

इस अमावस्या के दूसरे दिन से शारदीय नवरात्र प्रारम्भ हो जाते हैं । यही कारण है कि मां दुर्गा के प्रचण्ड रूपों के आराधक और तन्त्र साधनाएं करने वाले इस रात्रि को विशिष्ट तान्त्रिक साधनाएं भी करते हैं । यही कारण है कि आश्विन मास की इस अमावस्या को महालया और पितृ - विसर्जन अमावस्या भी कहा जाता है । 

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ॐ जय गौरी नंदा

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