मंगलवार, 25 अगस्त 2020

महालक्ष्मी का डोरा व्रत एवं पूजन

          महालक्ष्मी का डोरा 

              (भाद्रपद शुक्ल अष्टमी)

 व्रत एवं पूजन महालक्ष्मी के पूजन का अनुष्ठान भाद्रपद शुक्ला अष्टमी से प्रारम्भ होकर आश्विन कृष्णा अष्टमी को पूर्ण होता है । अनुष्ठान के लिए एक दिन पूर्व सूत के सोलह धागों का एक डोरा लेकर उसमें सोलह गाठे लगाई जाती हैं । फिर उसे हल्दी से रंग लिया । जाता है । इस अनुष्ठान को करने वाली स्त्रिया सुबह सवेरे समीप की नदी या सरोवर में स्नान करके सूर्य को अर्घ्य देती है । सुहागिन स्त्रिया चालीस अजलि और विधवा सोलह अजलि अर्घ्य देती हैं । इसके बाद घर आकर एक चौकी पर डोरा रखकर लक्ष्मीजी का आव्हान करती हैं और डोरे का पूजन करती हैं । फिर सोलह बोल की यह कहानी कहती हैं- “ अमोती - दमोती रानी , पोला - परपाटन गांव , मगरसेन राजा , बंभन बरुआ , कहे कहानी , सुनो हे महालक्ष्मी देवी रानी , हमसे कहते तुमसे सुनते सोलह बोल की कहानी । " इस प्रकार आश्विन कृष्णा अष्टमी तक सोलह दिन व्रत और पूजा करती हैं । अंतिम दिन एक मंडप बनाकर उसमें लक्ष्मीजी की मूर्ति , डोरा और एक मिट्टी का हाथी रखकर विधि विधान से सोलह बार उपरोक्त कहानी कहकर अक्षत छोड़ती हैं । पूजा और हवन करती हैं । पूजा के लिए सोलह प्रकार के पकवान बनाए जाते हैं । पूजा के बाद स्त्रियां यह कहानी कहती हैं । कथा - एक राजा की दो रानियां थीं । बड़ी रानी का एक पुत्र था और छोटी के अनेक । महालक्ष्मी पूजन के दिन छोटी रानी के बेटों ने मिलकर मिट्टी का हाथी बनाया तो बहुत बड़ा हाथी बन ।गया । छोटी रानी ने उसकी पूजा की । बड़ी रानी अपना सिर झुकाये चुपचाप बैठी थी । बेटे के पूछने पर उसकी मां ने कहा कि तुम थोड़ी सी मिट्टी लाओ । मैं भी उसका हाथी बनाकर पूजा कर लूं । तुम्हारे भाइयों ने तो पूजा के लिए बहुत बड़ा हाथी बनाया है । बेटा बोला , मां तुम पूजा की तैयारी करो , मैं तुम्हारी पूजा के लिए जीवित हाथी ले आता हूं । वह इन्द्र के यहां गया और वहां से अपनी माता के पूजन के लिए इन्द्र से उसका ऐरावत हाथी ले आया । माता ने श्रद्धापूर्वक पूजा पूरी की और कहा- 

क्या करें किसी के सौ पचास ।

 मेरा एक पुत्र पुजावे आस ।।

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