शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

महर्षि वेदव्यास

तं  नमामि  महेशानं  मुनिं  धर्मविदां  वरम् ।

श्यामं जटाकलापेन  शोभमानं  शुभाननम् ॥ 

मुनीन् सूर्यप्रभान् धर्मान् पाठयन्तं सुवर्चसम् । 

नाना  पुराण  कर्तारं   वेदव्यासं   महाप्रभम् ॥ 


जो धर्म के निगूढ़ तत्त्व को जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ हैं ,जिनका वर्ण श्याम है। और जिनका मंगलकारी मुखमण्डल जटाजूट से सुशोभित है तथा जो सूर्यके समान प्रभा वाले मुनियों को धर्मशास्त्रों का पाठ पढ़ाने वाले हैं ।ज्योतिर्मय हैं ,अत्यन्त कान्तिमान् हैं , सभी पुराणों तथा उपपुराणों के रचयिता हैं । उन महेशान वेदव्यासजी को बारम्बार नमस्कार है।

साक्षात् नारायण ही जगद्गुरु व्यासके रूप में अज्ञानान्धकार में निमग्न प्राणियों को सदाचार एवं धर्माचरण की शिक्षा देने के लिये अवतीर्ण हुए और प्रसिद्धि यही है कि व्यासजी आज भी अजर  अमर हैं । सच्चे भक्तों को आज भी उनके दर्शन होते हैं । वे वसिष्ठ जी के प्रपौत्र शक्ति ऋषि के पौत्र पराशर जी के पुत्र तथा महाभागवत शुकदेवजी के पिता हैं । वे शंकराचार्य , गोविन्दाचार्य और गौडपादाचार्य आदि विभूतियोंके परमगुरु रहे हैं । पुराणों में प्रसिद्धि है कि यमुना के द्वीप में उनका प्राकट्य हुआ , इसलिये वे ' द्वैपायन ' कहलाये और श्याम ( कृष्ण ) वर्णके थे , इसलिये ' कृष्णद्वैपायन ' कहलाये । वेदसंहिता का उन्होंने विभाजन किया , इसलिये वे ' व्यास ' किंवा ' वेदव्यास ' के नामसे प्रसिद्ध हुए । इतिहास , पुराण , उपपुराण , ब्रह्मसूत्र , व्यासस्मृति आदि धर्मशास्त्रों , योगदर्शन आदिके भाष्यों के वे ही रचयिता हैं । 

आज के विश्व का सारा ज्ञान - विज्ञान महर्षि वेदव्यासजी का ही उच्छिष्ट है ,अतः 'व्यासोच्छिष्टं जगत् सर्वम् ' की उक्ति प्रसिद्ध है। 'यन्न भारते तन्न भारते 'के अनुसार धर्म , अर्थ , काम तथा मोक्ष आदिके विषयमें उनके द्वारा विरचित महाभारत में जो कुछ कहा गया है , वही अन्य लोगों ने कहा है और जो उन्होंने नहीं कहा , वह अन्यत्र भी नहीं मिलता अर्थात् अन्यत्र कोई नवीनता नहीं है , जो व्यासजी ने कह दिया , वही सबके लिये आधेय बन गया। भगवान् व्यासदेव का शुद्ध सत्संगरूपी धर्म - सत्र विविधरूप से निरन्तर चलता रहता था । उनकी धर्मगोष्ठी में ब्रह्मतत्त्व का निरूपण , परमात्मा के निर्गुण - सगुण स्वरूपों का विचार , धर्म - कर्मों की व्यापकता तथा उनके फलाफल की मीमांसा , धर्माचरण की महिमा आदि विषयों पर गहन चर्चा होती रहती थी । वे स्वयं भी धर्म के आचरण तथा सदाचार के पालन में निरन्तर निरत रहते थे । वस्तुतः धर्म - तत्त्व के विषय में आज संसार जो कुछ भी जानता है , वह वेदव्यासजी की ही देन है । वेद तो धर्म संहिताएँ ही हैं । पुराणों में धर्म , दर्शन एवं आचार मीमांसा पद - पदपर भरी पड़ी है । महाभारत तो धर्मविषयक कोश ही है । वह व्यासजी की ही रचना है । स्मृतियाँ तो ' व्यास ' लघुव्यास  इस प्रकारसे उनके नाम से ही - प्रसिद्ध हैं ।

वस्तुतः सच्चा धर्म और सम्यक् आचारदर्शन व्यासदेव की वाणी में ही संनिहित है । इसके लिये सारा विश्व अनन्तकाल तक उनका ऋणी रहेगा । उनकी  महिमा अपार है । शास्त्रों में उनका दिव्य चरित्र अनेक प्रकारसे गुम्फित है । वेदव्यासजी ने एक ही वेदके ऋक् , यजुः , साम और अथर्व नामसे चार विभाग किये । उन्होंने ऋग्वेद पैल को , सामवेद जैमिनि को , यजुर्वेद वैशम्पायन को और अथर्ववेद सुमन्तु को पढ़ाया था । उन्होंने परमहंसों की संहिता भागवत की रचनाकर उसे अपने निवृत्तिपरायण पुत्र शुकदेवजी को पढ़ाया था ।वेदव्यास जी की महिमा अपार है। व्यास जी ने सभी वेद धर्म गर्न्थो की रचना बद्रीनाथ धाम में की जो आज व्यास गुफा के रूप में स्थित है।जहाँ से ज्ञानगंगा का प्रवाह निकालकर पूरे विश्व को सिंचित करता है ,ऐसे भगवान वेदव्यासजी के चरणों मे कोटि कोटि नमन वन्दन करते है।

शनिवार, 25 जुलाई 2020

विवाह मङ्गलाष्टकम्

 
             ।।मङ्गलाष्टकम्।।

गंगा गोमति गोपतिर्गणपतिर्गोविन्द गोवर्द्धनो 
गीता गोमय गौरिजा गिरिसुता गंगाधरो गौतमः ।
गायत्री गरुडो गदा गिरिगजो गम्भीर गोदावरी  
गन्धर्व ग्रह गोप गोकुल गणाः कुर्वन्तु वो मंगलम् ।।१।। 

यावत्तोयधरा धरा धर धरा धारा धरा भूधरा 
यावच्चारु सुचारु चारु चमरं चामीकरं चामरम् । 
यावद् राघव राम राम रमणं रामायणं श्रूयते 
तावद् भोग विभोग भोग भुवन भोगाय ते नित्यशः ।।२।।

ईशानो गिरिशो मृडः पशुपतिः शूली शिवःशंकरः 
भूतेशः प्रमथाधिपः स्मर हरो मृत्युञ्जयो धुंर्जटि:। 
श्रीकण्ठो वृषभध्वजो हर भवो गंगाधरस्त्र्यम्बकः 
श्रीरुद्र सुरवृन्दवन्दित पदः कुर्यात् सदा मंगलम् ।।३।।

लक्ष्मीस्ते पंकजाक्षी निवसतु भवने भारती कंठदेशे,
वर्द्धन्ता बन्धुवर्गः सकलरिपुगणा यान्तु पातालमूलम् ।
देशे देशे च कीर्तिः प्रभवतु भवतां पूर्ण कुन्देन्दुशुभ्रा 
जीव त्वं पुत्र पौत्रैः स्वजन परिवृत्तो भुक्ष्व राज्यं विशालम् ।।४।। 

सिंहादुत्थाय कोपाद् ध धड़ धड़ धावमाना भवानी 
दैत्यानां दिव्यशस्त्रैस्त तड तड़ त्रोटयन्ती शिरांसि ।
तेषां रक्तं पिबन्ती घु घुट घुट प्रेक्षणीया पिशाची 
तृप्ता तृप्ता हसन्ती ख खत खत शाम्भवी वः पुनातु।।५।।

गंगा सिन्धु सरस्वती च यमुना गोदावरी नर्मदा  
कावेरी सरयू महेन्द्रतनया चर्मण्वती वेदिका ।
क्षिप्रा वेत्रवती महासुरनदी ख्याता गया गण्डकी 
पूर्णा पुण्य जलैः समुद्र सहिताः कुर्वन्तु वो मंगलम् ।।६।। 

नाना रूप सुरूपिता सुखकरा सामीप्य सायुज्यदा 
लाना धाम विराजिता पर पदा पूज्यापरा पापहा ।
नाना नाम सुपूजिता सुफलदा सेव्या सदा सौख्यदा 
ध्येया सा भुवनेश्वरी भगवती मातेश्वरी अम्बिका ।।७।।

अन्तर्बाह्य गता च या रिपुकृता बाधा सदा नाशिनी 
नाना क्लेशहरा वराभयकरा वाञ्छामनो दायिनी ।
या नित्या करुणामयी मतिमयी माता घनानन्ददा 
सा पूज्या जगदीश्वरी भगवती शाकम्भरी अम्बिका ।।८।।
 
चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पट धरो 
जटाधारी कण्ठे भुजगपति हारी पशुपतिः ।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशेक पदवीं 
भवानि त्वत्पाणिग्रहण परिपाटी फलमिदम् ।।९।।

श्रीमत्पङ्कजविष्टरो हरिहरौ वायुर्महेन्द्रोऽनल- 
श्चन्द्रो भास्कर वित्तपालवरुणाः प्रेताधिपादिग्रहाः।
प्रद्युम्नो नलकूवरः सुरगजश्चिंतामणिः कौस्तुभः
स्वामी शक्तिधरश्च  लांगलधरः कुर्वन्तु नो मङ्गलम्।।१०।।

गङ्गा गोमतिगोपतिर्गणपतिर्गोविन्द गोवर्द्धनो 
गीतागोमय गौरिजो गिरिसुता गङ्गाधरो गौतमः । 
गायत्री गरुडो गदाधर गया गम्भीर गोदावरी गन्धर्वग्रहगोपगोकुलगणाः कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥११॥

नेत्राणां  त्रितयं  शिवं  पशुपतेरग्नित्रयं पावनं 
पुण्यं विष्णुपद त्रयं त्रिभुवनं ख्यातं च रामत्रयम् । 
गङ्गावाह पथत्रयं  सुविमलं  देव  त्रयं  ब्राह्मणं
सन्ध्यानां त्रितयं द्विजैः सुविहितं कुर्वन्तु नो मङ्गलम्  ॥१२॥ 

गौरी श्रीः कुलदेवता च सुभगा भूमिः प्रपूर्णा शुभा 
सावित्री च सरस्वती सुरनदी सत्यव्रतारुन्धती ।
सत्या जाम्बवती च रुक्मभगिनी दुःस्वप्नविध्वंसिनी 
वेला चाम्बुनिधेः सुमीनमकराः कुर्वन्तु गे मङ्गलम्  ।।१३ ।। 

अश्वत्थो वटवृक्षचन्दनतरुर्मन्दारकल्पद्रुमौ
जम्बूनिम्बकदम्बआम्रसरला वृक्षाश्च ये क्षीरिणः । 
सर्वे ते फलसंयुताः प्रतिदिनं विम्राजनं राजते
रम्यं चैत्ररथं च नन्दनवनं कुर्वन्तु नो मङ्गलम्  ॥१४ ॥ 

वाल्मीकिः सनकः सनन्दन तरुर्व्यासो वशिष्ठो भृगु-
र्जावालिर्जमदग्निकच्छजनको गर्गाऽङ्गिरा गौतमः ।
मान्धाता भरतो नृपश्च सगरो धन्यो दिलीपो नलः 
पुण्यो धर्मसुतो ययातिनहुषौ कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ।।१५।।

लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुरा धन्वतरिश्चन्द्रमा 
गावः काम दुघाः सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवाङ्गनाः । 
अश्वः सप्तमुखः सुधा हरिधनुः शंखो विषं चाम्बुधे 
रत्नानीति चतुर्दश प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ।। १६।।

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

कृपानुभूति

जीवन मे अनायास बिना सोच विचार के कोई कार्य घटित हो जाय वह घटना है।घटनाओं का जीवन मे होना रहस्य की तरह होते है।कुछ घटनाओं का अच्छा, बुरा होना जीवन को परिवर्तित कर देते है,और कुछ घटना चिन्तन करने को मजबूर कर देती है।घटना जीवन मे खाते,सोते,जागते,यात्रा करते कभी भी हो सकते है,जिन्हें हम अच्छा,बुरा सोचकर विचार करते है।आमतौर पर हर किसी के जीवन मे कुछ न कुछ रहस्यों से भरी घटनाये होती रहती है।कभी ,कभी हमे घटनाओं के द्वारा संकेत मिलते है।जो हमे सतर्क करती है।

एक घटना तब की है जब में काशी में रहकर पढ़ाई करता था।मेरे मित्र ने कहा आपको आश्विन नवरात्र में उत्तराखंड के जनपद पौड़ी जाना है।मित्र के कहने पर में नवरात्रि में पाठ के लिए  यजमान के घर पहुँच गया।विधिवत ढंग से नवरात्र सम्पन्न करके अपने घर जाने लगा तो  यजमान मुझे कुछ दूर छोड़ने के लिए आये,यजमान ने रास्ता बताया वो लौट गए।पैदल सुनशान रास्ते पर चलता चला गया ।कुछ दूर जाने पर विशाल जंगल मे प्रवेश किया कुछ दूर जाने पर रास्ता भटक गया ,जंगल से न घर का रास्ता मिला न वापस बाहर जाने का रास्ता ,रात होने में 2 घंटा बाकी था ,कुछ भी समझ नही पा रहा था दूर दूर तक कोई घर गांव इंसान नही दिखाई दे रहे थे।पैदल चलते थकान बहुत हो रही थी। कहते जब सारे रास्ते बन्द हो जाय तो एक रास्ता हमेशा खुला रहता है।वो है भगवान कि शरण,मैंने मन ही मन माता रानी को याद किया आगे चलकर देखा एक बच्चा दिखाई दिया मैने बच्चे से पूछा तुम यहाँ क्या कर रहे हो ,वो कुछ भी नही बोला, में घबराने लगा ,फिर साहस किया ,और पूछा तुम यहाँ क्या कर रहे हो ,तब बच्चे ने एक ओर इशारा किया ,बच्चे ने जिस ओर इशारा किया में उस रास्ते पर चलने लगा ,कुछ आगे चलने पर पीछे मुड़कर देखा जंगल मे कोई नही था ।तब मन मे विश्वास हुआ कि वो बच्चा कोई नही बल्कि माता रानी का चमत्कार था ।जिन्होंने मेरी सहायता की और में आराम से घर पहुँच गया।  

हर व्यक्ति घर से बाहर निकलता है,अपने दैनिक कार्यो को संपादित करता है।बनते कार्य बिगड़ना या बिगड़े काम बन जाय ये सब घटना क्रम है।कभी छोटी घटना तो कभी बड़ी दुघर्टना कभी शाररिक कभी सांसर्गिक घटनाऐ जीवन मे अधिक धन कि पिपासा भाग दौड़ ने घटना क्रम को अधिक बढाया जिससे जन धन की हानि होती है।

   

जीवन मे सत्य पर चलने वाले और भक्ति मार्ग पर चलने वालो कि रक्षा ,सत्य व धर्म के द्वारा होती रहती है।



पुरुषोत्तम वन्दना

    सशंखचक्रं सकिरीट कुण्डलं 
    सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम् ।। 
    सहारवक्षः स्थलकोस्तुभश्रियं 
    नमामि विष्णु शिरसा चतुर्भुजम् ।।

हे रामाः पुरूषोत्तमा नरहरे नारायणाः केशवाः।
गोविन्दा गरुडध्वजाः गुणनिधेदामोदराः माधवा ।।
हे कृष्णाः कमलापते  यदुपते सीतापते श्रीपते।
बैकुण्ठाधिपते  चराचरपते लक्ष्मीपते पाहिमाम् ।।  

आदौ राम तपोवनादिगमनं हत्वा मृगं कांचनम्। 
बैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव  संभाषणम् ।। 
बाली निर्दलनं  समुद्र तरणं लंकापुरी दाहनम् । 
पश्चात् रावण कुम्भकर्णहननं एतद्धि रामायणम् ।। 

आदौ देवकी देवगर्भ जननम् गोपीगृहे वर्द्धनम् । 
मायापूतन  जीवितापहरणं    गोवर्धनो  धारणं ।।
कंसच्छेदन कौरवादि हननं कुन्तीसुता पालनम् ।
एतद्ध श्रीमद्भागवतपुराणकथितं श्रीकृष्ण लीलामृतम् ।।

आदौ पाण्डव धार्तराष्ट्र जननं लाक्षागृहे दाहनम् ।
द्यूतस्त्रीहरणम् वने विचरणं मत्स्यालया वेधताम् ।। 
लीला गोहरणं वने विचरणं संध्या क्रिया वर्धनम् । 
पश्चाद् भीष्म सुयोधनादि हननं चैतन् महाभारतम् ।। 

कस्तूरीतिलकं ललाटपटले वक्षःस्थले कौस्तुभम्।
नासाग्रेवरमौक्तिकं करतले वेणुः करे कंकणम् । ।
सर्वांगे हरिचन्दनम् सुललितं कण्ठे च मुक्ताबलिः।
गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते गोपाल  चूड़ामणि: ।।

फुल्लेन्दी  वरकान्ति  मिन्दुवदनं   वर्हवतंसप्रियं।
श्री वत्सांक मुदार कौस्तुभधरं पीताम्बर सुन्दरम् ।।
गोपीनां नयनत्पलार्चिततनुं गोगोप  संघावृतम् ।
गोविन्द कलवेणु वादनपरं  दिव्यांगभूषं भजे ।।

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं ।
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभांगम् ।।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं ।
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ।। 

यं ब्रह्मावरुणेन्द्ररुद्रमरुतःस्तुन्वन्ति दिव्यैःस्तवैः। 
वेदैःसांगपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति  यं   सामगाः।।
ध्यानावस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो।
यस्यान्तं न विदुःसुरासुरगणाः    देवाय तस्मै न ।।

एकोपि कृष्णस्य कृत प्रणामो।
दशाश्व  मेधा  भृथेन   तुल्य: ।।
दशाश्व  मेधे  पुनरेपी   जन्म।
कृष्ण  प्रणामो  न  पुनर्भवाम।।

आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा

मंगलवार, 21 जुलाई 2020

श्री बजरंग बाण




कुछ दुष्ट अदृश्य शक्तियां कभी कभी चिन्ता व तनावग्रस्त कमजोर मानस वाले व्यक्तियों को ग्रह दशा अथवा अपवित्रता रूपी  दोष के कारण सताती हैं । इस प्रकार की बाधाओ को दूर करने के लिए मन मे आत्म विश्वास और मनोबल जगाकर बजरंग बाण का अमोघ अस्त्र है । नियमित पाठ से अनायास उत्पन्न भय ओर सब प्रकार के कष्टों का अंत होता है।

 सर्वप्रथम पवित्र हो  धूप दीप उपचार से श्री हनुमान जी की पूजा कर उनका अपने हृदय में ध्यान करे । 


         अतुलित बल धामं  हेम शेलाभदेहं।

         दनुज बन कृशानु ज्ञानिनामग्रगण्यम।।

         सकल गुण निधानं वानराणामधीशं  ।

         रघुपति प्रिय भक्तं वातजातं नमामि ।।


  ।।  श्री बजरंग बाण।।

निश्चय प्रेम प्रतीति ते विनय करै सन्मान।

तेहि के कारज सकल शुभ सिध्द करै हनुमान ।।


           जय हनुमंत संत हितकारी

           सुन लीजै प्रभु विनय हमारी

           जन के काज विलंब न कीजे

           आतुर होहि महासुख दीजे । ।


            जैसे कूदि सिन्धु के  पारा 

            सुरसा बदन पैठि विस्तारा 

           आगे जाय  लंकिनी रोका 

            मारेहु लात गई सुर लोका ।।


           जाय विभीषण को सुख दीन्हा 

           सीता निरखि परमपद लीन्हा 

           बाग उजारि सिंधु महँ बोरा 

           अति आतुर जमकातर तोरा । ।


          अक्षयकुमार मारि संहारा 

          लूप लपेटि लंक को जारा

          लाह समान लंक जरि गई 

          जय जय धुनि सुरपुर नभ भई । ।


       अब विलम्ब केहि कारण स्वामी 

        कृपा  करहुं  उर  अंतरयामी 

        जय जय लखन प्राण के दाता 

       आतुर हो दुःख कर हु निपाता । ।


         जय हनुमान जयति बल सागर

         सुर समूह समरथ भटनागर 

     ॐ हनु  हनु  हनु  हनुमत  हठीले 

         बैरिहि  मारू बज्र  की  कीले ।।


      ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमन्त कपीशा

      ॐ हुँ हुँ हुँ हनु अरि ऊर शीशा

          जय अंजनि कुमार बलवंता

         शंकर सुवन   बीर हमुमन्ता ।।


        वदन कराल काल कुल घालक

        रामसहाय सदा प्रतिपालक

        भूत प्रेत पिशाच निशाचर 

        अगनि बेताल काल मारी मर ।।


         इन्हे मांरू तोहि शपथ राम की 

         राखु नाथ मरजाद नाम की

         सत्य होहु हरि शपथ पाइ के

         राम दूत धरू मारि धाई के ।।


          जय जय जय हनुमंत अगाधा

          दुःख पावत जन केहि अपराधा

          पूजा  जप  तप नेम  अचारां 

          नहिं जानत कछु दास तुम्हारा ।।


          वन उपवन मग गिरि गृह मांही

          तुम्हरे बल हो डर पत नाही 

          जनक सुता हरि दास कहावो 

          ताकी शपथ विलम्ब न लावो ।।


            जय जय जय धुनि होत आकाश

            सुमिरत होय दुसह दुःख नाशा 

            चरन पकरि कर जोरी मनावों 

            येही ओसर अब केहि गोहरावों । ।


            उठ उठ चलु तोहि राम दोहाई 

            पाय परों कर जोरि मनाई 

         ॐ चम चम चम चम चपल चलंता

         ॐ हनु हनु हनु हनु हनु हनुमन्ता।।


          ॐ हँ हँ हाँक देत कपि चंचल

          ॐ सँ सँ सहमि पराने खल दल 

             अपने जन को तुरंत उबारो 

             सुमिरत होय आनन्द हमारो ।।


            यह बजरंग बाण जेहि मारै 

            ताहि कहो फिर कोन उबारे 

            पाठ करे बजरंग बाण की 

            हनुमत रक्षा करै प्राण की । ।


            यह बजरंग बाण जो जापै

            तासों भूत प्रेत सब कांपे

            धूप देय जो जपे हमेशा 

            ताके तन नहीं रहे कलेशा । ।


        दोहा 

    उर प्रतीति दृढ़ शरण ह्वै पाठ करे धरि ध्यान ।

    बाधा सब हर करें सब काम सफल हनुमान ।।

      ।। सिया वर रामचंद्र की जय।।

      ।। पवनसुत हनुमान की जय।।

      ।।उमापति महादेव की जय।।

रुक्मणि जी ने भगवान कृष्ण जी को पति रूप में पाने के लिये किया पाठ

कन्याओ के विवाह में विलम्भ हो राह हो उन कन्याओ को इन मंत्रो का पाठ करना चाहिए ।पाठ करने से शीघ्र विवाह योग व मन इच्छित वर की प्राप्ति होती है।इसका21 पाठ करने के बाद लिखकर सदक्षिणा ब्राह्मण को दान दे ।शीघ्र मनोकामनापूर्ण होगी।             

                रुक्मिण्युवाच 
श्रुत्वा गुणान् भुवनसुन्दर शृण्वतां ते
निर्विश्य कर्ण विवरैर्हरतोऽङ्गतापम् । 
रूपं दृशां दृशिमता मखिलार्थ लाभं 
त्वय्यच्युता विशति चित्तमपत्रपं मे ॥१।।

              का त्वा मुकुन्द महती कुलशीलरूप ।
              विद्या वयो द्रविण धाम भिरात्मतुल्यम
              धीरा पतिं कुलवती न वृणीत कन्या 
              काले नृसिंह नरलोक मनोभिरामम् ॥२।।

तन्मे भवान् खलु वृतः पतिरङ्ग जाया
मात्मार्पितश्च भवतोऽत्र विभो विधेहि ।
मावीर भाग मभिमर्शतु  चैद्य आराद् 
गोमा  युवन्मृगपतेर्बलि   मम्बुजाक्ष ॥३ ।।

                   पूर्तेष्ट  दत्त  नियम व्रत  देव  विप्र
                   गुर्वर्चनादि भिरलं भगवान्  परेशः । 
                   आराधितो यदि गदाग्रज एत्य पाणिं 
                   गृह्णातु मे न दमघोष सुतादयोऽन्ये ॥ ४।।

श्वो भाविनि त्वमजितोद्वहने विदर्भान्
गुप्तः समेत्य पृतना पतिभिः परीतः ।
निर्मथ्य चैद्य  मगधेन्द्र    बलं प्रसह्य
मां राक्षसेन विधिनो द्वह वीर्यशुल्काम् ॥ ५ ।।

                   अन्तः पुरान्तर  चरीमनिहत्य  बन्धूं
                   स्त्वा मुद्वहे कथमिति प्रवदाम्यु पायम् ।
                   पूर्वे   धुरस्ति   महती   कुलदेवियात्रा
                   यस्यां बहिर्नववधूर्गिरिजा मुपेयात् ॥६।।

यस्याध्रि पङ्कज रजःस्नपनं महान्तो 
वाञ्छन्त्यु मापति रिवात्म तमोऽपहत्यै । 
यर्ह्यम्बुजाक्ष    न   लभेय    भवत्प्रसादं 
जह्या मसून् व्रतकृशाञ्छत जन्मभिः स्यात् ॥ ७।।

                  ब्राह्मण उवाच
 इत्येते गुह्यसन्देशा यदुदेव मयाऽऽहृताः ।
 विमृश्य कर्तुं यच्चात्र क्रियतां तदनन्तरम् ॥8।।



आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
      वसई मुम्बई
  

सोमवार, 20 जुलाई 2020

पृथ्वी को धारण करने वाले सात तत्व व उनका महत्व

        

        गोभिर्विप्रैश्च वेदैश्च सतीभिः सत्यवादिभिः ।

        अलुब्धैर्दान  शीलैश्च   सप्तभिर्धार्यते मही ।।

गौ, ब्राह्मण , वेद , सती , सत्यवादी , निर्लोभी और दानशील इन सातो ने पृथ्वी को धारण कर रखा है।

    1.गौ -

 गाय का आध्यात्मिक रूप तो पृथ्वी है ही ,प्रत्यक्ष रूप में भी उसने पृथ्वीको धारण कर रखा है । समस्त मानव - जातिको किसी - न - किसी प्रकार से गौ के द्वारा जीवन तथा पोषण प्राप्त होता है । प्राचीन काल से यज्ञों में घृत की प्रधानता। दैव - पित्र्य आदि समस्त कार्य घृत से ही सुसम्पन्न होते हैं । दुर्भाग्य है कि आज गोघृतके बदले में नकली घी हमारे घरों में आ गया है। गाय, दूध , दही , घी, गोबर , गोमूत्र देती है । उसके बछड़े बैल बनकर सब प्रकार के अन्न आदि उत्पन्न करते हैं । दुःख की बात है। कि हमारी जीवनस्वरूपा वह गौ आज भारतवर्ष में है, प्रतिदिन हजारोंकी संख्यामें कट रही है । अतः आज आवश्यक है कि हम गौ का संरक्षण कर उसकी सेवा करें। अपने जीवन को उत्तम बनायें । 

    2.विप्र -

 पता नहीं , किस अतीतकालसे ब्राह्मणने त्यागमय जीवन बिताकर विद्योपार्जन तथा विद्या - वितरण का महान् कार्य आरम्भ किया था , जो किसी न किसी रूप में अब तक चल रहा है। ब्राह्मणने पृथ्वी के लोगों को ज्ञान के प्रकाश का दान न दिया होता तो वे सर्वथा अज्ञानान्धकार में पड़े रहते , अतः मनुष्य मात्र का कर्तव्य है। कि वह अपनी जीवनचर्या में इनके प्रति कृतज्ञ भाव रखे ।

   3. वेद - 

परमात्मा के यथार्थ ज्ञान या ज्ञान कराने वाले ईश्वरीय वचनों का नाम वेद है । यह वेद अनादि है । वेदमें , समस्त ज्ञान भरा है । इतिहास - पुराणादि भी उसी के अनुवाद है।समस्त कर्म पद्धति तथा संस्कार  एवं ज्योतिष आदि सभी का उदगम स्थान वेद ही है। 

    4.सती - 

सती स्त्रियाँ पृथ्वी की दृढ़ स्तम्भरूपा है । सतियोंके त्याग , तेज प्रताप से मानव का बड़ा विलक्षण सात्त्विक बल मिलता रहा है ।और अब भी मिल रहा है । सती की स्मृति ही पुण्यदायिनी है । नारियों के लिये पातिव्रत और पुरुषोंके लिये एकपत्नीव्रत भारतीय जीवन में एक गरिमामय अंग है । सतियों की पवित्र सन्तान से ही लोक का संरक्षण अभ्युदय होता है।

   5.सत्यवादी -

 जगत्का सारा व्यवहार सत्यपर आधारित है। झूठ बोलनेवाले भी सत्यकी महिमा स्वीकार करते हैं।सत्य भगवान्का स्वरूप है। इस सत्यको स्वीकार करके सत्यभाषणपरायण पुरुषोंने अपनी जीवनचर्यासे जगत्के मानवोंके सामने एक महान् आदर्श रखा , सत्यसम्पन्न जीवनचर्या जीवनको सरल,शुद्ध तथा शक्तिशाली बनानेमें भी सहायता करती है। झूठ भ्रमवश पनपता भले ही दीखे , अन्तमें विजय सत्यकी ही होती है । 

सत्य तथा सत्यवादियोंके द्वारा उपजाये हुए विश्वासपर ही जगत के व्यवहार टिके हैं । जबतक जगत में सत्यवादी मानवोंका अस्तित्व बना रहेगा - चाहे वे थोड़े ही हों , तबतक जगत्की स्थिति रहेगी । 

    6. निर्लोभी -

 पापका बाप लोभ है । लोभ के कारण ही विविध प्रकार के नये - नये दुर्गुण , दोष तथा पाप उत्पन्न होते हैं तथा परिणाम में महान् संताप की प्राप्ति होती है । चोरी , बेईमानी , चोरबाजारी , घूसखोरी , डकैती , ठगी , लूट ,

वस्तुओंमें मिलावट आदि चरित्रको भ्रष्ट करनेवाले सारे अपराधोंका मूल लोभ ही है , अतः मनुष्य को अपनी जीवनचर्या में इससे बचना चाहिये । लोभी मानव स्वयं सदा अशान्त तथा दु : खी रहता है और सबको दुःखी बनाता है । वह पृथ्वीके सद्गुणोंका उच्छेदक है । इसके विपरीत जो लोभहीन है , वही सच्चा मानव समस्त दुर्गुणों , दोषों तथा पापोंसे स्वयं बचता तथा सबको बचाता हुआ मानवता का विकास , संरक्षण तथा संवर्धन करता है - इस प्रकार वह पृथ्वी को धारण करता है ।

     7.दानशील -

 सारी सुख - शान्तिका मूल प्रेम है तथा प्रेम का मूल त्याग है । दानमें त्याग की प्रधानता है । जो मानव अपने धन  विद्या  ज्ञान अन्य साधन सामग्री का दान करता है ,वही दानशील है।दानशील मानव लोभ,कृपणता, परिग्रहवृति आदि का नाश करता है,लोगो मे सेवा सहायता की भावना उत्पन्न करता है,उदारता का विस्तार होता है।दान इहलोक व परलोक में कल्याणकारी है,मानव को जीवन मे सातो तत्वों को महत्व देते हुए इन्हें जीवन मे धारण करना चाहिये । ये सात तत्व नर को नारायण बना देते है।


           
       
                
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रविवार, 19 जुलाई 2020

षोडश संस्कार


जीवनचर्या में संस्कारों की अत्यन्त आवश्यकता  परम उपयोगिता है । संस्कारसम्पन्न मनुष्य सुसंस्कृत और चरित्रवान तथा सदाचारी होता है ।संस्कार के बहुत अर्थ है , संस्कार मतलब शुद्ध करना, मनुष्य के जीवनचर्या में सोलह संस्कार होते है।मनुष्य जीवन भगवान का दिया एक वरदान है,जिसे सुसज्जित रखना जीव का कार्य है।अच्छे व बुरे कर्मो की परख से जीवन को सुखमय बनाकर गृहस्थ के नियमो में रहकर जीवन को आनन्दित करना चाहियें।जीव जब काल चक्र में प्रवेश करता है, तो माया उसे घेर लेती है।जीव को माया से बचने के लिए धर्म का पथ अपनाना चाहिये, जो हमे हमारे संस्कारो द्वारा प्राप्त होता है।संस्कारवान मनुष्य सदैव पूजनीय होता है,भारतीय संस्कृति में संस्कारों का सर्वाधिक महत्व है, षोडशसंस्कार इस प्रकार है।जो गर्भसे प्रारम्भ होकर अन्त्येष्टि पर समाप्त होता है।
                 💐 षोडश संस्कार💐



संस्कार पाँच भागोंमें होता है -
१ .गार्भिकसंस्कार , 
२. शैशवसंस्कार ,
३ .शैक्षणिकसंस्कार , 
४. आश्रमिकसंस्कार 
५. प्रयाणसंस्कार

( १ ) गर्भीकसंस्कार तीन होते हैं -
१ . गर्भाधानसंस्कार , 
२. पुंसवनसंस्कार और 
३. सीमन्तोन्नयनसंस्कार ।
    ये तीनों संस्कार माता पिता द्वारा सम्पन्न होते हैं ।

( २ ) शैशवसंस्कार छ : होते हैं -
१ . जातकर्मसंस्कार ,
२. नामकरणसंस्कार , 
३. निष्क्रमणसंस्कार ,
४. अन्नप्राशन संस्कार , 
५. चूडाकर्मसंस्कार ,
६. कर्णवेधसंस्कार ,
ये सभी संस्कार बाल्यकाल में मातापिता द्वारा संपादित किये होते है।

( ३ )शैक्षणिकसंस्कार तीन होते हैं -
१ .उपनयनसंस्कार , 
२. वेदारम्भसंस्कार,
३. समावर्तनसंस्कार ,
ये तीनों  संस्कार ब्रह्मचर्य -आश्रम में आचार्य द्वारा सम्पन्न कराये जाते हैं । 

( ४ ) आश्रमिकसंस्कार भी तीन होते हैं -
१ . विवाहसंस्कार , 
२. वानप्रस्थसंस्कार,
३. संन्याससंस्कार,
 १. विवाहसंस्कार चाहे पुत्र का विवाह हो या पुत्री का , माता और पिताके द्वारा सम्पन्न कराया जाता है ।
2. वानप्रस्थसंस्कार पुत्रको गृहभार सौंपकर वनमें जाकर सम्पन्न किया जाता है।
3.संन्यास संस्कार स्वयं संपन्न किया जाता है
( ५ ) प्रयाणसंस्कार अंत्येष्टि संस्कार को कहते है।यह संस्कार देहान्त के बाद पुत्रादि द्वारा सम्पन्न कराया जाता है
                 1.गर्भाधानसंस्कार
सोलह संस्कारों में सर्व प्रमुख गर्भाधान संस्कार है।सन्तानके लिये पुरुष स्त्रीसै विवाह करता है,पुरुष स्त्री गर्भाधान संस्कार के द्वारा सन्तान के लिये अपने कर्तव्य का पालन करते है। 
               २. पुंसवनसंस्कार
गर्भ के  व्यक्त होने पर द्वितीय मास में और गर्भके व्यक्त न होने पर तृतीय अथवा चतुर्थमासमें पुंसवनसंस्कारका विधान है । पुत्रोत्पत्ति की इच्छा से इस संस्कार को किया जाता है। 

           ३. सीमन्तोन्नयनसंस्कार 
पति द्वारा पत्नी के केशो में तैल डालकर कंधी द्वारा केशों को उन्नतकर माँग निकालने को सीमन्तोन्नयन कहते है। इसे चौथे मास में सम्पन्न कराने चाहिये।

               ४. जातकर्मसंस्कार
 यह संस्कार शिशु के उत्पन्न होने पर मनाया जाता है । उत्पन्न शिशु को पिता की गोद मे दिया जाता है । शिशुकी जिह्वा पर पिता अपनी अंगुलि से शहद द्वारा ॐ लिखता है और उसके दोनों कानों में  ' वेदोऽसि ' वाक्यका उच्चारण करता है । ' शतायुर्भव ' इस वाक्यसे पिता शिशुको आशीर्वाद देता है । महिलाओंद्वारा मांगलिक गीत गायन का विधान है । इस अवसर पर मोदकवितरण किया जाता है। 

              ५. नामकरणसंस्कार
 गोभिल और शौनक कृत गृह्यसूत्रों के अनुसार नवजात  शिशु का ग्यारहवें दिन नाम रखा जाता है । पुरोहित द्वारा पूजा हवनकर्म के बाद जातकका नाम रखा जाता है , उसे नामकरण संस्कार कहते है। जातक का नाम रखना चाहिए जातक का नाम लौकिक व्यवहारों में उसके भाग्योदय का हेतु है। जातक अपने नामसे जीवनचर्या में कीर्ति प्राप्त करता है।


              ६. निष्क्रमणसंस्कार 
चतुर्थ मास में निष्क्रमण संस्कार किया जाता है ,शिशु को घर के बाहर निकलकर सूर्य नारायण के दर्शन कराया जाता है।

              ७. अन्नप्राशनसंस्कार
 शिशु को छ : महीने के होनेपर अन्न का प्राशन कराया जाता है । खीर चटनी चटानी चाहिये।

                ८. चूडाकर्मसंस्कार 
 शिशु के प्रथमवर्ष में अथवा तृतीयवर्ष में केशच्छेदन का विधान है , इसे मुण्डनसंस्कार भी कहते हैं ।

               ९ . कर्णवेधसंस्कार
 शिशु के तृतीय अथवा पंचमवर्षमें उसके कान छेदे जाते हैं , रोग से रक्षा व आभूषण धारण करने के लिए कर्णवेध संस्कार किया जाता है।
                  
               १०. उपनयनसंस्कार 
 उपनयनका अर्थ है समीप में ले जाना ।जातक का आचार्य द्वारा उपनयन किया जाता है। उस जातक को वेदाध्ययन का अधिकार प्राप्त हो जाता है।इस संस्कार को यज्ञोपवीत संस्कार भी कहते है।यज्ञोपवीत होने से हव्य ,कव्य का अधिकार प्राप्त होता है।

                ११. वेदारम्भसंस्कार
माता पिता अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए। जातक को गुरुकुल में वेदाध्ययन के लिए प्रवेश कराते है।जातक गुरुकल में रह कर बृह्मचर्य का पालन कर ,जीवन की कलाओ को ग्रहण करता है।

                १२. समावर्तनसंस्कार
गुरुकल से वेदाध्ययन के बाद आचार्य की आज्ञा से गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के लिये आज्ञा प्राप्त कर गृह गमन करता है।।इसे दीक्षान्त संस्कार भी कहते है।

               १३. विवाहसंस्कार
  विद्याध्ययन के बाद सन्तान की उत्पत्तिके लिये नर द्वारा नारी के पाणिग्रहण को विवाह कहते हैं । इसमें कन्या के माता पिता द्वारा कन्यादान किया जाता है ।वर बधू एक सूत्र के बन्धन से गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते है।

             १४. वानप्रस्थसंस्कार 
 विवाहके बाद पुत्रको गृहभार सौंपकर वनगमन को वानप्रस्थसंस्कार कहते हैं । इसमें पचास वर्ष के बाद प्रवेश का  विधान है । जो पुरुष वानप्रस्थाश्रम में जगन्नियन्ता परमेश्वर का भजन करते हैं ।वे पापरहित हो परमात्माको प्राप्त करते है। 

               १५. संन्याससंस्कार
सर्वत्याग को ही सन्यास कहते है।इसमें वानप्रस्थ के नियमो के पालन से साथ सभी आशक्तियों का त्याग करना उपदेश करना उपदेश सुनना दण्डग्रहण और भिक्षा पात्रग्रहण का विधान है ।परम मोक्ष की कामना से देवदर्शन, देवपूजन ,गंगा स्नान जप दान जीव के कल्याण अन्नदान करना चाहिये।

              १६. अन्त्येष्टिसंस्कार
यह संस्कार जीव मृत्यु के बाद पुत्रादि के द्वारा पूर्ण किया जाता है ,यहां पर मनुष्य की जीवन यात्रा समाप्त हो जाती है,इसके बाद मनुष्य द्वारा किये शुभ कर्मों से सदैव पूजित होता है।  इस प्रकार मनुष्यकी जीवनचर्या में संस्कारों की अन्त्यन्त आवश्यकता है । संस्कारोंसे मनुष्य में श्रेष्ठ गुणों का विकास होता है । मनुष्य के व्यक्तित्व के निर्माण में और अनुशासित जीवन के विधान में संस्कारों की अत्यन्त उपयोगिता है । अतः मनुष्यके जीवनमें संस्कारों का विशेष महत्त्व और उनकी यथाविधि कर्तव्यता होती है , जिससे मनुष्य संस्कारसम्पन्न , चरित्रवान् , सुशील , सदाचारी और  सभ्य बनता है । इसलिये जीवनचर्या में संस्कारोंकी प्रधानता है ।
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              आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
                        वसई मुम्बई
                    मो 9004013983

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     English translation




 The utmost necessity of rituals is the ultimate utility in life.  A person who is rich in culture is cultured and characterful and virtuous. The meaning of the ritual is to purify, the sacrament means sixteen rites in the life of a human being. Human life is a boon given by God, to keep it equipped is the work of the living. Good and bad.  One should rejoice in life by living in the rules of the householder by making life happier by the action of karma. When life enters the cycle of cycle, Maya surrounds it. Jeeva must follow the path of religion to escape from Maya, which we should  Our sacraments are received. A man of honor is always revered, rites are of paramount importance in Indian culture, this is the way the shodash samskar begins from the womb and ends at the funeral.

 💐 hexadecracy


 Sanskar is performed in five parts -

 1 . Garbheek  ceremony,

 2.  Childhood ceremony,

 3.Culturalism,

 4.  Religious ceremony

 5.  Prayers


 (1) Garbheek ceremony is three -

 1.  Conception ceremony,

 2.  Resume and

 3.  Simultaneous Promotion.

 These three rites are performed by the parents.


 (2) The six ceremonies are six -

 1.  Caste work

 2.  Naming ceremony ,

 3.  Exodus

 4.  Annaprashan Sanskar,

 5.  Chudakarma ceremony,

 4.  Ear-piercing ceremony

 All these rites are performed by the parents during childhood.


 (3) There are three educational ceremonies -

 1.Upayan Samman,

 2.  Vedambhaskaram,

 3.  Inclusion ceremony,

 These three rites are performed by the Acharya in Brahmacharya-Ashram.


 (4) There are also three religious ceremonies -

 1.  Wedding ceremony ,

 2.  Vanaprastha Sanskar,

 3.  Renunciation

 1.  Marriage ceremony, whether a son is married or a daughter, is performed by mother and father.

 2. Vanaprastha ceremony is done by handing over the house to the son and going to the forest.

 3. The renunciation ceremony is performed manually

 (5) Prayan Sanskar is called funeral rites. This rite is performed by the son after the death.

 1.Galamanda ceremony

 Among the sixteen samskaras, the most important conception is rite. For the sake of the child, the male woman marries, the male woman performs her duty for the child through the conception ceremony.

 2.  Respect

 In the second month when the womb is expressed and in the third or fourth month, when the womb is not expressed, there is a law of punsavanamaskar.  This rite is performed with the desire of sonship.

 3.  Limited promotion ceremony

 Putting oil in the wife's hair by the husband and expanding the hair by the carding and removing the demand is called Seemantonnayan.  It should be completed in the fourth month.


 4.  Caste work

 This rite is celebrated when the baby is born.  The baby born is given in the father's lap.  On Shishu's tongue, the father writes द्वारा by honey with his finger and pronounces the sentence 'Vedosi' in both his ears.  With this sentence, 'Shatayughav' blesses the infant.  There is a law to sing Manglik songs by women.  Modification is done on this occasion.


 5.  Naming ceremony

 According to the Gobhil and Shaunak kriyasutras, the newborn is named on the eleventh day.  Jataka is named after the puja havanakarma by the priest, it is called naming ceremony.  Jataka should be named, Jataka is named for his fortune in cosmic practices.  The native gets fame in his name.

 4.  Exodus

 Exodus is performed in the fourth month, the child is taken out of the house and seen by Surya Narayana.

 4.  Annaprashan Sanskar

 Food is administered to the infant when he is six months old.  Kheer chutney should be chutney.

 4.  Chudakarma ceremony

 There is a law of haircut in the first year or third year of the infant, it is also known as Mundansara.

 4.  Ear-nail

 In the third or fifth year of the infant, his ears are pierced, Karnavedh is performed to protect him from diseases and to wear jewelery.

 10.  Thread ceremony

 Upanayana means to bring near. The native is upanayana by Acharya.  That person gets the right of Vedhyayana. This sacrament is also known as Yajnopavit Sanskar. Being a Yajnopavit, one gets the right of Havya, Kavya.

 11.  Altar ceremony

 Parents performing their duties.  The Jataka enters the Gurukul for Vedhyayana. The Jataka takes the arts of life by staying in the Gurukul and following Brihacharya.

 12.  Inclusion ceremony

 After Vedhyayan from Gurukal, after receiving the permission of Acharya to enter the Grihastha Ashram, the house moves. It is also called convocation ceremony.

 13.  Wedding ceremony

 Marriage is the marriage of female to male by male for the genesis of children after learning.  In this, Kanyadaan is performed by the parents of the girl. Ever Badhu enters the Grihastha Ashram with the bonding of a sutra.

 14.  Vanaprastha ceremony

 After the marriage, the handing over of the son to the son is called Vanaprasthan Sanskar.  It has the law of admission after fifty years.  Men who worship Lord Jagannata in Vanpastrashram, they receive God without sin.

 15.  Retirement

 Omnipotence is called sanyas. In this, following the rules of Vanaprastha, renouncing all the beliefs along with preaching, listening to sermons is the law of worship and begging and worshiping. Devdarshan, Devpujan, Ganga Snan chanting and donating the welfare of the living creature  Want

 14.  Funeral

 This rite is completed by the death of a son after death, here the life journey of a man ends, after which the man is always worshiped with auspicious deeds.  In this way, rites are an absolute necessity in the life of man.  Rituals develop superior qualities in humans.  Rites have great utility in building the personality of man and in the discipline of disciplined life.  Therefore, in human life, sanskars have special importance and their proper duty, so that a person becomes sanskriti, characterful, gentle, virtuous and civilized.  That is why rites have precedence in life.

 

 Acharya Harish Chandra Lakheda

 Vasai Mumbai

 Mo 9004013983




शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

लिंगाष्टक स्त्रोत्र

  

शिव जी की प्रसन्नता हेतु लिंगाष्टकम स्त्रोत्र पाठ करने से भुक्ति मुक्ति कामना पूर्ण होती है। 

                    ।। अथ लिंगाष्टकम्।।


 ब्रह्म मुरारि सुरार्चित लिंगं

 निर्मल भासित शोभित लिंगम् ।

 जन्मज दुःख विनाशक लिंगं

 तत्प्रणमामि सदाशिव  लिंगम् ।।१ ।। 


                        देवमुनि प्रवरार्चित लिंगं

                        कामदहं करुणाकरलिंगम् ।

                        रावण दर्प विनाशन लिंगं 

                        तत्प्रणमामि सदाशिव - लिंगम् ।। २ ।।


 सर्व सुगन्धि सुलेपित लिंगं

 बुद्धि - विवर्धन कारण लिंगम् ।

 सिद्ध सुरासुर वन्दित लिंगं

 तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगम् ।।३ ।। 


                          कनक महामणि भूषितलिंगं 

                          फणिपति वेष्टित शोभितलिंगम्।

                          दक्ष सुयज्ञ विनाशन लिंगं

                          तत्प्रणमामि सदाशिव-लिंगम् ।। ४।। 


कुम - कुम चंदन लेपित लिंगं

पंकजहार सुशोभित लिंगम् । 

संचित पाप विनाशन लिंगं 

तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगम् ।।५ ।।


                             देव गणार्चित सेवित लिंगं 

                             भावै भक्तिभिरे व च लिंगम् ।

                             दिनकर कोटिप्रभाकर लिंगं 

                             तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगम्।।६।।


 अष्टदलो परि वेष्टित लिंग

 सर्व समुद्भव कारण लिंगम् ।

 अष्ट दरिद्र विनाशन लिंगं

 तत्प्रणमामि सदाशिव -लिंगम् ।।७ ।। 


                            सुरगुरु - सुरवर - पूजितलिंगं

                            सुरवन पुष्प सदाचिंत लिंगम् ।

                            परात्परं   परमात्मक   लिंगं 

                           तत्प्रणमामि सदाशिव-लिंगम्।।८।।


    लिगाष्टकमिदं पुण्यं , यः पठेच्छिवसन्निधौ ।

    शिवलोकमवाप्नोति , शिवेन सह मोदते ।।९ ।।

  

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।। 

      
                        हरि ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!      

गुरुवार, 16 जुलाई 2020

एकादशी व्रत निर्णय



एकादशी के दिन शंखसे जल न पीये , कूर्म और शूकरको न खाय और दोनों पखवारो में एकादशी को भोजन न करे यह कूर्मपुराण और देवलादि का वचन है ।
 अग्निपुराण में लिखा है -- गृहस्थ , ब्रह्मचारी , अग्निहोत्री यह दोनों एकादशी को भोजन न करें । यहां कोई कहै कि भोजन के निषेध से व्रतकी विधि प्राप्त हो जायगी , सो उचित नहीं। व्रतका स्वरूप तो ब्रह्मवैवर्त ने लिखा है । एकादशी के प्राप्त होने पर रात्रि में सम्यक् प्रकार से नियम करके नियम पूर्वक दशमी के दिन हीं वैष्णव व्रतका संकल्प करै । यह व्रत शिव के भक्तों को भी करना उचित है । शिवधर्ममें लिखा है - वैष्णव शैव कोई हो , एकादशी व्रत करना चाहिये ।

 सौरपुराण में लिखा है - वैष्णव , शैव , सूर्यभक्त कोई हो , यह व्रत करना चाहिये । यह भी नित्य और काम्यभेद से दो प्रकारका है । गरुडमें लिखा है , दोनों पक्षकी एकादशी में नित्य उपवास करना नित्य है । 
नारद कहते हैं प्रत्येक पक्षमें एकादशी का उपवास करना चाहिये। जिसकी विष्णु के सायुज्य की इच्छा हो , अपने कल्याण की इच्छा हो , श्री और सन्तानकी इच्छा हो तो एकादशी दोनों पखवारे में भोजन न करे, दोनों एकादशी का व्रत गृहस्थ से अतिरिक्तों को ही नित्य है । गृहस्थ को तो शुक्ल में ही नित्यव्रत कृष्णा में नहीं कारना,देवल कहते हैं , दोनों पक्षकी एकादशी में भोजन न करे , यह वनवासी और  यतियों का धर्म है , और गृहस्थी को शुक्ला का व्रत करना चाहिये । 

यदि कोई कहै कि इस वचन से वानप्रस्थ और संन्यासी के विषय में निषेध के पालनका ही उपसंहार करते हैं व्रतका नहीं , सो उचित नहीं कारण कि यह वाक्य पर्युदासद्वारा व्रतकी विधिका कहने वाला है , यदि यह न मानोगे तो अग्निपुराण के वचनमें निषेधपालनमें जो गृहस्थीको अधिकार लिखा है,अभाव कभी किसी का धर्मभी नहीं हो सकता इस कारण इस सम्पूर्ण सामान्य वाक्य जो एकादशी व्रतके बोधक हैं उनका वनवासी और संन्यास के विषयमें उपसंहार होनेसे गृहस्थ को नित्यव्रत को विधि कृष्णपक्षमें प्राप्त नही होता ॥ और यदि ऐसा है तो क्यों नारदजी ऐसा कहते हैं कि , संक्राति कृष्णपक्षको एकादशी सूर्य चन्द्रमाका ग्रहण इसमें पुत्रवान् गृहस्थी उपवास न करे , इत्यादि वचनोंसे सिद्ध है कि , निषेध प्राप्ति के विना नहीं हो सकता ऐसी शंका पर यह समाधान है कि , देवशयनी और देवोत्थान इन दोनों एकादशियों के मध्य में जो कृष्णपक्ष की एकादशी है वहीं गृहस्थीको करनी चाहिये दूसरी नहीं इस पद्मपुराण के वाक्य से आषाढ और कार्तिक के मध्य में जो कृष्णपक्षीय एकादशी हैं उनमें उपवास करना कहा है। और पुत्र वाले को पूर्व कहे वचन से उसका ही निषेध कहा है ।और कृष्णएकादशी का तो विधान नहीं है।

 एकादशी को पुत्रवाला भी गृहस्थी करै । मदनरत्न में भविष्यपुराण का वचन है । जैसी शुक्ला वैसा ही कृष्णा द्वादशी मुझ को सदा प्यारी है , शुक्ला गृहस्थियों को करनी चाहिये यह भोग और सन्तान की बढाने वाली है , मुमुक्षुओं को कृष्णा करनी चाहिये। निषेधका पालन और काम्यव्रत तो सब कृष्णा एकादशियों में सब गृहस्थी करें , ' कारण कि , नारद यह कहते हैं कि , पुत्रवान् भार्यायुक्त और बन्धुसम्पन्न गृहस्थी विष्णु के काम्यव्रत को दोनों पखवारे में करै , वह सब कालादर्श में कहा है कि , विधवा , वानप्रस्थ और संन्यासी यह दोनों एकादशी और पुत्रवान् गृहस्थी शुक्लामें व्रत कर और भोजन का निषेध तो गृहस्थी को कृष्णा में भी है , इससे उसका व्रत सिद्ध होताहै , प्राच्यों का यह कथन है कि , वैष्णव गृहस्थियों को कृष्णा एकादशी भी नित्य है ,  नारदने यह लिखा है कि , विष्णुको भक्ति में तत्पर मनुष्य प्रत्येक पक्ष में एकादशी का व्रत करै , पुत्र स्त्री बंधु सम्पन्न भक्तिमान् मनुष्य भी दोनों पक्षोंकी एकादशी का व्रत करै।।


           आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
                जय बद्री विशाल

श्रावण मास में शिव पूजा कैसे करें।और क्यो की जाती है ।

श्रावण मास में रुद्राभिषेक शिव पूजन सोमवार व्रत का विशेष महत्व है।भगवान साम्बसदाशिव अपने भक्तों के लिए कल्याणकारी अमंगलहारी है वे भक्तों की पीड़ा व रक्षा के लिए हमेशा भक्तों साथ मे रहते है। जो मनुष्य सदा शिव पंचाक्षरी,, ॐ नमः शिवाय,, मंत्र का जप करता है।वह जन्मजन्मांतर के दुःखो व पुनरागमन से निवृत हो शिवलोक में वास करता है।भोलेनाथ जी को सावन का महिना प्रिय है।इसलिए भोले बाबा सावन मास में पृथ्वी में वास करते है।जो भी शिव भक्त सावन में शिव जी का जलाभिषेक करता है, भोलेनाथ उसके सारे कष्ट हर लेते है, भक्तो की सारी मनोकामना का पूर्ण करते है।     

स्कन्द पुराण में लोमश जी कहते हैं ।जो मनुष्य शिवमन्दिर के ऑगन में झाडू लगाते हैं , वे निश्चय ही भगवान् शिव के लोक में पहुँचकर सम्पूर्ण विश्व के लिये वन्दनीय हो जाते हैं । जो भगवान् शिव के लिये यहाँ अत्यन्त प्रकाशमान दर्पण अर्पण करते हैं , वे आगे चलकर शिवजी के सम्मुख उपस्थित रहनेवाले पार्षद हेंगे । जो लोग देवाधिदेव ,शूलपाणि ,शंकर को चवँर भेट करते हैं।वे त्रिलोकी में जहाँ कही जन्म लेंगे,उन पर चँवर डुलता रहेगा । जो परमात्मा शिव की प्रसनता के लिये धूप निवेदन करते हैं।वे पिता और नाना दोनों के कुलों का उद्धार करते हैं तथा भविष्य में यशस्वी होते हैं। जो लोग भगवान् हरि - हर के सम्मुख दीप दान करते है।वे भविष्य में तेजस्वी होते और दोनों कुलों का उद्धार करते हैं।जो मनुष्य हरि - हरके आगे नैवेद्य निवेदन करते हैं ,वे सम्पूर्ण यज्ञका फल पाते हैं।जो लोग टूटे हुए शिव मन्दिर को पुनः बनवा देते हैं,वे निस्सन्देह द्विगुण फल के भागी होते हैं।जो ईट अथवा पत्थर से भगवान् शिव तथा विष्णु के लिये नूतन मन्दिर निर्माण कराते हैं।वे तब तक स्वर्गलोक में आनन्द भोगते हैं।जबतक इस पृथ्वीपर उनकी यह कीर्ति स्थित रहती है।


श्रावण मास  मनुष्यों में ही नही अपितु पशु पक्षियों में भी एक नव चेतना का संचार करता है जब प्रकृति अपने पुरे यौवन पर होती है। नदी तालाब जल से भरपूर होते है। सावन में मौसम का परिवर्तन होने लगता है।प्रकृति हरियाली और फूलो से धरती का श्रुंगार करती है परन्तु धार्मिक परिदृश्य से सावन मास भगवान शिव को ही समर्पित रहता है।


श्रावण महीने में शिवजी का व्रत या उपवास रखा जाता है।श्रावण मास में पुरे माह भी व्रत रखा जाता है। इस महीने में प्रत्येक दिन स्कन्ध पुराण के एक अध्याय को अवश्य पढना चाहिए। यह महीना मनोकामनाओ का इच्छित फल प्रदान करने वाला माना जाता है। पुरे महीने शिव परिवार की विशेष पूजा की जाती है।


सावन मास में रखे गये व्रतो की महिमा अपरम्पार है।जब सती ने अपने पिता दक्ष के निवास पर शरीर त्याग दिया था उससे पूर्व महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था। पार्वती ने सावन के महीने में ही निराहार रहकर कठोर तप किया था और भगवान शंकर को पा लिया था। इसलिए यह मास विशेष हो गया और सारा वातावरण शिवमय हो गया।

इस अवधि में विवाह योग्य लडकियाँ इच्छित वर पाने के लिए सावन के सोमवारों पर व्रत रखती है इसमें भगवान शंकर के अलावा शिव परिवार अर्थात माता पार्वती , कार्तिकेय , नन्दी और गणेश जी की भी पूजा की जाती है। सोमवार को उपवास रखना श्रेष्ट माना जाता है।


श्रावण मास में भगवान शिव के कैलाश में आगमन के कारण व श्रावण मास भगवान शिव को प्रिय होने से की गई समस्त आराधना शीघ्र फलदाई होती है।पद्म पुराण के पाताल खंड के अष्टम अध्याय में ज्योतिर्लिंगों के बारे में कहा गया है कि जो मनुष्य इन द्वादश ज्योतिर्लिंगों के दर्शन करता है, उनकी समस्त कामनाओं की इच्छा पूर्ति होती है। स्वर्ग और मोक्ष का वैभव जिनकी कृपा से प्राप्त होता है।

श्रावण मास भी अपना विशेष महत्व रखता है। संपूर्ण महीने में चार सोमवार, एक प्रदोष तथा एक शिवरात्रि,हरि तालिका तीज, नागपंचमी ये योग एकसाथ श्रावण महीने में मिलते हैं। इसलिए श्रावण का महीना अधिक फल देने वाला होता है।श्रावण में पार्थिव शिवपूजा का विशेष महत्व है। अत: प्रतिदिन अथवा प्रति सोमवार तथा प्रदोष को शिवपूजा या पार्थिव शिवपूजा अवश्य करनी चाहिये ।

प्रातःकाल स्नान ध्यान से निवृत्त हो मंदिर या घर पर श्री गणेश पंचांग पूजा करके शिव पंचायतन -शिव,पार्वती ,गणपति ,कार्तिकेय नंदी,नाग की पूजा की जाती है।भगवान भोलेनाथ को जल , दूध , दही , घी ,शहद, शक्कर,पंचामृत से स्नान कर रुद्राभिषेक करें ।वस्त्र जने‌ऊ , चंदन , भस्म,रोली , फूलमाला,बेल पत्र , भांग , धतूरा , आदि से अलंकृत करें।धूप , दीप दिखाकर नैवेद्य अर्पण करें, दक्षिणा आरती  प्रदक्षिणा नमस्कार करे।इस प्रकार से भगवान उमापति का पूजन किया जाता है। शिव की महिमा का गुणगान शिव स्त्रोत्र शिव चालीसा शिव पुराण का पाठ करें। इस मास में रुद्राभिषेक , लघुरुद्र, महारुद्र अथवा अतिरुद्र पाठ कराना चाहिए।


शास्त्रों और पुराणों में श्रावण मास को अमोघ फलदाई कहा गया है। 

-विवाहित महिलाओं को श्रावण मास में व्रत पूजन करने से   परिवार में खुशियां, समृद्घि और सम्मान व सन्तान का सुख   प्राप्त होता है, 

-पुरूषों को व्रत करने से कार्य-व्यवसाय में उन्नति,शैक्षणिक   गतिविधियों में सफलता और आर्थिक रूप से मजबूती मिलती    है। 

-अविवाहित लड़कियां यदि श्रावण के प्रत्येक सोमवार को शिव    परिवार का विधि-विधान से पूजन करती हैं तो उन्हें अच्छा घर और वर मिलता है।


           हर हर महादेेेव

आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
       
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बुधवार, 15 जुलाई 2020

माँ देवी भगवती की मंत्र स्तुति


माँ पराम्बा भगवती राज राजेश्वरी बालात्रिपुरसुन्दरी श्रीमहाकाली,महालक्ष्मी,महासरस्वती माँ करुणामयी,दयामयी ,क्षमामयी,कृपामयी,ममतामयी चराचर की स्वामिनी माँ जगदम्बा को कोटि कोटि प्रणाम ।।

नित्य पूजा में आरति पुष्पांजलि द्वारा माँ कुलदेवी को प्रसन्न करें।माँ सबकी मनोकामना पूर्ण करती है। 

                 ।।प्रार्थना ॥

ततो मन्त्रपुष्पाञ्जलिसमर्पणानन्तरं प्रार्थयेत् - 


ॐ महिषघ्नी महा माये चामुण्डे मुण्डमालिनि । 

आयुरारोग्य विजयं देहि देवि नमोऽस्तु ते ॥ १॥ 

भूत प्रेत पिशाचेभ्यो रक्षोभ्यः परमेश्वरि । 

भयेभ्यो मानुषेभ्यश्च दैवेभ्यो रक्ष मा सदा ॥ २ ।। 

सर्वमङ्गल मङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके । 

उमे ब्रह्माणि कौमारि विश्वरूपे प्रसीद में ॥ ३ ॥ 

कुंकुमेन समालब्धे चन्दनेन विलेपिते । 

बिल्वपत्र कृतापीड़े दुर्गे त्वां शरणं गतः ॥ ४ ॥ 

गतं पापं गतं दुःखं गतं दारिद्यमेव च । 

आगता सुखसम्पत्तिः पुण्याच्च तव दर्शनात् ॥ ५॥

हर पापं हर क्लेशं हर शोकं हरासुखम् । 

हर रोगं हर क्षोभं हर मारी हरप्रिये ॥६ ॥ 

कायेन मनसा वाचा कर्मणा यत्कृतं मया । 

ज्ञाना ज्ञान कृतं पापं दुर्गे त्वं हर दुर्गतिम् ॥ ७ ॥ 

दुर्गे त्वत्प्रज्ञया नित्यं कृता पूजा तवा ज्ञया । 

स्थिरा भव गृहे ह्यस्मिन् मम सौख्यकरी भव ॥ ८ ॥


श्री दुर्गा जी की स्तुति 💐💐💐


जय जय त्रिभुवन वन्दिनी,गिरिनन्दिनि हे गिरिनन्दिनि हे।              

                 असुर निकन्दनी ,मातु जय जय शम्भूप्रिये ।।


त्रिगुण शक्ति निज धारणि,शुभकारिणि हे,शुभकारिणि हे।                  

                      भक्त उधारन मातु जय जय शम्नुप्रिये ।।


मधु कैटभ संहारिणी ,सुरतारिणी हे,सुरतारिणि हे।


          महिष विदारिणी मातु जय जय शम्भूप्रिये ॥


धूम्रविलोचनी,मोचिनि,त्रयलोचनि हे,त्रयलोचनि हे,।


             दुःख विमोचनी मातु जय जय शम्भूप्रिये।।


चण्ड मुण्ड भट मर्दिनि सुविलासिनि हे,सुविलासिनि हे ।                

               मन्द हसनि शुर मातु, जय जय शम्भूप्रिये।। 


रक्तबीज रुधिरासिनि , भयनासिनि हे . भयनासिनि हे।                    

                भूधर वासिनि मातु . जय जय शम्भूप्रिये।।


शुम्भ निशुम्भ विभंजनी , रिपुगंजनि हे, रिपुगंजनि हे।                 

            शिव मन रंजनी मातुम जय जय शम्भुप्रिये । ।


धरणीधर वरदायिनि , वरदायिनि हे, वरदायिनि हे।                      

              मृगरिपु वाहन मातु जप जय शम्भुप्रिये।। 


भूल चूक सब कर क्षमा करुणामयी हे, करुणामयी हे।               

          शिर पर रख माँ हाथ मातु जय जय शम्भूप्रिये।।


दुर्गे  दुर्गति नाशिनि , दुर्मति हरिये, दुर्मति हरिये । 


            शुद्ध बुद्धि दे मातु जय. जय शम्भुप्रिये।।

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श्रीशिवमानसपूजा

    ★★★श्रीशिवमानसपूजा ★★★


रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं ।        नानारत्नविभूषितं मृगमदा मोदाङ्कितं  चन्दनम् ।।        
जाती चम्पक बिल्वपत्र रचितं पुष्पं च धूपं तथा  ।
दीपं देव दयानिधे पशुपते हत्कल्पितं गृह्यताम् ॥१ ॥ 

 सौवर्णे नवरत्न  खण्ड  रचिते पात्रे  घृतं पायसं ।
 भक्ष्यं पञ्चविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम् ।।
 शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूर खण्डोज्ज्वलं ।    
 ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु ॥२॥

 छत्रं चामरयोर्युगं  व्यजनकं  चादर्शकं निर्मलं।                 वीणाभेरि मृदङ्ग काहलकला गीतं च नृत्यं तथा ।।
 साष्टाङ्गं प्रणतिः स्तुतिर्बहुविधा ह्येतत्समस्तं मया ।
 सङ्कल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो ॥ ३ ॥

   आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं।
   पूजा ते विषयोप भोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः ।।
   सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो।
   यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ॥४ ॥
   
             करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा ।
             श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् ।।
             विहित मविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व ।
            जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥५ ॥  

।।इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचिता शिवमानसपूजा समाप्ता ।।


गुरुवार, 9 जुलाई 2020

नागपंचमी के दिन करें ,नगों की पूजा

 नागपंचमी ( श्रावण शुक्ला पंचमी ) 

इस दिन नागों की पूजा होती है । इस व्रत में चतुर्थी को केवल एक बार भोजन करे और पंचमी के दिन उपवास करके शाम को भोजन करे । चांदी , सोने या काठ की कलम से हल्दी की स्याही बनाकर पांच फन वाले पांच नाग अंकित करें । पंचमी के दिन दूध, पंचामृत , खीर , धूप , दीप नैवेद्य आदि से विधिवत नागों की पूजा करे । पूजा के बाद ब्राहाणों को लड्डू या खीर का भोजन करावे। पंचमी को नाग की पूजा करने वाले व्यक्ति को उस दिन भूमि नहीं खोदनी चाहिए । 

प्राचीन काल में तो घरों को इस दिन गोबर में गेरु मिलाकर लीपा जाता था और फिर पूर्ण विधिविधान  नाग देवता की पूजा की जाती थी। इस हेतु एक रस्सी में सात गांठें लगा कर रस्सी का सांप बनाकर उसे एक लकड़ी के पट्टे पर सांप मानकर बिठाया जाता है।हल्दी, रोली, चावल और फूल आदि चढ़ाकर नाग देवता की पूजा करने के बाद कच्चा दूध , घी , चीनी मिलाकर इसे काठ पर बैठे सर्प देवता को अर्पित करें।इस समय इस श्लोक से सर्प देवता की स्तुति करनी चाहिए-


 अनन्त वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कंबलम् । 

 शंखपालं धार्तराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा ।।


नवनाग गायत्री-

ॐ नवकुलाय विदमहे विषदन्ताय धीमहि। तन्नो सर्पः प्रचोदयात।।

बाद में कच्चे दूध में शहद ,चीनी या थोड़ा सा गुड़ घोलकर इसे जहां कहीं सांप की बाँबी या बिल दीखे उसमें डाल दें ।और उस बिल की मिट्टी लेकर चक्की , चूल्हे पर , दरवाजे के निकट दीवार पर तथा घर के कोनों में सांप बनायें । कच्चे चावल पीस कर उसमें पानी डालकर घोल से भी यै आकृतियां अंकित की जा सकती हैं ।इन सबको बनाने के बाद भीगे हुए बाजरे और घी , गुड़ से इनकी पूजा करे।इन पर दक्षिणा चढ़ायी जाय , इनकी घी के दीपक से आरती उतारी जाय।अन्त में नागपंचमी की कथा कहें और सुनें ।


नागपंचमीकथा -


मनिपुर नगर में एक किसान अपने परिवार सहित रहता था । उसके दो लड़के और एक कन्या थी । एक दिन उसके हल के फाल में बिंधकर सांप को तीन बच्चे मर गये । बच्चों की  मां नागिन ने पहले तो बहुत विलाप किया , फिर अपने बच्चों को मारने वाले से बदला लेने का निश्चय किया । रात्रि में नागिन ने किसान , उसकी स्त्री और दोनों पुत्रों को डस लिया । अगले दिन नागिन किसान की कन्या को डसने चली तो उस कन्या ने डर कर उसके आगे दूध का कटोरा रख दिया और हाथ जोड़ कर क्षमा मांगने लगी । उस दिन नागपंचमी थी । नागिन ने प्रसन्न होकर लड़की से वर मांगने को कहा । लड़की ने वर मांगा कि मेरे माता - पिता और दोनों भाई जीवित हो जायें और जो आज के दिन नागों की पूजा करे उसे कभी नाग के डसने की बाधा न हो । नागिन लड़की को वरदान देकर चली गई । तभी किसान , उसकी स्त्री और दोनों पुत्र जीवित हो गये । 

कालसर्प दोष शान्ति-

श्रावण शुक्ल पक्ष नागपंचमी के दिन सर्प का पूजन व दूध से स्नान और दूध पिलाने का विधान है इस दिन नाग नागिन के पूजन से जीव जन्तु के काटने के बाद विष का भय नही होता है।नाग पंचमी के दिन कालसर्प दोष शान्ति के लिए विशेष शुभ माना गया है।


जिस जातक की कुण्डली में काल सर्प दोष हो उन्हें सर्प के जोड़े का पूजन करने के बाद सर्प देव की आरती करें। पूजन के बाद सर्प जोड़े को बहते पानी या तालाब में विसर्जित करे। 



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श्रीनवग्रह स्त्रोत्रं

           💐 ।। श्रीनवग्रहस्तोत्रम्।।💐
    जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महा द्युतिम्। 
    तमोऽरिं सर्वपापघ्नं   प्रणतोस्मि दिवकरम। १ ।।

    दधिशंख तुषाराभं  क्षीरोदार्णव सम्भवम् ।
    नमामि शशिनं सोमं शाभोर्मुकूट भूषणम् ॥ २ ॥ 

    धरणीगर्भसूम्भूतं विद्युत कान्ति समप्रभम् । 
    कुमारं शक्तिहस्तं तं  मङ्गलं  प्रणमाम्यहम् ॥ ३ ॥

    प्रियंगु कलिकाश्यामं रूपेणापतिमं बुद्धम ।
    सौम्यं सौम्यगुणोपेतं तं बुधं  प्रणमाम्यहम् ।। ४ ।।

    देवानां च ऋषीणां च गुरु काञ्चनसंनिभम् । 
    बुद्धि भूतं त्रिलोकेशं तं नमामि  बृहस्पतिम् ॥ ५ ॥ 

    हिमकुन्द मृणा  लाभं  दैत्यानां  परमं गुरुम् । 
    सर्वशास्त्र  प्रवक्तारं  भार्गवं   प्रणमाम्यहम् ।।६ ।।

    नीलाञ्जन   समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम् ।
    छाया मार्तण्ड सम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम ॥ ७ ॥ 

    अर्धकायं महावीर्यं चन्द्रा  दित्य विमर्दनम् ।
    सिहिका  गर्भसम्भूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम् ॥ ८ ॥

    पलाश पुष्प सकाशं तारका ग्रहमस्तकम् । ।
    रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं   प्रणमाम्यहम् ॥ ९ ॥ 

    इति व्यास मखोद्गीतं यः पठेत सुसमाहितः । 
    दिवा वा यदि वा रात्रो विध्न शांतिर्भविष्यति।।१० ।।

    नरनारी नृपाणाम च भवेद दुःस्वप्न नाशनम
    ऐश्वर्य  मतुलं  तेषामारोग्यं   पुष्टि  वर्धनम ।।११।।

  ।।  महर्षिव्यासविरचितं नवग्रहस्त्रोत्रं  सम्पूर्णम।।



                     आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
                             वसई मुम्बई
                         मो 9004013983

बुधवार, 8 जुलाई 2020

सोलह सोमवार व्रत

सोलह सोमवार व्रत

सोमवार के दिन शिवजी के सामान्य व्रत करने के स्थान पर विशिष्ट प्रयोजन हेतु सोलह सोमवारों के विशिष्ट व्रत भी किए जाते है । सोलह सोमवार के इन व्रतों में नमक का प्रयोग वर्जित है , चूरमा बनाकर उसका ही भोग लगाते और स्वयं खाते हैं । यह सोलह सोमवार का व्रत श्रावण , कार्तिक , माघ अथवा वैसाख माह के किसी भी सोमवार से प्रारम्भ किया जा सकता है । नित्य क्रिया और स्नान के पश्चात् शुद्ध वस्त्र धारण कर शंकरजी का विल्व पत्र , दूध दही घी शहद शक्कर पंचामृत से स्नान वस्त्र, जनेऊ, रोली, चंदन ,अक्षत पुष्प हार, धूप , दीप , नैवेद्य,धतूरे का फल तथा फूल , आक का फल तथा फूल , कमल गट्टा , भांग , वेल फल दक्षिणा इत्यादि से भक्तिपूर्वक पूजन करें । सवा किलो चूरमा बनाकर शंकरजी का भोग लगावें । सवा पाव शंकरजी के भोग के रूप में मन्दिर में छोड़ दें , सवा पाव स्वयं खावें और शेष को प्रसाद के रूप में वितरित करें । व्रत के दिन एक बार ही चूरमे का प्रसाद तथा फलाहार लें । दूसरे दिन के लिए कुछ भी बचाकर न रखा जाए । सोलह सोमवार के व्रत की कथा पढ़ें अथवा सुनें और रात्रि में भगवान् शिवजी की प्रतिमा के समीप ही शयन करें । शिवजी की एक ही प्रतिमा अथवा शिवलिंग का सोलहों सोमवारों को पूजन करना चाहिए । सोलहवें सोमवार को व्रत का उद्यापन करें । उद्यापन के दिन रात्रि जागरण भी करें तथा सवा पांच किलो का चूरमा बनाकर शंकरजी पर चढ़ायें । सवा पाव स्वयं खाएं और और शेष प्रसाद रूप में वितरित कर दें । 

शास्त्रों और पुराणों में श्रावण सोमवार व्रत को अमोघ फलदाई कहा गया है। विवाहित महिलाओं को श्रावण सोमवार का व्रत करने से परिवार में खुशियां, समृद्घि और सम्मान प्राप्त होता है, जबकि पुरूषों को इस व्रत से कार्य-व्यवसाय में उन्नति, शैक्षणिक गतिविधियों में सफलता और आर्थिक रूप से मजबूती मिलती है। अविवाहित लड़कियां यदि श्रावण के प्रत्येक सोमवार को शिव परिवार का विधि-विधान से पूजन करती हैं तो उन्हें अच्छा घर और वर मिलता है।

 सोमवार व्रत कथा----

 सोमवार की  कथा के अनुसार अमरपुर नगर में एक धनी व्यापारी रहता था। दूर-दूर तक उसका व्यापार फैला हुआ था। नगर में उस व्यापारी का सभी लोग मान-सम्मान करते थे। इतना सबकुछ होने पर भी वह व्यापारी अंतर्मन से बहुत दुखी था क्योंकि उस व्यापारी का कोई पुत्र नहीं था। 

दिन-रात उसे एक ही चिंता सताती रहती थी। उसकी मृत्यु के बाद उसके इतने बड़े व्यापार और धन-संपत्ति को कौन संभालेगा। 

पुत्र पाने की इच्छा से वह व्यापारी प्रति सोमवार भगवान शिव की व्रत-पूजा किया करता था। सायंकाल को व्यापारी शिव मंदिर में जाकर भगवान शिव के सामने घी का दीपक जलाया करता था। 

उस व्यापारी की भक्ति देखकर एक दिन पार्वती ने भगवान शिव से कहा- 'हे प्राणनाथ, यह व्यापारी आपका सच्चा भक्त है। कितने दिनों से यह सोमवार का व्रत और पूजा नियमित कर रहा है। भगवान, आप इस व्यापारी की मनोकामना अवश्य पूर्ण करें।' 

भगवान शिव ने मुस्कराते हुए कहा- 'हे पार्वती! इस संसार में सबको उसके कर्म के अनुसार फल की प्राप्ति होती है। प्राणी जैसा कर्म करते हैं, उन्हें वैसा ही फल प्राप्त होता है।' 

इसके बावजूद पार्वतीजी नहीं मानीं। उन्होंने आग्रह करते हुए कहा- 'नहीं प्राणनाथ! आपको इस व्यापारी की इच्छा पूरी करनी ही पड़ेगी। यह आपका अनन्य भक्त है। प्रति सोमवार आपका विधिवत व्रत रखता है और पूजा-अर्चना के बाद आपको भोग लगाकर एक समय भोजन ग्रहण करता है। आपको इसे पुत्र-प्राप्ति का वरदान देना ही होगा।' 

पार्वती का इतना आग्रह देखकर भगवान शिव ने कहा- 'तुम्हारे आग्रह पर मैं इस व्यापारी को पुत्र-प्राप्ति का वरदान देता हूं। लेकिन इसका पुत्र सोलह वर्ष से अधिक जीवित नहीं रहेगा।' 

उसी रात भगवान शिव ने स्वप्न में उस व्यापारी को दर्शन देकर उसे पुत्र-प्राप्ति का वरदान दिया और उसके पुत्र के सोलह वर्ष तक जीवित रहने की बात भी बताई। 

भगवान के वरदान से व्यापारी को खुशी तो हुई, लेकिन पुत्र की अल्पायु की चिंता ने उस खुशी को नष्ट कर दिया। व्यापारी पहले की तरह सोमवार का विधिवत व्रत करता रहा। कुछ महीने पश्चात उसके घर अति सुंदर पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र जन्म से व्यापारी के घर में खुशियां भर गईं। बहुत धूमधाम से पुत्र-जन्म का समारोह मनाया गया। 

व्यापारी को पुत्र-जन्म की अधिक खुशी नहीं हुई क्योंकि उसे पुत्र की अल्प आयु के रहस्य का पता था। यह रहस्य घर में किसी को नहीं मालूम था। विद्वान ब्राह्मणों ने उस पुत्र का नाम अमर रखा। 

जब अमर बारह वर्ष का हुआ तो शिक्षा के लिए उसे वाराणसी भेजने का निश्चय हुआ। व्यापारी ने अमर के मामा दीपचंद को बुलाया और कहा कि अमर को शिक्षा प्राप्त करने के लिए वाराणसी छोड़ आओ। अमर अपने मामा के साथ शिक्षा प्राप्त करने के लिए चल दिया। रास्ते में जहां भी अमर और दीपचंद रात्रि विश्राम के लिए ठहरते, वहीं यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते थे। 

लंबी यात्रा के बाद अमर और दीपचंद एक नगर में पहुंचे। उस नगर के राजा की कन्या के विवाह की खुशी में पूरे नगर को सजाया गया था। निश्चित समय पर बारात आ गई लेकिन वर का पिता अपने बेटे के एक आंख से काने होने के कारण बहुत चिंतित था। उसे इस बात का भय सता रहा था कि राजा को इस बात का पता चलने पर कहीं वह विवाह से इनकार न कर दें। इससे उसकी बदनामी होगी। 

वर के पिता ने अमर को देखा तो उसके मस्तिष्क में एक विचार आया। उसने सोचा क्यों न इस लड़के को दूल्हा बनाकर राजकुमारी से विवाह करा दूं। विवाह के बाद इसको धन देकर विदा कर दूंगा और राजकुमारी को अपने नगर में ले जाऊंगा। 

वर के पिता ने इसी संबंध में अमर और दीपचंद से बात की। दीपचंद ने धन मिलने के लालच में वर के पिता की बात स्वीकार कर ली। अमर को दूल्हे के वस्त्र पहनाकर राजकुमारी चंद्रिका से विवाह करा दिया गया। राजा ने बहुत-सा धन देकर राजकुमारी को विदा किया। 

अमर जब लौट रहा था तो सच नहीं छिपा सका और उसने राजकुमारी की ओढ़नी पर लिख दिया- 'राजकुमारी चंद्रिका, तुम्हारा विवाह तो मेरे साथ हुआ था, मैं तो वाराणसी में शिक्षा प्राप्त करने जा रहा हूं। अब तुम्हें जिस नवयुवक की पत्नी बनना पड़ेगा, वह काना है।' 

जब राजकुमारी ने अपनी ओढ़नी पर लिखा हुआ पढ़ा तो उसने काने लड़के के साथ जाने से इनकार कर दिया। राजा ने सब बातें जानकर राजकुमारी को महल में रख लिया। उधर अमर अपने मामा दीपचंद के साथ वाराणसी पहुंच गया। अमर ने गुरुकुल में पढ़ना शुरू कर दिया। 

जब अमर की आयु 16 वर्ष पूरी हुई तो उसने एक यज्ञ किया। यज्ञ की समाप्ति पर ब्राह्मणों को भोजन कराया और खूब अन्न, वस्त्र दान किए। रात को अमर अपने शयनकक्ष में सो गया। शिव के वरदान के अनुसार शयनावस्था में ही अमर के प्राण-पखेरू उड़ गए। सूर्योदय पर मामा अमर को मृत देखकर रोने-पीटने लगा। आसपास के लोग भी एकत्र होकर दुःख प्रकट करने लगे। 

मामा के रोने, विलाप करने के स्वर समीप से गुजरते हुए भगवान शिव और माता पार्वती ने भी सुने। पार्वतीजी ने भगवान से कहा- 'प्राणनाथ! मुझसे इसके रोने के स्वर सहन नहीं हो रहे। आप इस व्यक्ति के कष्ट अवश्य दूर करें।' 

भगवान शिव ने पार्वतीजी के साथ अदृश्य रूप में समीप जाकर अमर को देखा तो पार्वतीजी से बोले- 'पार्वती! यह तो उसी व्यापारी का पुत्र है। मैंने इसे सोलह वर्ष की आयु का वरदान दिया था। इसकी आयु तो पूरी हो गई।' 

पार्वतीजी ने फिर भगवान शिव से निवेदन किया- 'हे प्राणनाथ! आप इस लड़के को जीवित करें। नहीं तो इसके माता-पिता पुत्र की मृत्यु के कारण रो-रोकर अपने प्राणों का त्याग कर देंगे। इस लड़के का पिता तो आपका परम भक्त है। वर्षों से सोमवार का व्रत करते हुए आपको भोग लगा रहा है।' पार्वती के आग्रह करने पर भगवान शिव ने उस लड़के को जीवित होने का वरदान दिया और कुछ ही पल में वह जीवित होकर उठ बैठा। 

शिक्षा समाप्त करके अमर मामा के साथ अपने नगर की ओर चल दिया। दोनों चलते हुए उसी नगर में पहुंचे, जहां अमर का विवाह हुआ था। उस नगर में भी अमर ने यज्ञ का आयोजन किया। समीप से गुजरते हुए नगर के राजा ने यज्ञ का आयोजन देखा। 

राजा ने अमर को तुरंत पहचान लिया। यज्ञ समाप्त होने पर राजा अमर और उसके मामा को महल में ले गया और कुछ दिन उन्हें महल में रखकर बहुत-सा धन, वस्त्र देकर राजकुमारी के साथ विदा किया। 

रास्ते में सुरक्षा के लिए राजा ने बहुत से सैनिकों को भी साथ भेजा। दीपचंद ने नगर में पहुंचते ही एक दूत को घर भेजकर अपने आगमन की सूचना भेजी। अपने बेटे अमर के जीवित वापस लौटने की सूचना से व्यापारी बहुत प्रसन्न हुआ। 

व्यापारी ने अपनी पत्नी के साथ स्वयं को एक कमरे में बंद कर रखा था। भूखे-प्यासे रहकर व्यापारी और उसकी पत्नी बेटे की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि यदि उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का समाचार मिला तो दोनों अपने प्राण त्याग देंगे। 

व्यापारी अपनी पत्नी और मित्रों के साथ नगर के द्वार पर पहुंचा। अपने बेटे के विवाह का समाचार सुनकर, पुत्रवधू राजकुमारी चंद्रिका को देखकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। उसी रात भगवान शिव ने व्यापारी के स्वप्न में आकर कहा- 'हे श्रेष्ठी! मैंने तेरे सोमवार के व्रत करने और व्रतकथा सुनने से प्रसन्न होकर तेरे पुत्र को लंबी आयु प्रदान की है।' व्यापारी बहुत प्रसन्न हुआ। 

सोमवार का व्रत करने से व्यापारी के घर में खुशियां लौट आईं। शास्त्रों में लिखा है कि जो स्त्री-पुरुष सोमवार का विधिवत व्रत करते और व्रतकथा सुनते हैं उनकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं।


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 Sixteen monday fast

 Instead of doing the usual fast of Shiva on Monday, specific fasts of sixteen Mondays are also done for a specific purpose.  Use of salt is prohibited in these sixteen Mondays, make churma and eat it and eat it yourself.  This sixteen Monday fast can be started from Shravan, Karthik, Magh or any Monday in Vaisakh month.  After daily action and bath, wearing pure clothes, Shankar ji's Vilva Patra, Roli, rice, sandalwood, flowers, incense, lamp, honey, janeu, fruit and flower, metal fruit and flower, lotus gatta, hemp, lamp,  Worship devotion with well fruits etc.  Make a quarter of a kilo and offer it to Lord Shankar.  Leave it in the temple as an offering of one and a quarter to one hundred Shankar ji, the one and a half feet himself distribute it and distribute the rest as Prasad.  Take Churme Prasad and Falahar only once on the day of fasting.  Do not save anything for the second day.  Read or listen to the story of sixteen Monday fast and sleep near the idol of Lord Shiva at night.  One should worship the same idol or Shivling of Shiva on sixteen Mondays.  Observe the fast on the sixteenth Monday.  Also do night awakening on the day of Udipan and make a five-and-a-half kilogram Churma and offer it to Shankar.  Eat one and a half pav yourself and distribute the rest in Prasad form.

 


 In the scriptures and Puranas, Shravan Monday fast is called Amogha Faldai.  The fasting of Shravan Mondays to married women brings happiness, prosperity and respect in the family, while this fast for men leads to improvement in work-business, success in educational activities and financially.  If unmarried girls worship the Shiva family by law every Monday of Shravan, they get a good home and groom.


 monday vow stories


 According to Monday's story, a wealthy businessman lived in Amarpur city.  His business was spread far and wide.  Everybody respected that businessman in the city.  Despite all this, he was deeply saddened by the merchant conscience because that merchant had no son.


 He used to suffer the same anxiety day and night.  After his death, who will handle such a large business and wealth.


 With the desire of getting a son, he used to fast and worship Lord Shiva every Monday.  In the evening, the merchant used to go to the Shiva temple and light a lamp of ghee in front of Lord Shiva.


 Seeing the devotion of that merchant, one day Parvati said to Lord Shiva - 'O Prannath, this merchant is your true devotee.  For how long it has been regularizing the fast and worship of Monday.  God, you must fulfill the wishes of this businessman. '


 Lord Shiva said with a smile - 'O Parvati!  In this world, everyone gets fruit according to his karma.  As a creature performs, he gets the same result.


 Despite this, Parvatiji did not believe.  He urged and said- 'No Prannath!  You will have to fulfil this merchant's ambition.  This is your exclusive devotee.  Every Monday you duly fast and after eating the puja, offer you a meal by offering it as a bhog.  You have to give it the gift of son-birth.


 Seeing this much request of Parvati, Lord Shiva said- 'On your request, I give this merchant the gift of getting a son.  But his son will not live beyond sixteen years. '


 The same night, Lord Shiva appeared to that merchant in a dream and gave him the boon of getting a son and also told his son to live for sixteen years.


 The merchant was pleased with the blessing of God, but the worry of the young age of the son destroyed that happiness.  The merchant continued to observe Monday duly as before.  A few months later a beautiful son was born to her.  The son was born happy in the businessman's house.  The son-birth ceremony was celebrated with great pomp.


 The businessman was not happy with the birth of the son as he knew the secret of the son's young age.  No one knew this secret in the house.  The learned Brahmins named that son as Amar.


 When Amar was twelve years old, it was decided to send him to Varanasi for education.  The businessman called Amar's maternal uncle Deepchand and asked him to leave Varanasi to get education.  Amar went to get education with his maternal uncle.  On the way, wherever Amar and Deepchand stayed for the night, they used to perform sacrifices and provide food to Brahmins.


 After a long journey Amar and Deepchand arrive in a city.  The entire city was decorated in the joy of the marriage of the daughter of the king of that city.  The procession arrived at a certain time, but the groom's father was very worried because his son had one eye.  He was afraid that if the king came to know about this, he should not refuse the marriage.  This will bring disrepute to him.


 When the groom's father saw Amar, a thought came to his mind.  He thought why not make this boy a bride and marry the princess.  After marriage, I will give it away and will take the princess to my city.


 Var's father talked to Amar and Deepchand in this regard.  Deepchand accepted the promise of the groom's father in the greed to get the money.  Amar was married to Princess Chandrika wearing the groom's clothes.  The king gave away a lot of money to the princess.


 Amar could not hide the truth when he was returning and he wrote on the princess's veil - 'Princess Chandrika, you were married to me, I am going to get education in Varanasi.  Now the young man whose wife you have to become is Kana. '


 When the princess read what was written on her trousers, she refused to accompany the boy.  The king knowing everything and kept the princess in the palace.  Meanwhile, Amar reached Varanasi with his maternal uncle Deepchand.  Amar started studying in Gurukul.


 When Amar completed 16 years of age, he performed a yajna.  At the end of the yajna, the Brahmins were fed food and donated a lot of food and clothing.  Amar slept in his bedroom at night.  According to Shiva's boon, Amar's life and body flew at his death.  At sunrise, Uncle started crying and seeing Amar dead.  People from all around also gathered and started expressing sorrow.


 Lord Shiva and Mother Parvati also listened while passing near the maternal uncle's cry and moan.  Parvatiji said to God- 'Prannath!  I can not bear the cry of his cry.  You must remove this person's suffering.


 When Lord Shiva approached Amar in an invisible form with Parvati and saw Amar, he said to Parvati - 'Parvati!  He is the son of the same businessman.  I gave it a boon at the age of sixteen.  Its lifespan is complete.


 Parvatiji again requested Lord Shiva - 'O Prannath!  You make this boy alive.  Otherwise, its parents will cry and cry for life due to the son's death.  The father of this boy is your supreme devotee.  Fasting on Mondays for years is making you enjoy it.  At the insistence of Parvati, Lord Shiva gave the boy the boon of being alive and in a few moments he got up alive.


 After finishing his education, he went to his city with his maternal uncle.  The two walk to the same city where Amar was married.  In that city too, Amar conducted a yajna.  The king of the city, passing through, saw the ceremony of the yajna.


 The king immediately recognized Amar.  At the end of the yajna, the king took Amar and his maternal uncle to the palace and for a few days kept them in the palace and gave them a lot of money, clothes and left the princess.


 On the way, the king sent many soldiers along for protection.  Deepchand sent a messenger home as soon as he reached the town and sent information about his arrival.  The businessman was very pleased at the news of his son Amar returning alive.


 The businessman had locked himself in a room with his wife.  Hungry and thirsty, the merchant and his wife were waiting for their son.  He had pledged that both would give up their lives if they received the news of their son's death.


 The merchant arrived at the city gate with his wife and friends.  Hearing the news of her son's marriage, she was not happy to see daughter-in-law Princess Chandrika.  The same night Lord Shiva came in the businessman's dream and said- 'O bestower!  I have given a long life to your son, happy with your Monday fast and listening to the fast.  Businessman was very happy.


 The fast was returned to the merchant's house on Monday.  It is written in the scriptures that all the wishes of men and women who duly fast on Monday and listen to the fast are fulfilled.


आचार्य पंडित जी मिलेंगे

सनातन संस्कृति संस्काराे में आस्था रखने वाले सभी धर्म प्रेमी धर्मानुरागी परिवारों का स्वागत अभिनंदन । आपको बताते हर्ष हो रहा है। कि हमारे पं...