गुरुवार, 8 अप्रैल 2021

।।देवी पुष्पांजलि स्तोत्रम्

              ॥ देवी पुष्पांजलि स्तोत्रम् ॥ 

अयि गिरि नन्दिनि नन्दित मेदिनि विश्व - विनोदिनि नन्दिनुते 

गिरिवर विन्ध्य शिरोधि -निवासिनि विष्णु विलासिनि जिष्णुनुते। 

भगवति हे  शितिकण्ठ - कुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि   भूतिकृते 

जय जय हे  महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि  शैलसुते।।१ ।।


सुरवर वर्षिणि    दुर्धर धर्षिणि  दुर्मुख    मर्षिणि  हर्षरते 

त्रिभुवनपोषिणि शंकरतोषिणि कल्मषमोषिणि घोषरते ।

दनुज - निरोषिणि दितिसुत रोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते 

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि  शैलसुते।।२ ।।


अयिजगदम्ब ! कदम्ब - वन प्रियवासिनि तोषिणि हासरते 

शिखरि - शिरोमणि - तुंगहिमालय - श्रृंग - निजालय मध्यगते ।

मधु मधुरे मधु कैटभ - भञ्जिनि महिष विदारणि रासरते 

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि  शैलसुते।।३ ।।


अयि  निजहुँकृति - मात्रनिराकृत     धूम्रविलोचन - धूम्रशते 

समर - विशोषित - शोणित - रोषित बीजसमुद्भव बीजलते ।

शिव - शिव शुम्भ - निशुम्भ - महाहव तर्पित - भूत - पिशाचरते 

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि  शैलसुते।।४ ।।


अयि शतखण्ड विखण्डित रुण्ड वितुण्डित शुण्ड - गजाधिपते 

निज - भुजदण्ड - निपातित-चण्ड विपातित मुण्ड - भटाधिपते । 

रिपुगजगण्ड - विदारण - चण्ड  पराक्रम     शुण्ड - मृगाधिपते  

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि    शैलसुते।।५ ।।


धनुरनुसंग - रणक्षणसंग      परिस्फुरदंग् - नटत्कट के 

कनक - पिशंग - पृषत्कनिषंग रसद्भट श्रृंग - हताबटु के । 

हत - चतुरंग - बल - क्षितिरंग घटद् - बहुरंग - रटद्बटुके  

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।६ ।।


अयि रणदुर्मद - शत्रुवधोद्धर दुर्धर - निर्भर - शक्तिभृते 

चतुर - विचार - धुरीण - महाशय दूतकृत - प्रमथाधिपते । 

दुरित - दुरीह - दुराशय - दुर्मति दानवदूत - दुरन्तगते  

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।७ ।। 


अयि शरणागत वैरिवधू जन वीरवराभय दायिकरे  

त्रिभुवन मस्तक शूलविरोधि शिरोधि कृतामल शूलकरे ।

दुमि दुमितामर दुन्दुभिनाद मुहुर्मुखरीकृत दिङ् निकरे  

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।८ ।।


सुरललना - ततथेयित थेयित थाभिनयोत्तर - नृत्यरते 

कृतकुकुथा कुकुथोदि दडादिक तालकुतूहल गानरते ।

धुधुकुट - धूधुट - धिन्धिमितध्वनि धीर मृदङ्ग निनादरते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि  शैलसुते।।९ ।।


जय जय जाप्यजये जयशब्द परस्तुति - तत्पर - विश्वनुते 

झण - झण झिंझिम - झिंकृत नूपुर - शिञ्जित मोहित भूतपते ।

नटित नटार्ध - नटीनटनायक नाटित - नाट्य - सुगानरते 

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।१० ।।


अयि सुमनः सुमनः सुमनः सुमनः सुमनोरम - कान्तियुते 

 श्रितरजनी - रजनी - रजनी रजनी - रजनीकर - वक्त्रवृते ।

 सुनयन - विभ्रम - रभ्रम - रभ्रम रभ्रम - रभ्रमराभिदृते  

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि  शैलसुते।।११ ।।


महित - महाहव - मल्लमतल्लिक वल्लित - रल्लित- भल्लिरते 

विरचित बल्लि कपालिक पल्लिक झिल्लिक भिल्लिक वर्गवृते । 

श्रुतकृतफुल्ल - समुल्लसितारुण तल्लज - पल्लव - सल्ललिते 

जय जय हे  महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि   शैलसुते।।१२ ।।


अयि सुदतीजन - लालस - मानस मोहन - मन्मथ - राजसुते 

अविरल - गण्डगलन् - मदमेदुर मत्त - मत्तंगजराजपते ।

त्रिभुवन - भूषण - भूतकलानिधि रूप - पयोनिधि - राजसुते 

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि ! शैलसुते।।१३ ।।


कमलदलामल - कोमलकान्ति कलाकलितामल - भालतले 

सकल - विलास  कलानिलय - क्रम केलि चलत्कल - हंसकुले । 

अलिकुल संकुल - कुवलय मण्डल मौलिमिलद् - बकुलालिकुले 

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि ! शैलसुते।।१४ ।।


 करमुरलीरव - वर्जित - कूजित लजित - कोकिल - मंजुमते 

मिलित - पुलिंद मनोहर - गुञ्जित रञ्जित - शैल निकुञ्ज गते ।

निजगुण भूत - महाशबरीगण   सद्गुण सम्भृत - केलितले 

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।१५ ।।


 कटितट - पीत - दुकूल - विचित्र मयूख - तिरस्कृत - चंद्ररुचे 

जित  कनकाचल मौलि - पदोर्जित निर्झर कुञ्जर - कुम्भ कुचे । 

प्रणत - सुराऽसुर - मौलिमणि स्फुर दंशुक - सन्नख - चन्द्ररुचे 

 जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि   शैलसुते।।१६ ।।


विजित - सहस्र - करैक - सहस्र करैक - सहस्र - करैकनुते 

कृत - सुरतारक - संगरतारक     संगरताकर - सूनुनुते । 

सुरथ - समाधि - समान - समाधि समान - समाधिसुजाप्यरते 

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।१७ ।।


 पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे  

अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं नभवेत् । 

तव पदमेव परं पदमेमनु शीलयतो ममकि न शिवेः  

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि  शैलसुते।।१८ ।।


कनक - लसत् - कलशीकजलै रनुषिञ्चति तेऽङ्गण - रंगभुवम् 

भजति स कि न शची कुच कुम्भ नटी परिरम्भ - सुखानुभवम् ।

तवचरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवे 

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।१९ ।। 


तव विमलेन्दुकलं वदनेन्दुमलं सकलं न नुकूलयते 

किमु पुरुहूत - पुरींन्दुमुखी सुमुखीभिरसौ विमुखी क्रियते । 

मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमु न क्रियते 

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।२० ।।


अयिमयि दीनदयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे 

अयि जगतो जननी कृपयाऽसि यथाऽसि तथाअनुमतासिरते ।

यदुचितमत्रभवत्पुरगं    कुरुशाम्भवि देवि दयां कुरुमे  

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि ! रम्यकपर्दिनि  शैलसुते।।२१ ।।


स्तुतिमिमां स्तिमितः सुसमाधिना नियमतो यमतोऽनुदिनं पठेत् । 

परमया रमयापि निषेव्यते परिजनोऽरिजनोऽपि च तं भजेत्।।२२।।

             ॥ इति देवी पुष्पांजलि स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥

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आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
        वसई

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