गुरुवार, 16 जुलाई 2020

श्रावण मास में शिव पूजा कैसे करें।और क्यो की जाती है ।

श्रावण मास में रुद्रभिषेक शिव पूजन सोमवार व्रत का विशेष महत्व है।भगवान साम्बसदाशिव अपने भक्तों के लिए कल्याणकारी अमंगलहारी है वे भक्तों की पीड़ा व रक्षा के लिए हमेशा भक्तों साथ मे रहते है। जो मनुष्य सदा शिव पंचाक्षरी,, ॐ नमः शिवाय,, मंत्र का जप करता है।वह जन्मजन्मांतर के दुःखो व पुनरागमन से निवृत हो शिवलोक में वास करता है।भोलेनाथ जी को सावन का महिना प्रिय है।इसलिए भोले बाबा सावन मास में पृथ्वी में वास करते है।जो भी शिव भक्त सावन में शिव जी का जलाभिषेक करता है, भोलेनाथ उसके सारे कष्ट हर लेते है, भक्तो की सारी मनोकामना का पूर्ण करते है।     
 स्कन्द पुराण में लोमशजी कहते हैं ।जो मनुष्य शिवमन्दिरके ऑगन में झाडू लगाते हैं , वे निश्चय ही भगवान् शिवके लोकमें पहुँचकर सम्पूर्ण विश्वके लिये वन्दनीय हो जाते हैं । जो भगवान् शिवके लिये यहाँ अत्यन्त प्रकाशमान दर्पण अर्पण करते हैं , वे आगे चलकर शिवजी के सम्मुख उपस्थित रहनेवाले पार्षद हेंगे।जो लोग देवाधिदेव ,शूलपाणि ,शंकर को चवँर भेट करते हैं।वे त्रिलोकीमें जहाँ कही जन्म लेंगे,उनपर चँवर डुलता रहेगा । जो परमात्मा शिवकी प्रसनताके लिये धूप निवेदन करते हैं।वे पिता और नाना दोनोंके कुलोंका उद्धार करते हैं तथा भविष्य में यशस्वी होते हैं। जो लोग भगवान् हरि - हर के सम्मुख दीप दान करते है।वे भविष्य में तेजस्वी होते और दोनों कुलों का उद्धार करते हैं।जो मनुष्य हरि - हरके आगे नैवेद्य निवेदन करते हैं ,वे सम्पूर्ण यज्ञका फल पाते हैं।जो लोग टूटे हुए शिव मन्दिरको पुनः बनवा देते हैं,वे निस्सन्देद द्विगुण फल के भागी होते हैं।जो ईट अथवा पत्थर से भगवान् शिव तथा विष्णुके लिये नूतन मन्दिर निर्माण कराते हैं।वे तब तक स्वर्गलोक में आनन्द भोगते हैं।जबतक इस पृथ्वीपर उनकी यह कीर्ति स्थित रहती है।

श्रावण मास  मनुष्यों में ही नही अपितु पशु पक्षियों में भी एक नव चेतना का संचार करता है जब प्रकृति अपने पुरे यौवन पर होती है। नदी तालाब जल से भरपूर होते है। सावन में मौसम का परिवर्तन होने लगता है।प्रकृति हरियाली और फूलो से धरती का श्रुंगार करती है परन्तु धार्मिक परिदृश्य से सावन मास भगवान शिव को ही समर्पित रहता है।

श्रावण महीने में शिवजी का व्रत या उपवास रखा जाता है।श्रावण मास में पुरे माह भी व्रत रखा जाता है। इस महीने में प्रत्येक दिन स्कन्ध पुराण के एक अध्याय को अवश्य पढना चाहिए। यह महीना मनोकामनाओ का इच्छित फल प्रदान करने वाला माना जाता है। पुरे महीने शिव परिवार की विशेष पूजा की जाती है।

सावन मास में रखे गये व्रतो की महिमा अपरम्पार है।जब सती ने अपने पिता दक्ष के निवास पर शरीर त्याग दिया था उससे पूर्व महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था। पार्वती ने सावन के महीने में ही निराहार रहकर कठोर तप किया था और भगवान शंकर को पा लिया था। इसलिए यह मास विशेष हो गया और सारा वातावरण शिवमय हो गया।
इस अवधि में विवाह योग्य लडकियाँ इच्छित वर पाने के लिए सावन के सोमवारों पर व्रत रखती है इसमें भगवान शंकर के अलावा शिव परिवार अर्थात माता पार्वती , कार्तिकेय , नन्दी और गणेश जी की भी पूजा की जाती है। सोमवार को उपवास रखना श्रेष्ट माना जाता है।

श्रावण मास में भगवान शिव के कैलाश में आगमन के कारण व श्रावण मास भगवान शिव को प्रिय होने से की गई समस्त आराधना शीघ्र फलदाई होती है।पद्म पुराण के पाताल खंड के अष्टम अध्याय में ज्योतिर्लिंगों के बारे में कहा गया है कि जो मनुष्य इन द्वादश ज्योतिर्लिंगों के दर्शन करता है, उनकी समस्त कामनाओं की इच्छा पूर्ति होती है। स्वर्ग और मोक्ष का वैभव जिनकी कृपा से प्राप्त होता है।
श्रावण मास भी अपना विशेष महत्व रखता है। संपूर्ण महीने में चार सोमवार, एक प्रदोष तथा एक शिवरात्रि,हरितालिका तीज, नागपंचमी ये योग एकसाथ श्रावण महीने में मिलते हैं। इसलिए श्रावण का महीना अधिक फल देने वाला होता है।श्रावणमें पार्थिव शिवपूजाका विशेष महत्व है। अत: प्रतिदिन अथवा प्रति सोमवार तथा प्रदोष को शिवपूजा या पार्थिव शिवपूजा अवश्य करनी चाहिये।
प्रातःकाल स्नान ध्यान से निवृत्त हो मंदिर या घर पर श्री गणेश पंचांग पूजा करके शिवपंचायतन -शिव,पार्वती ,गणपति ,कार्तिकेय नंदी,नाग की पूजा की जाती है।भगवान भोलेनाथ को जल , दूध , दही , घी ,शहद, शक्कर,पंचामृत से स्नान कर रुद्रभिषेक करें ।वस्त्र जने‌ऊ , चंदन , भस्म,रोली , फूलमाला,बेल पत्र , भांग , धतूरा , आदि से अलंकृत करें।धूप , दीप दिखाकर नैवेद्य अर्पण करें, दक्षिणा आरती  प्रदक्षिणा नमस्कार करे।इस प्रकार से भगवान उमापति का पूजन किया जाता है। शिव की महिमा का गुणगान शिव स्त्रोत्र शिव चालीसा शिव पुराण का पाठ करें। इस मास में रुद्रभिषेक,लघुरुद्र, महारुद्र अथवा अतिरुद्र पाठ कराना चाहिए।

शास्त्रों और पुराणों में श्रावण मास को अमोघ फलदाई कहा गया है। 
-विवाहित महिलाओं को श्रावण मास में व्रत पूजन करने से   परिवार में खुशियां, समृद्घि और सम्मान व सन्तान का सुख   प्राप्त होता है, 
-पुरूषों को व्रत करने से कार्य-व्यवसाय में उन्नति,शैक्षणिक   गतिविधियों में सफलता और आर्थिक रूप से मजबूती मिलती    है। 
-अविवाहित लड़कियां यदि श्रावण के प्रत्येक सोमवार को शिव    परिवार का विधि-विधान से पूजन करती हैं तो उन्हें अच्छा घर   और वर मिलता है।
                             हर हर महादेेेव
आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
       वसई मुम्बई
  मो 9004013983
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                  English translation


Mahatmya of Shravan month.

 Rudrabhishek Shiva Pujan Monday fast is of special importance in Shravan month. Lord Sambasadasiva is a benevolent amalghari for his devotees.  The person who always chants the mantra, Shiva Panchakshari, ॐ Namah Shivaya, he stays in the Shivloka, having been relieved from the sorrows of the birth and the return of life. Bholenath ji is loved for the month of Saavan.  Whenever a Shiva devotee does the Jalabhishek of Shiva in the spring, Bholenath takes all his sufferings, fulfills all the wishes of the devotees.


 In Skanda Purana, Lomashji says. Those people who sweep under the fire of Shiv Mandir, they surely become worshipable for the whole world by reaching Lord Shiva's world.  Those who offer very bright mirrors here for Lord Shiva, they will later be the councilors who are present in front of Shiva. Those who offer the moon to Devadhidev, Shulapani, Shankar, and the trower will dwell wherever they are born in the triloki.  Those who request incense for the blessings of the divine Shiva, they save the clans of both father and grandfather and become glorious in the future.  Those who donate lamps in front of Lord Hari-Hara. They are bright in future and save both clans. Those who request Naivedya before Hari-Hara get the fruits of complete Yajna. Those who break the broken Shiva temple.  They get rebuilt, they are part of the blissful double-fruit. They build new temples for Lord Shiva and Vishnu with bricks or stones. They enjoy joy in the heavens till then, so that their fame is situated on this earth.


 The month of Shravan communicates a new consciousness not only in humans but also in animal birds when nature is at its full puberty.  River ponds are full of water.  The weather changes in the spring. The nature adorns the earth with greenery and flowers, but with the religious landscape, the month of Savan remains dedicated to Lord Shiva.


 The fast or fast of Shiva is kept in the month of Shravan. In the month of Shravan, fast is also kept for the whole month.  Every day in this month one chapter of Skandha Purana must be read.  This month is considered to provide the desired fruit of the desire.  Shiva family is specially worshiped throughout the month.


 The glory of the vrato kept in the month of Savan is incomparable. Before Sati sacrificed her body at the residence of her father Daksha, before that Mahadev pledged to get her as a husband in every birth.  Parvati had meditated hard during the month of Savan and had attained Lord Shankar.  Therefore this month became special and the whole atmosphere became shiva.

 


 In this period, the marriageable girls fast on Mondays of the month to get the desired groom.In addition to Lord Shankar, the Shiva family i.e. Mother Parvati, Karthikeya, Nandi and Ganesh ji are also worshiped.  Fasting on Monday is considered best.


 Due to the arrival of Lord Shiva in Kailash in Shravan month and the worship of Lord Shiva in the month of Shravan, all the worship is done quickly. In the eight chapter of the Patala section of Padma Purana, Jyotirlinga is said to be the man  Visiting the Jyotirlingas, their wishes are fulfilled.  The splendor of heaven and salvation is obtained by whose grace.

 The Shravan month also holds its special significance.  In the whole month, there are four Mondays, one Pradosh and one Shivaratri, Haritalika Teej, Nagpanchami, these yoga together in the month of Shravan.  Therefore, the month of Shravan is more fruitful. Earth Shiva Puja has special significance in Shravan.  Therefore, every day or every Monday, Pradosh must do Shiv Puja or earthly Shiv Puja.

 


 Early in the morning, take a bath and meditate on Shri Ganesh Panchang at the temple or at home.  Take bath and perform Rudrabhishekam. Adorn the clothes with Janeu, Chandan, Bhasma, Roli, Phoolamala, Bel Patra, Cannabis, Dhatura, etc.  goes.  Praise Shiva's glory Read Shiva Stotra Shiva Chalisa Shiva Purana.  Rudrabhishek, Laghurudra, Mahaudra or Adhudra should be recited during this month.


 In the scriptures and the Puranas, the month of Shravan is called Amogha Faldai.

 Worshiping married women during fasting in Shravan month brings happiness, prosperity and respect and happiness of children in the family,

 Fasting men helps in progress in business, success in educational activities and financially.

 If unmarried girls worship the Shiva family by law every Monday of Shravan, they get a good home and groom.

 

 Har har mahadev

 Acharya Harish Chandra Lakheda

 Vasai Mumbai

 Mo 9004013983

बुधवार, 15 जुलाई 2020

माँ देवी भगवती की मंत्र स्तुति


माँ पराम्बा भगवती राज राजेश्वरी बालात्रिपुरसुन्दरी श्रीमहाकाली,महालक्ष्मी,महासरस्वती माँ करुणामयी,दयामयी ,क्षमामयी,कृपामयी,ममतामयी चराचर की स्वामिनी माँ जगदम्बा को कोटि कोटि प्रणाम ।।

नित्य पूजा में आरति पुष्पांजलि द्वारा माँ कुलदेवी को प्रसन्न करें।माँ सबकी मनोकामना पूर्ण करती है। 

                 ।।प्रार्थना ॥

ततो मन्त्रपुष्पाञ्जलिसमर्पणानन्तरं प्रार्थयेत् - 


ॐ महिषघ्नी महा माये चामुण्डे मुण्डमालिनि । 

आयुरारोग्य विजयं देहि देवि नमोऽस्तु ते ॥ १॥ 

भूत प्रेत पिशाचेभ्यो रक्षोभ्यः परमेश्वरि । 

भयेभ्यो मानुषेभ्यश्च दैवेभ्यो रक्ष मा सदा ॥ २ ।। 

सर्वमङ्गल मङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके । 

उमे ब्रह्माणि कौमारि विश्वरूपे प्रसीद में ॥ ३ ॥ 

कुंकुमेन समालब्धे चन्दनेन विलेपिते । 

बिल्वपत्र कृतापीड़े दुर्गे त्वां शरणं गतः ॥ ४ ॥ 

गतं पापं गतं दुःखं गतं दारिद्यमेव च । 

आगता सुखसम्पत्तिः पुण्याच्च तव दर्शनात् ॥ ५॥

हर पापं हर क्लेशं हर शोकं हरासुखम् । 

हर रोगं हर क्षोभं हर मारी हरप्रिये ॥६ ॥ 

कायेन मनसा वाचा कर्मणा यत्कृतं मया । 

ज्ञाना ज्ञान कृतं पापं दुर्गे त्वं हर दुर्गतिम् ॥ ७ ॥ 

दुर्गे त्वत्प्रज्ञया नित्यं कृता पूजा तवा ज्ञया । 

स्थिरा भव गृहे ह्यस्मिन् मम सौख्यकरी भव ॥ ८ ॥


श्री दुर्गा जी की स्तुति 💐💐💐


जय जय त्रिभुवन वन्दिनी,गिरिनन्दिनि हे गिरिनन्दिनि हे।              

                 असुर निकन्दनी ,मातु जय जय शम्भूप्रिये ।।


त्रिगुण शक्ति निज धारणि,शुभकारिणि हे,शुभकारिणि हे।                  

                      भक्त उधारन मातु जय जय शम्नुप्रिये ।।


मधु कैटभ संहारिणी ,सुरतारिणी हे,सुरतारिणि हे।


          महिष विदारिणी मातु जय जय शम्भूप्रिये ॥


धूम्रविलोचनी,मोचिनि,त्रयलोचनि हे,त्रयलोचनि हे,।


             दुःख विमोचनी मातु जय जय शम्भूप्रिये।।


चण्ड मुण्ड भट मर्दिनि सुविलासिनि हे,सुविलासिनि हे ।                

               मन्द हसनि शुर मातु, जय जय शम्भूप्रिये।। 


रक्तबीज रुधिरासिनि , भयनासिनि हे . भयनासिनि हे।                    

                भूधर वासिनि मातु . जय जय शम्भूप्रिये।।


शुम्भ निशुम्भ विभंजनी , रिपुगंजनि हे, रिपुगंजनि हे।                 

            शिव मन रंजनी मातुम जय जय शम्भुप्रिये । ।


धरणीधर वरदायिनि , वरदायिनि हे, वरदायिनि हे।                      

              मृगरिपु वाहन मातु जप जय शम्भुप्रिये।। 


भूल चूक सब कर क्षमा करुणामयी हे, करुणामयी हे।               

          शिर पर रख माँ हाथ मातु जय जय शम्भूप्रिये।।


दुर्गे  दुर्गति नाशिनि , दुर्मति हरिये, दुर्मति हरिये । 


            शुद्ध बुद्धि दे मातु जय. जय शम्भुप्रिये।।

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श्रीशिवमानसपूजा

    ★★★श्रीशिवमानसपूजा ★★★


रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं ।        नानारत्नविभूषितं मृगमदा मोदाङ्कितं  चन्दनम् ।।        
जाती चम्पक बिल्वपत्र रचितं पुष्पं च धूपं तथा  ।
दीपं देव दयानिधे पशुपते हत्कल्पितं गृह्यताम् ॥१ ॥ 

 सौवर्णे नवरत्न  खण्ड  रचिते पात्रे  घृतं पायसं ।
 भक्ष्यं पञ्चविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम् ।।
 शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूर खण्डोज्ज्वलं ।    
 ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु ॥२॥

 छत्रं चामरयोर्युगं  व्यजनकं  चादर्शकं निर्मलं।                 वीणाभेरि मृदङ्ग काहलकला गीतं च नृत्यं तथा ।।
 साष्टाङ्गं प्रणतिः स्तुतिर्बहुविधा ह्येतत्समस्तं मया ।
 सङ्कल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो ॥ ३ ॥

   आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं।
   पूजा ते विषयोप भोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः ।।
   सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो।
   यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ॥४ ॥
   
             करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा ।
             श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् ।।
             विहित मविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व ।
            जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥५ ॥  

।।इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचिता शिवमानसपूजा समाप्ता ।।


गुरुवार, 9 जुलाई 2020

नागपंचमी के दिन करें ,नगों की पूजा

 नागपंचमी ( श्रावण शुक्ला पंचमी ) 

इस दिन नागों की पूजा होती है । इस व्रत में चतुर्थी को केवल एक बार भोजन करे और पंचमी के दिन उपवास करके शाम को भोजन करे । चांदी , सोने या काठ की कलम से हल्दी की स्याही बनाकर पांच फन वाले पांच नाग अंकित करें । पंचमी के दिन दूध, पंचामृत , खीर , धूप , दीप नैवेद्य आदि से विधिवत नागों की पूजा करे । पूजा के बाद ब्राहाणों को लड्डू या खीर का भोजन करावे। पंचमी को नाग की पूजा करने वाले व्यक्ति को उस दिन भूमि नहीं खोदनी चाहिए । 

प्राचीन काल में तो घरों को इस दिन गोबर में गेरु मिलाकर लीपा जाता था और फिर पूर्ण विधिविधान  नाग देवता की पूजा की जाती थी। इस हेतु एक रस्सी में सात गांठें लगा कर रस्सी का सांप बनाकर उसे एक लकड़ी के पट्टे पर सांप मानकर बिठाया जाता है।हल्दी, रोली, चावल और फूल आदि चढ़ाकर नाग देवता की पूजा करने के बाद कच्चा दूध , घी , चीनी मिलाकर इसे काठ पर बैठे सर्प देवता को अर्पित करें।इस समय इस श्लोक से सर्प देवता की स्तुति करनी चाहिए-


 अनन्त वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कंबलम् । 

 शंखपालं धार्तराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा ।।


नवनाग गायत्री-

ॐ नवकुलाय विदमहे विषदन्ताय धीमहि। तन्नो सर्पः प्रचोदयात।।

बाद में कच्चे दूध में शहद ,चीनी या थोड़ा सा गुड़ घोलकर इसे जहां कहीं सांप की बाँबी या बिल दीखे उसमें डाल दें ।और उस बिल की मिट्टी लेकर चक्की , चूल्हे पर , दरवाजे के निकट दीवार पर तथा घर के कोनों में सांप बनायें । कच्चे चावल पीस कर उसमें पानी डालकर घोल से भी यै आकृतियां अंकित की जा सकती हैं ।इन सबको बनाने के बाद भीगे हुए बाजरे और घी , गुड़ से इनकी पूजा करे।इन पर दक्षिणा चढ़ायी जाय , इनकी घी के दीपक से आरती उतारी जाय।अन्त में नागपंचमी की कथा कहें और सुनें ।


नागपंचमीकथा -


मनिपुर नगर में एक किसान अपने परिवार सहित रहता था । उसके दो लड़के और एक कन्या थी । एक दिन उसके हल के फाल में बिंधकर सांप को तीन बच्चे मर गये । बच्चों की  मां नागिन ने पहले तो बहुत विलाप किया , फिर अपने बच्चों को मारने वाले से बदला लेने का निश्चय किया । रात्रि में नागिन ने किसान , उसकी स्त्री और दोनों पुत्रों को डस लिया । अगले दिन नागिन किसान की कन्या को डसने चली तो उस कन्या ने डर कर उसके आगे दूध का कटोरा रख दिया और हाथ जोड़ कर क्षमा मांगने लगी । उस दिन नागपंचमी थी । नागिन ने प्रसन्न होकर लड़की से वर मांगने को कहा । लड़की ने वर मांगा कि मेरे माता - पिता और दोनों भाई जीवित हो जायें और जो आज के दिन नागों की पूजा करे उसे कभी नाग के डसने की बाधा न हो । नागिन लड़की को वरदान देकर चली गई । तभी किसान , उसकी स्त्री और दोनों पुत्र जीवित हो गये । 

कालसर्प दोष शान्ति-

श्रावण शुक्ल पक्ष नागपंचमी के दिन सर्प का पूजन व दूध से स्नान और दूध पिलाने का विधान है इस दिन नाग नागिन के पूजन से जीव जन्तु के काटने के बाद विष का भय नही होता है।नाग पंचमी के दिन कालसर्प दोष शान्ति के लिए विशेष शुभ माना गया है।


जिस जातक की कुण्डली में काल सर्प दोष हो उन्हें सर्प के जोड़े का पूजन करने के बाद सर्प देव की आरती करें। पूजन के बाद सर्प जोड़े को बहते पानी या तालाब में विसर्जित करे। 



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श्रीनवग्रह स्त्रोत्रं

           💐 ।। श्रीनवग्रहस्तोत्रम्।।💐
    जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महा द्युतिम्। 
    तमोऽरिं सर्वपापघ्नं   प्रणतोस्मि दिवकरम। १ ।।

    दधिशंख तुषाराभं  क्षीरोदार्णव सम्भवम् ।
    नमामि शशिनं सोमं शाभोर्मुकूट भूषणम् ॥ २ ॥ 

    धरणीगर्भसूम्भूतं विद्युत कान्ति समप्रभम् । 
    कुमारं शक्तिहस्तं तं  मङ्गलं  प्रणमाम्यहम् ॥ ३ ॥

    प्रियंगु कलिकाश्यामं रूपेणापतिमं बुद्धम ।
    सौम्यं सौम्यगुणोपेतं तं बुधं  प्रणमाम्यहम् ।। ४ ।।

    देवानां च ऋषीणां च गुरु काञ्चनसंनिभम् । 
    बुद्धि भूतं त्रिलोकेशं तं नमामि  बृहस्पतिम् ॥ ५ ॥ 

    हिमकुन्द मृणा  लाभं  दैत्यानां  परमं गुरुम् । 
    सर्वशास्त्र  प्रवक्तारं  भार्गवं   प्रणमाम्यहम् ।।६ ।।

    नीलाञ्जन   समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम् ।
    छाया मार्तण्ड सम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम ॥ ७ ॥ 

    अर्धकायं महावीर्यं चन्द्रा  दित्य विमर्दनम् ।
    सिहिका  गर्भसम्भूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम् ॥ ८ ॥

    पलाश पुष्प सकाशं तारका ग्रहमस्तकम् । ।
    रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं   प्रणमाम्यहम् ॥ ९ ॥ 

    इति व्यास मखोद्गीतं यः पठेत सुसमाहितः । 
    दिवा वा यदि वा रात्रो विध्न शांतिर्भविष्यति।।१० ।।

    नरनारी नृपाणाम च भवेद दुःस्वप्न नाशनम
    ऐश्वर्य  मतुलं  तेषामारोग्यं   पुष्टि  वर्धनम ।।११।।

  ।।  महर्षिव्यासविरचितं नवग्रहस्त्रोत्रं  सम्पूर्णम।।



                     आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
                             वसई मुम्बई
                         मो 9004013983

बुधवार, 8 जुलाई 2020

सोलह सोमवार व्रत

सोलह सोमवार व्रत

 सोमवार के दिन शिवजी के सामान्य व्रत करने के स्थान पर विशिष्ट प्रयोजन हेतु सोलह सोमवारों के विशिष्ट व्रत भी किए जाते है । सोलह सोमवार के इन व्रतों में नमक का प्रयोग वर्जित है , चूरमा बनाकर उसका ही भोग लगाते और स्वयं खाते हैं । यह सोलह सोमवार का व्रत श्रावण , कार्तिक , माघ अथवा वैसाख माह के किसी भी सोमवार से प्रारम्भ किया जा सकता है । नित्य क्रिया और स्नान के पश्चात् शुद्ध वस्त्र धारण कर शंकरजी का विल्व पत्र , दूध दही घी शहद शक्कर पंचामृत से स्नान वस्त्र, जनेऊ, रोली, चंदन ,अक्षत पुष्प हार, धूप , दीप , नैवेद्य,धतूरे का फल तथा फूल , आक का फल तथा फूल , कमल गट्टा , भांग , वेल फल दक्षिणा इत्यादि से भक्तिपूर्वक पूजन करें । सवा किलो चूरमा बनाकर शंकरजी का भोग लगावें । सवा पाव शंकरजी के भोग के रूप में मन्दिर में छोड़ दें , सवा पाव स्वयं खावें और शेष को प्रसाद के रूप में वितरित करें । व्रत के दिन एक बार ही चूरमे का प्रसाद तथा फलाहार लें । दूसरे दिन के लिए कुछ भी बचाकर न रखा जाए । सोलह सोमवार के व्रत की कथा पढ़ें अथवा सुनें और रात्रि में भगवान् शिवजी की प्रतिमा के समीप ही शयन करें । शिवजी की एक ही प्रतिमा अथवा शिवलिंग का सोलहों सोमवारों को पूजन करना चाहिए । सोलहवें सोमवार को व्रत का उद्यापन करें । उद्यापन के दिन रात्रि जागरण भी करें तथा सवा पांच किलो का चूरमा बनाकर शंकरजी पर चढ़ायें । सवा पाव स्वयं खाएं और और शेष प्रसाद रूप में वितरित कर दें । 

शास्त्रों और पुराणों में श्रावण सोमवार व्रत को अमोघ फलदाई कहा गया है। विवाहित महिलाओं को श्रावण सोमवार का व्रत करने से परिवार में खुशियां, समृद्घि और सम्मान प्राप्त होता है, जबकि पुरूषों को इस व्रत से कार्य-व्यवसाय में उन्नति, शैक्षणिक गतिविधियों में सफलता और आर्थिक रूप से मजबूती मिलती है। अविवाहित लड़कियां यदि श्रावण के प्रत्येक सोमवार को शिव परिवार का विधि-विधान से पूजन करती हैं तो उन्हें अच्छा घर और वर मिलता है।

 सोमवार व्रत कथा----

 सोमवार की  कथा के अनुसार अमरपुर नगर में एक धनी व्यापारी रहता था। दूर-दूर तक उसका व्यापार फैला हुआ था। नगर में उस व्यापारी का सभी लोग मान-सम्मान करते थे। इतना सबकुछ होने पर भी वह व्यापारी अंतर्मन से बहुत दुखी था क्योंकि उस व्यापारी का कोई पुत्र नहीं था। 

दिन-रात उसे एक ही चिंता सताती रहती थी। उसकी मृत्यु के बाद उसके इतने बड़े व्यापार और धन-संपत्ति को कौन संभालेगा। 

पुत्र पाने की इच्छा से वह व्यापारी प्रति सोमवार भगवान शिव की व्रत-पूजा किया करता था। सायंकाल को व्यापारी शिव मंदिर में जाकर भगवान शिव के सामने घी का दीपक जलाया करता था। 

उस व्यापारी की भक्ति देखकर एक दिन पार्वती ने भगवान शिव से कहा- 'हे प्राणनाथ, यह व्यापारी आपका सच्चा भक्त है। कितने दिनों से यह सोमवार का व्रत और पूजा नियमित कर रहा है। भगवान, आप इस व्यापारी की मनोकामना अवश्य पूर्ण करें।' 

भगवान शिव ने मुस्कराते हुए कहा- 'हे पार्वती! इस संसार में सबको उसके कर्म के अनुसार फल की प्राप्ति होती है। प्राणी जैसा कर्म करते हैं, उन्हें वैसा ही फल प्राप्त होता है।' 

इसके बावजूद पार्वतीजी नहीं मानीं। उन्होंने आग्रह करते हुए कहा- 'नहीं प्राणनाथ! आपको इस व्यापारी की इच्छा पूरी करनी ही पड़ेगी। यह आपका अनन्य भक्त है। प्रति सोमवार आपका विधिवत व्रत रखता है और पूजा-अर्चना के बाद आपको भोग लगाकर एक समय भोजन ग्रहण करता है। आपको इसे पुत्र-प्राप्ति का वरदान देना ही होगा।' 

पार्वती का इतना आग्रह देखकर भगवान शिव ने कहा- 'तुम्हारे आग्रह पर मैं इस व्यापारी को पुत्र-प्राप्ति का वरदान देता हूं। लेकिन इसका पुत्र सोलह वर्ष से अधिक जीवित नहीं रहेगा।' 

उसी रात भगवान शिव ने स्वप्न में उस व्यापारी को दर्शन देकर उसे पुत्र-प्राप्ति का वरदान दिया और उसके पुत्र के सोलह वर्ष तक जीवित रहने की बात भी बताई। 

भगवान के वरदान से व्यापारी को खुशी तो हुई, लेकिन पुत्र की अल्पायु की चिंता ने उस खुशी को नष्ट कर दिया। व्यापारी पहले की तरह सोमवार का विधिवत व्रत करता रहा। कुछ महीने पश्चात उसके घर अति सुंदर पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र जन्म से व्यापारी के घर में खुशियां भर गईं। बहुत धूमधाम से पुत्र-जन्म का समारोह मनाया गया। 

व्यापारी को पुत्र-जन्म की अधिक खुशी नहीं हुई क्योंकि उसे पुत्र की अल्प आयु के रहस्य का पता था। यह रहस्य घर में किसी को नहीं मालूम था। विद्वान ब्राह्मणों ने उस पुत्र का नाम अमर रखा। 

जब अमर बारह वर्ष का हुआ तो शिक्षा के लिए उसे वाराणसी भेजने का निश्चय हुआ। व्यापारी ने अमर के मामा दीपचंद को बुलाया और कहा कि अमर को शिक्षा प्राप्त करने के लिए वाराणसी छोड़ आओ। अमर अपने मामा के साथ शिक्षा प्राप्त करने के लिए चल दिया। रास्ते में जहां भी अमर और दीपचंद रात्रि विश्राम के लिए ठहरते, वहीं यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते थे। 

लंबी यात्रा के बाद अमर और दीपचंद एक नगर में पहुंचे। उस नगर के राजा की कन्या के विवाह की खुशी में पूरे नगर को सजाया गया था। निश्चित समय पर बारात आ गई लेकिन वर का पिता अपने बेटे के एक आंख से काने होने के कारण बहुत चिंतित था। उसे इस बात का भय सता रहा था कि राजा को इस बात का पता चलने पर कहीं वह विवाह से इनकार न कर दें। इससे उसकी बदनामी होगी। 

वर के पिता ने अमर को देखा तो उसके मस्तिष्क में एक विचार आया। उसने सोचा क्यों न इस लड़के को दूल्हा बनाकर राजकुमारी से विवाह करा दूं। विवाह के बाद इसको धन देकर विदा कर दूंगा और राजकुमारी को अपने नगर में ले जाऊंगा। 

वर के पिता ने इसी संबंध में अमर और दीपचंद से बात की। दीपचंद ने धन मिलने के लालच में वर के पिता की बात स्वीकार कर ली। अमर को दूल्हे के वस्त्र पहनाकर राजकुमारी चंद्रिका से विवाह करा दिया गया। राजा ने बहुत-सा धन देकर राजकुमारी को विदा किया। 

अमर जब लौट रहा था तो सच नहीं छिपा सका और उसने राजकुमारी की ओढ़नी पर लिख दिया- 'राजकुमारी चंद्रिका, तुम्हारा विवाह तो मेरे साथ हुआ था, मैं तो वाराणसी में शिक्षा प्राप्त करने जा रहा हूं। अब तुम्हें जिस नवयुवक की पत्नी बनना पड़ेगा, वह काना है।' 

जब राजकुमारी ने अपनी ओढ़नी पर लिखा हुआ पढ़ा तो उसने काने लड़के के साथ जाने से इनकार कर दिया। राजा ने सब बातें जानकर राजकुमारी को महल में रख लिया। उधर अमर अपने मामा दीपचंद के साथ वाराणसी पहुंच गया। अमर ने गुरुकुल में पढ़ना शुरू कर दिया। 

जब अमर की आयु 16 वर्ष पूरी हुई तो उसने एक यज्ञ किया। यज्ञ की समाप्ति पर ब्राह्मणों को भोजन कराया और खूब अन्न, वस्त्र दान किए। रात को अमर अपने शयनकक्ष में सो गया। शिव के वरदान के अनुसार शयनावस्था में ही अमर के प्राण-पखेरू उड़ गए। सूर्योदय पर मामा अमर को मृत देखकर रोने-पीटने लगा। आसपास के लोग भी एकत्र होकर दुःख प्रकट करने लगे। 

मामा के रोने, विलाप करने के स्वर समीप से गुजरते हुए भगवान शिव और माता पार्वती ने भी सुने। पार्वतीजी ने भगवान से कहा- 'प्राणनाथ! मुझसे इसके रोने के स्वर सहन नहीं हो रहे। आप इस व्यक्ति के कष्ट अवश्य दूर करें।' 

भगवान शिव ने पार्वतीजी के साथ अदृश्य रूप में समीप जाकर अमर को देखा तो पार्वतीजी से बोले- 'पार्वती! यह तो उसी व्यापारी का पुत्र है। मैंने इसे सोलह वर्ष की आयु का वरदान दिया था। इसकी आयु तो पूरी हो गई।' 

पार्वतीजी ने फिर भगवान शिव से निवेदन किया- 'हे प्राणनाथ! आप इस लड़के को जीवित करें। नहीं तो इसके माता-पिता पुत्र की मृत्यु के कारण रो-रोकर अपने प्राणों का त्याग कर देंगे। इस लड़के का पिता तो आपका परम भक्त है। वर्षों से सोमवार का व्रत करते हुए आपको भोग लगा रहा है।' पार्वती के आग्रह करने पर भगवान शिव ने उस लड़के को जीवित होने का वरदान दिया और कुछ ही पल में वह जीवित होकर उठ बैठा। 

शिक्षा समाप्त करके अमर मामा के साथ अपने नगर की ओर चल दिया। दोनों चलते हुए उसी नगर में पहुंचे, जहां अमर का विवाह हुआ था। उस नगर में भी अमर ने यज्ञ का आयोजन किया। समीप से गुजरते हुए नगर के राजा ने यज्ञ का आयोजन देखा। 

राजा ने अमर को तुरंत पहचान लिया। यज्ञ समाप्त होने पर राजा अमर और उसके मामा को महल में ले गया और कुछ दिन उन्हें महल में रखकर बहुत-सा धन, वस्त्र देकर राजकुमारी के साथ विदा किया। 

रास्ते में सुरक्षा के लिए राजा ने बहुत से सैनिकों को भी साथ भेजा। दीपचंद ने नगर में पहुंचते ही एक दूत को घर भेजकर अपने आगमन की सूचना भेजी। अपने बेटे अमर के जीवित वापस लौटने की सूचना से व्यापारी बहुत प्रसन्न हुआ। 

व्यापारी ने अपनी पत्नी के साथ स्वयं को एक कमरे में बंद कर रखा था। भूखे-प्यासे रहकर व्यापारी और उसकी पत्नी बेटे की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि यदि उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का समाचार मिला तो दोनों अपने प्राण त्याग देंगे। 

व्यापारी अपनी पत्नी और मित्रों के साथ नगर के द्वार पर पहुंचा। अपने बेटे के विवाह का समाचार सुनकर, पुत्रवधू राजकुमारी चंद्रिका को देखकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। उसी रात भगवान शिव ने व्यापारी के स्वप्न में आकर कहा- 'हे श्रेष्ठी! मैंने तेरे सोमवार के व्रत करने और व्रतकथा सुनने से प्रसन्न होकर तेरे पुत्र को लंबी आयु प्रदान की है।' व्यापारी बहुत प्रसन्न हुआ। 

सोमवार का व्रत करने से व्यापारी के घर में खुशियां लौट आईं। शास्त्रों में लिखा है कि जो स्त्री-पुरुष सोमवार का विधिवत व्रत करते और व्रतकथा सुनते हैं उनकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं।


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 Sixteen monday fast

 Instead of doing the usual fast of Shiva on Monday, specific fasts of sixteen Mondays are also done for a specific purpose.  Use of salt is prohibited in these sixteen Mondays, make churma and eat it and eat it yourself.  This sixteen Monday fast can be started from Shravan, Karthik, Magh or any Monday in Vaisakh month.  After daily action and bath, wearing pure clothes, Shankar ji's Vilva Patra, Roli, rice, sandalwood, flowers, incense, lamp, honey, janeu, fruit and flower, metal fruit and flower, lotus gatta, hemp, lamp,  Worship devotion with well fruits etc.  Make a quarter of a kilo and offer it to Lord Shankar.  Leave it in the temple as an offering of one and a quarter to one hundred Shankar ji, the one and a half feet himself distribute it and distribute the rest as Prasad.  Take Churme Prasad and Falahar only once on the day of fasting.  Do not save anything for the second day.  Read or listen to the story of sixteen Monday fast and sleep near the idol of Lord Shiva at night.  One should worship the same idol or Shivling of Shiva on sixteen Mondays.  Observe the fast on the sixteenth Monday.  Also do night awakening on the day of Udipan and make a five-and-a-half kilogram Churma and offer it to Shankar.  Eat one and a half pav yourself and distribute the rest in Prasad form.

 


 In the scriptures and Puranas, Shravan Monday fast is called Amogha Faldai.  The fasting of Shravan Mondays to married women brings happiness, prosperity and respect in the family, while this fast for men leads to improvement in work-business, success in educational activities and financially.  If unmarried girls worship the Shiva family by law every Monday of Shravan, they get a good home and groom.


 monday vow stories


 According to Monday's story, a wealthy businessman lived in Amarpur city.  His business was spread far and wide.  Everybody respected that businessman in the city.  Despite all this, he was deeply saddened by the merchant conscience because that merchant had no son.


 He used to suffer the same anxiety day and night.  After his death, who will handle such a large business and wealth.


 With the desire of getting a son, he used to fast and worship Lord Shiva every Monday.  In the evening, the merchant used to go to the Shiva temple and light a lamp of ghee in front of Lord Shiva.


 Seeing the devotion of that merchant, one day Parvati said to Lord Shiva - 'O Prannath, this merchant is your true devotee.  For how long it has been regularizing the fast and worship of Monday.  God, you must fulfill the wishes of this businessman. '


 Lord Shiva said with a smile - 'O Parvati!  In this world, everyone gets fruit according to his karma.  As a creature performs, he gets the same result.


 Despite this, Parvatiji did not believe.  He urged and said- 'No Prannath!  You will have to fulfil this merchant's ambition.  This is your exclusive devotee.  Every Monday you duly fast and after eating the puja, offer you a meal by offering it as a bhog.  You have to give it the gift of son-birth.


 Seeing this much request of Parvati, Lord Shiva said- 'On your request, I give this merchant the gift of getting a son.  But his son will not live beyond sixteen years. '


 The same night, Lord Shiva appeared to that merchant in a dream and gave him the boon of getting a son and also told his son to live for sixteen years.


 The merchant was pleased with the blessing of God, but the worry of the young age of the son destroyed that happiness.  The merchant continued to observe Monday duly as before.  A few months later a beautiful son was born to her.  The son was born happy in the businessman's house.  The son-birth ceremony was celebrated with great pomp.


 The businessman was not happy with the birth of the son as he knew the secret of the son's young age.  No one knew this secret in the house.  The learned Brahmins named that son as Amar.


 When Amar was twelve years old, it was decided to send him to Varanasi for education.  The businessman called Amar's maternal uncle Deepchand and asked him to leave Varanasi to get education.  Amar went to get education with his maternal uncle.  On the way, wherever Amar and Deepchand stayed for the night, they used to perform sacrifices and provide food to Brahmins.


 After a long journey Amar and Deepchand arrive in a city.  The entire city was decorated in the joy of the marriage of the daughter of the king of that city.  The procession arrived at a certain time, but the groom's father was very worried because his son had one eye.  He was afraid that if the king came to know about this, he should not refuse the marriage.  This will bring disrepute to him.


 When the groom's father saw Amar, a thought came to his mind.  He thought why not make this boy a bride and marry the princess.  After marriage, I will give it away and will take the princess to my city.


 Var's father talked to Amar and Deepchand in this regard.  Deepchand accepted the promise of the groom's father in the greed to get the money.  Amar was married to Princess Chandrika wearing the groom's clothes.  The king gave away a lot of money to the princess.


 Amar could not hide the truth when he was returning and he wrote on the princess's veil - 'Princess Chandrika, you were married to me, I am going to get education in Varanasi.  Now the young man whose wife you have to become is Kana. '


 When the princess read what was written on her trousers, she refused to accompany the boy.  The king knowing everything and kept the princess in the palace.  Meanwhile, Amar reached Varanasi with his maternal uncle Deepchand.  Amar started studying in Gurukul.


 When Amar completed 16 years of age, he performed a yajna.  At the end of the yajna, the Brahmins were fed food and donated a lot of food and clothing.  Amar slept in his bedroom at night.  According to Shiva's boon, Amar's life and body flew at his death.  At sunrise, Uncle started crying and seeing Amar dead.  People from all around also gathered and started expressing sorrow.


 Lord Shiva and Mother Parvati also listened while passing near the maternal uncle's cry and moan.  Parvatiji said to God- 'Prannath!  I can not bear the cry of his cry.  You must remove this person's suffering.


 When Lord Shiva approached Amar in an invisible form with Parvati and saw Amar, he said to Parvati - 'Parvati!  He is the son of the same businessman.  I gave it a boon at the age of sixteen.  Its lifespan is complete.


 Parvatiji again requested Lord Shiva - 'O Prannath!  You make this boy alive.  Otherwise, its parents will cry and cry for life due to the son's death.  The father of this boy is your supreme devotee.  Fasting on Mondays for years is making you enjoy it.  At the insistence of Parvati, Lord Shiva gave the boy the boon of being alive and in a few moments he got up alive.


 After finishing his education, he went to his city with his maternal uncle.  The two walk to the same city where Amar was married.  In that city too, Amar conducted a yajna.  The king of the city, passing through, saw the ceremony of the yajna.


 The king immediately recognized Amar.  At the end of the yajna, the king took Amar and his maternal uncle to the palace and for a few days kept them in the palace and gave them a lot of money, clothes and left the princess.


 On the way, the king sent many soldiers along for protection.  Deepchand sent a messenger home as soon as he reached the town and sent information about his arrival.  The businessman was very pleased at the news of his son Amar returning alive.


 The businessman had locked himself in a room with his wife.  Hungry and thirsty, the merchant and his wife were waiting for their son.  He had pledged that both would give up their lives if they received the news of their son's death.


 The merchant arrived at the city gate with his wife and friends.  Hearing the news of her son's marriage, she was not happy to see daughter-in-law Princess Chandrika.  The same night Lord Shiva came in the businessman's dream and said- 'O bestower!  I have given a long life to your son, happy with your Monday fast and listening to the fast.  Businessman was very happy.


 The fast was returned to the merchant's house on Monday.  It is written in the scriptures that all the wishes of men and women who duly fast on Monday and listen to the fast are fulfilled.


प्रदोष व्रत का महत्व

प्रदोष का अर्थ है रात्रि का आरम्भ। इसी समय इस व्रत के पूजन का विधान होने के कारण प्रदोष व्रत कहलाता है । यह व्रत प्रत्येक पक्ष की त्रयोदशी को किया जाता है।इस व्रत का मुख्य उद्देश्य है सन्तान की कामना । इसे स्त्री और पुरुष दोनों कर सकते हैं , परन्तु व्यावहारिक रूप में जिस प्रकार एकादशी का व्रत महिलाएं अधिक करती हैं उसी प्रकार इस व्रत को पुरुष अधिक रखते हैं ।

इस व्रत के उपास्यदेव भगवान शंकर हैं और प्रदोष काल में उन्हीं का विधिवत् पूजन किया जाता है । व्रती को सायंकाल शंकरजी का पूजन करके ही एक बार भोजन करना चाहिए । कृष्ण पक्ष का प्रदोष व्रत यदि शनिवार को पड़ता हो तो वह ' शनि - प्रदोष ' कहलाता है और विशेष फलदायक होता है । सोमवार के दिन पड़ने वाला प्रदोष व्रत ‘ सोम प्रदोष कहलाता है । 

इस व्रत के उपास्य देव भगवान शिव हैं और सोमवार शिवजी का वार अतः सोम - प्रदोष का तो विशिष्ट महत्व है ही , श्रावण मास के प्रदोष भी अत्यन्त महत्वपूर्ण माने जाते हैं ।क्योंकि श्रावण मास शिवजी की विशिष्ट पूजाओं का मास है । प्रदोषव्रत में भोजन तो एक ही समय किया जाता है , परन्तु फलाहार का बंधन नहीं , सामान्य भोजन भी किया जा सकता है । 


यद्यपि किसी भी प्रदोष से यह व्रत प्रारम्भ किया जा सकता है।परन्तु सन्तान प्राप्त हेतु शनिवार के प्रदोष से कर्जा उतारने हेतु मंगलवार से और सौभाग्य प्राप्ति के लिए शुक्रवार के प्रदोष से यह व्रत प्रारम्भ करना चाहिए।सोमवार के प्रदोष से व्रत प्रारम्भ करने पर शान्ति और हर प्रकार से रक्षा प्राप्त होती है । 

इक्कीस वर्ष तक यह व्रत करने के पश्चात इसका उद्यापन करने का विधान है , परन्तु परिस्थिति वश बीच में उद्यापन करके भी व्रत का समापान किया जा सकता है। 



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आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
          वसई मुम्बई
    जय बद्री विशाल
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        English translation

Pradosh vrat


 Pradosh means the beginning of the night.  At the same time, due to the law of worshiping this fast, Pradosh fast is called.  This fast is observed on the Trayodashi of each side. The main purpose of this fast is to wish for children.  It can be done by both men and women, but in practice, women keep this fast more in the same way as women do fasting for Ekadashi.

 Lord Shiva is the worshiper of this fast and he is duly worshiped during the Pradosh period.  The fast should be eaten once by worshiping Shankarji in the evening.  If the Pradosh fast of Krishna Paksha falls on Saturday, then it is called 'Shani-Pradosh' and is especially fruitful.  The Pradosh fast that falls on Monday is called 'Som Pradosh'.

 Lord Shiva is the worshiper of this fast and so is the importance of Soma Shiva on Monday, so the Prados of Shravan month are also considered very important.  In Pradoshvrat, food is served at the same time, but not only the consumption of fruits, normal food can also be eaten.


 Although this fast can be started from any Pradosha, but this fast should be started from Tuesday to get loan from Saturday's Pradosha to get children and from Friday's Pradosha to get good luck.  And defense is available in every way.

 After observing this fast for twenty-one years, there is a law to promote it, but by fasting under the circumstances, the fast can also be abolished.




 Acharya Harish Chandra Lakheda

Vasai mumbai

 Jai Badri Vishal

रविवार, 5 जुलाई 2020

गुरु पूर्णिमा

गुरुर्ब्रह्मा     गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो          महेश्वर:।

गुरु: साक्षात्  परं  ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे   नम:।।

जीवन में गुरु का अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण स्‍थान होता है। धर्म शास्‍त्रों में भी कहा गया है  ब‍िना गुरु के ईश्‍वर नहीं म‍िलता। इसलिए जीवन में गुरु का होना अत्‍यंत आवश्‍यक है। गुरु ही जीने कला ज्ञान का संचार करता है। गुरु ज्ञान है,गुरु विज्ञान है, गुरु मोक्ष का द्वार है, गुरु के द्वारा ही मानव जड़ से चेताना रूप को प्राप्त होता है। 

धर्म गर्न्थो में गुरु की महिमा का बखान अलग-अलग स्‍वरूपों में क‍िया गया है।

गुरु को बह्मा, विष्णु ,महेश के सदृश पूज्य माना जाता है । 

वेद,पुराण, उपनिषद ,महाभारत का प्रणयन करने वाले वेद व्यास जी को समस्त मानव जाति का गुरु माना जाता है। महर्षि वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को माना जाता है। उनके सम्मान में ही हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा मनाया जाता है। कहा जाता है कि इसी दिन व्यास जी ने शिष्यों एवं मुनियों को सर्वप्रथम श्री पुराणों का ज्ञान दिया था। अत: यह शुभ दिन व्यास पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है।


बंदउं  गुरु  पद  पदुम  परागा।

सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।

शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार और रु का का अर्थ- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाता है। प्राचीन काल में शिष्य जब गुरु के आश्रम में नि:शुल्क शिक्षा ग्रहण करते थे तो इसी दिन पूर्ण श्रद्धा से अपने गुरु की पूजा का आयोजन करते थे। वर्ष में सभी ऋतुओं का अपना ही महत्व है। गुरु पूर्णिमा खास तौर पर वर्षा ऋतु में मनाने के पीछे भी एक कारण है। क्योंकि इन चार माह में न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी होती है। यह समय अध्ययन और अध्यापन के लिए अनुकूल व सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए गुरु चरण में उपस्थित शिष्य ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति को प्राप्त करने हेतु इस समय का चयन करते हैं। वैसे तो हर दिन गुरु की सेवा करनी चाहिए लेकिन इस दिन हर शिष्य को अपने गुरु की पूजा कर अपने जीवन को सार्थक करना चाहिए।


इसी दिन वेदव्यास के अनेक शिष्यों में से पांच शिष्यों ने गुरु पूजा की परंपरा प्रारंभ की। पुष्पमंडप में उच्चासन पर गुरु यानी व्यास जी को बिठाकर पुष्प मालाएं अर्पित करें , आरती की तथा अपने ग्रंथ अर्पित किए थे। जिस कारण हर साल इस दिन लोग व्यास जी के चित्र का पूजन और उनके द्वारा रचित ग्रंथों का अध्ययन करते हैं। कई मठों और आश्रमों में लोग ब्रह्मलीन संतों की मूर्ति या समाधि की पूजा करते हैं।


व्यासाय विष्णु रूपाय व्यास रूपाय विष्णवे।

नमो  वै  ब्रह्म  निधये   वाशिष्ठाय  नमो  नमः।।

वर्ष की सभी पूर्णिमाओं में इस पूर्णिमा का महत्व सबसे ज्यादा है। यह पूर्णिमा इतनी श्रेष्ठ है कि इस गुुुरु पूर्णिमा का पालन करने से ही वर्ष भर की पूर्णिमाओं का फल प्राप्त होता है। गुरु पूर्णिमा एक ऐसा पर्व है। जिसमें हम अपने गुरुजनों, महापुरुषों, माता-पिता एवं श्रेष्ठजनों के  लिए कृतज्ञता और आभार व्यक्त करते है।



गुरु पूर्णिमा की आप सभी गुरुजन, श्रेष्ठ वरिष्ठ जन माता पिता जी को नमन वंदन करते आप सभी को शुभकामनाएं शुभ आशीष गुरु कृपा देव कृपा बनी रहे।।     

                    जय गुरुदेव



शनिवार, 4 जुलाई 2020

वर्षवृद्धि संस्कार (वर्धापन)जन्मदिन पूजा का महत्व

आजकल जन्मदिन मनानेका प्रचलन सर्वत्र दिखायी दे रहा है । धर्मशास्त्रमें इसे वर्धापनसंस्कार ,अब्दपूर्तिकृत्य , वर्षवृद्धिकर्म ,आयुष्यवृद्धिकर्म कहा गया। आजकल इसे वर्षगाँठ , सालगिरह , जन्मदिवस , बर्थ डे के नामसे मनाया जाता है ।
 कब मनायें -
 आजकल तो प्रायः अंग्रेजी दिनांक से जन्मदिन मनाया जा रहा है । जो शास्त्र व धर्म सम्मत नही है।धर्मशास्त्रमें कहा गया हैं।वर्ष के अन्त मे जब जन्मतिथि जन्मनक्षत्र हो उस दिन जन्मदिवस मनाये ।  जन्म - दिवस मनानेकी विधि जन्मतिथिके दिन प्रात : काल में नित्यक्रिया के पश्चात् शीतल जलसे स्नानकर स्वच्छ नवीन वस्त्र धारण करके अपने कुलदेवता , इष्टदेवता , अन्य देवी , देवता एवं गौमाता का दर्शन - पूजनकर उनसे मंगलकी कामना करें । बड़ोंको प्रणामकर उनका आशीर्वाद लें । वर्धापन संस्कार  में संकल्प लेकर श्री गणपति गौरी ग्रहपूजन पितृ पूजन षष्ठिका देवी एवं अष्टचिरंजीवी बलि , महर्षि वेदव्यास , भक्तशिरोमणि हनुमान जी , श्रीराम भक्त विभीषण , परशुरामजी , कृपाचार्य , अश्वत्थामा एवं मार्कण्डेय ऋषिका स्मरण - पूजन विशेष रूपमें कर उनसे बल , विद्या ,सद्बुद्धि , विनय , आयु , आरोग्य , रूप , शील , सदाचार तथा स्थायी श्री की प्रार्थना करें । उन्हें नमन , पूजन , अभिवादन करें । अपने जन्म - नक्षत्र , जन्म - तिथिपर पितृ सूर्य - अग्निदेवता , प्रजापति - ब्रह्मा , गुरु , ब्राह्मण - विद्वज्जन की पूजन करें । जितने वर्ष व्यतीत हुए हों , उतने मंगलदीप घर व देवमन्दिरमें जलायें । वर्ष - अभिवृद्धि का प्रतीक बड़ा दीप उपस्थित वरिष्ठ जन द्वारा प्रज्वलित कराकर प्रारम्भ हुआ वर्ष मंगलकारी होनेका आशीर्वाद लें ।


 ॥ मार्कण्डेयस्तुति।।
 मार्कण्डेयजीको श्वेत तिल मिश्रित गुड़ दूध अर्पित करें तथा निम्न स्तुति करें 
द्विभुजं जटिलं सौम्यं सुवृद्धं चिरजीविनम् । 
मार्कण्डेयं नरो भक्त्या पूजयेत् प्रयतः सदा ॥ 
आयुष्प्रद    महाभाग    सोमवंशसमुद्भव ।
महातपो मुनिश्रेष्ठ मार्कण्डेय नमोऽस्तु ते ॥
मार्कण्डेय महाभाग सप्तकल्पान्तजीवन ।
आयुरा रोग्य सिध्यर्थ मस्माकं वरदो भव।।
चिरजीवी यथा त्वं भो भविष्यामि तथा मुने ।
रूपवान् वित्तवांश्चैव श्रिया युक्तश्च सर्वदा ॥
मार्कण्डेय नमस्तेऽस्तु सप्तकल्पान्तजीवन ।
आयुरारोग्यसिद्ध्यर्थं प्रसीद भगवन्मुने ।।
चिरजीवी यथा त्वं तु मुनीनां प्रवरद्विज ।
कुरुष्व मुनिशार्दूल तथा मां चिरजीविनम् ॥
।।षष्ठीदेवी पूजनमन्त्र ।।
षष्ठीदेवीको दही भात अर्पित करें तथा निम्न प्रार्थना करें।
जय देवि जगन्मातर्जगदानन्दकारिणि । 
प्रसीद मम कल्याणि महाषष्ठि नमोऽस्तु ते ॥
रूपं देहि यशो देहि भगं भगवति देहि मे । 
पुत्रान् देहि धनं देहि सर्वान्कामांश्च देहि मे ॥
।।रक्षामन्त्र ।।
त्रैलोक्ये यानि भूतानि स्थावराणि चराणि च । 
ब्रह्म विष्णु शिवैः सार्धं रक्षां  कुर्वन्तु तानि मे ॥
भूलकर भी दीपक या मोमबत्ती न बुझायें । जन्मदिवस के समय बालक , युवक या प्रौढ व्यक्ति रुग्ण हो तो अपमृत्युनाशहेतु मृत्युंजयमन्त्र जप करे हवन में विशेष आहुति देनी चाहिये ।

                      आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
                            सनातन संस्कृति
                            जय बद्री विशाल
                         मो 9004013983

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English translation

Cremation

 Nowadays the trend of celebrating birthday is seen everywhere.  In theology, it is called Vardhapan Samaska, Abduraptikam, Varsha Vriddhikarma, Ayushyavriddhikarma.  Nowadays, it is celebrated as Anniversary, Anniversary, Birthday, Birthday.

 When to celebrate -

 Nowadays, birthday is being celebrated often with English date.  The scripture and religion are not agreed. It has been said in theology. Celebrate the birthday on the day when the date of birth is the birth anniversary.  Method of celebrating birth day, after bathing in soft water in the morning on the first day of birth, wearing clean new clothes and worshiping your kuldevata, presiding deity, other goddess, deity and cow goddess - worship and pray to them.  Salute the elders and seek their blessings.  Taking a resolution in Vardhapan Rites, Shri Ganapati Gauri Grahapujan Pitru Pujan Shashtika Devi and Ashtiranjeevi Bali, Maharishi Ved Vyas, Bhaktashiromani Hanuman ji, Shri Ram Bhakta Vibhishan, Parashuramaji, Kripacharya, Ashwatthama and Markandeya Rishika Smriti-Pujan, especially with respect to them;  , Pray for age, healing, form, modesty, virtue and permanent Shree.  Salute, worship, greet them.  Worship your birth - constellation, birth date, Pitru Sun - Agnidevata, Prajapati - Brahma, Guru, Brahmin - scholarship.  Burn the number of years spent in Mangaldeep Ghar and Devmandir.  Year - The year started by lighting a big lamp symbolizing growth, and seek blessings to be auspicious.


   Markandeyastuti.

 Offer white sesame mixed jaggery milk to Markandeji and praise the following

 Trigonometrical complex benign.

 Markandeya Naro Bhaktya Pujaet always tried.

 Ayushprada Mahabhaga Somvansh Samudbhava.

 Mahatapo Munishreshtha Markandeya Namoastu Te॥

 Markandeya Mahabhag Saptakalpantjeevan.

 Mayra Rogya Siddhartha Masmakan Varado Bhava.

 Long live the future and the future.

 Rupaan Financial

 Markandeya Namastu Saptakalpantjivan.

 Ayurarogyasiddhyartham Prasid Bhagavanmune.

 Chirajeevi viz.

 Kurushava Munishardul and mother Chirajeevinam

 .. Shashtidevi Pujanmantra.

 Offer yogurt rice to Shashtidevi and offer the following prayers.

 Jai Devi Jaganmatrajgadanandakarini.

 Prasid mam kalyani mahashthi namoastu te॥

 Rup dehi yisho dehi bhaga bhagwati in the body.

 Putra Dehani Dhanam Dehi Devi Sarvanakamansh Dehi

 Raksha Mantra

 Trilokye i.e. Bhoothani Sthavarani Charani Ch.

 Brahma Vishnu Shivaay: In Sardhan Rakshaman Kurvantu Tani

 Do not forget the lamp or candle even after forgetting.  If the child, young man or old person is sick at the time of birth day, then chanting the death knell for abortions should give special sacrifice in havan.

 


 Acharya Harish Chandra Lakheda

 Eternal culture

 Jai Badri Vishal

 Mo 9004013983

गुरुवार, 2 जुलाई 2020

श्री शिवपंचाक्षर स्त्रोत्रं

                 ।।  श्रीशिवपञ्चाक्षरस्तोत्रम् ।।

नागेन्द्र हाराय त्रिलोचनाय 
भस्माङ्गरागाय माहेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय 
तस्मै नकाराय नमः शिवाय ।।
                              मन्दाकिनी सालिल चन्दन चर्चिताय 
                              नन्दीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय।
                              मन्दार पुष्प बहुपुष्प सुपूजिताय
                              तस्मै  मकाराय नमः शिवाय ||२ ||
शिवाय गौरी वदनाब्ज वृन्द 
सूर्याय दक्षाध्वर नाशकाय ।
श्रीनील काठाय वृषध्वजाय
तस्मै शिकाराय नमः शिवाय ।। ३ ।। 
                                 वसिष्ठ कुम्भोद्भव गौतमार्य
                                 मुनीन्द्र देवा चितशेखराय ।
                                 चन्द्रार्क वैश्वानर लोचनाय 
                                 तस्मै वकाराय नमःशिवाय ।। ४।।
 यक्षस्वरूपाय जटाधराय
 पिनाकहस्ताय सनातनाय।
 दिव्याय देवाय दिगम्बराय 
 तस्मै यकाराय नम:शिवाय ।। ५।।

          पंचाक्षर मिदं पुण्य य: पठेच्छिवसंनिधौ। 
          शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥ 

इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं शिवपञ्चाक्षरस्तोत्रं सम्पूर्णम् 

बुधवार, 1 जुलाई 2020

बद्रीनाथ जी का इतिहास

बद्रीनाथ मन्दिर भगवान विष्णु जी का पवित्र मंदिर है।बद्रीनाथ में जो प्रतिमा है़ वह विष्णु के एक रूप बद्रीनारायण की है।बद्रीनाथ अथवा बद्रीनारायण मन्दिर भारतीय राज्य उत्तराखण्ड के चमोली जनपद में अलकनन्दा नदी के तट पर स्थित एक हिन्दू मन्दिर है। यह हिंदू देवता विष्णु को समर्पित मंदिर है और यह स्थान सनातन धर्म में वर्णित सर्वाधिक पवित्र स्थानों चार धामों में से एक यह एक प्राचीन मंदिर है जिसका निर्माण ७वीं-९वीं सदी में होने के प्रमाण मिलते हैं। मन्दिर के नाम पर ही इसके आस पास बसे नगर को भी बद्रीनाथ ही कहा जाता है। जाड़ों की ऋतु में हिमालयी क्षेत्र की रूक्ष मौसमी दशाओं के कारण मन्दिर वर्ष के छह महीने बन्द व अप्रैल के अंत से लेकर नवम्बर की शुरुआत तक की सीमित अवधि के लिए ही खुला रहता है। यह भारत के कुछ सबसे व्यस्त तीर्थस्थानों में से एक है।बद्रीनाथ मन्दिर में हिंदू धर्म के देवता विष्णु के एक रूप "बद्रीनारायण" की पूजा होती है। जिसके बारे में मान्यता है कि इसे आदि शंकराचार्य ने ८वीं शताब्दी में समीपस्थ नारद कुण्ड से निकालकर स्थापित किया था। इस मूर्ति को कई हिंदुओं द्वारा विष्णु के आठ स्वयं व्यक्त क्षेत्रों (स्वयं प्रकट हुई प्रतिमाओं) में से एक माना जाता है। 

विष्णु पुराण, महाभारत तथा स्कन्द पुराण जैसे अनेक प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार इस मन्दिर को बद्री-विशाल के नाम से पुकारते हैं और विष्णु को ही समर्पित निकटस्थ चार अन्य मन्दिरों – योगध्यान-बद्री, भविष्य-बद्री, वृद्ध-बद्री और आदि बद्री के साथ जोड़कर पूरे समूह को "पंच-बद्री" के रूप में जाना जाता है।।

हिमालय में स्थित बद्रीनाथ क्षेत्र भिन्न-भिन्न कालों में अलग नामों से प्रचलित रहा है। स्कन्दपुराण में बद्री क्षेत्र को "मुक्तिप्रदा" के नाम से उल्लेखित किया गया है। जिससे स्पष्ट हो जाता है कि सत युग में यही इस क्षेत्र का नाम था। त्रेता युग में भगवान नारायण के इस क्षेत्र को "योग सिद्ध", और फिर द्वापर युग में भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन के कारण इसे "मणिभद्र आश्रम" या "विशाला तीर्थ" कहा गया है।कलियुग में इस धाम को "बद्रिकाश्रम" अथवा "बद्रीनाथ" के नाम से जाना जाता है। इस स्थान का यह नाम बद्री (बेर) के वृक्षों के कारण पड़ा था। इस स्थान पर पहले बद्री के घने वन पाए जाते थे, हालाँकि अब उनका कोई निशान तक नहीं बचा है।

बद्रीनाथ नाम की उत्पत्ति पर एक कथा भी प्रचलित है, जो इस प्रकार है - मुनि नारद एक बार भगवान् विष्णु के दर्शन हेतु क्षीरसागर पधारे, जहाँ उन्होंने माता लक्ष्मी को उनके पैर दबाते देखा। चकित नारद ने जब भगवान से इसके बारे में पूछा, तो अपराधबोध से ग्रसित भगवन विष्णु तपस्या करने के लिए हिमालय को चल दिए। जब भगवान विष्णु योगध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक हिमपात होने लगा। भगवान विष्णु हिम में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बद्री के वृक्ष का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगीं।माता लक्ष्मीजी भगवान विष्णु को धूप, वर्षा और हिम से बचाने की कठोर तपस्या में जुट गयीं। कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि लक्ष्मीजी हिम से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा कि "हे देवी! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है सो आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बद्री वृक्ष के रूप में की है सो आज से मुझे बद्री के नाथ-बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा।


पौराणिक कथा


पौराणिक लोक कथाओं के अनुसार, बद्रीनाथ तथा इसके आस-पास का पूरा क्षेत्र किसी समय शिव भूमि (केदारखण्ड) के रूप में अवस्थित था। जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुई, तो यह बारह धाराओं में बँट गई,।तथा इस स्थान पर से होकर बहने वाली धारा अलकनन्दा के नाम से विख्यात हुई। मान्यतानुसार भगवान विष्णु जब अपने ध्यानयोग हेतु उचित स्थान खोज रहे थे, तब उन्हें अलकनन्दा के समीप यह स्थान बहुत भा गया। नीलकण्ठ पर्वत के समीप भगवान विष्णु ने बाल रूप में अवतार लिया, और क्रंदन करने लगे। उनका रूदन सुन कर माता पार्वती का हृदय द्रवित हो उठा, और उन्होंने बालक के समीप उपस्थित होकर उसे मनाने का प्रयास किया, और बालक ने उनसे ध्यानयोग करने हेतु वह स्थान मांग लिया। यही पवित्र स्थान वर्तमान में बद्रीविशाल के नाम से सर्वविदित है।


विष्णु पुराण में इस क्षेत्र से संबंधित एक अन्य कथा है, जिसके अनुसार धर्म के दो पुत्र हुए- नर तथा नारायण, जिन्होंने धर्म के विस्तार हेतु कई वर्षों तक इस स्थान पर तपस्या की थी। अपना आश्रम स्थापित करने के लिए एक आदर्श स्थान की तलाश में वे वृद्ध बद्री, योग बद्री, ध्यान बद्री और भविष्य बद्री नामक चार स्थानों में घूमे। अंततः उन्हें अलकनंदा नदी के पीछे एक गर्म और एक ठंडा पानी का चस्मा मिला, जिसके पास के क्षेत्र को उन्होंने बद्री विशाल नाम दिया।यह भी माना जाता है कि व्यास जी ने महाभारत इसी जगह पर लिखी थी। और नर-नारायण ने ही  अगले जन्म में क्रमशः अर्जुन तथा कृष्ण के रूप में जन्म लिया था।महाभारतकालीन एक अन्य मान्यता यह भी है कि इसी स्थान पर पाण्डवों ने अपने पितरों का पिंडदान किया था। इसी कारण से बद्रीनाथ के ब्रम्हाकपाल क्षेत्र में आज भी तीर्थयात्री अपने पितरों की आत्मा शांति के लिए पिंडदान करते हैं।

 स्कन्द पुराण में इस मन्दिर का वर्णन करते हुए लिखा गया है।

  बहुनि सन्ति तीर्थानी दिव्य भूमि रसातले। 

  बद्री सदृश्य तीर्थं न भूतो न भविष्यतिः॥


अर्थात स्वर्ग, पृथ्वी तथा नर्क तीनों ही जगह अनेकों तीर्थ स्थान हैं, परन्तु बद्रीनाथ जैसा कोई तीर्थ न कभी था, और न ही कभी होगा।मन्दिर के आसपास के क्षेत्र को पद्म पुराण में आध्यात्मिक निधियों से परिपूर्ण कहा गया है। भागवत पुराण के अनुसार बद्रिकाश्रम में भगवान विष्णु सभी जीवित के उद्धार हेतु नर तथा नारायण के रूप में अनंत काल से तपस्या में लीन हैं।


गर्भगृह में भगवान बद्रीनारायण की  शालीग्राम से निर्मित मूर्ति है। मूर्ति में भगवान के चार हाथ हैं - दो हाथ ऊपर उठे हुए हैं: एक में शंख, और दूसरे में चक्र है, जबकि अन्य दो हाथ योगमुद्रा (पद्मासन की मुद्रा) में भगवान की गोद में उपस्थित है। गर्भगृह में धन के देवता कुबेर, देवर्षि नारद, उद्धव, नर और नारायण की मूर्तियां हैं। 

बद्रीनाथ मन्दिर भगवान विष्णु को समर्पित पांच संबंधित मन्दिरों में से एक है, जिन्हें पंच बद्री के रूप में एक साथ पूजा जाता है।ये पांच मन्दिर हैं - बद्रीनाथ में स्थित बद्री-विशाल (बद्रीनाथ मन्दिर), पांडुकेश्वर में स्थित योगध्यान-बद्री, ज्योतिर्मठ से १७ किमी (१०.६ मील) दूर सुबेन में स्थित भविष्य-बद्री, ज्योतिर्मठ से ७ किमी (४.३ मील) दूर अणिमठ में स्थित वृद्ध-बद्री और कर्णप्रयाग से १७ किमी (१०.६ मील) दूर रानीखेत रोड पर स्थित आदि बद्री। इन पांच मन्दिरों के साथ जब दो अन्य मन्दिरों को भी जोड़ा जाता है, तो इन सात मन्दिरों को संयुक्त रूप से सप्त-बद्री कहा जाता है। सप्त बद्री में इन पांच मन्दिरों के अतिरिक्त कल्पेश्वर के निकट स्थित ध्यान-बद्री तथा ज्योतिर्मठ-तपोवन के समीप स्थित अर्ध-बद्री भी शामिल हैं। ज्योतिर्मठ के नृसिंह बद्री को भी कभी कभी पंच-बद्री (योगध्यान बद्री के स्थान पर) या सप्त-बद्री (अर्ध बद्री के स्थान पर) में स्थान दिया जाता है। उत्तराखण्ड में पंच बद्री, पंच केदार तथा पंच प्रयाग पौराणिक दृष्टि से तथा हिन्दू धर्म की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण माने जाते हैं।बद्रीनाथ भारत के सबसे लोकप्रिय तथा पवित्र मन्दिर माने जाने वाले चार धामों में से एक है।


यद्यपि विचारधारा के आधार पर हिंदू धर्म मुख्यतः दो संप्रदायों, अर्थात् शैवों (भगवान शिव के उपासक) और वैष्णवों (भगवान विष्णु के उपासक), में विभाजित हैं, परन्तु फिर भी चार धाम तीर्थयात्रा में दोनों ही सम्प्रदायों के लोग खुलकर भाग लेते हैं।चार धाम की तर्ज पर ही उत्तराखण्ड में भी चार प्रसिद्ध तीर्थ स्थल हैं, जिन्हें संयुक्त रूप से छोटा चार धाम कहा जाता है: बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री- ये सभी हिमालय की तलहटी में स्थित हैं।

बद्रीनाथ में तथा इसके समीप अन्य भी कई दर्शनीय स्थल हैं। इनमें "ब्रह्म कपाल" (धार्मिक अनुष्ठानों के लिए प्रयोग होने वाला एक समतल चबूतरा), "शेषनेत्र" (शेषनाग की कथित छाप वाला एक शिलाखंड), "चरणपादुका": (भगवान विष्णु के पैरों के निशान), "माता मूर्ति मन्दिर" (बद्रीनाथ भगवान की माता को समर्पित एक मन्दिर), "वेद व्यास गुफा" या "गणेश गुफा" (जहाँ वेदों और उपनिषदों का लेखन कार्य हुआ था) तथा पौराणिक कथाओं में उल्लिखित एक "साँपों का जोड़ा" शामिल है।बद्रीनाथ से ९ किलोमीटर की दूरी पर वसु धारा नामक झरना पड़ता है, जहाँ अष्ट-वसुओं ने तपस्या की थी। मान्यता है कि इस झरने की बूंदे पापी व्यक्तियों के ऊपर नहीं गिरती हैं। इसके अतितिक्त निकट ही स्थित सतोपंथ (स्वर्गारोहिणी) नमक स्थान के बारे में कहा जाता है कि यहीं से राजा युधिष्ठिर ने सदेह स्वर्ग को प्रस्थान किया था।

 बद्रीनाथ उत्तर भारत में स्थित है, परन्तु  मन्दिर के रावल  मुख्य पुजारी परंपरागत रूप से दक्षिण भारतीय राज्य केरल से चुने गए नंबुदरी ब्राह्मण ही होते हैं।माना जाता है कि यह परंपरा आदि शंकराचार्य द्वारा शुरू की गई थी, जो दक्षिण भारतीय दार्शनिक थे।  पास राव के लिए कई आवश्यक अहर्ताएं होती हैं: वह ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाला होना चाहिए, उसके पास संस्कृत में आचार्य की डिग्री होनी चाहिए, वह मंत्रोच्चारण और पवित्र ग्रंथों को पढ़ने आदि में प्रवीण होना चाहिए, और साथ ही, वह हिंदू धर्म के वैष्णव पंथ से भी होना चाहिए।


जय बद्री विशाल

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                    English translation

 History of Badrinath


 Badrinath temple is the holy temple of Lord Vishnu. The idol in Badrinath is of Badrinarayan, a form of Vishnu. Badrinath or Badrinarayan Temple is a Hindu temple situated on the banks of the Alaknanda River in Chamoli district of the Indian state of Uttarakhand.  It is a temple dedicated to the Hindu deity Vishnu and this place is one of the most sacred places mentioned in Sanatan Dharma, Char Dham.  In the name of the temple, the city around it is also called Badrinath.  Due to the harsh seasonal conditions of the Himalayan region during the winter season, the temple remains closed for a limited period of six months of the year and from the end of April to the beginning of November.  It is one of the busiest pilgrimage centers in India. The Badrinath temple worships "Badrinarayan", a form of Hindu god Vishnu.  It is believed that Adi Shankaracharya established it in the 8th century by removing it from the nearest Narada Kund.  This idol is considered by many Hindus to be one of the eight self-expressed regions (self-manifested statues) of Vishnu.

 According to many ancient texts like Vishnu Purana, Mahabharata and Skanda Purana, this temple is called Badri-Vishal and along with four other nearby temples dedicated to Vishnu - Yogadhyan-Badri, Bhavishya-Badri, Vriddha-Badri and Adi Badri.  The whole group is known as "Panch-Badri".

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 The Badrinath region located in the Himalayas has been popular with different names in different periods.  In the Skandpuran, the Badri region is referred to as "Muktiprada".  Which makes it clear that this was the name of this region in the Sat era.  In the Treta Yuga this area of ​​Lord Narayana is called "Yoga Siddha", and then in the Dwapar Yuga it is called "Manibhadra Ashram" or "Visala Tirth" due to the direct vision of God. In Kali Yuga this Dham is called "Badrikashrama" or "Badrinath.  Is known as "  This place got its name from the Badri (plum) trees.  Earlier, dense forests of Badri were found at this place, although now there is no trace of them.

 There is also a legend on the origin of the name Badrinath, which is as follows - Muni Narada once visited Kshirsagar to see Lord Vishnu, where he saw Mata Lakshmi pressing her feet.  Astonished Narada asked God about it, then Lord Vishnu, suffering from guilt, went to the Himalayas to do penance.  When Lord Vishnu was absorbed in austerities in Yogadhyana posture, there was a lot of snowfall.  Lord Vishnu was completely immersed in snow.  Seeing this condition of her, Mother Lakshmi's heart was moved and she took the form of a badri tree standing near Lord Vishnu herself and began to bear all the snow on her.  Got into austerity to save from.  Many years later, when Lord Vishnu completed his penance, he saw that Lakshmiji was covered with snow.  Seeing the tenacity of Goddess Lakshmi, she said, "Oh Goddess! You too have meditated like me, so from today on this temple, I will be worshiped with you and because you have protected me in the form of a Badri tree.  I will be known as Badri's Nath-Badrinath.


 mythology


 According to mythological folklore, Badrinath and the entire area around it were once located as Shiva Bhumi (Kedarkhand).  When the river Ganges descended on the earth, it was divided into twelve streams, and the stream flowing through this place became known as Alaknanda.  It is believed that when Lord Vishnu was looking for a suitable place for his meditation, he found this place very close to Alaknanda.  Lord Vishnu incarnated in the form of Baal near Neelkanth mountain, and began to cry.  Hearing his cry, Mother Parvati's heart was moved, and she tried to persuade him by appearing near the child, and the child asked for that place to meditate with him.  This holy place is presently known as Badrivishal.


 There is another legend related to this region in the Vishnu Purana, according to which Dharma had two sons - Nar and Narayan, who had done penance at this place for many years for the expansion of religion.  In search of an ideal place to set up his ashram, he visited four places namely Vriddh Badri, Yog Badri, Dhyan Badri and Bhavishya Badri.  Finally he found a hot and a cold water chasm behind the Alaknanda river, the area near which he named Badri Vishal. It is also believed that Vyas ji wrote Mahabharata at this place.  And Nara-Narayana was born as Arjuna and Krishna respectively in the next life. Another belief in Mahabharata is that the Pandavas offered their ancestors at this place.  For this reason, even today, pilgrims in the Brahmakpal area of ​​Badrinath offer pindadan for the soul peace of their ancestors.

 Skanda Purana has been written describing this temple.

 The multi-sided pilgrimage trails the divine land.

 Badri-like pilgrimage neither ghost nor future


 That is, heaven, earth and hell are many places of pilgrimage, but no pilgrimage like Badrinath was ever, nor ever will be. The area around the temple is said to be full of spiritual funds in Padma Purana.  According to the Bhagavata Purana, Lord Vishnu is engaged in penance since eternity in the form of male and Narayan for the salvation of all the living in Badrikashrama.


 The sanctum has a statue of Lord Badrinarayan built from Shaligram.  The idol has four hands of God - two hands are uplifted: one has a conch, and the other has a chakra, while the other two hands are present in the lap of the god in Yogamudra (posture of Padmasana).  The sanctum houses the idols of Kubera, the god of wealth, Devarshi Narada, Uddhav, Nara and Narayana.

 Badrinath Temple is one of the five related temples dedicated to Lord Vishnu, which are worshiped together as Panch Badri. These are five temples - Badri-Vishal (Badrinath Temple) located in Badrinath, Yogadhyan-Badri, Jyotirmath located in Pandukeshwar.  Bhavishya-Badri, located in Suben, 14 km (10.4 mi) away from Jyotirmath, 7 km (4.3 mi) from Jyotirmath, Vriddh-Badri in Animath and 14 km (10.4 mi) from Karnaprayag, on Ranikhet Road  Adi Badri.  When two other temples are also combined with these five temples, these seven temples are jointly called Sapta-Badri.  Apart from these five temples in Sapta Badri, Dhyan-Badri near Kalpeshwar and Ardha-Badri near Jyotirmath-Tapovan are also included.  Narsingh Badri of Jyotirmath is also sometimes ranked in Panch-Badri (in place of Yogadhyana Badri) or Sapta-Badri (in place of Ardha Badri).  Panch Badri, Panch Kedar and Panch Prayag are considered to be very important in Uttarakhand from the mythological point of view and from the Hindu point of view. Badrinath is one of the most popular and sacred shrines of India.


 Though Hinduism is mainly divided into two sects, namely Shaivas (worshipers of Lord Shiva) and Vaishnavas (worshipers of Lord Vishnu), on the basis of ideology, people of both sects openly participate in Char Dham pilgrimage.  Along the lines of Dham, Uttarakhand also has four famous pilgrimage sites, jointly called Chota Char Dham: Badrinath, Kedarnath, Gangotri and Yamunotri - all of them located in the foothills of the Himalayas.


 There are many other places of interest in and near Badrinath.  These include the "Brahma Kapala" (a flat platform used for religious ceremonies), "Sheshnetra" (a boulder with the alleged imprint of Sheshnag), "Charanapaduka": (footprints of Lord Vishnu), "Mata Murti Mandir" (  Badrinath, a temple dedicated to the Mother of God), "Ved Vyas Cave" or "Ganesh Cave" (where the Vedas and Upanishads were written) and a "pair of snakes" mentioned in the mythology. 4 kilometers from Badrinath  At a distance, there is a waterfall called Vasu Dhara, where the Asht-Vasus did penance.  It is believed that the drops of this spring do not fall on sinful persons.  Apart from this, it is said about the nearby Satopanth (Swargahori) salt place that it was from here that King Yudhishthira always departed to heaven.

 Badrinath is located in North India, but the Rawal chief priest of the temple is traditionally a Nambudari Brahmin chosen from the South Indian state of Kerala. The tradition is believed to have been started by Adi Shankaracharya, a South Indian philosopher.  Paas Rao has many essential qualifications: he must be a practitioner of Brahmacharya fast, must have a degree of Acharya in Sanskrit, must be proficient in chanting and reading sacred texts, etc., and also, he is a Hindu religion.  K should also be from Vaishnavism.


 Jai Badri Vishal

ॐ जय गौरी नंदा

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