मंगलवार, 25 अगस्त 2020

महालक्ष्मी का डोरा व्रत एवं पूजन

          महालक्ष्मी का डोरा 

              (भाद्रपद शुक्ल अष्टमी)

 व्रत एवं पूजन महालक्ष्मी के पूजन का अनुष्ठान भाद्रपद शुक्ला अष्टमी से प्रारम्भ होकर आश्विन कृष्णा अष्टमी को पूर्ण होता है । अनुष्ठान के लिए एक दिन पूर्व सूत के सोलह धागों का एक डोरा लेकर उसमें सोलह गाठे लगाई जाती हैं । फिर उसे हल्दी से रंग लिया । जाता है । इस अनुष्ठान को करने वाली स्त्रिया सुबह सवेरे समीप की नदी या सरोवर में स्नान करके सूर्य को अर्घ्य देती है । सुहागिन स्त्रिया चालीस अजलि और विधवा सोलह अजलि अर्घ्य देती हैं । इसके बाद घर आकर एक चौकी पर डोरा रखकर लक्ष्मीजी का आव्हान करती हैं और डोरे का पूजन करती हैं । फिर सोलह बोल की यह कहानी कहती हैं- “ अमोती - दमोती रानी , पोला - परपाटन गांव , मगरसेन राजा , बंभन बरुआ , कहे कहानी , सुनो हे महालक्ष्मी देवी रानी , हमसे कहते तुमसे सुनते सोलह बोल की कहानी । " इस प्रकार आश्विन कृष्णा अष्टमी तक सोलह दिन व्रत और पूजा करती हैं । अंतिम दिन एक मंडप बनाकर उसमें लक्ष्मीजी की मूर्ति , डोरा और एक मिट्टी का हाथी रखकर विधि विधान से सोलह बार उपरोक्त कहानी कहकर अक्षत छोड़ती हैं । पूजा और हवन करती हैं । पूजा के लिए सोलह प्रकार के पकवान बनाए जाते हैं । पूजा के बाद स्त्रियां यह कहानी कहती हैं । कथा - एक राजा की दो रानियां थीं । बड़ी रानी का एक पुत्र था और छोटी के अनेक । महालक्ष्मी पूजन के दिन छोटी रानी के बेटों ने मिलकर मिट्टी का हाथी बनाया तो बहुत बड़ा हाथी बन ।गया । छोटी रानी ने उसकी पूजा की । बड़ी रानी अपना सिर झुकाये चुपचाप बैठी थी । बेटे के पूछने पर उसकी मां ने कहा कि तुम थोड़ी सी मिट्टी लाओ । मैं भी उसका हाथी बनाकर पूजा कर लूं । तुम्हारे भाइयों ने तो पूजा के लिए बहुत बड़ा हाथी बनाया है । बेटा बोला , मां तुम पूजा की तैयारी करो , मैं तुम्हारी पूजा के लिए जीवित हाथी ले आता हूं । वह इन्द्र के यहां गया और वहां से अपनी माता के पूजन के लिए इन्द्र से उसका ऐरावत हाथी ले आया । माता ने श्रद्धापूर्वक पूजा पूरी की और कहा- 

क्या करें किसी के सौ पचास ।

 मेरा एक पुत्र पुजावे आस ।।

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सोमवार, 17 अगस्त 2020

कुशोत्पाटिनी अमावस्या व सती पूजा

कुशोत्पाटिनी अमावस्या व सती पूजा

          ( भाद्रपद अमावस्या ) 

हर दिन अपने आप मे श्रेष्ठ होता है ,वैसे ही भाद्रपद कृष्ण पक्ष अमावस्या भी श्रेष्ठ है,इस दिन जंगल व खेत से  कुशा ग्रहण किया जाता है।इसलिए इसे कुशोत्पाटिनी अमावस्या कहते है,'ॐ हूं फट' मंत्र से कुशा ग्रहण करना चाहिये।आज लाया गया कुशा पूरे साल भर काम देता है।

 यों तो प्रत्येक अमावस्या को ही पितरों को तर्पण करने का शास्त्रों में विधान है , परन्तु श्राद्ध पक्ष के पन्द्रह दिन पूर्व पड़ने वाली भाद्रपद मास की इस अमावस्या को तो पित्तरों का पूजन एवं तर्पण विशेष विधि - विधान से किया जाता है । कुशा नामक घास का एक छल्ला बनाकर अंगूठी के समान दाहिने हाथ की उंगली में पहनकर और अंजली में जल एवं काले तिल लेकर किया जाता है पितरों का तर्पण ।

पुरुष आज के दिन प्रातःकाल पित्तरों हेतु तर्पण करते हैं तो महिलाएं सतीजी का व्रत रखती हैं । भगवान शिव भार्या सती जी की पूजा आराधना की जाती है । सतीजी अथवा पार्वती की मूर्ति पर जल चढ़ाकर , रोली - चावल , फूल , धूप - दीप , नैवेद्य फल से उनकी पूजा की जाती है । सतीजी को नारियल , चूड़ियां , सिन्दूर , सुहाग का सभी सामान वस्त्र और लड्डू अर्पित किए जाते हैं और दक्षिणा चढाई जाती है । 

तुलसी विवाह

              तुलसी विवाह 

   ( कार्तिक शुक्ल एकादशी )

कार्तिक शुक्ल एकादशी को तुलसी - पूजन का उत्सव भारत भर में खासकर उत्तर भारत में विशेष रूप से मनाया जाता है । तुलसी को विष्णु - प्रिया भी कहते हैं । तुलसी - विवाह के लिए कार्तिक शुक्ल नवमी ठीक तिथि है । नवमी , दशमी व एकादशी को व्रत करके नियम से पूजन कर अगले दिन तुलसी का पौधा ब्राह्मण को दिया जाए तो शुभ होता है ।

परन्तु कुछ एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी - पूजन करके पांचवें दिन तुलसी का विवाह करते हैं । तुलसी - विवाह की यही पद्धति अधिक प्रचलित है ।

 तुलसी चाहे एक साधारण सा पौधा होता है । परन्तु भारतीयों के लिए यह गंगा - यमुना के समान पवित्र है । पूजा की सामग्री में तुलसी - दल ( पत्ती ) जरूरी समझा जाता है । तुलसी के पौधे को वैसे तो स्नान के बाद प्रतिदिन पानी देना स्वास्थ्य के लिए अति उत्तम है । तुलसी के कारण उसके आस - पास की वायु शुद्ध हो जाती है । तुलसी - पूजा क्यों आरम्भ हुई तथा इसकी पूजा से किसको लाभ हुआ , इस विषय में दो कथाएँ प्रस्तुत हैं ।

तुलसी कथा १- 

प्राचीन काल में जालन्धर नामक राक्षस ने चारों तरफ बड़ा उत्पात मचा रखा था । वह बड़ा वीर तथा पराक्रमी था । उसकी वीरता का रहस्य था उसकी पत्नी वृन्दा का पतिव्रता धर्म । उसी के प्रभाव से वह सर्वजयी बना हुआ था । उसके उपद्रवों से भयभीत ऋषि व देवता मिलकर भगवान् विष्णु के पास गए तथा उससे रक्षा करने के लिए कहने लगे । भगवान् विष्णु ने काफी सोच विचार कर उस सती का पतिव्रत धर्म भंग करने का निश्चय किया । उन्होंने योगमाया द्वारा एक मृत - शरीर वृन्दा के प्रांगन में फिकवा दिया । माया का पर्दा होने से वृन्दा को अपने पति का शव दिखाई दिया । अपने पति को मृत देखकर वह उस मृत - शरीर पर गिरकर विलाप करने लगी । उसी समय एक साधु उसके पास आए और कहने लगे - बेटी इतना विलाप मत करो मैं इस मृत - शरीर में जान डाल दूंगा । साधु मृत शरीर में जान डाल दी । भावातिरेक में वृन्दा ने उसका ( मृत - शरीर का ) प्रालिगन कर लिया । बाद में वृन्दा को भगवान् का यह छल - कपट ज्ञात हुआ । उधर उसका पति जो देवताओं से युद्ध कर रहा था , वृन्दा का स्तीत्व नष्ट होते ही वह देवताओं द्वारा मारा गया । इस बात का जब उसे पता लगा तो क्रोधित हो उसने विष्णु भगवान् को शाप दे दिया कि “ जिस प्रकार तुमने छल से मुझे पति - वियोग दिया है उसी प्रकार तुम भी अपनी स्त्री का छलपूर्वक हरण होने पर स्त्री - वियोग सहने के लिए मृत्युलोक में जन्म लोगे । ' यह कहकर वृन्दा अपने पति के साथ सती हो गई ।

विष्णु अब अपने छल पर बड़े लज्जित हूए । देवताओं व ऋषियों ने उन्हें कई प्रकार से समझाया तथा पार्वती जी ने वृन्दा की चिता भस्म मैं आंवला , मालती व तुलसी के पौधे लगाए । भगवान् विष्णु ने तुलसी को ही वृन्दा का रूप समझा । कालान्तर में रामवतार के समय राम जी को सीता का वियोग सहना पड़ा ।

कहीं - कहीं यह भी प्रचलित है कि वृन्दा ने शाप दिया था कि तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है । अतः तुम पत्थर बनोगे । विष्णु बोले - हे वृन्दा ! तुम मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो गई हो । यह सब तुम्हारे सतीत्व का ही फल है । तुम तुलसी बनकर मेरे साथ रहोगी तथा जो मनुष्य तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा वह परमधाम को प्राप्त होगा । इसी कारण शालिग्राम या विष्ण - शिला को पूजा बिना तुलसी - दल के अधुरी होती है । इसी पुण्य की प्राप्ति के लिए आज भी तुलसी - विवाह बड़ी धूमधाम से किया जाता है । तुलसी को कन्या मानकर व्रत करने वाला यथाविधि से भगवान् विष्ण को कन्या - दान करके तुलसी - विवाह सम्पन्न करता है । 

तुलसी पूजा करने का बड़ा माहात्म्य है ।

तुलसी कथा २ –

एक परिवार में ननद - भाभी रहती थीं । ननद अभी कुंवारी थी । वह तुलसी की बड़ी सेवा करती थीं । पर भाभी को यह सब फूटी आँख नहीं सुहाता था । कभी - कभी तो भाभी गुस्से में कहती कि जब तेरा विवाह होगा तो तुलसी ही खाने को दूंगी तथा तुलसी ही तेरे दहेज में दूंगी । यथा - समय जब ननद की शादी हुई तो उसकी भाभी ने बारातियों के सामने तुलसी का गमला फोड़कर रख दिया । भगवान् की कृपा से वह गमला स्वादिष्ट व्यंजनों में बदल गया । गहनों के बदले भाभी ने ननद को तुलसी की मंजरी पहना दी तो वह सोने के गहनों में बदल गई । वस्त्रों के स्थान पर तुलसी का जनेऊ रख दिया तो वह रेशमी वस्त्रों में बदल गया । चारों तरफ ससुराल में उसके दहेज आदि के बारे में बहुत बढ़ाई हुई। उसकी भाभी की एक लड़की थी । भाभी अपनी लड़की से कहती कि तू भी तुलसी की सेवा किया कर तुझे भी तेरी बुआ की तरह फल मिलेगा । पर लड़की का मन तुलसी की सेवा में नहीं लगता था ।

उसके विवाह का समय आया तो उसने सोचा कि मैने जैसा व्यवहार अपनी ननद से किया उसी के कारण उसे इतनी इज्जत मिली है क्यों न मैं अपनी लड़की के साथ भी वैसा ही व्यवहार करूँ । उसने तुलसी का गमला तोड़कर बरातियों के सामने रखा , मंजरी के गहने पहनाए तथा वस्त्र के स्थान पर जनेऊ रखा । परन्तु इस बार मिट्टी मिट्टी ही रही । मंजरी - व - पत्ते भी अपने पूर्व रूप में ही रहे तथा जनेऊ जनेऊ ही रहा । सभी भाभी की बुराई करने लगे । ससुराल में भी सभी लड़की की बुराई ही कर रहे थे । भाभी ननद को कभी घर नहीं बुलाती थी । भाई ने सोचा मैं ही बहन से मिल आऊँ । उसने अपनी इच्छा अपनी पत्नी को बतायी तथा सौगात ले जाने के लिए कुछ माँगा तो भाभी ने थैले में ज्वार भरकर कहा और तो कुछ नहीं है , यही ले जाओ । वह दुःखी मन से चल दिया । बहन के नगर के समीप पहुँचकर एक गोशाला में गाय के सामने उसने ज्वार का थैला उलट दिया तो गोपालक ने कहाकि सोना - मोती गाय के आगे क्यों डाल रहे हो । उसने उससे सारी बात बता दी तथा सोना - मोती लेकर प्रसन्न मन से बहन के घर गया । बहन बड़ी प्रसन्न हुई । जैसी प्रसन्नता बहन को मिली वैसी सबको मिले ।



दुबड़ी सातें और सन्तान सप्तमी व्रत

दुबड़ी सातें और सन्तान सप्तमी व्रत

        ( भाद्रपद शुक्ला सप्तमी )

अधिकांश क्षेत्रों में तो आज के दिन दुबड़ी साते या दुबड़ी सप्तमी का व्रत और त्यौहार मनाया जाता है , तोकुछ परिवारो में सन्तानों की मंगल कामना हेतु संतान सप्तमी के रूप में किया नी जाता है इस व्रत को । संतान सप्तमी व्रत के रूप में यह व्रत दोपहर तक होता है । दोपहर के समय चौक पूरकर शिव - पार्वती का चन्दन , अक्षत , धूप , दीप , नैवेद्य , सुपारी , नारियल आदि से पूजन किया नो जाता है । भोग के लिए खीर - पूड़ी और विशेषकर गुड़ डाले हुए पुए बनाकर तैयार किए जाते हैं। सन्तान की रक्षा हेतु एक डोरा शिवजी को अर्पण करके निवेदन करें - हे प्रभु ! इस कुल - वर्द्धनकारी डोरे को ग्रहण कीजिए । फिर उस डोरे को शिवजी से वरदान के रूप में लेकर स्वयं धारण किया जाता है ।


दुबड़ी सातें के रूप में इस व्रत को करते समय एक पटड़े पर दुबड़ी सातें की मूर्ति बनायें । फिर चावल , जल , दूध, रोली , आटा , घी , चीनी मिलाकर लोई बनायें और उससे दुबड़ी की पूजा करें तथा दक्षिणा चढ़ा कर भीगा हुआ बाजरा चढ़ावें । मोठ , बाजरे का बायना निकाल कर सास को दें और उनके पैर आशीष लें इसके पश्चात दुबड़ी सातें की कथा सुनें । इस दिन ठंडा अथवा बासी भोजन करना चाहिए । यदि किसी वर्ष में किसी के पुत्र का विवाह हुआ हो तो उद्यापन करना चाहिए । उद्यापन में मोठ - बाजरे की तेरह कुड़ी एक थाली में लेकर एक रुपया और एक धोती रखकर हाथ से स्पर्श करके अपनी सास , जेठानी अथवा ब्राह्मणी को दे देवें और आशीष ग्रहण करें ।

कथा - 

एक साहूकार के सात बेटे थे । वह जब भी अपने बेटे का विवाह करता , वही मर जाता । इस प्रकार उसके छ : बेटे मर गये । कुछ समय बाद सबसे छोटे लड़के का विवाह भी तय हो गया । सभी नाते - रिश्तेदारों को निमंत्रित कर दिया गया । विवाह में शामिल होने के लिए लड़के की बुआ आ रही थी । रास्ते में वह एक बुढ़िया बेटी के पास बैठी और उसके पांव लगी । बुढ़िया ने पूछा तू कहां जा रही है ? लड़के की बुआ ने सारी बात बताई ।


बुढ़िया बोली - वह लड़का तो घर से निकलते ही दरवाजा गिरने से मर जायेगा । वहां से बच गया तो रास्ते में जिस पेड़ के नीचे बारात रुकेगी वहां पेड़ के गिरने से मर जायेगा । वहां से बच गया तो ससुराल में दरवाजा गिरने से मर जायेगा । अगर वहां से भी बच गया तो सातवीं भांवर पर सर्प के काटने से मर जायेगा । 

यह बात सुनकर लड़के की बुआ बोली - मां , इससे बचने का कोई उपाय है ।बुढ़िया बोली - उपाय तो है , परन्तु है कठिन । सुन , घर से लड़के को पीछे की दीवार फोड़ कर निकालना , रास्ते में किसी पेड़ के नीचे बारात को मत रुकने देना , ससुराल में भी पीछे दीवार फोड़कर वर को अंदर ले जाना और भांवरों के समय एक कटोरे में दूध भर कर रख देना और तांत का फांस बना लेना । जब सांप आवे तो उसे दूध पिलाकर बांध लेना । फिर सांपिन आयेगी तो सांप को मांगेगी , तब तुम उससे अपने छहो भतीजों को मांग लेना । वह उन्हें जीवित कर देगी । यह बात किसी से कहना भी मत , नहीं | तो कहने सुनने वाले दोनों की मृत्यु हो जायेगी और लड़का भी नहीं बचेगा । 

यह सब बताकर बुढ़िया ने अपना नाम दुबड़ी बताया और चली गई । यह सब जानकर बुआ घर आई । जब बारात चलने लगी तो बुआ रास्ता रोककर खड़ी हो गई और बोली मेरे भतीजे को पीछे से दीवार फोड़कर निकालो । जैसे ही लड़का बाहर आया , आगे का दरवाजा गिर पड़ा । सबने कहा , बुआ ने अच्छा किया । लड़के को बचा लिया ।

 जब बारात चल दी , तब सबके मना करने पर भी बुआ बारात के साथ चल दी । रास्ते में एक छायादार पेड़ के नीचे बारात कुछ देर को रुकी तो बुआ ने लड़के को पकड़कर खुले स्थान पर धूप में बैठाया । उसके बैठते ही पेड़ गिर गया । यह देखकर सब बुआ की बड़ाई करने लगे । 

जब बारात ससुराल पहुंची तो वहां भी वह पीछे की दीवार फोड़वा कर लड़के को अन्दर ले गई । लड़के के अंदर जाते ही दरवाजा गिर पड़ा । फेरों के समय बुआ दूध का कटोरा और तांत का फास लेकर बैठ गई । जैसे ही सांप वहां आया बुआ ने उसके आगे दूध रख दिया । दूध पीते समय ही उसने उसे तांत से बांध लिया । तब सांपिन आकर सांप को मांगने लगी । तब बुआ ने अपने छहो भतीजे मांगे । सांपिन ने उसके छहों भतीजे जीवित कर दिये और सांप को लेकर चली गई । 

बारात घर वापिस आई तब बुआ ने सप्तमी को दुबड़ी की पूजा कराई । इसी से इसको दुबड़ी सातें कहते हैं । हे दुबड़ी मैया ! जैसे तुमने बुआ को सातों भतीजे दिये वैसे ही सबको देना ।।

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पं हरीश चंद्र लखेड़ा

रविवार, 16 अगस्त 2020

बलदेव छठ और सूर्यषष्ठी व्रत

 

       बलदेव छठ और सूर्यषष्ठी व्रत 

            ( भाद्रपद शुक्ला षष्ठी ) 

सप्तमी युक्त भाद्रपद शुक्ला षष्ठी को स्नान , दान , जप , इसके व्रत करने से अक्षय फल प्राप्त होता है । विशेषकर सूर्य - पूजन , गंगा दर्शन और पंचगव्य - प्राशन का बड़ा माहात्म्य है । पूजा की सामग्री में गन्ध , पुष्प , धूप , दीप और नैवेद्य मुख्य हैं ।


 इस दिन श्रीकृष्णजी के बड़े भाई बलदेवजी का जन्म हुआ । इसीलिए इसे देव छठ भी कहते हैं । इस दिन भगवान बलदेव ( बलराम ) जी का पूजन किया जाता है और मन्दिरों में सजावट की जाती है ।

बलदेवजी को मक्खन मिश्री का भोग लगाया जाता है,और मक्खन मिश्री ही प्रसाद के रूप में बांटते हैं ।

ऋषि - पंचमी

     

         ऋषि - पंचमी 

              ( भाद्रपद शुक्ला पंचमी )

 यह व्रत स्त्री - पुरुष दोनों ही कर सकते हैं । जाने या अनजाने किये हुए पापों के प्रायश्चित की कामना से यह व्रत किया जाता है । व्रत आरम्भ करने से पहले निकट के किसी नदी या तालाब में स्नान करना चाहिए । फिर घर आकर वेदी बनाकर और उसे गोबर से लीपकर और अनेक रंगों से सर्वतोभद्र मण्डल बनाकर उस पर तांबे या मिट्टी का घड़ा रखना चाहिए । उसी स्थान पर अष्टदल कमल बनाकर अरुन्धती और सप्त - ऋषियों की मूर्ति बनाकर विधिपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिए । पूजा के बाद ब्राह्मणों को भोजन और आचार्य को पूजा की सामग्री दे देनी चाहिए । इस व्रत की कथा ब्रह्म पुराण में इस प्रकार है

 कथा - प्राचीनकाल में सिताश्व नाम के एक राजा थे । उन्होंने एक बार ब्रह्माजी से पूछा कि पितामह ! सब व्रतों में श्रेष्ठ और तुरन्त फल देने वाले व्रत का वर्णन आप मुझसे कहिए । ब्रह्माजी ने कहा - हे राजन् ! ऋषि - पंचमी का व्रत सब व्रतों में श्रेष्ठ और सब पापों को नष्ट करने वाला है । विदर्भ में उत्तक नाम एक सदाचारी ब्राह्मण के घर में दो सन्तानें थीं - एक पुत्र और एक कन्या । विवाह योग्य होने पर उसने समान कुल - शील वाले गुणवान् वर के साथ कन्या का विवाह कर दिया । पर कुछ ही दिनों बाद वह कन्या विधवा हो गई । उसके दुःख से अत्यन्त दुःखी हो ब्राह्मण - दम्पति अपनी उस कन्या समेत गंगाजी के किनारे कुटिया बनाकर रहने लगे । एक दिन सोती हुई कन्या के शरीर में अचानक कीड़े पड़ गए । अपनी यह दशा देखकर कन्या ने माता से अपना दुःख कहा । माता सुशीला ने जाकर पति से सब बातें कहीं और पूछा कि देव ! मेरी साध्वी कन्या की यह गति होने का क्या कारण है ।

उत्तक ने समाधि लगाकर इस घटना के कारण पर विचार किया और अपनी पत्नी को बतलाया कि पूर्वजन्म में यह कन्या ब्राह्मणी थी । इसने रजस्वला होते हुए भी घर के बर्तनों को छुआ तथा इस जन्म में भी और लोगों को ऋषि - पंचमी का व्रत करते हुए देखकर भी स्वयं नही किया।इसी कारण इसके शरीर मे कीड़े पड़ गए है। धर्मशास्त्रों में लिखा है कि रजस्वला स्त्री पहले दिन चाण्डालिनी के समान , दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी के समान और तीसरे दिन धोबिन के समान अपवित्र रहती है । फिर चौथे दिन स्नान करके शुद्ध होती है । यदि यह शुद्ध मन से अब भी ऋषि - पंचमी का व्रत करेगी तो इसका दुःख छूट जायगा और यह अगले जन्म में अटल सौभाग्य प्राप्त कर सकेगी । पिता की आज्ञा से कन्या ने विधिपूर्वक ऋषि - पंचमी का व्रत किया और वह व्रत के प्रभाव से सारे दुःखों से मुक्त हो गई । अगले जन्म में उसने अटल सौभाग्य , धन - धान्य और पुत्र प्राप्ति करके अक्षय सुख भोगा । 

श्रीराधा अष्टमी और दुर्वाष्टमी

श्रीराधा अष्टमी और दुर्वाष्टमी

     ( भाद्रपद शुक्ल अष्टमी ) 

हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष अष्टमी को राधा अष्टमी के रूप में मनाया जाता है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के एक पखवारे बाद आज के दिन राधा अष्टमी का व्रत किया जाता है , कृष्णा प्रिय राधाजी का जन्म हुआ था । इस दिन बरसाने में हजारों भक्तों के द्वारा श्रीराधाजी का विशेष पूजन और उनका व्रत करते है । बरसाने में आज के दिन राधाजी की अनूपम छटा देखने को मिलती है।

 स्नानादि से शरीर शुद्ध करके मण्डप के भीतर मण्डल बनाकर उसके बीच में मिट्टी या तांबे का बरतन रखकर उस पर दो वस्त्रों से ढकी हुई श्री राधाजी की सोने की या अन्य धातु की बनी सुन्दर मूर्ति स्थापित करनी चाहिए । तब ठीक मध्याह्न में श्रद्धा - भक्ति - पूर्वक राधाजी की पूजा करनी चाहिए । शक्ति हो तो उस दिन उपवास करके दूसरे दिन सुवासिनी स्त्रियों को भोजन कराकर आचार्य को दान दक्षिणा देनें के बाद स्वयं भोजन करना चाहिए । इस बारे में कहा जाता है, कि जो राधा जी का व्रत करता है ,उसे राधा जी दर्शन देती है।

शिवजी के उपासक आज के दिन शिव - पार्वती जी की विशेष पूजा व व्रत भी करते है।आज के दिन शिव पूजा में अन्य वस्तुओं के साथ साथ दूर्वा नामक घास का भी अनिवार्य रूप से प्रयोग किया जाता है,और इसलिए इसे शिवभक्त दुर्बाष्टमी भी कहते है।

बुधवार, 12 अगस्त 2020

श्री राम वंशावली (सूर्यवंश)


सूर्यवंंश,इक्ष्वाकुवंश,रघुवंश पुराणों के अनुसार भगवान श्रीराम जी ने इसी वंंश में जन्म लिए ।
1-मनु
2-इक्ष्वाकु 
3-विकुक्शी - शषाद 
4-ककुत्स्थ 
5-अनेनस 
6 -पृथ
7-विश्वरास्व 
8-आर्द्र
9 -युवनाश्य- प्रथम 
10-श्रावस्त 
11-वृहदष्व
12-कुवलयाष्व
13-दृढाष्व 
14-प्रमोद  
15-हर्यश्व
16-निकुम्भ
17-संहताष्य 
18-अकृषाश्व
19-प्रसेनजित
20 -युवनाष्व- द्वितीय 

21 -मांधातृ
22-पुरुकुत्स 
23-त्रसदस्यु
24-सम्भूत
25-अनरण्य
26-पृष्दष्व
27-हर्यष्व- द्वितीय
28-बसुमाता 
29-तृधन्वन 
30 -त्रैयारूण
31-त्रिशंकु
32- सत्यव्रत 
33-हरिश्चंद्र 
34-रोहित
35 -हरित , केनकु
36-विजय  
37 -रूरूक
38-वृक 
39-वाहु
40-सगर


41-असमंजस
42-अशुमान
43 -दिलीप -प्रथम
44 -भगीरथ
45 -श्रुत
46 -नाभाग 
47-अंबरीश
48- सिंधुद्विप 
49-अयुतायुस
50-ऋतुपर्ण
51 -सर्वकाम 
52-सुदास
53-मित्राशा
54-अष्मक
55-मूलक
56 -सतरथ 
57-अदिविद्य
58- विश्वसह- प्रथम
59- दिलीप- द्वितीय
60 -दीर्घबाहु 

61-रघु
62-अज
63- दशरथ.    
64- रामचद्र
65-कुश
66-अतिथि
67 -निशध 
68- नल 
69- नाभस
70-पुंडरीक 
71-क्षेमधन्वन 
72-देवानीक 
73-अहीनगु
74-पारिपात्र 
75 -बाला 
76 -उकथ 
77-वज्रनाभ 
78-शंखन 
79-व्युशिताष्य
80 -विष्वसह -द्वितीय

81-हिरण्यनाभ 
82-पुष्य 
83-धुवसंधि
84 -सुदर्षन 
85-अग्निवर्ण 
86-शीघ्र 
87-मरु
88- प्रथुश्रुत
89 -सुसधि 
90-अमर्श 
91-महाष्वत 
92-विश्रुतवत
93-बृहदबाला 
94 -वृहतक्षय







शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 

 ( भाद्रपद कृष्ण अष्टमी )



             एकोपि कृष्णस्य कृत प्रणामो।

             दशाश्व  मेधा  भृथेन   तुल्य: ।।

              दशाश्व  मेधे  पुनरेपी   जन्म।

              कृष्ण  प्रणामो  न  पुनर्भवाम।।


श्रीकृष्ण जन्माष्टमी हमारे देश का एक प्रमुख त्यौहार है । रक्षाबन्धन के आठ दिन बाद मनाए जाने वाला भगवान श्रीकृष्ण का यह जन्मोत्सव ब्रज मण्डल और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो बहुत अधिक धूमधाम से मनाया जाता हैं । यह व्रत रात्रि को बारह बजे ही खोला जाता है । भक्ति के रस में रंगा हुआ यह त्यौहार है।

भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि को घनघोर बरसती रात्रि में ठीक बारह बजे मथुरा के कारागार में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। उनके पिता वासुदेव ने रात्रि में ही यमुना नदी पार करके किस प्रकार भगवान कृष्ण को नन्दबाबा के यहां पहुचाया , वहां उन्होंने बालपन में ही बड़े - बड़े दैत्यों को मारा और बाललीलाएं कीं , इसे प्रत्येक हिन्दू जानता है। 

भगवान श्रीकृष्ण के मन्दिरों में आज विशेष रूप से सजावट की जाती है । भगवान के हिण्डोले झूले डाले जाते हैं और तरह - तरह को झांकियां सजाई जाती हैं । ब्रज मण्डल में तो लगभग प्रत्येक घर में सजाए जाते हैं । भगवान श्रीकृष्ण के सुन्दर हिण्डोले , हिण्डोले अर्थात विशिष्ट पालने को ऊंचे स्थान पर रखकर उसमें नए वस्त्र पहिनाकर श्रीकृष्ण का विग्रह या धातुनिर्मित मूर्ति रखते हैं । इसके सामने की और खिलौने रखकर सजावट की जाती है । कारगार में कृष्णजन्म , वसुदेव द्वारा श्री कृष्ण को नन्दगांव ले जाने , भगवान के रास और गोपाल द्वारा गाय चराने , कंस वध और गीता उपदेश आदि के दृश्य बनाए और सजाए जाते हैं । मन्दिरों में , घरों में और सड़कों के किनारे सार्वजनिक रूप से सजाई जाती हैं ये झांकियां । 

भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद अष्टमी- तिथि रोहणी - नक्षत्र में रात्रि को बारह बजे हुआ था । रात्रि बारह बजे से कुछ पूर्व एक मोटे खीरे में भगवान कृष्ण की मूर्ति को रख दिया जाता है । और ठीक बारह बजे इस मूर्ति को खीरे से निकालकर पंचामृत और शुद्ध जल में स्नान कराकर वस्त्रादि पहिनाकर सम्पूर्ण श्रृंगार करते हैं । भगवान की आरति करने के बाद उन्हें भोग लगाते है। इसके बाद भक्त व्रत खोलते है। यह व्रत रात्रि बारह बजे के बाद खोला जाता है। प्रायः फलाहार के रूप मे फल सूखा मेवा और मावे की बर्फियों का प्रयोग होता है। कूटू के आटे की पकोड़ियां और सिंघाड़े के आटे का हलुवा बनाया जाता है और फलों का उपयोग तो करते ही हैं । अधिकांश परिवारों में तो उपरोक्त विधि से ही भगवान कृष्ण की पूजा करके श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मना लिया जाता है । जबकि धार्मिक व्यक्ति मन्त्रों के साथ पूर्ण विधि - विधान से भगवान कृष्ण की पूजा - आराधना करते हैं । आज दिन भर श्री कृष्ण भगवान की लीलाओं , क्रीड़ाओं और कार्यों का अध्ययन - मनन , उनके भजनों का गायन तथा विशिष्ट मन्त्रों का जप करना चाहिए ।

   

गणेश चतुर्थी

  गणेश चतुर्थी व सिद्धि               विनायक व्रत

          ( भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी ) 

गणेश जी के व्रत प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष की चौथ को किए जाते हैं , परन्तु भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तो गणेश जी के पूजन और उनके नाम का व्रत रखने का विशिष्ट दिन है । प्राचीन काल में बालकों का विद्या - अध्ययन आज के दिन से ही प्रारम्भ होता था । आज बालक छोटे - छोटे डण्ड को बजाकर खेलते हैं । यही कारण है कि लोकभाषा में इसे डण्ड चौथ भी कहा जाता है । विनायक , सिद्ध विनायक और वरद विनायक भी गणेश जी के ही नाम हैं और यही कारण है कि अलग - अलग कई नामों से पुकारा जाता है । प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर घर में किसी धातु , पत्थर अथवा मिट्टी से निर्मित गणेश जी की मूर्ति रखी जाती है । इनके अभाव में पीली मिट्टी की डली पर कलावा लपेटकर उसे ही गणेशजी मान लेते हैं । कुछ क्षेत्रों में गाय के गोबर से भी गणेशजी की मूर्ति बनाई जाती है । एक कोरे घड़े में जल भरकर उसके मुंह पर सकोरा रखकर नया वस्त्र ढकने के बाद गणेशजी की प्रतिमा को उस पर स्थापित करते हैं । पूर्ण विधि विधान से सभी पूजन - सामग्री का प्रयोग करते हुए पूजा की जाती है। गणेश जी की पूजा सर्वप्रथम इस मन्त्र से गणेश जी का ध्यान किया जाता है ।

                         प्रथम गणपति वन्दना।      

                      गजाननं   भूत   गणादि सेवितं।

                      कपित्थ जम्बू फल चारु भक्षणं।।

                      उमा सुतं शोक  विनाश कारकं ।

                      नमामि  विघ्नेश्वर पाद  पंकजम।।

 एकदन्तं शूर्पकर्णं गजवक्त्रं चतुर्भुजम् ।

 पाशांकुशधरं देवं ध्यायेत्सिद्धिविनायकम्

पूजा विधि--

इसके पश्चात् आवाहन , आसन , अर्घ्य , पाद्य ,आचमन, पंचामृत स्नान , शुद्धोदक स्नान , वस्त्र , यज्ञोपवीत , गन्ध, अक्षत ,सिंदूर ,फूलमाल, आभूषण , दूर्वा , धूप , दीप  , नैवेद्य,फल,पान,दक्षिणा, आदि से विधिवत् पूजन करें और दो लाल वस्त्रों का दान करें । पूजन के समय घी से बने इक्कीस पुए या इक्कीस लड्डू गणेशजी के पास रखें । पूजन समाप्त करके उनको गणेशजी की मूर्ति के पास रहने दें । दस पुए या लड्डू ब्राह्मण को दे दें और शेष ग्यारह अपने लिए रखकर बाद में प्रसाद के रूप में बांट दें । गणेश जी की मूर्ति को दक्षिणा समेत ब्राह्मण को दे दें और ब्राह्मण को भोजन करावे स्वयं भोजन करें । 

कुछ व्यक्ति श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से आज तक लगातार एक माह तक गणेशजी का पूजन व व्रत करते हैं । वे भी आज के दिन गणेशजी का पूजन तो इसी प्रकार करते हैं , परन्तु एक मास तक व्रत करने के कारण अधिक दान - पुण्य भी दी जाती हैं । इस व्रत के समापान स्वरूप आज अठ्ठाइस मुट्ठी चावल और श्रद्धानुसार मिठाई भी किसी बालक , अवधूत या ब्रह्मचारी को दी जाती है। 

शुक्ल पक्ष की  चतुर्थियों को किए जाने वाले गणेश व्रतों और व्रत में एक विशेष अंतर भी है। उन व्रतों को करते समय तो चंद्रदेव को आर्य चढ़ाने के बाद व्रत खोला जाता है, परन्तु आज के दिन तो  चंद्रमा के दर्शन का भी निषेद हैै। इस व्रत में गणेश जी का पूजन करते समय गणेश जन्म कथा  भी कही जाती है, जो इस प्रकार है-

कथा-

एक समय की बात है,महादेव जी स्नान करने के लिए कैलास से भोगावती गए । स्नान करते हुए पार्वती जी ने अपने शरीर के मेल से एक पुतला बनाया और उसे जल में डालकर सजीव किया , मेल से बने हुए उस पुतले का नाम पार्वतीजी ने गणेश रखा और उसे आज्ञा दी कि तुम मुद्गर लेकर द्वार पर बैठ जाओ , किसी भी पुरुष को भीतर न आने देना । भोगावती स्नान करके लौटने पर जब शिवजी पार्वती के पास भीतर जाने लगे तो उस बालक ने उनको रोक लिया , महादेवजी ने अपने इस अपमान से कुपित होकर बालक का सिर काट लिया और स्वयं भीतर चले गए । पार्वती ने शंकरजी की मुखाकृति देख कर समझा कि वे कदाचित भोजन में विलम्ब हो जाने के कारण क्रुद्ध है । इसलिए उन्होंने तुरन्त भोजन तैयार करके दो थालों में परोस दिया और महादेवजी को भोजन के लिए बुलाया । शंकरजी ने आकर देखा कि भोजन दो थालों में परोसा गया है तो उन्होंने पार्वतीजी से पूछा कि यह दूसरा थाल किसके लिए है । पार्वती जी ने कहा कि यह मेरे पुत्र गणेश के लिए है , जो बाहर द्वार पर पहरा दे रहा है । यह सुनकर शिवजी ने कहा कि मैंने तो उसका सिर काट डाला है । शिवजी के बात से पार्वतीजी बहुत व्याकुल हुई और उन्होंने उनसे उसे जीवित करने की प्रार्थना की । पार्वती को प्रसन्न करने के लिए शिवजी ने एक हाथी के बच्चे का सिर काट कर बालक के धड़ से जोड़ दिया और उसे जीवित कर दिया । पार्वतीजी अपने पुत्र गणेश को पाकर बहुत प्रसन्न हुई । उन्होंने पति और पुत्र को भोजन कराकर पीछे स्वयं भी भोजन किया । 


रविवार, 2 अगस्त 2020

श्रीराम मन्दिर शिलान्यास ५अगस्त2020


सनातन हिन्दू धर्म गर्न्थो के अनुसार भगवान  श्रीराम जी का जन्म अयोध्या में हुआ था, वहाँ पर राजा श्रीराम चन्द्र जी का भव्य मंदिर था, किन्तु राम जी के भक्तो के अथक साहस व प्रयास से पुनःराम मंदिर का पुनर्निर्माण होने जा रहा है। शिलान्यास 5 अगस्त 2020 को होगा।जिसमे सभी राम भक्तो का अकल्पनीय सहयोग से हर्षोल्लास के द्वारा पुनः अपने ईस्ट  श्री राममंदिर का शिलान्यास होगा।जो समस्त मानवजाति के लिए कल्याणकारी होगा। जिसमें भारत के साथ पूरे विश्व मे राम जी को अपनी आस्था व आदर्श प्ररेणाश्रोत मनाने वालो को अपनी सहभागिता अवश्य स्थापित करनी चाहिये, जिससे आने वाली पीढ़ी आप पर गर्व कर सके।

शास्त्रो में अयोध्या को मोक्षदायिनी क्षेत्र कहा गया है।जो भगवान विष्णु जी के चक्र में स्थापित है।और अयोध्या को पूरे विश्व की राजधानी भी कहा जाता है,जो सरयू नदी के तट पर स्थापित है,अयोध्या सूर्यवंशी राजाओ की राजधानी रही है।उसी सूर्यवंश में श्रीराम जी का जन्म हुआ था।जिन्हें समस्त मानव जाति के लोग अपने आदर्श के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम राम जी की पूजा करते है।

बुद्धिजीवी मनुष्य हमेशा ऐसे समय की प्रतिक्षा में रहते है, जो धर्म सम्बन्धी कार्यो में बढ़चढ़ कर भाग लेकर समस्त मानवजाति का कल्याण कर सके ,उन विभूतियो को याद करे जिन्होंने धर्म व मानव कल्याण के लिए अपना बलिदान दिया।क्यों ना हम सभी अयोध्या में निर्माण होने वाले भगवान श्री राम मंदिर शिलान्यास में अपना योगदान देकर अपने जीवन को कृतार्थ करें।

तन पवित्र सेवा करी धन पवित्र कर दान।

मन पवित्र हरि भजन सो त्रिविध होत कल्याण।।


सभी श्रीराम भक्तो का आह्वान करता हूँ ,किश्रीराम जी के मंदिर निर्माण में एक रुपया से लेकर यथाशक्ति दान देकर अपनी सहभगिता दर्ज करें।

     आपका दिया दान महादान के रूप में भगवान राम जी के कार्यो में लग सके।

इतिहास के पन्नो में ५ अगस्त २०२०का दिन इतिहास के पन्नो में दर्ज हो चुुका है।               

        ।।जय श्री राम।।

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आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
         वसई मुम्बई
     जय बद्री विशाल

डॉक्टर से कैसे बचें

चैते गुड़ बैसाखे तेल, जेठे पन्थ असाढ़े बेल। सावन साग न भादों दही, क्वार करेला न कातिक मही।। अगहन जीरा पूसे धना, माघे मिश्री फागुन चना। ई बार...