सोमवार, 17 अगस्त 2020

तुलसी विवाह

              तुलसी विवाह 

   ( कार्तिक शुक्ल एकादशी )

कार्तिक शुक्ल एकादशी को तुलसी - पूजन का उत्सव भारत भर में खासकर उत्तर भारत में विशेष रूप से मनाया जाता है । तुलसी को विष्णु - प्रिया भी कहते हैं । तुलसी - विवाह के लिए कार्तिक शुक्ल नवमी ठीक तिथि है । नवमी , दशमी व एकादशी को व्रत करके नियम से पूजन कर अगले दिन तुलसी का पौधा ब्राह्मण को दिया जाए तो शुभ होता है ।

परन्तु कुछ एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी - पूजन करके पांचवें दिन तुलसी का विवाह करते हैं । तुलसी - विवाह की यही पद्धति अधिक प्रचलित है ।

 तुलसी चाहे एक साधारण सा पौधा होता है । परन्तु भारतीयों के लिए यह गंगा - यमुना के समान पवित्र है । पूजा की सामग्री में तुलसी - दल ( पत्ती ) जरूरी समझा जाता है । तुलसी के पौधे को वैसे तो स्नान के बाद प्रतिदिन पानी देना स्वास्थ्य के लिए अति उत्तम है । तुलसी के कारण उसके आस - पास की वायु शुद्ध हो जाती है । तुलसी - पूजा क्यों आरम्भ हुई तथा इसकी पूजा से किसको लाभ हुआ , इस विषय में दो कथाएँ प्रस्तुत हैं ।

तुलसी कथा १- 

प्राचीन काल में जालन्धर नामक राक्षस ने चारों तरफ बड़ा उत्पात मचा रखा था । वह बड़ा वीर तथा पराक्रमी था । उसकी वीरता का रहस्य था उसकी पत्नी वृन्दा का पतिव्रता धर्म । उसी के प्रभाव से वह सर्वजयी बना हुआ था । उसके उपद्रवों से भयभीत ऋषि व देवता मिलकर भगवान् विष्णु के पास गए तथा उससे रक्षा करने के लिए कहने लगे । भगवान् विष्णु ने काफी सोच विचार कर उस सती का पतिव्रत धर्म भंग करने का निश्चय किया । उन्होंने योगमाया द्वारा एक मृत - शरीर वृन्दा के प्रांगन में फिकवा दिया । माया का पर्दा होने से वृन्दा को अपने पति का शव दिखाई दिया । अपने पति को मृत देखकर वह उस मृत - शरीर पर गिरकर विलाप करने लगी । उसी समय एक साधु उसके पास आए और कहने लगे - बेटी इतना विलाप मत करो मैं इस मृत - शरीर में जान डाल दूंगा । साधु मृत शरीर में जान डाल दी । भावातिरेक में वृन्दा ने उसका ( मृत - शरीर का ) प्रालिगन कर लिया । बाद में वृन्दा को भगवान् का यह छल - कपट ज्ञात हुआ । उधर उसका पति जो देवताओं से युद्ध कर रहा था , वृन्दा का स्तीत्व नष्ट होते ही वह देवताओं द्वारा मारा गया । इस बात का जब उसे पता लगा तो क्रोधित हो उसने विष्णु भगवान् को शाप दे दिया कि “ जिस प्रकार तुमने छल से मुझे पति - वियोग दिया है उसी प्रकार तुम भी अपनी स्त्री का छलपूर्वक हरण होने पर स्त्री - वियोग सहने के लिए मृत्युलोक में जन्म लोगे । ' यह कहकर वृन्दा अपने पति के साथ सती हो गई ।

विष्णु अब अपने छल पर बड़े लज्जित हूए । देवताओं व ऋषियों ने उन्हें कई प्रकार से समझाया तथा पार्वती जी ने वृन्दा की चिता भस्म मैं आंवला , मालती व तुलसी के पौधे लगाए । भगवान् विष्णु ने तुलसी को ही वृन्दा का रूप समझा । कालान्तर में रामवतार के समय राम जी को सीता का वियोग सहना पड़ा ।

कहीं - कहीं यह भी प्रचलित है कि वृन्दा ने शाप दिया था कि तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है । अतः तुम पत्थर बनोगे । विष्णु बोले - हे वृन्दा ! तुम मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो गई हो । यह सब तुम्हारे सतीत्व का ही फल है । तुम तुलसी बनकर मेरे साथ रहोगी तथा जो मनुष्य तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा वह परमधाम को प्राप्त होगा । इसी कारण शालिग्राम या विष्ण - शिला को पूजा बिना तुलसी - दल के अधुरी होती है । इसी पुण्य की प्राप्ति के लिए आज भी तुलसी - विवाह बड़ी धूमधाम से किया जाता है । तुलसी को कन्या मानकर व्रत करने वाला यथाविधि से भगवान् विष्ण को कन्या - दान करके तुलसी - विवाह सम्पन्न करता है । 

तुलसी पूजा करने का बड़ा माहात्म्य है ।

तुलसी कथा २ –

एक परिवार में ननद - भाभी रहती थीं । ननद अभी कुंवारी थी । वह तुलसी की बड़ी सेवा करती थीं । पर भाभी को यह सब फूटी आँख नहीं सुहाता था । कभी - कभी तो भाभी गुस्से में कहती कि जब तेरा विवाह होगा तो तुलसी ही खाने को दूंगी तथा तुलसी ही तेरे दहेज में दूंगी । यथा - समय जब ननद की शादी हुई तो उसकी भाभी ने बारातियों के सामने तुलसी का गमला फोड़कर रख दिया । भगवान् की कृपा से वह गमला स्वादिष्ट व्यंजनों में बदल गया । गहनों के बदले भाभी ने ननद को तुलसी की मंजरी पहना दी तो वह सोने के गहनों में बदल गई । वस्त्रों के स्थान पर तुलसी का जनेऊ रख दिया तो वह रेशमी वस्त्रों में बदल गया । चारों तरफ ससुराल में उसके दहेज आदि के बारे में बहुत बढ़ाई हुई। उसकी भाभी की एक लड़की थी । भाभी अपनी लड़की से कहती कि तू भी तुलसी की सेवा किया कर तुझे भी तेरी बुआ की तरह फल मिलेगा । पर लड़की का मन तुलसी की सेवा में नहीं लगता था ।

उसके विवाह का समय आया तो उसने सोचा कि मैने जैसा व्यवहार अपनी ननद से किया उसी के कारण उसे इतनी इज्जत मिली है क्यों न मैं अपनी लड़की के साथ भी वैसा ही व्यवहार करूँ । उसने तुलसी का गमला तोड़कर बरातियों के सामने रखा , मंजरी के गहने पहनाए तथा वस्त्र के स्थान पर जनेऊ रखा । परन्तु इस बार मिट्टी मिट्टी ही रही । मंजरी - व - पत्ते भी अपने पूर्व रूप में ही रहे तथा जनेऊ जनेऊ ही रहा । सभी भाभी की बुराई करने लगे । ससुराल में भी सभी लड़की की बुराई ही कर रहे थे । भाभी ननद को कभी घर नहीं बुलाती थी । भाई ने सोचा मैं ही बहन से मिल आऊँ । उसने अपनी इच्छा अपनी पत्नी को बतायी तथा सौगात ले जाने के लिए कुछ माँगा तो भाभी ने थैले में ज्वार भरकर कहा और तो कुछ नहीं है , यही ले जाओ । वह दुःखी मन से चल दिया । बहन के नगर के समीप पहुँचकर एक गोशाला में गाय के सामने उसने ज्वार का थैला उलट दिया तो गोपालक ने कहाकि सोना - मोती गाय के आगे क्यों डाल रहे हो । उसने उससे सारी बात बता दी तथा सोना - मोती लेकर प्रसन्न मन से बहन के घर गया । बहन बड़ी प्रसन्न हुई । जैसी प्रसन्नता बहन को मिली वैसी सबको मिले ।



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