शनिवार, 6 सितंबर 2025

अनन्त चतुर्दशी

      अनन्त चतुर्दशी 

         ( भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी )

यह व्रत भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी को किया जाता है । इसमें उदय तिथि ली जाती है । पूर्णिमा का सहयोग होने से इसका बल बढ़ जाता है । यदि मध्याह्न तक चतुर्दशी रहे तो और भी अच्छा है। व्रती को चाहिए कि प्रातःकाल नित्य क्रिया आदि से निवृत्त होकर शुद्ध स्थान में चौकी पर मण्डप बनाकर उसमें भगवान् की साक्षात् प्रतिमा या कुशा से बनाई हुई सात फणों वाली शेष स्वरूप अनन्त (विष्णु) मूर्ति स्थापित करे । रेशम या सूत,कच्चे डोरे को हल्दी में रंग कर चौदह गांठ लगाए  चौदह गांठ का अनन्त पूजा स्थान में रखे, और आचार्य द्वारा पूजा प्रतिष्ठा करावें। भगवान अनन्त स्वरूप का ध्यान कर गन्ध , अक्षत , पुष्प ,धूप , दीप , नैवेद्य आदि से पूजन करे । तत्पश्चात् अनन्त देव का ध्यान करके अनन्त को धारण करना चाहिए,पुरुष अपनी दाहिनी भुजा में बांध ले ।महिला यह डोरा बाई भुजा में बांधे।यह १४ गांठ का डोरा अनन्त फल देने और भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला होता है। जो मनुष्य इस १४ गांठ के अनन्त को १४ वर्ष धारण करता है। वह सदा के लिए विष्णु लोक में स्थान प्राप्त करता है।

जिस घर मे भगवान अनन्त देव का पूजन होता है । वहाँ के क्लेश दुःख दरिद्रता वस्तु दोष दूर होता है।

अनन्त धारण मंत्र-

अनन्तः कामदः श्रीमाननन्तो दोररूपकः।

अनन्त कामान्मे देहि पुत्रपौत्र विवर्द्धन ।।१।।

अनन्त संसार महा समुद्रे

मग्नं समभ्युध्दर वासुदेव।

अनन्तरुपे विनियोजयस्व

अनन्त सूत्राय नमो नमस्ते।।२।।

भगवान सत्यनारायण के समान ही अनन्तदेव भी भगवान विष्णु का ही एक अन्य नाम है । यही कारण है कि इस दिन सत्यनारायण का व्रत और कथा का आयोजन प्रायः ही किया जाता है । जिसमें सत्यनारायण की कथा के साथ - साथ अनन्त देव की कथा भी सुनी जाती है ।

अनंत चतुर्दशी की पौराणिक कथा - 

एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय यज्ञ मंडप का निर्माण सुंदर तो था ही, अद्भुत भी था वह यज्ञ मंडप इतना मनोरम था कि जल व थल की भिन्नता प्रतीत ही नहीं होती थी। जल में स्थल तथा स्थल में जल की भांति प्रतीत होती थी। बहुत सावधानी करने पर भी बहुत से व्यक्ति उस अद्भुत मंडप में धोखा खा चुके थे।


एक बार कहीं से टहलते-टहलते दुर्योधन भी उस यज्ञ-मंडप में आ गया और एक तालाब को स्थल समझ उसमें गिर गया। द्रौपदी ने यह देखकर 'अंधों की संतान अंधी' कह कर उनका उपहास किया। इससे दुर्योधन चिढ़ गया।

यह बात उसके हृदय में बाण समान लगी। उसके मन में द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने पांडवों से बदला लेने की ठान ली। उसके मस्तिष्क में उस अपमान का बदला लेने के लिए विचार उपजने लगे। उसने बदला लेने के लिए पांडवों को द्यूत-क्रीड़ा में हरा कर उस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने पांडवों को जुए में पराजित कर दिया।

पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पांडवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा। वन में रहते हुए पांडव अनेक कष्ट सहते रहे। एक दिन भगवान कृष्ण जब मिलने आए, तब युधिष्ठिर ने उनसे अपना दुख कहा और दुख दूर करने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा- 'हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनंत भगवान का व्रत करो, इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा।'

इस संदर्भ में श्रीकृष्ण ने उन्हें एक कथा सुनाई -

प्राचीन काल में सुमंत नाम का एक तपस्वी ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। उसकी एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थी। जिसका नाम सुशीला था। सुशीला जब बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई।

पत्नी के मरने के बाद सुमंत ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया। सुशीला का विवाह ब्राह्मण सुमंत ने कौंडिन्य ऋषि के साथ कर दिया। विदाई में कुछ देने की बात पर कर्कशा ने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बांध कर दे दिए।

कौंडिन्य ऋषि दुखी हो अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए। परंतु रास्ते में ही रात हो गई। वे नदी तट पर संध्या करने लगे। सुशीला ने देखा- वहां पर बहुत-सी स्त्रियां सुंदर वस्त्र धारण कर किसी देवता की पूजा पर रही थीं। सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनंत व्रत की महत्ता बताई। सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांध कर ऋषि कौंडिन्य के पास आ गई।

कौंडिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी। उन्होंने डोरे को तोड़ कर अग्नि में डाल दिया, इससे भगवान अनंत जी का अपमान हुआ। परिणामत: ऋषि कौंडिन्य दुखी रहने लगे। उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। इस दरिद्रता का उन्होंने अपनी पत्नी से कारण पूछा तो सुशीला ने अनंत भगवान का डोरा जलाने की बात कहीं।

पश्चाताप करते हुए ऋषि कौंडिन्य अनंत डोरे की प्राप्ति के लिए वन में चले गए। वन में कई दिनों तक भटकते-भटकते निराश होकर एक दिन भूमि पर गिर पड़े। तब अनंत भगवान प्रकट होकर बोले- 'हे कौंडिन्य! तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा। तुम दुखी हुए। अब तुमने पश्चाताप किया है। मैं तुमसे प्रसन्न हूं। अब तुम घर जाकर विधिपूर्वक अनंत व्रत करो। चौदह वर्ष पर्यंत व्रत करने से तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा। तुम धन-धान्य से संपन्न हो जाओगे। कौंडिन्य ने वैसा ही किया और उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई।

श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनंत भगवान का व्रत किया जिसके प्रभाव से पांडव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक राज्य करते रहे।

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आचार्य हरीश लखेड़ा

मो 9004013983

गुरुवार, 4 सितंबर 2025

खग्रास चंद्रग्रहण (7 सितंबर2025)

श्री संवत 2082 सन 2025 में लगने वाला साल का पहला चंद्रग्रहण 

यह चंद्रग्रहण भाद्रपद पूर्णिमा तिथि रविवार 7 सितंबर 2025 को लगने वाला खग्रास चंद्र ग्रहण है । यह ग्रहण भारत मैं दिखाई देगा ।

यह चंद्रग्रहण भारत के सभी भागों में दिखाई देगा । शुरू से लेकर अंतिम तक या ग्रहण दिखाई देगा 

ग्रहण समय-- 

भारत में यह ग्रहण भारतीय समय के अनुसार ग्रहण का प्रारंभ रात्रि 9:57 पर शुरू होगा।

ग्रहण मध्य, मध्य रात्रि 11:41 पर

ग्रहण मोक्ष रात्रि 1:27 पर होगा ग्रहण का स्पर्श ,मध्य, मोक्ष पूरे भारत में दिखाई देगा ।

ग्रहण फल-- 

यह ग्रहण मिथुन ,कर्क ,सिंह ,तुला ,वृश्चिक ,मकर ,कुंभ ,मीन राशि वालों के लिए कष्टकारी होने वाला है।

ग्रहण सावधानी --

जिन राशियों के लिए ग्रहण भारी होने वाला है। उन्हें चंद्र ग्रहण का दर्शन नहीं करना चहिए ।


जो बहनें पेट से हैं । उन्हें भी यह ग्रहण का दर्शन नहीं करना चाहिए ।


ग्रहण काल मे भोजन पानी का निषेध करें ।

ग्रहण काल मे हरिनाम संकीर्तन करें । 

जप दान करें।

गंगा स्नान करें ।

विशेष -- 

ग्रहण काल में किया गया जप और दान अक्षय पुण्य देने वाला सिद्धि देने वाला होता है।


मंगलवार, 8 जुलाई 2025

डॉक्टर से कैसे बचें

चैते गुड़ बैसाखे तेल, जेठे पन्थ असाढ़े बेल।

सावन साग न भादों दही, क्वार करेला न कातिक मही।।

अगहन जीरा पूसे धना, माघे मिश्री फागुन चना।

ई बारह जो देय बचाय, वहि घर बैद कबौं न जाय।।

शब्दार्थ- पन्थ-यात्रा, मही- माठा, धना-धनिया।

भावार्थ- यदि व्यक्ति चैत में गुड़, बैसाख में तेल, जेठ में यात्रा, आषाढ़ में बेल, सावन में साग, भादों में दही, क्वाँर में करेला, कार्तिक में मट्ठा अगहन में जीरा, पूस में धनिया, माघ में मिश्री और फागुन में चना, ये वस्तुएँ स्वास्थ्य के लिए कष्टकारक होती हैं। जिस घर में इनसे बचा जाता है, उस घर में वैद्य कभी नहीं आता क्योंकि लोग स्वस्थ बने रहते हैं।

सोमवार, 7 जुलाई 2025

हरिशयनी एकादशी

हरिशयनी या देवसोनी एकादशी ( आषाढ़ शुक्ला एकादशी ) आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को हरिशयनी अथवा देवसोनी एकादशी कहते हैं । इस दिन से भगवान् विष्णु चार मास के लिए क्षीर - सागर में शयन करते है । पुराणों में यह भी कहा गया है कि इस दिन से विष्णु भगवान चार मास तक बलि के द्वार पर पाताल में रहते हैं और कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी को लौटते हैं। इसी कारण इस एकादशी को हरि शयनी एकादशी और कार्तिक शुक्ला एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं । इन चार महीनों में भगवान विष्णु के क्षीर सागर में शयन करने के कारण विवाह आदि कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता । आषाढ़ से कार्तिक तक का यह समय “ चातुर्मास्य " कहलाता है । इन दिनों में साधु एक ही स्थान पर रहकर तपस्या करते हैं । ब्रह्मवैवर्त पुराण में इस एकादशी का विशेष माहात्म्य लिखा है । इस व्रत के करने से सभी पाप - नष्ट होते हैं और भगवान हृषीकेश प्रसन्न होते हैं । लगभग सभी एकादशियों को भगवान विष्णु की पूजा - आराधना की जाती है , परन्तु आज की रात्रि से तो भगवान का शयन प्रारम्भ होगा अतः उनकी विशेष विधि - विधान से पूजा की जाती है । भगवान विष्णु की प्रतिमा को आसन पर आसीन कर उनके हाथों में शंख , चक्र , गदा , पद्म सुशोभित कर उन्हें पीताम्बर , पीत वस्त्रों या पीले दुपट्टे से सजाया जाता है । पंचामृत से स्नान करवा कर तत्पश्चात् भगवान् की धूप , दीप , पुष्प इत्यादि से पूजाकर घृत दीपक से आरती उतारी जाती है । भगवान् को तांबूल ( पान ) और मुंगीफल ( सुपारी ) अर्पित करने के बाद निम्नलिखित मंत्र द्वारा भगवान् की स्तुति की जाती है । " सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जमत्सुप्तं भवेदिदम् । विबुद्धे त्वयि बुद्धं च जगत्सर्व चराचरम् ।। "


भावार्थ - हे जगन्नाथ जी आपके निद्रित हो जाने पर सम्पूर्ण विश्व निद्रित हो जाता है और आपके जाग जाने पर सम्पूर्ण विश्व तथा चराचर भी जाग्रत हो जाते हैं । इस प्रकार प्रार्थना करके भगवान् विष्णु का पूजन करना चाहिये । तत्पश्चात् सात्विक वेद पाठी ब्राह्मणों को प्रेम पूर्वक भोजन कराकर स्वयं फलाहार करना चाहिये । रात्रि में भगवान् के मन्दिर में ही शयन करना चाहिये तथा शयन करते समय भगवान् का भजन एवं स्तुति करनी चाहिये । स्वयं निद्रित होने के पूर्व भगवान् को भी शयन करा देना चाहिये । अनेक परिवारों में आज रात्रि को महिलाए पारिवारिक परम्परा के अनुसार देवों को सुलाती हैं । जो श्रद्धालु जन इस एकादशी को पूर्ण विधिविधान पूर्वक भगवान का पूजन करते और व्रत रखते हैं वे मोक्ष को प्राप्त कर भगवत् लीन हो जाते हैं । कथा - एक बार नारदजी ने ब्रह्माजी से हरिशयनी एकादशी के माहात्म्य के बारे में पूछा । ब्रह्माजी ने कहा कि सत्ययुग मान्धाता नगर में एक चक्रवर्ती राजा राज्य करता था । उसके राज्य में सब प्रजा आनन्द से रहती थी । एक बार लगातार तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण उसके राज्य में भयानक अकाल पड़ा । प्रजा व्याकुल हो गई । सब ओर त्राहि - त्राहि मचने लगी । यज्ञ , हवन , पिण्डदान आदि समस्त शुभ कर्म बन्द हो गए । प्रजा ने राजा से दरबार में जाकर दुहाई मचाई । राजा ने कहा आप लोगों का कष्ट भारी है । मैं प्रजा की भलाई के हेतु पूरा प्रयत्न करूंगा । इस प्रकार प्रजा को समझा - बुझा कर राजा मान्धाता सेना अपने साथ लेकर वन की ओर चल दिये । 

अब वे ऋषि - मुनियों के आश्रम में विचरने लगे । एक दिन वे ब्रह्माजी के तेजस्वी पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम पर पहुंचे । राजा ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया । मुनि ने उन्हें आशीर्वाद देकर कुशल - मंगल पूछी और उनका वन में आने का अभिप्राय जानना चाहा । राजा ने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि हे भगवान सब प्रकार से धर्म का पालन करते हुए भी मेरे राज्य में अकाल पड़ा । मैं इसका कारण नहीं जानता । हे महामुने मेरा संशय दूर कीजिए । ऋषि ने कहा - राजन् ! यह सत्ययुग सब युगों से उत्तम है । इसमें थोड़े से पाप का भी बड़ा भारी फल मिलता है । इसमें लोग ब्रह्म की उपासना करते हैं । इसमें धर्म अपने चारों चरणों में स्थित रहता है । इसमें ब्राह्मणों के अतिरिक्त और कोई तप नहीं करता । तुम्हारे राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है , इसलिए वर्षा नहीं होती । यदि वह न मारा गया तो दुर्भिक्ष शान्त नहीं होगा । उसको मारने से ही पाप की शान्ति होगी । राजा ने उस निरपराध तपस्वी को मारना उचित न विचार कर ऋषि से अन्य उपाय पूछा । तब ऋषि ने बताया कि आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की हरशयनी अर्थात् पद्मा एकादशी का व्रत करो । उसके प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी । यह सुनकर राजा राजधानी में लौट आया और उसने चारों वर्णों सहित पद्या एकादशी का व्रत किया । व्रत के प्रभाव से वर्षा हुई और पृथ्वी अन्न से परिपूर्ण हो गई , जिससे सबका कष्ट दूर हो गया ।




शुक्रवार, 27 जून 2025

ग्वेल देवता की आरती

 ।। श्री ग्वेल देवता की आरती ।।

श्री ग्वेल देवता की आरती



ॐ जय श्री गोलू देवा, स्वामी जय श्री गोलू देवा, शरणगत हम स्वामी, स्वीकारो सेवा।।  


ॐ जय श्री गोलू देवा, स्वामी जय श्री गोलू देवा।।


राजवंश कत्यूरी तुमरो, धूमाकोट निवासी,

जय जय हेकरुणा ! जय जय सुखराशि ।।


ॐ जय श्री गोलू देवा, स्वामी जय श्री गोलू देवा।।


हलराई के पोता, पिता झालराय,

तपस्विनी कालिना माता कहलयै।। 


ॐ जय श्री गोलू देवा, स्वामी जय श्री गोलू देवा।।


नाम अनेक गौवेल गोलू गोरिल, 

गोरे भैरव, दूधाधारी, बाल गोरिया, न्यायिल।।


ॐ जय श्री गोलू देवा, स्वामी जय श्री गोलू देवा।।


श्वेत अश्व आरुधि, जयति धनुर्धारी।

ट्रेडमार्के ध्वज घंटा, मिष्ठान्न अरु मेवा।।


ॐ जय श्री गोलू देवा, स्वामी जय श्री गोलू देवा।।


मित्र हम आपके , स्वीकारो सेवा , 

शरणगत आरत की पीर हरो देवा।। 


ॐ जय श्री गोलू देवा, स्वामी जय श्री गोलू देवा।।


ॐ जय श्रीगोलू देवा, स्वामी जय श्रीगोलू देवा

शरणगत हम स्वामी, स्वीकृतो सेवा।। 


ॐ जय श्री गोलू देवा, स्वामी जय श्री गोलू देवा।।

शुक्रवार, 20 जून 2025

ॐ जय गौरी नंदा


ओम जय गौरी नंदा: भजन (Om Jai Gauri Nanda)


   

ॐ जय गौरी नंदा,

प्रभु जय गौरी नंदा,

गणपति आनंद कंदा,

गणपति आनंद कंदा,

मैं चरणन वंदा,

ॐ जय गौरी नंदा ॥


सूंड सूंडालो नयन विशालो,

कुण्डल झलकंता,

प्रभु कुण्डल झलकंता,

कुमकुम केसर चन्दन,

कुमकुम केसर चन्दन,

सिंदूर बदन वंदा,

ॐ जय गौरी नंदा ॥



ॐ जय गौरी नंदा,

प्रभु जय गौरी नंदा,

गणपति आनंद कंदा,

गणपति आनंद कंदा,

मैं चरणन वंदा,

ॐ जय गौरी नंदा ॥


मुकुट सुगढ़ सोहंता,

मस्तक सोहंता,

प्रभु मस्तक सोहंता,

बईया बाजूबन्दा,

बईया बाजूबन्दा,

ओंची निरखंता,

ॐ जय गौरी नंदा ॥



ॐ जय गौरी नंदा,

प्रभु जय गौरी नंदा,

गणपति आनंद कंदा,

गणपति आनंद कंदा,

मैं चरणन वंदा,

ॐ जय गौरी नंदा ॥


मूषक वाहन राजत,

शिव सूत आनंदा,

प्रभु शिव सूत आनंदा,

कहत शिवानन्द स्वामी,

जपत शिवानन्द स्वामी,

मिटत भव फंदा,

ॐ जय गौरी नंदा ॥


ओम जय गौरी नंदा,

प्रभु जय गौरी नंदा,

गणपति आनंद कंदा,

गणपति आनंद कंदा,

मैं चरणन वंदा,

ॐ जय गौरी नंदा ॥

हरेला त्योहार (हरियाली )

उत्तराखंड का लोक त्योहार हरेला (हरियाली)

(कर्क संक्रान्ति १ गते श्रावण मास)

उत्तराखंड में समय समय पर ऋतु व संक्रान्ति के आगमन पर अनेक त्योहार मनाये जाते है । जिनकी प्रसिद्धि पूरे उत्तराखंड व देश विदेशों में दिखायी देता है । हरेला त्यौहार मूलरूप से उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में विशेष हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है ।

हरेला त्यौहार हरियाली ,प्रकृति संरक्षण का प्रतीक है ,जो हमे पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है।सावन के आगमन पर लोग वृक्षारोपण करते है। यह हरेला त्यौहार प्रकृति की रक्षा व सुख शांति के लिये मनाया जाता है। जिसमें सभी जन मानुष प्रकृति की रक्षा का संकल्प लेते है ।

हरेला का त्यौहार भगवान शिव व शिव परिवार को समर्पित है ।सावन के आगमन पर लोग अपने घरों में मिट्टी से शिव परिवार की मूर्ति बनाकर अभिषेक पूजन करते है । मान्यताओं के अनुसार हरेले के दिन भगवान शिव व पार्वती जी का विवाह हुआ था ।इस लिये भगवान शिव जी को सावन का महीना प्रिय है ।

हरेला त्यौहार -

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हरेला त्यौहार श्रावण मास के १गते कर्क संक्रान्ति को मनाया जाता है । हरेला त्यौहार के नौ दिन ,दश दिन ,ग्यारह दिन पूर्व बांस या रिंगाल से बनी टोकरी में मिट्टी डालकर उसमे पांच या सात प्रकार के धान्य  जौ ,धान ,गहत ,भट्ट ,मक्का , सरसों ,कपास, झुंगर बोते है । रोज सुबह बोये हरेले में पानी दिया जाता है ।नौ दिन तक हरेले पर सूर्य का प्रकाश नही पड़ना चाहिए । हरेला घर के मंदिर या सामूहिक रूप से गाँव या परिवार के कुलदेवता के मंदिर में बोते है ।

हरेला त्यौहार के दिन प्रातः स्नानादि से निवृत हो हरेला व देवताओं की पूजा करके हरेला काट कर प्रथम देवताओं को अर्पित किया जाता है ।फिर घर के बड़े बुजुर्ग या माताओं के हाथों से सबके सिर व कान में लगाया जाता है ।

हरेला लगाते समय माँ अपने बच्चों को शुभ आशीष देते हुवे कहती है ।

आशीष वचन -

लाग हर्या लाग पंचमी

लाग दशै लाग बोगाव

जी रये जागि रये

यो दिन यो मास भेंटने रया

दुब जस पनपी जाया

अगास जस उच्च 

धरती जस चकाव हे जाया

शेर जस तराण हो 

स्याव जस बुद्धि हो 

हिमालय में हिंयु रण तलक

गंग जमुन में पाणि रण तलक

जी रये जागि रये 

जो परिवार के सदस्य नॉकरी या अन्य कार्यो के लिए दूसरे शहरों में रहते है। उन्हें लिफाफे में हरेला डालकर डाक द्वारा भेजा जाता है । 

आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा 

रविवार, 15 जून 2025

संध्योपासन विधि

सध्या वंदन 

( १ ) पवित्रीकरणम्

बाये हाथ मे जल लेकर दाहिने हाथ से जल का छिड़काव शरीर पर करें ।


ॐ अपवित्र: पवित्रो वेत्यस्य वामदेव ऋषि: विष्णुर्देवता गायत्रीच्छन्द: हृदि पवित्रकरणे विनियोग:।

ॐ अपवित्र पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।

य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:।।


( २ ) त्रिराचमनम् 

तीन बार जल पीवे चौथे में जल छोड़ दे ।

अन्तर्जानुहस्त: संहताङ्गुलिना शुद्धजलं गृहीत्वा मुक्ताङगुष्ठकनिष्ठेनवामेनान्वारब्धपाणिना ब्रह्मतीर्थेन त्रिरप: पिबेत्।

१  ॐ केशवाय नमः

२  ॐ नारायणाय नमः

३  ॐ माधवाय नमः

४  ॐ हृषीकेशाय नमः


( ३ ) आसनशुद्धि: 

एक चम्मच जल लेकर आसन शुद्धि करे ।

ॐ पृथ्वीतिमन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषि: सुतलं छन्द: कूर्मो देवता आसने विनियोग:।

ॐ पृथ्वि त्वया ध‌ता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता।

त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम्।।


( ४ ) पवित्रीधारणम् 

कुश से निर्मित पवित्री अनामिका अंगुली में धारण करें ।

ॐ पवित्रेस्थोव्वैष्णव्यौ सवितुर्व: प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभि: । तस्य ते पवित्रते पवित्रपूतस्य यत्काम: पुनेतच्छकेयम्।।

( ५ ) त्र्यायुषमित्यस्य नारायण ऋषि: रुद्रो देवता उष्णिक्छन्द: भस्मधारणे विनियोग:।

( ६ ) स्वस्ति - तिलक धारणम् 

चंदन या कुमकुम का तिलक धारण करें ।

ॐ स्वस्ति नऽइन्द्रोव्वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषाव्विश्ववेदा:। स्वस्ति नस्तार्क्षोऽअरिष्टनेमि: स्वस्ति नो बृहस्पतिर्द्दधातु।।


( ७ ) ॐ मानस्तोक इति मन्त्रस्य कुत्स ऋषि: जगती छन्द: एको रुद्रो देवता शिखाबन्धने विनियोग:।

ॐ मानस्तोकेतनये मानऽआयुषि मानोगोषु मानोऽअश्वेषुरीरिष:। मानोव्वीरान्नुद् द्रभामिनोव्वधी र्हविष्म्मन्त: सदमित्वाहवामहे।।

चिद्रूपिणि महामाये दिव्यतेज: समन्विते।

तिष्ठ देवि शिखाबन्धे तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे।।


( ८ )संकल्प:


ॐ शुभे शोभनेमुहुर्ते अद्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेयवाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशान्तर्गते पुण्यक्षेत्रे ------ कलियुगे कलिप्रथमचरणे ------- सम्वत्सरे ------- मासे ------- पक्षे -------- तिथौ -------- वासरे ------- नक्षत्रे ------- योग -------- ममोपात्तदुरितक्षयार्थं  श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं ब्रह्मवर्चस्वाप्तये 

  प्रात:/मध्याह्न/सायं संध्योपासनं करिष्ये।


( ९ )  अघमर्षणाचमनम् 

विनियोग:--

ॐ ऋतं चेति त्र्यचस्य माधुच्छन्दसोऽघमर्षण ऋषिरनुष्टुप्छन्दो भाववृत्तं दैवतमपामुपस्पर्शने विनियोग:।


ॐ ऋतं च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।

ततो रात्र्यजायत तत: समुद्रोअर्णव:।।

समुद्रादर्णवादधिसंवत्सरो अजायत।

अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वंशी।।

सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।

दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्व:।।


( १० ) प्राणायाम:

विनियोगः--

ॐ कारस्यब्रह्मऋषिर्दैवीगायत्रीछन्द: परमात्मादेवता सप्तव्याहृतीनां प्रजापतिर्ऋषिर्गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहती पंक्तित्रिष्टुब्जगत्यश्छन्दांस्यग्नि वायु सूर्य बृहस्पतिर्वरुणेन्द्रविश्वेदेवादेवता: तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्द: सविता देवता आपोज्योतिरितिशिरस: प्रजापतिर्ऋषिर्यजुश्छन्दो ब्रह्माग्निवायुसूर्या देवता: प्राणायामे विनियोग:।


ॐ भू: ॐ भुव: ॐ स्व: ॐ मह:  ॐ जन: ॐ तप: ॐ सत्यम् ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

ॐ आपो ज्योति रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्।।

( ११ ) प्रातराचमनम् 

सूर्यश्च मेति नारायण ऋषि: प्रकृति श्छन्द: सूर्यमन्युमन्युपतयो रात्रिश्च देवता अपामुपस्पर्शने विनियोग:।

ॐ सूर्यश्च मामन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्य: पापेभ्योरक्षन्ताम् यद्रात्र्या पापमकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां पभ्द्यामुदरेण शिश्ना रात्रिस्तदवलुम्पतु । यत्किञ्च दुरितं मयि इदमहं माममृतयोनौ सूर्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा ।।

( १२ ) मध्याह्नाचमनम्

आप: पुनन्त्विति मंत्रस्य नारायण ऋषि: अनुष्टुप् छन्द: आप: पृथिवी, ब्रह्मणस्पतिर्ब्रह्म च देवता अपामुस्पर्शने विनियोग: ।


ॐ आप: पुनन्तु पृथिवीं पृथिवी पूता पुनातु माम् ।

पुनन्तु ब्रह्मणस्पतिर्ब्रह्मपूता पुनातु माम्।

यदुच्छिमभोज्यं च यद्वा दुश्चरितं मम।

सर्वे पुनन्तु मामापोऽसतां च प्रति ग्रह गुं स्वाहा ।।


( १३ ) सायमाचमनम् 

अग्निश्चमेति नारायण ऋषि: प्रकृतिश्छन्दोग्निमन्युमन्युपतयोऽहश्च देवता अपामुपस्पर्शने विनियोग: ।

 ॐ अग्निश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्य: पापेभ्यो रक्षन्ताम् यदह्ना पापमकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां पभ्द्यामुदरेण शिश्ना अहस्तदवलुम्पतु ।

यत्किञ्च दुरितं मयि इदमहं माममृतयोनौ सत्ये जुहोमि स्वाहा ।।


( १३ ) मार्जनम्


ॐ आपो हिष्ठेति त्र्यचस्य सिन्धुद्विप ऋषिर्गायत्री छन्द: आपोदेवता मार्जने विनियोग: ।


ॐ आपो हिष्ठा मयो भुव:।

ॐ ता न ऊर्जे दधितन।

ॐ महे रणाय चक्षसे।

ॐ तो व: शिवतमो रस:।

ॐ तस्य भाजयतेह न:।

ॐ ऊशतीरिव मातर।

ॐ तस्या अरङ्गमाम व:।

ॐ यस्य क्षयाय जिन्वथ।

ॐ आपो जनयथा च न:।


( १४ ) अभिमन्त्रणम्


द्रुपदादिवेत्यश्विसरस्वतीन्द्रा ऋषियोऽनुष्टुप्छन्द आपो देवता शिरस्सेके विनियोग।


ॐ द्रुपदादिव मुमुचान: स्विन्न: स्नातो मलादिव ।

पूतं पवित्रेणेवाज्यमाप: शुन्धन्तु मैनस:।।


( १५ ) अघमर्षणम्


 ऋतञ्चेतित्र्यचस्यमाधुच्छन्दसोऽघमर्षण ऋषि: अनुष्ठुप्छन्दोभाववृतं दैवतमघमर्षणे विनियोग:।


ॐ ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।

ततो रात्र्यजायत तत: समुद्रोअर्णव।।

समुद्रादर्णवादधिसंवत्सरो अजायत।

अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।।

सुर्याचन्द्रमासौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत्।

दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्व:।।


( १६ )  आचमनम्


अन्तश्चरसीति तिरश्चीन ऋषिरनुष्टुप्छन्द: आपो देवता अपामुपस्पर्शने विनियोग:।


ॐ अन्तश्चरसि भूतेषु गुहायां विश्वतोमुख: ।

त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कार आपो ज्योती रसोऽमृतम्।।


( १७ )  सूर्यार्घ्यम्


कारस्य ब्रह्म ऋषिर्दैवी गायत्री छन्द: परमात्मा देवता तिसृणां महाव्याहृतीनां प्रजापतिर्ऋषिर्गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्छन्दांस्यग्निवायुसूर्यो देवता तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्द: सविता देवता सूर्यार्घ्यदाने विनियोग:।


ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेणयं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

( इस मंत्र से सूर्यनारायण भगवान को तीन बार अर्घ्य दें )


( १८  ) सूर्योपस्थानम्


उद्वयमिति प्रस्कण्व ऋषि: अनुष्टुप्छन्द: सूर्यो देवता उदुत्यमिति प्रस्कण्व ऋषि: निचृद्गायत्री छन्द: सूर्यो देवता तच्चक्षुरिति दध्यडाथर्वण ऋषि: एकाधिका ब्राह्मी त्रिष्टुप्छन्द: सूर्यो देवता सूर्योपस्थाने विनियोग:।


ॐ उद्वयं तमसस्परि स्व: पश्यन्त उत्तरम्।

देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ।। 

ॐ उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतव:।

दृशे विश्वाय सूर्यम् ।।

ॐ चित्रं देवानामुदनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्ने:।आप्राद्यावापृथ्वी अन्तरिक्ष गुं सूर्यऽआत्मा जगतस्तस्थुषश्च।।

ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छक्रमुच्चरत्।

पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शत गुं श्रृणुयाम शरद: शतं प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: स्याम शरद: शतं भूयश्च शरद: शतात् ।।


( १९ ) न्यास:


प्रतिमत्रं दक्षिणेन पाणिना वामकरस्थितोयैरभिषिञ्चेत्।


ॐ भू: पुनातु - शिरसि।

ॐ भुव: पुनातु - नेत्रयो:।

ॐ स्व: पुनातु - कण्ठे।

ॐ मह: पुनातु - हृदये।

ॐ जन: पुनातु - नाभ्याम्।

ॐ तप: पुनातु - पादयो:।

ॐ सत्यं पुनातु - पुनः शिरसि।


( २० ) गायत्र्यावाहनम्


तेजोऽसीति धामनामासि च परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिर्यजुस्त्रिष्टुबुगुष्णिहौछन्दसा सविता देवता गायत्र्यावाहने विनियोग:।


ॐ  तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि।

धामनामासि प्रियं देवनामनाधृष्टं देवयजनमसि।।


गायत्रीध्यानम्


ॐ श्वेतवर्णा समुद्दिष्टा कौशेयवसना तथा ।

श्वेतैर्विलेपनै: पुष्पैरलङ्कारैश्च भूषिता ।।

आदित्यमण्डलस्था च ब्रह्मलोकगताऽथवा ।

अक्षसूत्रधरा देवी पद्मसनगता शुभा ।।


( २१ ) गायत्र्युपस्थानम्


गायत्र्यसीति विवस्वान् ऋषि: स्वराण्महापंक्तिश्छन्द: परमात्मादेवता गायत्र्युपस्थाने विनियोग: ।


ॐ गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि न हि पद्यसे नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परोरजसेऽसावदो मा प्रापत्।।


( २२ ) गायत्री - शापविमोचन 


(१) ब्रह्म शापविमोचन  

ॐ अस्य श्री ब्रह्म शापविमोचन मन्त्रस्य ब्रह्माऋषिर्भुक्तिमुक्तिप्रदा ब्रह्म शापविमोचनी गायत्री शक्तिर्देवता गायत्री छन्द: ब्रह्मशापविमोचने विनियोग: ।


ॐ गायत्रीं ब्रह्मेत्युपासीत यद्रुपं ब्रह्मविदो विदु:।

तां पश्यन्ति धीरा: सुमनसो वाचमग्रत:।।

ॐ वेदान्तनाथाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्।

ॐ देवि! गायत्री! त्वं ब्रह्मशापाद्विमुक्ता भव।


(२) वसिष्ठ - शापविमोचन 

ॐ अस्य श्री वसिष्ठ शापविमोचनमन्त्रस्य निग्रहानुग्रहकर्ता वसिष्ठ ऋषिर्वसिष्ठानुगृहहीता गायत्री शक्तिर्देवता विश्वोद्भवा गायत्री छन्द: वसिष्ठशापविमोचनार्थं जपे विनियोग:।


ॐ सोऽहमर्कमयं ज्योतिरात्मज्योतिरहं शिव:।

आत्मज्योतिरहं शुक्र: सर्वज्योतीरसोऽस्म्यहम्।।

( योनिमुद्रा दिखाकर तीन बार गायत्री जपे ) 

ॐ देवि!गायत्री! त्वं वसिष्ठशापाद्विमुक्ताभव।


(३)  विश्वामित्र - शापविमोचन 

 ॐ अस्य श्री  विश्वामित्र शापविमोचनमन्त्रस्य नूतनसृष्टिकर्ता विश्वामित्र ऋषिर्विश्वामित्रानुगृहीता गायत्री शक्तिर्देवता वाग्देहा  गायत्री छन्द: विश्वामित्र शापविमोचनार्थं छपे विनियोग: ।


ॐ गायत्रीं भजाम्यग्निमुखीं विश्वगर्भां यदुद्भवा:।

देवाश्चक्रिरे विश्वसृष्टिं तां कल्याणीमिष्टकरीं प्रपद्ये।।


ॐ देवि!गायत्री! त्वं विश्वामित्रशापाद्विमुक्ता भव।


(४) शुक्र - शापविमोचन 

ॐ अस्य श्री शुक्रशापविमोचनमन्त्रस्य श्री शुक्रऋषि: अनुष्टुप्छन्द: देवी गायत्री देवता  शुक्रशापविमोचनार्थं जपे विनियोग: ।


सोऽहमर्कमयं ज्योतिरात्मज्योतिरहं शिव:।

आत्मज्योतिरहं शुक्र: सर्वज्योतीरसोऽस्म्यहम्।।

 

( पुनः फिर यौनी मुद्रा बनाकर तीन बार गायत्री जपे )

 ॐ देवि गायत्री त्वं शुक्रशापाद्विमुक्ता भव ।


( प्रार्थना )

 ॐ अहो देवि महादेवि संध्ये विद्ये सरस्वति।

अजरे अमरे चैव ब्रह्मयोनिर्नमोऽस्तु ते।।


( जप के पूर्व चौबीस मुद्राऐं )


सुमुखं सम्पुटं चैव विततं तथा।

द्विमुखं त्रिमुखं चैव चतुष्पञ्चमुखं तथा।।

षण्मुखाऽधोमुखं चैव। व्यापकाञ्जलिकं तथा।

शकटं यमपाशं च ग्रथितं चोन्मुखोन्मुखम्।।

प्रलम्बं मुष्टिकं चैव मत्स्य: कूर्मो वराहककम्।

सिंहाक्रान्तं महाक्रान्तं मुद्गरं पल्लवं तथा।।

एता मुद्राश्चतुर्विंशज्जपादौ परिकीर्तिता:।


( २४ ) गायत्री जप


ॐ कारस्य ब्रह्मऋषि: र्दैवी गायत्री छन्द: परमात्मा देवता तिसृणां महाव्याहृतीनां प्रजापतिर्ऋषिर्गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दास्यग्निवायुसूर्या देवता तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्द: सविता देवता जपे विनियोग: ।


ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेणयं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्


(  जप के बाद आठ मुद्रायें  )


सुरभिर्ज्ञानवैराग्ये योनि: शङ्खोऽथ पङ्कजम्।

लिङ्गनिर्वाणमुद्राश्च जपान्तेऽष्टौ प्रदर्शयेत्।।


( २५ ) जपसमर्पणम्


ॐ देवा गातुविद इति मनसस्पतिर्ऋषिर्विराडनुष्टुप्छन्द: वातो देवता जपनिवेदने विनियोग: ।


ॐ देवा गातुविद गातुं वित्त्वा गातुमित।

मनसस्पत इमं देव यज्ञ गुं स्वाहा व्वाते धा:।।


( २६ ) गायत्री कवच


ॐ अस्य श्री गायत्री कवचस्य ब्रह्मा ऋषिर्गायत्री छन्दो गायत्री देवता ॐ भू: बीजम् भुव: शक्ति: स्व: कीलकम् गायत्री प्रीत्यर्थं जपे विनियोग: ।


ध्यानम्

पञ्चवक्त्रां दशभुजा सूर्यकोटिसमप्रभम्।

सावित्रीं ब्रह्मवरदां चन्द्रकोटिसुशीतलाम्।।

त्रिनेत्रां सितवक्त्रां च मक्ताहारविराजिताम्।

वराभयाङ् कुशकशाहेमपात्राक्षमालिकाम्।।

शङ्खचक्राब्जयुगलं कराभ्यां दधतीं वराम्।

सितपंकजसंस्थां च हंसारूढां सुखस्मिताम्।।

ध्यात्वैवं मानसाम्भोजे गायत्राकवचं जपेत्।


ॐ ब्रह्मोवाच 


विश्वामित्र! महाप्राज्ञ ! गायत्री कवचं श्रृणु।

यस्य विज्ञानमात्रेण त्रैलोक्यं वशयेत् क्षणात्।।

सावित्री में सिर: पातु सिखायाम मृतेश्वरी।

 ललाटंं ब्रह्मदवत्या भ्रुवौ म पातु वैष्णवी।।

कर्णौ मे पातु रुद्राणी सूर्या सावित्रिकाऽम्बिके।

गायत्री वदनं पातु शारदा दशनच्छदौ।।

द्विजान यज्ञप्रिया पातु रसनायां सरस्वती।

सांख्यायनी नासिकां मे कपोलौ चंद्रहासिनी ।।

चिबुकं वेदगर्भा  कंठ पात्वघनाशिनी।

स्तनौ मे पातु इन्द्राणी हृदयं ब्रह्मवादिनी ।।

उदरं विश्वभोक्ती  च नाभौ पातु  सुरप्रिया।

जघनं नारसिंही च  पृष्ठं  ब्रह्माण्डधारणी।।

पाश्वौ मे पातु पद्माक्षी गुह्यं गोगोप्त्रिकाऽवतु।

ऊर्वोरोंकाररूपा च जान्वो: संध्यात्मिकाऽवतु।।

जङ्घयो: पातु आक्षोभ्या गुल्फयोर्ब्रह्मशीर्षका।

सूर्या पदद्वयं पातु चन्द्रा पादाङगुलीषु च।।

सर्वाङ्गं  वेदजननी पातु मे सर्वदा घना।

इत्येतत् कवचं ब्रह्मन् गायत्र्या: सर्वपावनम्।

पुण्यं पवित्रं पापघ्नं सर्व रोगनिवारणम्।।

त्रिसंध्यं य: पठेद्विद्वान् सर्वान् कामानवाप्नुयात।

सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञ: स भवेद्वेदवित्तम:।।

सर्वयज्ञफलं प्राप्य ब्रह्मान्ते समवाप्नुयात्।

प्राप्नोति जप मात्रेण पुरुषार्थांश्चतुर्विधान्।।


इति विश्वामित्र संहितोक्तं गायत्री कवचं संपूर्णम्।।


( २७ ) सूर्यप्रदक्षिणा 


विश्वतश्चक्षुरिति भौवन ऋषि: त्रिष्टुप्छन्दो विश्वकर्मा देवता सूर्यप्रदक्षिणायां विनियोग:।


विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात्।

सम्बाहुभ्यां धमति सम्पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन् देव एक:।


( २८ ) क्षमा प्रार्थना


मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन।

यत्पूजितं मया देवी प्रसीद परमेश्वरी।।


उत्तमे शिखरे इत्यस्य वामदेव ऋषिर्नुष्टुप् छन्द: गायत्री देवता गायत्री विसर्जने विनियोग:।


उत्तमे शिखरे देवी भूम्यां पर्वतमूर्धनि।

ब्राह्मणेभ्योऽभ्यनुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखम्।।


अनेन संध्योपासनाख्येन कर्मणा श्रीपरमेश्वर: प्रीयतां न मम।ॐ तत्सत् श्रीब्रह्मार्पणमस्तु।


यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु।

न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्।।

( श्रीविष्णवे नमः ) तीन बार बोलें

श्री विष्णु स्मरणात् परिपूर्णतास्तु।

बुधवार, 4 जून 2025

गंगा दशहरा

गंगा दशहरा 

( ज्येष्ठ शुक्ला दशमी )

सनातनी हिन्दू धर्म मे गंगा स्नान का विशेष महत्व है। पाप मोचनी गंगा जी का स्नान एवम् पूजन तो जब अवसर मिल जाय तब ही पुण्य प्रदायक है , और प्रत्येक अमावस्या एवं अन्य पर्वो पर भक्तगण दूर - दूर से आकर पुण्य सलिला गंगा जी में स्नान करते हैं । परन्तु ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तो गंगा जी का जन्मदिन ही है । आज के दिन ही महाराज भागीरथ के कठोर तप से प्रसन्न होकर स्वर्ग से पृथ्वी पर आई थीं गंगा जी । भगवान विष्णु के नाखून से उत्पन्न गंगा माता ब्रह्माजी के कमण्डलु से निकाल कर किस प्रकार पृथ्वी पर आईं और किस तरह भगवान शिव ने उनके वेग को जटाओं में धारण किया इसे प्रत्येक हिन्दू जानता है । आज के दिन गंगाजी के विभिन्न तटों और विशिष्ट घाटों पर तो बड़े - बड़े मैले लगते ही हैं अन्य पवित्र नदियों में भी लाखों व्यक्ति स्नान करते हैं । सम्पूर्ण भारत में पवित्र नदियों में स्नान के विशिष्ट पर्व के रूप में मनाया जाता है यह गंगा दशहरा ।

यदि गंगाजी अथवा अन्य किसी पवित्र नदी पर सपरिवार स्नान हेतु जाया जा सके तो सर्वश्रेष्ठ है । वहीं स्नान के बाद आप गंगाजी की प्रत्यक्ष अथवा उस नदी को गंगाजी का रूप मानकर पूजा - आराधना कर लेंगे । आज के दिन दान देने का भी विशिष्ट महत्व है । ब्राह्मणों को छतरी , जूते - चप्पल , वस्त्र आदि के दान प्रायः ही दिए जाते हैं । 

यदि गंगा जी जाना संभव न हो तो घर में गंगाजल रखा रहता है । किसी पात्र में गंगाजल रखकर स्नान करें ,औऱ गंगाजी की पूजा - आराधना , जप , दान , व्रत - उपवास और गंगाजी की पूजा करने पर सभी पाप जड़ से कट जाते हैं ।

ऐसी शास्त्रों की मान्यता है । गंगाजल सम्मुख रखकर धूप - दीप , नैवेद्य से उसकी पूजा करने और प्याऊ लगवाने से आज विशेष पुण्य प्राप्त होता है । अनेक व्यक्ति आज ठण्डे जल , मीठे शर्बत और दूध की लस्सी का प्याऊ व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से लगवाते हैं। इसी प्रकार परिवार के प्रत्येक -व्यक्ति के हिसाब से सवा सेर या एक किलो ढाई सौ ग्राम चूरमा बनाकर भी साधुओं और ब्राह्मणों में बांटने का रिवाज है । ब्राह्मणों को बड़ी मात्रा में अनाज भी आज दान के रूप में दिया जाता है । लोक व्यवहार में आज आम खाने और आम दान करने को भी विशिष्ट महत्व दिया जाने लगा है । 

वैसे जहां तक व्यावहारिकता की बात है गंगा दशहरा का यह धार्मिक पर्व आज गंगा स्नान का एक सामाजिक उत्सव है ।

पवित्र गंगा स्तोत्रम् -

देवि सुरेश्वरि भगवति गंगे 

त्रिभुवन तारिणि तरल तरंगे ।

शंकर मौलि विहारिणि विमले 

मम मति रास्तां तव पदकमले ।।1।।

 

भागीरथि सुखदायिनि मातस्तव 

जल महिमा निगमे ख्यात: ।


नाहं जाने तव महिमानं 

पाहि कृपामयि मा मज्ञानम ।।2।।

 

हरिपद पाद्य तरंगिणि गंगे 

हिम विधुमुक्ता धवल तरंगे ।


दूरीकुरू मम दुष्कृति भारं 

कुरु कृपया भव सागर पारम ।।3।।

 

तव जलममलं येन निपीतं 

परमपदं खलु तेन गृहीतम ।


मातर्गंगे त्वयि यो भक्त: 

किल तं द्रष्टुं न यम: शक्त: ।।4।।

 

पतितोद्धारिणि जाह्रवि गंगे

 खण्डित गिरिवर मण्डितभंगे ।


भीष्मजननि हेमुनिवरकन्ये पतितनिवारिणि त्रिभुवनधन्ये ।।5।।

 

कल्पलतामिव फलदां लोके प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके ।


पारावारविहारिणि गंगे विमुखयुवतिकृततरलापांगे ।।6।।

 

तव चेन्मात: स्रोत: स्नात: पुनरपि जठरे सोsपि न जात: ।


नरकनिवारिणि जाह्रवि गंगे कलुषविनाशिनि महिमोत्तुंगे ।।7।।

 

पुनरसदड़्गे पुण्यतरंगे जय जय जाह्रवि करूणापाड़्गे ।


इन्द्रमुकुट मणिराजितचरणे सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये ।।8।।

 

रोगं शोकं तापं पापं हर मे भगवति कुमतिकलापम ।


त्रिभुवनसारे वसुधाहारे त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे ।।9।।

 

अलकानन्दे परमानन्दे कुरु करुणामयि कातरवन्द्ये ।


तव तटनिकटे यस्य निवास: खलु वैकुण्ठे तस्य निवास: ।।10।।

 

वरमिह: नीरे कमठो मीन: कि वा तीरे शरट: क्षीण: ।


अथवा श्वपचो मलिनो दीनस्तव न हि दूरे नृपतिकुलीन: ।।11।।

 

भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।


गंगास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरो य: सजयति सत्यम ।।12।।

 

येषां ह्रदये गंगाभक्तिस्तेषां भवति सदा सुख मुक्ति: ।


मधुराकान्तापंझटिकाभि: परमानन्द कलितललिताभि:

 

गंगास्तोत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम ।


शंकरसेवकशंकरचितं पठति सुखी स्तव इति च समाप्त: ।।



शनिवार, 29 मार्च 2025

नव संवत्सर संवत २०८२

                      ||ॐ||

जयंती मंगलकाली भद्रकाली कपालिनी।

दुर्गा क्षमा शिवाधात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते।।


सनातन हिंदू धर्म का नववर्ष चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन से प्रारंभ होता है। उसी दिन से चैत्र नवरात्रि प्रारंभ होते है। सनातन हिंदू नववर्ष को सभी सनातनी बड़े ही हर्षोल्लास धूमधाम के साथ मनाते हैं। आज के दिन सभी लोग अपने घरों में माता रानी के आगमन पर घरों में घट स्थापन, माता की चौकी बैठना, माता रानी के नवरात्रि पर 9 दिन का व्रत रखते हैं। जो ३० अप्रैल २०२५ से प्रारंभ हो रहा है ।

संवत्सर फल --

इस वर्ष संवत् २०८२ शक १९४७ से सिद्धार्थी नाम का संवत्सर रहेगा । जो पूरे वर्ष संकल्प आदि में प्रयोग होगा । इस वर्ष राजा सूर्य व मंत्री सूर्य देव ही है । राजा वह मंत्री के एक रहने से राजनेताओं में परस्पर संबंध अनुकूल रहेंगे । भूकंप आदि से जनमानस में भय का माहौल जनधन की हानि हो सकती है। व्यापार के क्षेत्र में भारत की ख्याति बढ़ेगी । महंगाई से लोग परेशान रहेंगे। कुछ राष्ट्रों में खराब स्थिति हो सकती है जिसके फल स्वरुप जनधन की भारी हानि हो सकती है। भारत को अपने पड़ोसी देशों से सावधान रहना चाहिए। और भारत में अतिक्रमण की घटनाएं बढ़ सकती हैं। बारिश के व्यापक योग हैं। किसानों को खेती मैं हानि हो सकती है।

वर्ष अपैट --

मेष ,सिंह ,धनु राशि वालों के लिए वर्ष अपैट है ।

उपाय -- 

चंद्रमा का दान करें।

संक्रांति अपैट-- 

कर्क वृश्चिक मीन राशि वालों को संक्रांति अपैट है ।

तुला व वृश्चिक राशि वालों के लिए विषुवत वाम पाद दोष है ।

सप्तशती का पाठ करें । चांदी का पद दान करें।


शनि की साढ़ेसाती व ढैया --

इस वर्ष शनि देव कुंभ राशि में रहेंगें। मकर कुंभ मीन वालों को शनि की साढ़ेसाती रहेगी ।

मकर राशि के पैर में 

कुंभ के राशि के हृदय में 

मीन राशि के सिर पर प्रभाव रहेगा ।

कर्क , वृश्चिक को ढैया रहेगी ।

४ मई २०२५ को शनि देव राशि परिवर्तन करेंगे । कुंभ मीन मेष राशि को साढ़ेसाती लगेगी ।

१७ सितंबर २०२५ को शनि वक्री होकर कुंभ राशि में प्रवेश करेंगे।

२३ जनवरी २०२६ को शनि मार्गी होकर मीन राशि में प्रवेश करेंगे ।

 

उपाय --

शनि देव के प्रभाव से बचने के लिए सुंदरकांड ,हनुमान चालीसा ,शनि चालीसा ,शनि दान ,शनि का जप करना चाहिए।

सभी सनातनी हिंदू धर्म के पलकों को नूतन वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं। आपका पूरा वर्ष सुख पूर्वक यापन हो यही कामना करता हूं।


आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा 

शुक्रवार, 28 मार्च 2025

कौन सी वस्तु पूजा में योग्य नहीं होती

 वस्तुएँ देव पूजा के योग्य नहीं रहती हैं ?

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१. घर में पूजा करने वाला एक ही मूर्ति की पूजा नहीं करें। अनेक देवी-देवताओं की पूजा करें। घर में दो शिवलिंग की पूजा ना करें तथा पूजा स्थान पर तीन गणेश नहीं रखें।

२. शालिग्राम की मूर्ति जितनी छोटी हो वह ज्यादा फलदायक है।

३. कुशा पवित्री के अभाव में स्वर्ण की अंगूठी धारण करके भी देव कार्य सम्पन्न किया जा सकता है।

४. मंगल कार्यो में कुमकुम का तिलक प्रशस्त माना जाता हैं। पूजा में टूटे हुए अक्षत के टूकड़े नहीं चढ़ाना चाहिए।

५. पानी, दूध, दही, घी आदि में अंगुली नही डालना चाहिए। इन्हें लोटा, चम्मच आदि से लेना चाहिए क्योंकि नख स्पर्श से वस्तु अपवित्र हो जाती है अतः यह वस्तुएँ देव पूजा के योग्य नहीं रहती हैं।

६. तांबे के बरतन में दूध, दही या पंचामृत आदि नहीं डालना चाहिए क्योंकि वह मदिरा समान हो जाते हैं।

७. आचमन तीन बार करने का विधान हैं। इससे त्रिदेव ब्रह्मा-विष्णु-महेश प्रसन्न होते हैं। दाहिने कान का स्पर्श करने पर भी आचमन के तुल्य माना जाता है।

८. कुशा के अग्रभाग से दवताओं पर जल नहीं छिड़के।

९. देवताओं को अंगूठे से नहीं मले। चकले पर से चंदन कभी नहीं लगावें। उसे छोटी कटोरी या बांयी हथेली पर रखकर लगावें।

९. पुष्पों को बाल्टी, लोटा, जल में डालकर फिर निकालकर नहीं चढ़ाना चाहिए।

१०. भगवान के चरणों की चार बार, नाभि की दो बार, मुख की एक बार या तीन बार आरती उतारकर समस्त अंगों की सात बार आरती उतारें।

११. भगवान की आरती समयानुसार जो घंटा, नगारा, झांझर, थाली, घड़ावल, शंख इत्यादि बजते हैं उनकी ध्वनि से आसपास के वायुमण्डल के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। नाद ब्रह्मा होता हैं। नाद के समय एक स्वर से जो प्रतिध्वनि होती हैं उसमे असीम शक्ति होती हैं।

१२. लोहे के पात्र से भगवान को नैवेद्य अपर्ण नहीं करें।

१३. हवन में अग्नि प्रज्वलित होने पर ही आहुति दें। समिधा अंगुठे से अधिक मोटी नहीं होनी चाहिए तथा दस अंगुल लम्बी होनी चाहिए। छाल रहित या कीड़े लगी हुई समिधा यज्ञ-कार्य में वर्जित हैं। पंखे आदि से कभी हवन की अग्नि प्रज्वलित नहीं करें।

१४. मेरूहीन माला या मेरू का लंघन करके माला नहीं जपनी चाहिए। माला, रूद्राक्ष, तुलसी एवं चंदन की उत्तम मानी गई हैं। माला को अनामिका (तीसरी अंगुली) पर रखकर मध्यमा (दूसरी अंगुली) से चलाना चाहिए।

१५. जप करते समय सिर पर हाथ या वस्त्र नहीं रखें। तिलक कराते समय सिर पर हाथ या वस्त्र रखना चाहिए। माला का पूजन करके ही जप करना चाहिए। ब्राह्मण को या द्विजाती को स्नान करके तिलक अवश्य लगाना चाहिए।

१६. जप करते हुए जल में स्थित व्यक्ति, दौड़ते हुए, शमशान से लौटते हुए व्यक्ति को नमस्कार करना वर्जित हैं। बिना नमस्कार किए आशीर्वाद देना वर्जित हैं।

१७. एक हाथ से प्रणाम नही करना चाहिए। सोए हुए व्यक्ति का चरण स्पर्श नहीं करना चाहिए। बड़ों को प्रणाम करते समय उनके दाहिने पैर पर दाहिने हाथ से और उनके बांये पैर को बांये हाथ से छूकर प्रणाम करें।

१८. जप करते समय जीभ या होंठ को नहीं हिलाना चाहिए। इसे उपांशु जप कहते हैं। इसका फल सौगुणा फलदायक होता हैं।

१९. जप करते समय दाहिने हाथ को कपड़े या गौमुखी से ढककर रखना चाहिए। जप के बाद आसन के नीचे की भूमि को स्पर्श कर नेत्रों से लगाना चाहिए।

२०. संक्रान्ति, द्वादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, रविवार और सन्ध्या के समय तुलसी तोड़ना निषिद्ध हैं।

२१. दीपक से दीपक को नही जलाना चाहिए।

२२. यज्ञ, श्राद्ध आदि में काले तिल का प्रयोग करना चाहिए, सफेद तिल का नहीं।

आचार्य पंडित जी मिलेंगे

सनातन संस्कृति संस्काराे में आस्था रखने वाले सभी धर्म प्रेमी धर्मानुरागी परिवारों का स्वागत अभिनंदन । आपको बताते हर्ष हो रहा है। कि हमारे पं...