शनिवार, 25 दिसंबर 2021

पंचामृत कब बनाया जाता है ।

सनातन हिन्दू धर्म मे नित्य पूजा पाठ का विशेष महत्व है । किंतु पूजा में सामग्रियों का विशेष प्रबन्ध किया जाता है । सभी शुभ पूजाओं में पंचामृत बनाना चाहिए ,ओर अशुभ कार्यो में पंचामृत नही बनाया जाता है ।पंचामृत में पांच पदार्थो को मिलाकर बनाया जाता है । जिसमें दूध, दही , घी ,शहद , शक्कर ये मिलाकर पंचामृत तैयार किया जाता है ।

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2021

चौबीस चर्चित श्राप व कथा

 पौराणिक काल के 24 चर्चित श्राप और कहानी

〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️

हिन्दू पौराणिक ग्रंथो में अनेको अनेक श्रापों का वर्णन मिलता है। हर श्राप के पीछे कोई न कोई कहानी जरूर मिलती है। आज हम आपको हिन्दू धर्म ग्रंथो में उल्लेखित 24 ऐसे ही प्रसिद्ध श्राप और उनके पीछे की कहानी बताएँगे।


1👉 युधिष्ठिर का स्त्री जाति को श्राप

महाभारत के शांति पर्व के अनुसार युद्ध समाप्त होने के बाद जब कुंती ने युधिष्ठिर को बताया कि कर्ण तुम्हारा बड़ा भाई था तो पांडवों को बहुत दुख हुआ। तब युधिष्ठिर ने विधि-विधान पूर्वक कर्ण का भी अंतिम संस्कार किया। माता कुंती ने जब पांडवों को कर्ण के जन्म का रहस्य बताया तो शोक में आकर युधिष्ठिर ने संपूर्ण स्त्री जाति को श्राप दिया कि - आज से कोई भी स्त्री गुप्त बात छिपा कर नहीं रख सकेगी।


2👉 ऋषि किंदम का राजा पांडु को श्राप

महाभारत के अनुसार एक बार राजा पांडु शिकार खेलने वन में गए। उन्होंने वहां हिरण के जोड़े को मैथुन करते देखा और उन पर बाण चला दिया। वास्तव में वो हिरण व हिरणी ऋषि किंदम व उनकी पत्नी थी। तब ऋषि किंदम ने राजा पांडु को श्राप दिया कि जब भी आप किसी स्त्री से मिलन करेंगे। उसी समय आपकी मृत्यु हो जाएगी। इसी श्राप के चलते जब राजा पांडु अपनी पत्नी माद्री के साथ मिलन कर रहे थे, उसी समय उनकी मृत्यु हो गई।


3👉 माण्डव्य ऋषि का यमराज को श्राप

महाभारत के अनुसार माण्डव्य नाम के एक ऋषि थे। राजा ने भूलवश उन्हें चोरी का दोषी मानकर सूली पर चढ़ाने की सजा दी। सूली पर कुछ दिनों तक चढ़े रहने के बाद भी जब उनके प्राण नहीं निकले, तो राजा को अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने ऋषि माण्डव्य से क्षमा मांगकर उन्हें छोड़ दिया। तब ऋषि यमराज के पास पहुंचे और उनसे पूछा कि मैंने अपने जीवन में ऐसा कौन सा अपराध किया था कि मुझे इस प्रकार झूठे आरोप की सजा मिली। तब यमराज ने बताया कि जब आप 12 वर्ष के थे, तब आपने एक फतींगे की पूंछ में सींक चुभाई थी, उसी के फलस्वरूप आपको यह कष्ट सहना पड़ा। तब ऋषि माण्डव्य ने यमराज से कहा कि 12 वर्ष की उम्र में किसी को भी धर्म-अधर्म का ज्ञान नहीं होता। तुमने छोटे अपराध का बड़ा दण्ड दिया है। इसलिए मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि तुम्हें शुद्र योनि में एक दासी पुत्र के रूप में जन्म लेना पड़ेगा। ऋषि माण्डव्य के इसी श्राप के कारण यमराज ने महात्मा विदुर के रूप में जन्म लिया।


4👉  नंदी का रावण को श्राप

वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक बार रावण भगवान शंकर से मिलने कैलाश गया। वहां उसने नंदीजी को देखकर उनके स्वरूप की हंसी उड़ाई और उन्हें बंदर के समान मुख वाला कहा। तब नंदीजी ने रावण को श्राप दिया कि बंदरों के कारण ही तेरा सर्वनाश होगा।


5👉  कद्रू का अपने पुत्रों को श्राप

महाभारत के अनुसार ऋषि कश्यप की कद्रू व विनता नाम की दो पत्नियां थीं। कद्रू सर्पों की माता थी व विनता गरुड़ की। एक बार कद्रू व विनता ने एक सफेद रंग का घोड़ा देखा और शर्त लगाई। विनता ने कहा कि ये घोड़ा पूरी तरह सफेद है और कद्रू ने कहा कि घोड़ा तो सफेद हैं, लेकिन इसकी पूंछ काली है।

कद्रू ने अपनी बात को सही साबित करने के लिए अपने सर्प पुत्रों से कहा कि तुम सभी सूक्ष्म रूप में जाकर घोड़े की पूंछ से चिपक जाओ, जिससे उसकी पूंछ काली दिखाई दे और मैं शर्त जीत जाऊं। कुछ सर्पों ने कद्रू की बात नहीं मानी। तब कद्रू ने अपने उन पुत्रों को श्राप दिया कि तुम सभी जनमजेय के सर्प यज्ञ में भस्म हो जाओगे।


6👉  उर्वशी का अर्जुन को श्राप

महाभारत के युद्ध से पहले जब अर्जुन दिव्यास्त्र प्राप्त करने स्वर्ग गए, तो वहां उर्वशी नाम की अप्सरा उन पर मोहित हो गई। यह देख अर्जुन ने उन्हें अपनी माता के समान बताया। यह सुनकर क्रोधित उर्वशी ने अर्जुन को श्राप दिया कि तुम नपुंसक की भांति बात कर रहे हो। इसलिए तुम नपुंसक हो जाओगे, तुम्हें स्त्रियों में नर्तक बनकर रहना पड़ेगा। यह बात जब अर्जुन ने देवराज इंद्र को बताई तो उन्होंने कहा कि अज्ञातवास के दौरान यह श्राप तुम्हारी मदद करेगा और तुम्हें कोई पहचान नहीं पाएगा।


7👉 तुलसी का भगवान विष्णु को श्राप

शिवपुराण के अनुसार शंखचूड़ नाम का एक राक्षस था। उसकी पत्नी का नाम तुलसी था। तुलसी पतिव्रता थी, जिसके कारण देवता भी शंखचूड़ का वध करने में असमर्थ थे। देवताओं के उद्धार के लिए भगवान विष्णु ने शंखचूड़ का रूप लेकर तुलसी का शील भंग कर दिया। तब भगवान शंकर ने शंखचूड़ का वध कर दिया। यह बात जब तुलसी को पता चली तो उसने भगवान विष्णु को पत्थर हो जाने का श्राप दिया। इसी श्राप के कारण भगवान विष्णु की पूजा शालीग्राम शिला के रूप में की जाती है।


8👉 श्रृंगी ऋषि का परीक्षित को श्राप

पाण्डवों के स्वर्गारोहण के बाद अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित ने शासन किया। उसके राज्य में सभी सुखी और संपन्न थे। एक बार राजा परीक्षित शिकार खेलते-खेलते बहुत दूर निकल गए। तब उन्हें वहां शमीक नाम के ऋषि दिखाई दिए, जो मौन अवस्था में थे। राजा परीक्षित ने उनसे बात करनी चाहिए, लेकिन ध्यान में होने के कारण ऋषि ने कोई जबाव नहीं दिया।

ये देखकर परीक्षित बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने एक मरा हुआ सांप उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया। यह बात जब शमीक ऋषि के पुत्र श्रृंगी को पता चली तो उन्होंने श्राप दिया कि आज से सात दिन बात तक्षक नाग राजा परीक्षित को डंस लेगा, जिससे उनकी मृत्यु हो जाएगी।


9👉  राजा अनरण्य का रावण को श्राप

वाल्मीकि रामायण के अनुसार रघुवंश में एक परम प्रतापी राजा हुए थे, जिनका नाम अनरण्य था। जब रावण विश्वविजय करने निकला तो राजा अनरण्य से उसका भयंकर युद्ध हुई। उस युद्ध में राजा अनरण्य की मृत्यु हो गई। मरने से पहले उन्होंने रावण को श्राप दिया कि मेरे ही वंश में उत्पन्न एक युवक तेरी मृत्यु का कारण बनेगा। इन्हीं के वंश में आगे जाकर भगवान श्रीराम ने जन्म लिया और रावण का वध किया।


10👉  परशुराम का कर्ण को श्राप

महाभारत के अनुसार परशुराम भगवान विष्णु के ही अंशावतार थे। सूर्यपुत्र कर्ण उन्हीं का शिष्य था। कर्ण ने परशुराम को अपना परिचय एक सूतपुत्र के रूप में दिया था। एक बार जब परशुराम कर्ण की गोद में सिर रखकर सो रहे थे, उसी समय कर्ण को एक भयंकर कीड़े ने काट लिया। गुरु की नींद में विघ्न न आए, ये सोचकर कर्ण दर्द सहते रहे, लेकिन उन्होंने परशुराम को नींद से नहीं उठाया।

नींद से उठने पर जब परशुराम ने ये देखा तो वे समझ गए कि कर्ण सूतपुत्र नहीं बल्कि क्षत्रिय है। तब क्रोधित होकर परशुराम ने कर्ण को श्राप दिया कि मेरी सिखाई हुई शस्त्र विद्या की जब तुम्हें सबसे अधिक आवश्यकता होगी, उस समय तुम वह विद्या भूल जाओगे।


11👉 तपस्विनी का रावण को श्राप

वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक बार रावण अपने पुष्पक विमान से कहीं जा रहा था। तभी उसे एक सुंदर स्त्री दिखाई दी, जो भगवान विष्णु को पति रूप में पाने के लिए तपस्या कर रही थी। रावण ने उसके बाल पकड़े और अपने साथ चलने को कहा। उस तपस्विनी ने उसी क्षण अपनी देह त्याग दी और रावण को श्राप दिया कि एक स्त्री के कारण ही तेरी मृत्यु होगी।


12👉  गांधारी का श्रीकृष्ण को श्राप

महाभारत के युद्ध के बाद जब भगवान श्रीकृष्ण गांधारी को सांत्वना देने पहुंचे तो अपने पुत्रों का विनाश देखकर गांधारी ने श्रीकृष्ण को श्राप दिया कि जिस प्रकार पांडव और कौरव आपसी फूट के कारण नष्ट हुए हैं, उसी प्रकार तुम भी अपने बंधु-बांधवों का वध करोगे। आज से छत्तीसवें वर्ष तुम अपने बंधु-बांधवों व पुत्रों का नाश हो जाने पर एक साधारण कारण से अनाथ की तरह मारे जाओगे। गांधारी के श्राप के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण के परिवार का अंत हुआ।


13👉 महर्षि वशिष्ठ का वसुओं को श्राप

महाभारत के अनुसार भीष्म पितामह पूर्व जन्म में अष्ट वसुओं में से एक थे। एक बार इन अष्ट वसुओं ने ऋषि वशिष्ठ की गाय का बलपूर्वक अपहरण कर लिया। जब ऋषि को इस बात का पता चला तो उन्होंने अष्ट वसुओं को श्राप दिया कि तुम आठों वसुओं को मृत्यु लोक में मानव रूप में जन्म लेना होगा और आठवें वसु को राज, स्त्री आदि सुखों की प्राप्ति नहीं होगी। यही आठवें वसु भीष्म पितामह थे।


14👉 शूर्पणखा का रावण को श्राप

वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण की बहन शूर्पणखा के पति का नाम विद्युतजिव्ह था। वो कालकेय नाम के राजा का सेनापति था। रावण जब विश्वयुद्ध पर निकला तो कालकेय से उसका युद्ध हुआ। उस युद्ध में रावण ने विद्युतजिव्ह का वध कर दिया। तब शूर्पणखा ने मन ही मन रावण को श्राप दिया कि मेरे ही कारण तेरा सर्वनाश होगा।


15👉 ऋषियों का साम्ब को श्राप

महाभारत के मौसल पर्व के अनुसार एक बार महर्षि विश्वामित्र, कण्व आदि ऋषि द्वारका गए। तब उन ऋषियों का परिहास करने के उद्देश्य से सारण आदि वीर कृष्ण पुत्र साम्ब को स्त्री वेष में उनके पास ले गए और पूछा कि इस स्त्री के गर्भ से क्या उत्पन्न होगा। क्रोधित होकर ऋषियों ने श्राप दिया कि श्रीकृष्ण का ये पुत्र वृष्णि और अंधकवंशी पुरुषों का नाश करने के लिए लोहे का एक भयंकर मूसल उत्पन्न करेगा, जिसके द्वारा समस्त यादव कुल का नाश हो जाएगा।


16👉 दक्ष का चंद्रमा को श्राप

शिवपुराण के अनुसार प्रजापति दक्ष ने अपनी 27 पुत्रियों का विवाह चंद्रमा से करवाया था। उन सभी पत्नियों में रोहिणी नाम की पत्नी चंद्रमा को सबसे अधिक प्रिय थी। यह बात अन्य पत्नियों को अच्छी नहीं लगती थी। ये बात उन्होंने अपने पिता दक्ष को बताई तो वे बहुत क्रोधित हुए और चंद्रमा को सभी के प्रति समान भाव रखने को कहा, लेकिन चंद्रमा नहीं माने। तब क्रोधित होकर दक्ष ने चंद्रमा को क्षय रोग होने का श्राप दिया।


17👉 माया का रावण को श्राप

रावण ने अपनी पत्नी की बड़ी बहन माया के साथ भी छल किया था। माया के पति वैजयंतपुर के शंभर राजा थे। एक दिन रावण शंभर के यहां गया। वहां रावण ने माया को अपनी बातों में फंसा लिया। इस बात का पता लगते ही शंभर ने रावण को बंदी बना लिया। उसी समय शंभर पर राजा दशरथ ने आक्रमण कर दिया।

इस युद्ध में शंभर की मृत्यु हो गई। जब माया सती होने लगी तो रावण ने उसे अपने साथ चलने को कहा। तब माया ने कहा कि तुमने वासना युक्त होकर मेरा सतित्व भंग करने का प्रयास किया। इसलिए मेरे पति की मृत्यु हो गई, अत: तुम्हारी मृत्यु भी इसी कारण होगी।


18👉 शुक्राचार्य का राजा ययाति को श्राप

महाभारत के एक प्रसंग के अनुसार राजा ययाति का विवाह शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के साथ हुआ था। देवयानी की शर्मिष्ठा नाम की एक दासी थी। एक बार जब ययाति और देवयानी बगीचे में घूम रहे थे, तब उसे पता चला कि शर्मिष्ठा के पुत्रों के पिता भी राजा ययाति ही हैं, तो वह क्रोधित होकर अपने पिता शुक्राचार्य के पास चली गई और उन्हें पूरी बात बता दी। तब दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने ययाति को बूढ़े होने का श्राप दे दिया था।


19👉 ब्राह्मण दंपत्ति का राजा दशरथ को श्राप

वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक बार जब राजा दशरथ शिकार करने वन में गए तो गलती से उन्होंने एक ब्राह्मण पुत्र का वध कर दिया। उस ब्राह्मण पुत्र के माता-पिता अंधे थे। जब उन्हें अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार मिला तो उन्होंने राजा दशरथ को श्राप दिया कि जिस प्रकार हम पुत्र वियोग में अपने प्राणों का त्याग कर रहे हैं, उसी प्रकार तुम्हारी मृत्यु भी पुत्र वियोग के कारण ही होगी।


20👉 नंदी का ब्राह्मण कुल को श्राप

शिवपुराण के अनुसार एक बार जब सभी ऋषिगण, देवता, प्रजापति, महात्मा आदि प्रयाग में एकत्रित हुए तब वहां दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर का तिरस्कार किया। यह देखकर बहुत से ऋषियों ने भी दक्ष का साथ दिया। तब नंदी ने श्राप दिया कि दुष्ट ब्राह्मण स्वर्ग को ही सबसे श्रेष्ठ मानेंगे तथा क्रोध, मोह, लोभ से युक्त हो निर्लज्ज ब्राह्मण बने रहेंगे। शूद्रों का यज्ञ करवाने वाले व दरिद्र होंगे।


21👉 नलकुबेर का रावण को श्राप

वाल्मीकि रामायण के अनुसार विश्व विजय करने के लिए जब रावण स्वर्ग लोक पहुंचा तो उसे वहां रंभा नाम की अप्सरा दिखाई दी। अपनी वासना पूरी करने के लिए रावण ने उसे पकड़ लिया। तब उस अप्सरा ने कहा कि आप मुझे इस तरह से स्पर्श न करें, मैं आपके बड़े भाई कुबेर के बेटे नलकुबेर के लिए आरक्षित हूं। इसलिए मैं आपकी पुत्रवधू के समान हूं।

लेकिन रावण ने उसकी बात नहीं मानी और रंभा से दुराचार किया। यह बात जब नलकुबेर को पता चली तो उसने रावण को श्राप दिया कि आज के बाद रावण बिना किसी स्त्री की इच्छा के उसको स्पर्श करेगा तो उसका मस्तक सौ टुकड़ों में बंट जाएगा।


22👉 श्रीकृष्ण का अश्वत्थामा को श्राप

महाभारत युद्ध के अंत समय में जब अश्वत्थामा ने धोखे से पाण्डव पुत्रों का वध कर दिया, तब पाण्डव भगवान श्रीकृष्ण के साथ अश्वत्थामा का पीछा करते हुए महर्षि वेदव्यास के आश्रम तक पहुंच गए। तब अश्वत्थामा ने पाण्डवों पर ब्रह्मास्त्र का वार किया। ये देख अर्जुन ने भी अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ा।

महर्षि व्यास ने दोनों अस्त्रों को टकराने से रोक लिया और अश्वत्थामा और अर्जुन से अपने-अपने ब्रह्मास्त्र वापस लेने को कहा। तब अर्जुन ने अपना ब्रह्मास्त्र वापस ले लिया, लेकिन अश्वत्थामा ये विद्या नहीं जानता था। इसलिए उसने अपने अस्त्र की दिशा बदलकर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर कर दी।

यह देख भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को श्राप दिया कि तुम तीन हजार वर्ष तक इस पृथ्वी पर भटकते रहोगे और किसी भी जगह, किसी पुरुष के साथ तुम्हारी बातचीत नहीं हो सकेगी। तुम्हारे शरीर से पीब और लहू की गंध निकलेगी। इसलिए तुम मनुष्यों के बीच नहीं रह सकोगे। दुर्गम वन में ही पड़े रहोगे।


23👉 तुलसी का श्रीगणेश को श्राप

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार एक बार तुलसीदेवी गंगा तट से गुजर रही थीं, उस समय वहां श्रीगणेश तप कर रहे थे। श्रीगणेश को देखकर तुलसी का मन उनकी ओर आकर्षित हो गया। तब तुलसी ने श्रीगणेश से कहा कि आप मेरे स्वामी हो जाइए, लेकिन श्रीगणेश ने तुलसी से विवाह करने से इंकार कर दिया। क्रोधवश तुलसी ने श्रीगणेश को विवाह करने का श्राप दे दिया और श्रीगणेश ने तुलसी को वृक्ष बनने का।


24👉  नारद का भगवान विष्णु को श्राप

शिवपुराण के अनुसार एक बार देवऋषि नारद एक युवती पर मोहित हो गए। उस कन्या के स्वयंवर में वे भगवान विष्णु के रूप में पहुंचे, लेकिन भगवान की माया से उनका मुंह वानर के समान हो गया। भगवान विष्णु भी स्वयंवर में पहुंचे। उन्हें देखकर उस युवती ने भगवान का वरण कर लिया। यह देखकर नारद मुनि बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने भगवान विष्णु को श्राप दिया कि जिस प्रकार तुमने मुझे स्त्री के लिए व्याकुल किया है। उसी प्रकार तुम भी स्त्री विरह का दु:ख भोगोगे। भगवान विष्णु ने राम अवतार में नारद मुनि के इस श्राप को पूरा किया ।

〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️

आत्म निर्भर कैसे बने


एक विद्वान किसी गाँव से गुजर रहा था, 

उसे याद आया, उसके बचपन का मित्र इस गावँ में है, सोचा मिला जाए । 

मित्र के घर पहुचा, लेकिन देखा, मित्र गरीबी व दरिद्रता में रह रहा है, साथ मे दो नौजवान भाई भी है।


बात करते करते शाम हो गयी, विद्वान ने देखा, मित्र के दोनों भाइयों ने घर के पीछे आंगन में फली के पेड़ से कुछ फलियां तोड़ी, और घर के बाहर बेचकर चंद पैसे कमाए और दाल आटा खरीद कर लाये।

मात्रा कम थी, तीन भाई व विद्वान के लिए भोजन कम पड़ता, 

एक ने उपवास का बहाना बनाया,

एक ने खराब पेट का।

केवल मित्र, विद्वान के साथ भोजन ग्रहण करने बैठा।

रात हुई,

विद्वान उलझन में कि मित्र की दरिद्रता कैसे दूर की जाए ? नींद नही आई, 

चुपके से उठा, एक कुल्हाड़ी ली और आंगन में जाकर फली का पेड़ काट डाला और रातों रात भाग गया।


सुबह होते ही भीड़ जमा हुई, विद्वान की निंदा हरएक ने की, कि तीन भाइयों की रोजी रोटी का एकमात्र सहारा, विद्वान ने एक झटके में खत्म कर डाला, कैसा निर्दयी मित्र था??

तीनो भाइयों की आंखों में आंसू थे।


2-3 बरस बीत गए, 

विद्वान को फिर उसी गांव की तरफ से गुजरना था, डरते डरते उसने गांव में कदम रखा, पिटने के लिए भी तैयार था, 

वो धीरे से मित्र के घर के सामने पहुचा, लेकिन वहां पर मित्र की झोपड़ी की जगह कोठी नज़र आयी, 

इतने में तीनो भाई भी बाहर आ गए, अपने विद्वान मित्र को देखते ही, रोते हुए उसके पैरों पर गिर पड़े।

बोले यदि तुमने उस दिन फली का पेड़ न काटा होता तो हम आज हम इतने समृद्ध न हो पाते, 

हमने मेहनत न की होती, अब हम लोगो को समझ मे आया कि तुमने उस रात फली का पेड़ क्यो काटा था।


जब तक हम सहारे के सहारे रहते है, तब तक हम आत्मनिर्भर होकर प्रगति नही कर सकते।

जब भी सहारा मिलता है तो हम आलस्य में दरिद्रता अपना लेते है।


दूसरा, हम तब तक कुछ नही करते जब तक कि हमारे सामने नितांत आवश्यकता नही होती, जब तक हमारे चारों ओर अंधेरा नही छा जाता।


जीवन के हर क्षेत्र में इस तरह के फली के पेड़ लगे होते है। आवश्यकता है इन पेड़ों को एक झटके में काट देने की।

     

प्रगति का इक ही रास्ता आत्मनिर्भरता।

शिव की तीसरी आँख का रहस्य

 "भगवान शिव की तीसरी आँख का रहस्य"

हम सभी जानते हैं कि देवों के देव महादेव के पास दो नहीं बल्कि तीन आँखे हैं। ऐसी मान्यता है, वह अपनी तीसरी आँख का प्रयोग तब करते हैं, जब सृष्टि का विनाश करना हो। लेकिन आज यह जानने की आवश्यकता है कि आखिर भगवान शिव को तीसरी आँख किस स्थिति में मिली थी। इसका रहस्य बड़ा ही गहरा है। 

महाभारत के छठे खंड के अनुशासन पर्व में बताया गया है कि भगवान शिवजी को तीसरी आँख कैसे मिली थी। पौराणिक कथा के अनुसार, एकबार नारदजी भगवान शिव और माता पार्वती के बीच हुए बातचीत को बताते हैं। इसी बातचीत में त्रिनेत्र रहस्य का खुलासा है। नारदजी कहते हैं कि एकबार हिमालय पर भगवान शिव एक सभा कर रहे थे, जिसमें सभी देवता, ऋषि-मुनि और ज्ञानीजन उपस्थित थे। तभी सभा में माता पार्वती आईं और उन्होंने अपने मनोरंजन के लिए दोनों हाथ से भगवान शिव की दोनों आँखों को ढक दिया। माता पार्वती ने जैसे हीं भगवान शिव की आँखों को ढका, संसार में अंधेरा छा गया। ऐसा लगने लगा जैसे सूर्य देव का कोई अस्तित्व ही नही है। इसके बाद धरती पर मौजूद सभी जीव-जंतुओं में खलबली मच गई। संसार की ये दशा भगवान शिव से सहन नही हुआ और उन्होंने अपने माथे पर एक ज्योतिपुंज प्रकट किया, जो भगवान शिव की तीसरी आँख बनी। बाद में माता पार्वती के पूछने पर भगवान शिव ने उनसे बताया कि अगर ऐसा नही करते तो संसार का नाश हो जाता, क्योंकि उनकी आँखे ही जगत का पालनहार हैं। इसीलिए भगवान शिव को त्रिलोचन भी कहा जाता है। 


वैज्ञानिक रहस्य: मस्तिष्क के दो भागों के बीच एक पीनियल ग्लेंड होती है। तीसरी आँख इसी को दर्शाती है। इसका काम है एक हार्मोंस को छोड़ना जिसे मेलाटोनिन हार्मोन कहते हैं, जो सोने और जगाने के घटना चक्र का संचालन करता है। जर्मन वैज्ञानिकों का ऐसा मत है कि इस तीसरे नेत्र के द्वारा दिशा ज्ञान भी होता है। इसी हार्मोन को नियंत्रित कर जुडो कराटे में पीछे से होने वाले वार को रोका जाता है। यह ग्रंथि लाईट सेंसटिव है इसलिए काफी हद तक इसे तीसरी आँख भी कहा जाता है। इतना ही नहीं, अंधा व्यक्ति को भी लाईट चमकने का एहसास होता है, जो इसी पीनियल ग्लेंड के कारण है। 

अतएव आज के युग में आपदा या विपदा में अपनी तीसरी आँख से वातावरण का अनुभव हम अच्छे तरीके से कर सकते हैं और अद्यतन स्थिति की परिस्थिति भी स्वालंबी होने का संदेश देता है जिसमें सबका हित सुरक्षित एवं संरक्षित है।

गया तीर्थ की कथा

 *गया तीर्थ की कथा*

ब्रह्माजी जब सृष्टि की रचना कर रहे थे उस दौरान उनसे असुर कुल में गया नामक असुर की रचना हो गई. गया असुरों के संतान रूप में पैदा नहीं हुआ था इसलिए उसमें आसुरी प्रवृति नहीं थी. वह देवताओं का सम्मान और आराधना करता था।


उसके मन में एक खटका था. वह सोचा करता था कि भले ही वह संत प्रवृति का है लेकिन असुर कुल में पैदा होने के कारण उसे कभी सम्मान नहीं मिलेगा. इसलिए क्यों न अच्छे कर्म से इतना पुण्य अर्जित किया जाए ताकि उसे स्वर्ग मिले।


गयासुर ने कठोर तप से भगवान श्री विष्णुजी को प्रसन्न किया. भगवान ने वरदान मांगने को कहा तो गयासुर ने मांगा- आप मेरे शरीर में वास करें. जो मुझे देखे उसके सारे पाप नष्ट हो जाएं. वह जीव पुण्यात्मा हो जाए और उसे स्वर्ग में स्थान मिले।


भगवान से वरदान पाकर गयासुर घूम-घूमकर लोगों के पाप दूर करने लगा. जो भी उसे देख लेता उसके पाप नष्ट हो जाते और स्वर्ग का अधिकारी हो जाता।


इससे यमराज की व्यवस्था गड़बड़ा गई. कोई घोर पापी भी कभी गयासुर के दर्शन कर लेता तो उसके पाप नष्ट हो जाते. यमराज उसे नर्क भेजने की तैयारी करते तो वह गयासुर के दर्शन के प्रभाव से स्वर्ग मांगने लगता. यमराज को हिसाब रखने में संकट हो गया था।


यमराज ने ब्रह्माजी से कहा कि अगर गयासुर को न रोका गया तो आपका वह विधान समाप्त हो जाएगा जिसमें आपने सभी को उसके कर्म के अनुसार फल भोगने की व्यवस्था दी है. पापी भी गयासुर के प्रभाव से स्वर्ग भोंगेगे।


ब्रह्माजी​ ने उपाय निकाला. उन्होंने गयासुर से कहा कि तुम्हारा शरीर सबसे ज्यादा पवित्र है इसलिए तुम्हारी पीठ पर बैठकर मैं सभी देवताओं के साथ यज्ञ करुंगा।


उसकी पीठ पर यज्ञ होगा यह सुनकर गया​ सहर्ष तैयार हो गया. ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ पत्थर से गया को दबाकर बैठ गए. इतने भार के बावजूद भी वह अचल नहीं हुआ. वह घूमने-फिरने में फिर भी समर्थ था।


देवताओं को चिंता हुई. उन्होंने आपस में सलाह की कि इसे श्री विष्णु ने वरदान दिया है इसलिए अगर स्वयं श्री हरि भी देवताओं के साथ बैठ जाएं तो गयासुर अचल हो जाएगा. श्री हरि भी उसके शरीर पर आ बैठे।


श्री विष्णु जी को भी सभी देवताओं के साथ अपने शरीर पर बैठा देखकर गयासुर ने कहा- आप सब और मेरे आराध्य श्री हरि की मर्यादा के लिए अब मैं अचल हो रहा हूं. घूम-घूमकर लोगों के पाप हरने का कार्य बंद कर दूंगा।


लेकिन मुझे चूंकि श्री हरि का आशीर्वाद है इसलिए वह व्यर्थ नहीं जा सकता इसलिए श्री हरि आप मुझे पत्थर की शिला बना दें और यहीं स्थापित कर दें।


श्री हरि उसकी इस भावना से बड़े खुश हुए. उन्होंने कहा- गया अगर तुम्हारी कोई और इच्छा हो तो मुझसे वरदान के रूप में मांग लो।


गया ने कहा- " हे नारायण मेरी इच्छा है कि आप सभी देवताओं के साथ अप्रत्यक्ष रूप से इसी शिला पर विराजमान रहें और यह स्थान मृत्यु के बाद किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों के लिए तीर्थस्थल बन जाए."


श्री विष्णु ने कहा- गया तुम धन्य हो. तुमने लोगों के जीवित अवस्था में भी कल्याण का वरदान मांगा और मृत्यु के बाद भी मृत आत्माओं के कल्याण के लिए वरदान मांग रहे हो. तुम्हारी इस कल्याणकारी भावना से हम सब बंध गए हैं।


भगवान ने आशीर्वाद दिया कि जहां गया स्थापित हुआ वहां पितरों के श्राद्ध-तर्पण आदि करने से मृत आत्माओं को पीड़ा से मुक्ति मिलेगी. क्षेत्र का नाम गयासुर के अर्धभाग गया नाम से तीर्थ रूप में विख्यात होगा. मैं स्वयं यहां विराजमान रहूंगा।


इस तीर्थ से समस्त मानव जाति का कल्याण होगा।साथ ही वहा भगवान "श्री विष्णुजी​* ने अपने पेर का निशान स्थापित किया जो आज भी वहा के मंदिर मे दर्शनीय हे |


गया विधि के अनुसार श्राद्ध फल्गू नदी के तट पर विष्णु पद मंदिर में व अक्षयवट के नीचे किया जाता है।


वह स्थान बिहार के गया में हुआ जहां श्राद्ध आदि करने से पितरों का कल्याण होता हैl


पिंडदान की शुरुआत कब और किसने की, यह बताना उतना ही कठिन है जितना कि भारतीय धर्म-संस्कृति के उद्भव की कोई तिथि निश्चित करना। परंतु स्थानीय पंडों का कहना है कि सर्व प्रथम सतयुग में ब्रह्माजी ने पिंडदान किया था।


 महाभारत के 'वन पर्व' में भीष्म पितामह और पांडवों की गया-यात्रा का उल्लेख मिलता है। श्रीराम ने महाराजा दशरथ का पिण्ड दान यहीं (गया) में किया था। गया के पंडों के पास साक्ष्यों से स्पष्ट है कि मौर्य और गुप्त राजाओं से लेकर कुमारिल भट्ट, चाणक्य, रामकृष्ण परमहंस व चैतन्य महाप्रभु जैसे महापुरुषों का भी गया में पिंडदान करने का प्रमाण मिलता है। गया में फल्गू नदी प्रायः सूखी रहती है। इस संदर्भ में एक कथा प्रचलित है।


भगवान श्री राम अपनी पत्नी सीताजी के साथ पिता दशरथ का श्राद्ध करने गयाधाम पहुंचे। श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री लाने वे चले गये। तब तक राजा दशरथ की आत्मा ने पिंड की मांग कर दी। फल्गू नदी तट पर अकेली बैठी सीताजी अत्यंत असमंजस में पड़ गई। माता सीताजी​ ने फल्गु नदी, गाय, वटवृक्ष और केतकी के फूल को साक्षी मानकर पिंडदान कर दिया।जब भगवान श्री राम आए तो उन्हें पूरी कहानी सुनाई, परंतु भगवान को विश्वास नहीं हुआ।


तब जिन्हें साक्षी मानकर पिंडदान किया था, उन सबको सामने लाया गया। पंडा, फल्गु नदी, गाय और केतकी फूल ने झूठ बोल दिया परंतु अक्षयवट ने सत्यवादिता का परिचय देते हुए माता की लाज रख ली।


इससे क्रोधित होकर सीताजी ने फल्गू नदी को श्राप दे दिया कि तुम सदा सूखी रहोगी जबकि गाय को मैला खाने का श्राप दिया केतकी के फूल को पितृ पूजन मे निषेध का। वटवृक्ष पर प्रसन्न होकर सीताजी ने उसे सदा दूसरों को छाया प्रदान करने व लंबी आयु का वरदान दिया। तब से ही फल्गू नदी हमेशा सूखी रहती हैं, जबकि वटवृक्ष अभी भी तीर्थयात्रियों को छाया प्रदान करता है। आज भी फल्गू तट पर स्थित सीता कुंड में बालू का पिंड दान करने की क्रिया (परंपरा) संपन्न होती है।

: इन पितृ पक्ष के16दिनों में सभी दिवंगत आत्माओं को याद करते हुए उनकी स्मृति में नेक कार्य करें यही उनके प्रति सही श्रद्धांजलि होगी।

ब्रह्माजी जब सृष्टि की रचना कर रहे थे उस दौरान उनसे असुर कुल में गया नामक असुर की रचना हो गई. गया असुरों के संतान रूप में पैदा नहीं हुआ था इसलिए उसमें आसुरी प्रवृति नहीं थी. वह देवताओं का सम्मान और आराधना करता था।


उसके मन में एक खटका था. वह सोचा करता था कि भले ही वह संत प्रवृति का है लेकिन असुर कुल में पैदा होने के कारण उसे कभी सम्मान नहीं मिलेगा. इसलिए क्यों न अच्छे कर्म से इतना पुण्य अर्जित किया जाए ताकि उसे स्वर्ग मिले।


गयासुर ने कठोर तप से भगवान श्री विष्णुजी को प्रसन्न किया. भगवान ने वरदान मांगने को कहा तो गयासुर ने मांगा- आप मेरे शरीर में वास करें. जो मुझे देखे उसके सारे पाप नष्ट हो जाएं. वह जीव पुण्यात्मा हो जाए और उसे स्वर्ग में स्थान मिले।


भगवान से वरदान पाकर गयासुर घूम-घूमकर लोगों के पाप दूर करने लगा. जो भी उसे देख लेता उसके पाप नष्ट हो जाते और स्वर्ग का अधिकारी हो जाता।


इससे यमराज की व्यवस्था गड़बड़ा गई. कोई घोर पापी भी कभी गयासुर के दर्शन कर लेता तो उसके पाप नष्ट हो जाते. यमराज उसे नर्क भेजने की तैयारी करते तो वह गयासुर के दर्शन के प्रभाव से स्वर्ग मांगने लगता. यमराज को हिसाब रखने में संकट हो गया था।


यमराज ने ब्रह्माजी से कहा कि अगर गयासुर को न रोका गया तो आपका वह विधान समाप्त हो जाएगा जिसमें आपने सभी को उसके कर्म के अनुसार फल भोगने की व्यवस्था दी है. पापी भी गयासुर के प्रभाव से स्वर्ग भोंगेगे।


ब्रह्माजी​ ने उपाय निकाला. उन्होंने गयासुर से कहा कि तुम्हारा शरीर सबसे ज्यादा पवित्र है इसलिए तुम्हारी पीठ पर बैठकर मैं सभी देवताओं के साथ यज्ञ करुंगा।


उसकी पीठ पर यज्ञ होगा यह सुनकर गया​ सहर्ष तैयार हो गया. ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ पत्थर से गया को दबाकर बैठ गए. इतने भार के बावजूद भी वह अचल नहीं हुआ. वह घूमने-फिरने में फिर भी समर्थ था।


देवताओं को चिंता हुई. उन्होंने आपस में सलाह की कि इसे श्री विष्णु ने वरदान दिया है इसलिए अगर स्वयं श्री हरि भी देवताओं के साथ बैठ जाएं तो गयासुर अचल हो जाएगा. श्री हरि भी उसके शरीर पर आ बैठे।


श्री विष्णु जी को भी सभी देवताओं के साथ अपने शरीर पर बैठा देखकर गयासुर ने कहा- आप सब और मेरे आराध्य श्री हरि की मर्यादा के लिए अब मैं अचल हो रहा हूं. घूम-घूमकर लोगों के पाप हरने का कार्य बंद कर दूंगा।


लेकिन मुझे चूंकि श्री हरि का आशीर्वाद है इसलिए वह व्यर्थ नहीं जा सकता इसलिए श्री हरि आप मुझे पत्थर की शिला बना दें और यहीं स्थापित कर दें।


श्री हरि उसकी इस भावना से बड़े खुश हुए. उन्होंने कहा- गया अगर तुम्हारी कोई और इच्छा हो तो मुझसे वरदान के रूप में मांग लो।


गया ने कहा- " हे नारायण मेरी इच्छा है कि आप सभी देवताओं के साथ अप्रत्यक्ष रूप से इसी शिला पर विराजमान रहें और यह स्थान मृत्यु के बाद किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों के लिए तीर्थस्थल बन जाए."


श्री विष्णु ने कहा- गया तुम धन्य हो. तुमने लोगों के जीवित अवस्था में भी कल्याण का वरदान मांगा और मृत्यु के बाद भी मृत आत्माओं के कल्याण के लिए वरदान मांग रहे हो. तुम्हारी इस कल्याणकारी भावना से हम सब बंध गए हैं।


भगवान ने आशीर्वाद दिया कि जहां गया स्थापित हुआ वहां पितरों के श्राद्ध-तर्पण आदि करने से मृत आत्माओं को पीड़ा से मुक्ति मिलेगी. क्षेत्र का नाम गयासुर के अर्धभाग गया नाम से तीर्थ रूप में विख्यात होगा. मैं स्वयं यहां विराजमान रहूंगा।


इस तीर्थ से समस्त मानव जाति का कल्याण होगा।साथ ही वहा भगवान "श्री विष्णुजी​* ने अपने पेर का निशान स्थापित किया जो आज भी वहा के मंदिर मे दर्शनीय हे |


गया विधि के अनुसार श्राद्ध फल्गू नदी के तट पर विष्णु पद मंदिर में व अक्षयवट के नीचे किया जाता है।


वह स्थान बिहार के गया में हुआ जहां श्राद्ध आदि करने से पितरों का कल्याण होता हैl


पिंडदान की शुरुआत कब और किसने की, यह बताना उतना ही कठिन है जितना कि भारतीय धर्म-संस्कृति के उद्भव की कोई तिथि निश्चित करना। परंतु स्थानीय पंडों का कहना है कि सर्व प्रथम सतयुग में ब्रह्माजी ने पिंडदान किया था।


 महाभारत के 'वन पर्व' में भीष्म पितामह और पांडवों की गया-यात्रा का उल्लेख मिलता है। श्रीराम ने महाराजा दशरथ का पिण्ड दान यहीं (गया) में किया था। गया के पंडों के पास साक्ष्यों से स्पष्ट है कि मौर्य और गुप्त राजाओं से लेकर कुमारिल भट्ट, चाणक्य, रामकृष्ण परमहंस व चैतन्य महाप्रभु जैसे महापुरुषों का भी गया में पिंडदान करने का प्रमाण मिलता है। गया में फल्गू नदी प्रायः सूखी रहती है। इस संदर्भ में एक कथा प्रचलित है।


भगवान श्री राम अपनी पत्नी सीताजी के साथ पिता दशरथ का श्राद्ध करने गयाधाम पहुंचे। श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री लाने वे चले गये। तब तक राजा दशरथ की आत्मा ने पिंड की मांग कर दी। फल्गू नदी तट पर अकेली बैठी सीताजी अत्यंत असमंजस में पड़ गई। माता सीताजी​ ने फल्गु नदी, गाय, वटवृक्ष और केतकी के फूल को साक्षी मानकर पिंडदान कर दिया।जब भगवान श्री राम आए तो उन्हें पूरी कहानी सुनाई, परंतु भगवान को विश्वास नहीं हुआ।


तब जिन्हें साक्षी मानकर पिंडदान किया था, उन सबको सामने लाया गया। पंडा, फल्गु नदी, गाय और केतकी फूल ने झूठ बोल दिया परंतु अक्षयवट ने सत्यवादिता का परिचय देते हुए माता की लाज रख ली....।


इससे क्रोधित होकर सीताजी ने फल्गू नदी को श्राप दे दिया कि तुम सदा सूखी रहोगी जबकि गाय को मैला खाने का श्राप दिया केतकी के फूल को पितृ पूजन मे निषेध का। वटवृक्ष पर प्रसन्न होकर सीताजी ने उसे सदा दूसरों को छाया प्रदान करने व लंबी आयु का वरदान दिया। तब से ही फल्गू नदी हमेशा सूखी रहती हैं, जबकि वटवृक्ष अभी भी तीर्थयात्रियों को छाया प्रदान करता है। आज भी फल्गू तट पर स्थित सीता कुंड में बालू का पिंड दान करने की क्रिया (परंपरा) संपन्न होती है।

: इन पितृ पक्ष के16दिनों में सभी दिवंगत आत्माओं को याद करते हुए उनकी स्मृति में नेक कार्य करें यही उनके प्रति सही श्रद्धांजलि होगी।

बुधवार, 17 नवंबर 2021

वास्तु सम्बन्धी उपाय


वस्तु मानव जीवन पर बहुत अहम महत्व रखता है । घर खरीदने बनवाने में वास्तु का विशेष ध्यान रखना चाहिये कभी छोटी सी गलती भी हमारे कार्य , स्वास्थ्य व घर कि शांति को भंग कर देता है ।

१ . सीढ़ी के निचे पूजा घर व मंदिर नही  बनाना चाहिए ।

२ . रसोई में मंदिर नही रखना चाहिए ।

३ .घर मे विषम संख्या में ही सीढ़ी होनी चाहिए ।

४ . घर मे प्रतिष्ठित मूर्ति है तो  स्नान पूजन नित्य करे ।

५ . रसोई घर पूर्व से अग्निकोण में शुभ होता है ।

६ . कटे फटे चित्र , खण्डित मूर्ति , एक से अधिक मूर्ति  या तस्वीर घर में ना रखें ।

७ .  घर के मन्दिर के ऊपर नीचे दाये बाये कोई शौचालय नही होना चाहिए ।

८ . घड़ी घर के पूर्व या पश्चिम में लगाने से शुभ होता है ।

९ . घर की तिजोरी कभी खाली ना रखे ।

१० .घर मे रखे टूटे वर्तन निकाल दे , रखने से घर नकारात्मक शक्ति पैदा होती है ।

११ . सुख शांति के लिए मंदिर में कलश स्थापित करें ।

१२ . पलंग के नीचे जूता चप्पल व बिजली का सामान रखने से घर मे कलह होता है ।

१३ . घर मे कपूर व गूगल की धूनी देने से वास्तु दोष खत्म होता है ।

१४ .  पूर्व व दक्षिण सिरहाना करके सोना चाहिए ।

१६ . घर मे केला , वड़ , पीपल  , कांटेदार के पेड़ पौंधे नही लगाएं ।

१७ . घर की तिजोरी में हल्दी गाँठ रखने से माता लक्ष्मी कृपा बनी रहती है ।

१८ . बुरी शक्ति से बचने के लिए घर के मुख्य द्वार पर ॐ , स्वस्तिक का  चिन्ह अंकित करें ।

१९ . वास्तु दोष दूर करने के लिए शौचालय में नमक या फिटकरी रखें ।

२० . घर की छत पर कबाड़ नही रखना चाहये 

२१ . पूर्वजों की फोटो दक्षिण की दिशा में लगाये ।

२२ . घर मे महाभारत से सम्बंधित चित्र या पुस्तक नही रखनी चाहिए ।

२३ . घर मे सात घोड़ों की तस्वीर लगाने से सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है । 

२४ . बुरे सपने आने पर गंगाजल सिरहाने पर रखे ।

२५ . पानी की टंकी घर के पूर्व से ईशान कोण में रखें ।

२६ . घर के मुख्यद्वार के ऊपर गणपति जी की मूर्ति स्थापित करें ।

२७ . रात को घर मे जूठे वर्तन रखने से दरिद्रता आती है ।

२८ . घर के मुख्यद्वार पर शमी का पौधा लगाने से कार्यो में सिद्धियाँ मिलती है ।

२९ . घर मे तुलसी का पौधा लगाने से आसुरी शक्ति प्रवेश नही करती ।

३० . घर की महिला को खुश रखें शांति बनी रहती है ।

३१ . शौचालय हमेशा दक्षिण दिशा में बनवाये ।

३२ . दरवाजे के सामने दरवाजा नही होना चाहिए । 

३३ . तिराहे पर कभी भवन निर्माण नही करें ।

३४ . मुख्य द्वार से मंदिर का शिखर व श्मशान का दर्शन अशुभ होता है ।

३५ . झाड़ू अंदर से बाहर व पोछा बाहर से अन्दर को लगाए ।




बुधवार, 27 अक्टूबर 2021

शिव महिमा

मंगलं भगवान शम्भो, मंगलं वृषभ ध्वज ।

मंगलं पार्वती नाथ , मंगलाय तनो हरः ।।

भगवान शिव ब्रह्माण्ड नायक आशुतोष की  महिमा अपरम्पार है ।वे सदा भक्तों के कष्ट दूर करते है जो एक बार भी शिव दरवार में अपनी अर्जी लगता है उसी समय से धीरे धीरे दुख दरिद्रता दूर हो जाती है , जीवन का संताप मिट जाता है । 

ॐ नमः शिवाय पंचाक्षरी महामंत्र का नित्य जप करने से जीवन मे सुख सम्पदा  व मन चाहा वर प्राप्त होता है ।


सत्यघटना --

किसी गांव में  किसी व्यक्ति के कमर से नीचे का भाग सुन्न  लकवा हो गया  , जिसके कारण चलना फिरना बंद हो गया  । कुछ समय व्यतीत होने पर उनसे  किसी  ने कहा आप अपने घर मे शिव महापुराण की कथा कराये  , शिव कथा से निश्चित स्वास्थ्य लाभ होगा । घर मे शिव पुराण की कथा करवायी गयी , फलस्वरूप  कूछ समय के पश्चात  घर के सभी लोग घर के नीचे खेत मे काम कर रहे थे । लकवा  वाले  व्यक्ति को घर के आंगन में लेटाया हुआ था  , कालवश  उस व्यक्ति के पाव पर सांप आ गया  वह व्यक्ति सांप के भय से खड़ा  होकर भागने लगा , यह है महादेव का चमत्कार  जो नित हर क्षण अपने भक्तों की पीड़ा हरने को तैयार रहते है ।

शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2021

कुम्भ क्या है

कुम्भ क्या है--

कुम्भ पर्व सनातनी भारतीयों का सबसे प्राचीन पर्व है । कुम्भ पर्व वैदिक परम्परा का सबसे प्राचीन उदाहरण है ।सनातनी सभ्यता का प्रतिनिधित्व में प्रथम स्थान कुम्भ पर्व का है । साधु संतों को कुम्भ पर्व का प्रतीक व कुंभ संतो का जीवन माना जाता है । कुम्भ के समय सन्त व गृहस्थ बड़े हर्षोल्लास के साथ कुम्भ पर्व स्नान करते है ।साधु सन्त व गृहस्थ सभी मिलकर जगत कल्याण , धन - धान्य , सुख - आरोग्यता , ज्ञान प्राप्ति की कामना करते है । 

कुम्भ , कलस (घड़ा) का प्रतिरूप है । जब कोई शुभ मंगल कार्य किये जाते है तो वहाँ भी कुम्भ का प्रतिरूप कलस स्थापना की जाती है ,कुम्भ के मुख में विष्णु ,कण्ठ में रुद्र ,मूल भाग में ब्रह्मा जी विराजमान होते है । कलस स्थापना के समय सप्त सागर , मातृगण , सप्तद्वीप , चारों वेद , गंगादि तीर्थो व देवताओं का आवाहन किया जाता है । 

मांगलिक कार्यों में घट (कलस) स्थापन का विशेष शुभता का प्रतीक माना जाता है ।

शनिवार, 16 अक्टूबर 2021

सत्यनारायण पूजा निर्णय


प्रायः सनातनी हिन्दू धर्म से जुड़े लोग कभी भी घर या मंदिर तीर्थों में शुभ मंगल ( पूजा ) कार्य को करते है , तो पूजा में भगवानों की ढेर लगा देते है । पंडित जी ये भगवान की पूजा वो हमारे फलाने देवता है वो पूजा सारी पूजा एक साथ करते है जो विधि के अनुसार अनुचित है । जब जो कार्य हो जिस देवता की पूजा हो उनके साथ के सहचर देवताओं की ही पूजा होनी चाहिए ।सत्यनारायण एक देवता ऐसे हो गये है । कभी बच्चा हो तो सत्यनारायण पूजा, जनेऊ हो तो सत्यनारायण पूजा, विवाह हो सत्यनारायण पूजा, वास्तु गृहप्रवेश हो सत्यनारायण पूजा जिसका महत्व ये सारी पूजाओं के साथ नही है ।

सत्यनारायण पूजा कब करें --

सत्यनारायण भगवान विष्णु यज्ञ के प्रधान देवता है । पुण्य आत्माओं द्वारा किया गया यज्ञ - यागादि जप, तप , दान शुभकर्मों का फल भगवान विष्णु जी के पास एकत्रित होता है । 

जब मनुष्य अपने घर परिवार से संबंधित शुभ कार्यो को करता है तो मन में एक भय होता है कि मेरा कार्य कैसे सिद्ध होगा ।इस अवस्था मे जीव भगवान की शरण मे होकर नारायण या कुल देवता से प्रार्थना करता या संकल्प लेता है जिस दिन मेरा मन इच्छित कार्य पूर्ण हो जायेगा उसके उपरांत में आपका पूजन करूँगा ।जिसके फलस्वरूप धन्यवाद के रूप में विष्णु पूजन सत्यनारायण के रूप में करता है ।सत्यनारायण पुजा संकल्पित कार्य के सिद्ध हो जाने के उपरांत सात से चौदह दिवस बीच किया जाना चाहिए ।

सोमवार, 12 जुलाई 2021

जगन्नाथ जी रथ यात्रा

जगन्नाथ जी रथ यात्रा 

आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीय 

नीलाचलनिवासाय नित्याय परमात्मने।

बलभद्रसुभद्राभ्यां जगन्नाथाय ते नमः।।

जगदानन्द कन्दाय  प्रणतार्तहराय  च।

नीलाचलनिवासाय जगन्नाथाय ते नमः।।

भारत के पूर्वी तट पर ओडिशा राज्य में स्थित जगन्नाथ पुरी पुण्य पवित्र धाम है ।वहाँ के प्रधान देवता भगवान कृष्ण जिन्हें जगन्नाथ जी के नाम से जाना जाता है । इसी स्थान पर जगन्नाथ जी की रथयात्रा त्यौहार बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है 


जगन्नाथपुरी में भगवान जगन्नाथ जी का एक बहुत ही भव्य विशाल मन्दिर है । इस मन्दिर की एक अन्य विशेषता भी है कि यही भगवान श्रीकृष्ण के साथ राधाजी की नहीं , बल्कि उनकी बहिन सुभदा, भाई बलराम जी की मूर्तियां स्थित है और तीनों भाई बहिनों की सयुक्त रूप में आराधना की जाती है ।

इन तीनों मूर्तियों को वर्ष में एक बार आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को मन्दिर से निकालकर जनकपुरी ले जाया जाता है जहां ये मूर्तियां तीन दिन तक लक्ष्मी जी के निकट रहती हैं और तीन दिन बाद पुनः उन्हीं रथों में जगन्नाथपुरी के मन्दिर में वापस लाई जाती हैं । रथ यात्रा के लिए भगवान जगन्नाथ जी , बलराम जी और सुभद्रा के लिए प्रतिवर्ष तीन नए रथ बनाए जाते हैं ।जो अत्यन्त भव्य होते हैं । जगन्नाथजी का रथ 45 फुट ऊंचा , 35 फुट लम्बा और उतना ही चौडा बनाया जाता है । उसमें 7 फुट व्यास के 16 पहिए लगाए जाते हैं । बलभद्र जी का रथ 44 फुट ऊंचा होता है और उसमें 14 पहिए होते हैं । सुभद्रा जी का रथ 43 फुट ऊंचा होता है और उसमें 12 पहिए लगाए जाते हैं । मन्दिर के सिंहद्वार पर भगवान् रथों में बैठ कर जनकरपुरी की ओर जाते हैं । रथों को चार हजार से अधिक लोग खींचते हैं । इन्हें खींचने के लिए मोटे - मजबूत और बहुत लम्बे - लम्बे रस्से लगाए जाते हैं । हजारों व्यक्ति पूर्ण भक्तिभाव से मिलकर इन रथों को खींचते हैं । इस रथयात्रा की सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि प्राचीन काल से ही जाति - पाँति और धर्म का कोई अन्तर नहीं रखा जाता । इस यात्रा में चाण्डाल तक को रथ खींचने में सहयोग देने का अधिकार प्राचीन काल से ही मिला हुआ है । जगन्नाथपुरी में दूर - दूर से लाखों व्यक्ति इस महोत्सव में भाग लेने के लिए आते हैं । अब तो स्थानीय स्तर पर अनेक नगरों में रथ यात्रा निकाली जाने लगी हैं ।

जगन्नाथ पुरी भारत के चार प्रमुख धामों में एक धाम है जो आदि शंकराचार्य जी द्वारा स्थापित गोवर्धन पीठ है ।


आदि शंकराचार्य प्रथम बार पूरी धाम स्थित जगन्नाथ जी के दर्शन के लिए पहुंचे, तो भगवान् को देखकर उन्होंने जगन्नाथ जी की स्तुति की,ओर अष्टकम का निर्माण किया जिसके पाठ से जगन्नाथ स्वामी प्रसन्न हो जाते है, मनुष्य की आत्मा पापो से मुक्त होकर विशुद्ध हो जाती है। इस अष्टकम के पाठ से आत्मा पवित्र होकर अंत में विष्णु लोक को प्राप्त करती है। हर वैष्णव को मुक्ति देने वाला यह स्तोत्र भगवन जगन्नाथ जी को अतिशय प्रिय है।

 

कदाचि त्कालिंदी तटविपिनसंगीतकपरो

मुदा गोपीनारी वदन कमला स्वाद मधुपः

रमा शंभु ब्रह्मा मरपति गणेशार्चित पदो

जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ १ ॥


हे प्रभु आप कदाचित जब अति आनंदित होते है,तब कालिंदी तट के निकुंजों में मधुर वेणु नाद द्वारा सभी का मन अपनी ओर आकर्षित करने लगते हो, वह सब गोपबाल ओर गोपिकायें ऐसे आपकी ओर मोहित हो जाते है जैसे भंवरा कमल पुष्प के मकरंद पर मोहित रहता है, आपके चरण कमलों को जोकि लक्ष्मी जी, ब्रह्मा,शिव,गणपति ओर देवराज इंद्र द्वारा भी सेवित है ऐसे जगन्नाथ महाप्रभु मेरे पथप्रदर्शक हो,मुझे शुभ दृष्टि प्रदान करे।


भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिंछं कटितटे

दुकूलं  नेत्रांते  सहचर  कटाक्षं  विदधते

सदा श्रीमद्बृंदावन वसति लीला परिचयो

जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ २ ॥


आपके बाए हस्त में बांसुरी है और शीश पर मयूर पिच्छ तथा कमर में पीत वस्त्र बंधा हुआ है ।आप अपने कटाक्ष नेत्रों से तिरछी निगाहो से अपने प्रेमी भक्तो को निहार कर आनंद प्रदान कर रहे है, और अपनी लीलाओं का जो की वृन्दावन में आपने की उनका स्मरण करवा रहे है और स्वयं भी लीलाओं का आनंद ले रहे है, ऐसे जगन्नाथ स्वामी मेरे पथप्रदर्शक बनकर मुझे शुभ दृष्टि प्रदान करे ।


महांभोधेस्तीरे कनकरुचिरे नीलशिखरे

वसन्प्रासादांत -स्सहजबलभद्रेण बलिना

सुभद्रा मध्यस्थ स्सकलसुरसेवावसरदो

जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ ३ ॥


हे मधुसूदन  विशाल सागर के किनारें, सुन्दर नीलांचल पर्वत के शिखरों से घिरे अति रमणीय स्वर्णिम आभा वाले श्री पूरी धाम में आप अपने बलशाली भ्राता बलभद्र जी और आप दोनों के मध्य बहन सुभद्रा जी के साथ विध्यमान होकर सभी दिव्य आत्माओं भक्तों और संतों को अपनी कृपा दृष्टि का रसपान करवा रहे है, ऐसे जगन्नाथ स्वामी मेरे पथपर्दशक हो और मुझे शुभ दृष्टि प्रदान करे ।


कथापारावारा स्सजलजलदश्रेणिरुचिरो

रमावाणीसौम स्सुरदमलपद्मोद्भवमुखैः

सुरेंद्रै राराध्यः श्रुतिगणशिखागीतचरितो

जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ ४ ॥


जगन्नाथ स्वामी दया और कृपा के अथाह सागर है। उनका रूप ऐसा जैसे जलयुक्त काले बादलों की गहन श्रंखला हो अर्थात अपनी कृपा की वृष्टि करने वाले मेघो के जैसे है, आप श्री लक्ष्मी और सरस्वती को देने वाले भण्डार है, अर्थात आप अपनी कृपा से लक्ष्मी और सरस्वती प्रदान करते है,आपका मुख चंद्र पूर्ण खिले हुए उस कमल पुष्प के समान है जिसमे कोई दाग नहीं है अर्थात पूर्ण आभायुक्त खिले हुए पुण्डरीक के जैसा आपका मुखकमल है, आप देवताओं और साधु संतों द्वारा पूजित है, और उपनिषद भी आपके गुणों का वर्णन करते है, ऐसे जगन्नाथ स्वामी मेरे पथप्रदर्शक हो और मुझे शुभ दृष्टि प्रदान करे ।


रथारूढो गच्छ न्पथि मिलङतभूदेवपटलैः

स्तुतिप्रादुर्भावं प्रतिपद मुपाकर्ण्य सदयः

दया सिंधुर्भानुस्सकल जगता सिंधुसुतया

जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ ५ ॥


हे आनंद स्वरूप  जब आप रथयात्रा के दौरान रथ में विराजमान होकर जनसाधारण के मध्य उपस्थित होतें हैं तो अनेको ब्राह्मणो,संतो,साधुओं और भक्तों द्वारा आपकी स्तुति वाचन,मंत्रों द्वारा स्तुति सुनकर प्रसन्नचित भगवान् अपने प्रेमियों को बहुत ही प्रेम से निहारते हे,अर्थात अपना प्रेम वर्षण करते है, ऐसे जगन्नाथ स्वामी लक्ष्मी जी सहित जोकि सागर मंथन से उत्पन्न सागर पुत्री है । मेरे पथप्रदर्शक बने और मुझे शुभ दृष्टि प्रदान करे ।


परब्रह्मापीडः कुवलयदलोत्फुल्लनयनो

निवासी नीलाद्रौ निहितचरणोनंतशिरसि

रसानंदो राधा सरसवपुरालिंगनसुखो

जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ ६ ॥

जगन्नाथ स्वामी आप ब्रह्मा के शीश के मुकुटमणि है, और आपके नेत्र कुमुदिनी की पूर्ण खिली हुयी पंखुड़ियों के समान आभा युक्त है, आप नीलांचल पर्वत पर रहने वाले है, आपके चरण कमल अनंत देव अर्थात शेषनाग जी के मस्तक पर विराजमान है, आप मधुर प्रेम रस से सराबोर हो रहे है जैसे ही आप श्रीराधा जी को आलिंगन करते है, जैसे कमल किसी सरोवर में आनंद पता है,ऐसे ही श्री जी का हृदय आपके आनंद को बढ़ाने वाला सरोवर है। ऐसे जगन्नाथ स्वामी मेरे पथप्रदर्शक और शुभ दृष्टि प्रदान करने वाले हो।


न वै प्रार्थ्यं राज्यं न च कनकितां भोगविभवं

न याचेहं रम्यां निखिल जनकाम्यां वरवधूं

सदा काले काले प्रमथपतिना चीतचरितो

जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ ७ ॥


हे मधुसूदन मैं न तो राज्य की कामना करता हूँ, ना ही स्वर्ण,आभूषण,कनक कामिनी भोग वैभव की कामना कर रहा हूँ, न ही लक्ष्मी जी के समान सूंदर पत्नी की अभिलाषा से प्रार्थना कर रहा हूँ, मैं तो केवल यही चाहता हूँ की भगवान् शिव जिन के गुण का कीर्तन श्रवण करते है वही जगन्नाथ स्वामी मेरे को शुभ दृष्टि प्रदान करने वाले हो ।


हर त्वं संसारं द्रुततर मसारं सुरपते

हर त्वं पापानां वितति मपरां यादवपते

अहो दीनानाथं निहित मचलं निश्चितपदं

जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ ८ ॥


हे देवो के स्वामी, आप अपनी संसार की दुस्तर माया जोकि मुझे भौतिक सुख साधनो और स्वार्थ साधनो की आकांक्षा के लिए अपनी ओर घसीट रहे है, अर्थात अपनी ओर लालायित कर रहे है, उनसे मेरी रक्षा कीजिये, हे यदुपति आप मुझे मेरे पाप कर्मो के गहरे ओर विशाल सागर से पार कीजिये जिसका कोई किनारा नहीं नज़र आता है, आप दीं दुखियों के एकमात्र सहारा हो, जिस ने अपने आपको आपके चरण कमलो में समर्पित कर दिया हो, जो इस संसार में भटककर गिर पड़ा हो, जिसे इस संसार सागर में कोई ठिकाना न हो, उसे केवल आप ही अपना सकते है, ऐसे जगन्नाथ स्वामी मुझे शुभ दृष्टि प्रदान करने वाले हो ।

जगन्नाथाष्टकं पुन्यं यः पठेत् प्रयतः शुचिः ।

सर्वपाप विशुद्धात्मा विष्णुलोकं स गच्छति ॥९॥

जो पुण्यात्मा ओर विशुद्ध हृदय वाला व्यक्ति इस जगन्नाथ अष्टक का पाठ करता है, वह पूर्ण विशुद्ध होकर विष्णु लोक को प्राप्त करता है, इसमें कोई संदेह नहीं है ।



गुरुवार, 8 जुलाई 2021

अथ शिवतांडव - स्तोत्रम्

 

 ।। शिवताण्डव - स्तोत्रम् ।।


जटाटवी  गलज्जल प्रवाह  पावि  तस्थले

गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्ग तुङ्ग मालिकाम् । 

डमड् डमड् डमड् डमन्निनाद वड्डमर्वयं 

चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ।। १ ।। 


जटा कटा हसम्भ्रम भ्रमन्निलिम्प निर्झरी

विलोल वीचि वल्लरी विराजमान मूर्द्धनि ।

धगद् -धगद् -धगज्ज्वलल्ललाट पट्ट पावके

किशोर चन्द्र शेखरे  रतिः प्रतिक्षणं  मम ।। २ ।।


धरा धरेन्द्र नन्दिनी विलास बन्धु बन्धुर

स्फुरद्दिगन्त सन्तति प्रमोद मान मानसे ।

कृपा कटाक्ष धोरणी  निरुद्ध  दुर्धरापदि 

क्वचिच्चिदम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ।।३ ।।


जटा भुजङ्ग पिङ्गल स्फुरत्फणा मणिप्रभा

कदम्ब कुङ्कुम द्रव प्रलिप्त दिग्वधूमुखे ।

मदान्ध सिन्धु रस्फुरत्त्वगुत्तरीय मेदुरे 

मनो विनोद मद्भुतं बिभर्तु भूत भर्तरि ।। ४ ।।


सहस्र लोचन प्रभृत्य शेष लेख शेखर

प्रसून धूलि धोरणी विधूसराङघ्रि पीठभूः ।

भुजङ्गराज मालया निबद्ध जाट जूटकः 

श्रियै चिराय जायतां चकोर बन्धु शेखरः ।।५ ।।


ललाट चत्व रज्वलध्दनञ्जय फुलिंगभा

निपीत पञ्चसायकं नमन्निलिम्प नायकम् ।

सुधा  मयूख लेखया  विराजमान  शेखरं

महाकपालि सम्पदे शिरी जटाल मस्तु नः ।।६ ।।


कराल भाल पट्टिका धगद् धगद् धगज्ज्वलद्

धनन्जया हुती कृत प्रचण्ड पञ्च सायके ।

धरा धरेन्द्र नन्दिनी कुचाग्र चित्र पत्रक

प्रकल्प नैक शिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ।।७ ।।


नवीन मेघ मण्डली निरुद्ध दुर्धर स्फुरत्

कुहू निशीथि नीतमः प्रबन्ध बद्ध कन्धरः ।

निलिम्प निर्झरी धरस्तनोतु कृत्ति सिन्धुरः

कला निधान बन्धुरः श्रियं जगध्दुरन्धरः।।८ ।।


प्रफुल्ल नीलपंकज प्रपञ्च कालि मप्रभा

विलम्बि कण्ठ कन्दली रुचि प्रबद्ध कन्धरम् । 

स्मरच्छिदं  पुरच्छिदं  भवच्छिदं  मखच्छिदं

गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ।।९ ।।


अखर्व सर्व मङ्गला कला कदम्ब मञ्जरी

रस प्रवाह माधुरी विजृम्भणा मधु व्रतम्  ।

स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं

गजान्त कान्ध कान्तकं तमन्त कान्तकं भजे ।।१० ।।


जयत्वद भ्रविभ्रम भ्रमद्भुजङ्ग मस्फुरत्

विनिर्गमत्क्रमत्स्फुरत्कराल भाल हव्यवाट् । 

घिमिद् घिमिद् धिमिध्वनन् मृदङ्ग तुङ्ग मङ्गल

ध्वनि क्रम प्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ।।११ ।।


दृषद् विचित्र तल्पयोर्भुजङ्ग मौक्तिक स्रजो

र्गरिष्ठ रत्न लोष्टयोः सुहृद्विपक्ष पक्षयोः ।

तृणा रविन्द चक्षुषोः प्रजा मही महेन्द्रयोः 

सम प्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ।।१२ ।।


कदा निलिम्प निर्झरी निकुँज कोटरे वसन्

विमुक्त दुर्मतिः सदा शिरःस्थ मञ्जलिं  वहन् ।

विमुक्त लोल लोचनो ललाम भाल लग्नकः 

शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ।।१३ ।। 


इमं हि नित्य मेव मुक्त मुत्त मोत्तमं    स्तवं 

पठन् स्मरन् ब्रुवन् नरो विशुद्ध मेति सन्ततम् । 

हरे गुरौ सु भक्तिमाशु याति  नान्यथा  गतिं 

विमोहनं हि देहिनां सु शंकरस्य चिन्तनम् ।।१४ ।।

 

     पूजा वसान समये दश वक्त्र गीतं 

     यः शम्भु पूजन मिदं पठति प्रदोषे ।

     तस्य स्थिरां रथ गजेन्द्र तुरङ्ग युक्तां 

     लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ।।१५ ।। 


।। इति श्री रावणकृतं शिवताण्डव स्तोत्रं सम्पूर्णम् ।। 


बुधवार, 7 जुलाई 2021

रुद्राष्टाकम्

रुद्राष्टाकम् का नित्य पाठ करने से बड़े से बड़े विघ्नों पर विजय प्राप्त कर सकते है ।


नमामी  शमीशान  निर्वाणरूपं

विभुं व्यापकं ब्रह्मवेद स्वरूपम् ।

अजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं

चिदाकाश माकाशवास भजेऽहं ।।१ ।। 


निराकार   मोंकार   मूलं   तुरीयं 

गिरा ज्ञान गोती तमीशं गिरीशम् ।

करालं  महाकाल कालं  कृपालु 

गुणागार  संसार  पारं  नतोऽहं ।।२ ।।


तुषाराद्रि - संकाश - गौरं  गभीरं

मनोभूतकोटि - प्रभा- श्रीशरीरम् ।

स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा

लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे  भुजङ्गा ।।३ ।।


चलत्कुण्डलं  भू   सुनेत्रं  विशालं

प्रसन्नाननं   नीलकण्ठं   दयालुम् ।

मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्ड - मालम् 

प्रियं शङ्करं  सर्वनाथं  भजामि ।।४ ।।


प्रचण्डं   प्रकृष्टं    प्रगल्भं   परेशं 

अखण्डं अजं भानुकोटि प्रकाशम् ।

त्रयः   शूल - निर्मूलनं   शूलपाणिं

भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ।।५ ।।


कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी

सदा सज्जना नन्द दाता  पुरारी ।

चिदानन्द   सन्दोह   मोहापहारी 

प्रसीद  प्रसीद  प्रभो  मन्मथारी ।।६ ।।


न  यावद्  उमानाथ  पादारविन्दं 

भजन्तीह  लोके  परे वा नराणाम् ।

न तावत्सुखं शान्ति - सन्तापनाशं

प्रसीद  प्रभो  सर्वभूताधि वासम् ।।७ ।।


न  जानामि  योगं  जपं नैव  पूजां

नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।

जरा  जन्म  दुःखौघ  तातप्यमानं

प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ।।८ ।।



रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।

ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रदीदति ।। ९ ।। 


।। इति श्री गोस्वामितुलसीदासकृतं श्री रुद्राष्टकं सम्पूर्णम् ।।

💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐

रविवार, 4 जुलाई 2021

चमत्कारी सर्प सूक्त

चमत्कारी सर्प सूक्त 

यह सर्प सूक्त सर्प शाप दोष शान्ति के लिए अत्यन्त प्रभावकारी है।

एक जोड़ी स्वर्ण सर्प पूजन करके किसी वेदपाठी विद्वान को दान देने से सर्प शाप दोष परिहार हो जाता है । 

सर्प शाप के कारण यदि सन्तान बाधा , बुरे स्वप्न, कार्यो में विघ्न हो तो सर्प सूक्त का 101 पाठ करके हवन करें । तत्पश्चात् गो दान करें या गो निष्क्रिय दक्षिणा देकर ब्राह्मणों से आशीर्वाद लें । इस विधि को करने से उत्तम सन्तान की प्राप्ति होती है ।

 सर्प सूक्त --

ब्रह्मलोकेषु  ये  सर्पाः शेषनाग  पुरोगमाः ।

नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदाः।।१।।

इन्द्रलोकेषु  ये  सर्पाः वासुकि  प्रमुखादयः । 

नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीता : मम सर्वदा ॥२।। 

कद्रवे याश्च  ये  सर्पाः मातृभक्ति  परायणा ।

नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीता : मम सर्वदा ॥३।।

इन्द्रलोकेषु  ये  सर्पाः तक्षका  प्रमुखादयः ।

नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीता : मम सर्वदा ॥४।।

सत्यलोकेषु ये सर्पाः वासुकिना च रक्षिता ।

नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीता : मम सर्वदा ।।५।।

मलये चैव ये सर्पाः कर्कोटक प्रमुखादयः ।

नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीता : मम सर्वदा ॥६।।

पृथिव्यांश्चैव ये सर्पाः ये  साकेत वासिना ।

नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीता : मम सर्वदा ॥७।।

सर्वग्रामेषु ये  सर्पाः वंसुतिषु  संच्छिता ।

नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीता : मम सर्वदा ॥८।। 

ग्रामे वा यदि वा रण्ये ये सर्पाः प्रचरन्ति च ।

नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ॥९।।

समुद्रतीरे  ये  सर्पाः    सर्वाजलवासिनः । 

नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीता : मम सर्वदा ॥१०।।

रसातलेषु ये सर्पाः अनन्तादि महाबलाः ।

नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ॥११।।


योगिनी एकादशी

योगिनी एकादशी 

( आषाढ़ कृष्ण एकादशी ) 


आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की इस एकादशी को भगवान नारायण की पूजा - आराधना की जाती है । श्रीनारायण भगवान विष्णु का ही एक नाम है अतः अन्य एकादशियों के समान ही भगवान विष्णु अथवा उनके लक्ष्मीनारायण रूप की पूजा - आराधना करें । इस एकादशी का व्रत करने से सम्पूर्ण पापों का क्षय होता है , और पीपल का पेड़ काटने जैसे पाप तक से मुक्ति मिल जाती है । किसी के दिए हुए शाप तक का निवारण हो जाता है । योगिनी एकादशी का व्रत करने से कुष्ट रोग नष्ट होता है ।अन्य एकादशियों के समान ही इस एकादशी के व्रत का विधान है । इस व्रत को करने वाला भी इस लोक में सभी सुख भोगकर अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर श्रीहरि के चरणों में निवास प्राप्त करता है , ऐसा शास्त्रों में परिणीत है । 

कथा - 

अति प्राचीन काल में अलकापुरी के राजा कुबेर के यहां हेममाली नामक एक अनुचर था । उसका कार्य नित्यप्रति पूजा के फूल लाना था । एक दिन भार्या के साथ विहार करते रहने के कारण उसे फूल लाने में बहुत देर हो गई । इससे क्रोधित होकर कुबेर ने उसे कोढ़ी होने का शाप दे दिया । इस शाप से कोढ़ी हुआ हेममाली इधर - उधर भटकता हुआ एक दिन दैवयोग से मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम में जा पहुंचा । ऋषि ने अपने योग बल से उसके दुःखी होने का कारण जान लिया । उन्होंने उसे योगिनी एकादशी व्रत करने को कहा । व्रत के प्रभाव से हेममाली का कोढ़ समाप्त हो गया और वह दिव्य शरीर धारण करके पुनः स्वर्ग लोक को प्रस्थान कर गया ।

💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐

रविवार, 20 जून 2021

हरेला त्यौहार (हरियाली )

उत्तराखंड का लोक त्यौहार हरेला (हरियाली)

(कर्क संक्रान्ति १गते श्रावण मास)

उत्तराखंड में समय समय पर ऋतु व संक्रान्ति के आगमन पर अनेक त्यौहार मनाये जाते है । जिनकी प्रसिद्धि पूरे उत्तराखंड व देश विदेशों में दिखायी देता है । हरेला त्यौहार मूलरूप से उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में विशेष हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है ।

हरेला त्यौहार हरियाली ,प्रकृति संरक्षण का प्रतीक है ,जो हमे पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है।सावन के आगमन पर लोग वृक्षारोपण करते है। यह हरेला त्यौहार प्रकृति की रक्षा व सुख शांति के लिये मनाया जाता है। जिसमें सभी जन मानुष प्रकृति की रक्षा का संकल्प लेते है ।

हरेला का त्यौहार भगवान शिव व शिव परिवार को समर्पित है ।सावन के आगमन पर लोग अपने घरों में मिट्टी से शिव परिवार की मूर्ति बनाकर अभिषेक पूजन करते है । मान्यताओं के अनुसार हरेले के दिन भगवान शिव व पार्वती जी का विवाह हुआ था ।इस लिये भगवान शिव जी को सावन का महीना प्रिय है ।

हरेला त्यौहार -

~~~~~~~~~~~~~~~~~~

हरेला त्यौहार श्रावण मास के १गते कर्क संक्रान्ति को मनाया जाता है । हरेला त्यौहार के नौ दिन ,दश दिन ,ग्यारह दिन पूर्व बांस या रिंगाल से बनी टोकरी में मिट्टी डालकर उसमे पांच या सात प्रकार के धान्य  जौ ,धान ,गहत ,भट्ट ,मक्का , सरसों , झुंगर बोते है । रोज सुबह बोये हरेले में पानी दिया जाता है ।नौ दिन तक हरेले पर सूर्य का प्रकाश नही पड़ना चाहिए । हरेला घर के मंदिर या सामूहिक रूप से गाँव या परिवार के कुलदेवता के मंदिर में बोते है ।

हरेला त्यौहार के दिन प्रातः स्नानादि से निवृत हो हरेला व देवताओं की पूजा करके हरेला काट कर प्रथम देवताओं को अर्पित किया जाता है ।फिर घर के बड़े बुजुर्ग या माताओं के हाथों से सबके सिर व कान में लगाया जाता है ।

हरेला लगाते समय माँ अपने बच्चों को शुभ आशीष देते हुवे कहती है ।

आशीष वचन -

लाग हर्या लाग पंचमी

लाग दशै लाग बोगाव

जी रये जागि रये

यो दिन यो मास भेंटने रया

दुब जस पनपी जाया

अगास जस उच्च 

धरती जस चकाव हे जाया

शेर जस तराण हो 

स्याव जस बुद्धि हो 

हिमालय में हिंयु रण तलक

गंग जमुन में पाणि रण तलक

जी रये जागि रये 

जो परिवार के सदस्य नॉकरी या अन्य कार्यो के लिए दूसरे शहरों में रहते है उन्हें  लिफाफे में हरेला डालकर डाक द्वारा भेजा जाता है । 


बुधवार, 16 जून 2021

दूर्वा( घास) की उत्पत्ति

 दूर्वा (घांस) की उत्पत्ति कैसे हुई-

"त्वं दूर्वे अमृतनामासि सर्वदेवैस्तु वन्दिता।

वन्दिता दह तत्सर्वं दुरितं यन्मया कृतम॥"

पौराणिक कथा के अनुसार- समुद्र मंथन के दौरान एक समय जब देवता और दानव थकने लगे तो भगवान विष्णु ने मंदराचल पर्वत को अपनी जंघा पर रखकर समुद्र मंथन करने लगे। मंदराचल पर्वत के घर्षण से भगवान के जो रोम टूट कर समुद्र में गिरे थे, वही जब किनारे आकर लगे तो दूब के रूप में परिणित हो गये। अमृत निकलने के बाद अमृत कलश को सर्वप्रथम इसी दूब पर रखा गया था, जिसके फलस्वरूप यह दूब भी अमृत तुल्य होकर अमर हो गयी। दूब घास विष्णु का ही रोम है, अतः सभी देवताओं में यह पूजित हुई और अग्र पूजा के अधिकारी भगवान गणेश को अति प्रिय हुई। तभी से पूजा में दूर्वा का प्रयोग अनिवार्य हो गया।

सोमवार, 14 जून 2021

निर्जला एकादशी व्रत का महत्व

अपरा अर्थात निर्जला एकादशी

 ( जेष्ठ शुक्ला एकादशी )

सनातन धर्म में एकादशी व्रत का विशेष महत्व है । पूरे वर्ष में चौबीस एकादशियां आती है । किन्तु इन सब में निर्जला एकादशी सबसे बढ़कर फल देने वाली है । इस निर्जला एकादशी का व्रत रखने से वर्ष भर की सभी एकादशी का फल प्राप्त होता है । यह व्रत अत्यधिक कठिन व संयम - साध्य है । जेष्ठ मास में दिन बड़े होते है ,व प्यास अधिक लगती है । ऐसे में इतना कठिन व्रत रखना साधना का काम है ।

इस एकादशी व्रत के दिन अपनी शक्ति और सामर्थ्यानुसार दान देने का विधान है ।जैसे अनाज छतरी वस्त्र फल जल से पूर्ण कलश सहित दक्षिणा देना चाहिए ।

इस एकादशी का वर्णन स्वयं व्यास जी ने किया है ।

कथा-

एक बार भीमसेन ने व्यास जी से कहा कि हे पितामह युधिष्ठिर अर्जुन नकुल सहदेव माता कुंती और द्रोपदी सभी एकादशी को भोजन का निषेध करते है ।औऱ मुझे भी एकादशी के दिन भोजन न करने के लिए कहते है । मै विधिपूर्वक दान दे दूंगा औऱ भगवान वासुदेव की पूजा करके उन्हें प्रसन्न कर लूंगा किन्तु मै भूखा नही रह सकता ।पितामह आप मुझे कोई ऐसा उपाय बताए कि बिना व्रत के मुझे एकादशी व्रत का फल प्रप्त हो।

व्यासजी बोले -

हे वृकोदर !तुम्हें अगर स्वर्ग पसन्द है औऱ तुम नरक नही जाना चाहते तो पक्ष की दोनों एकादशी में तुम्हें भोजन नही करना चाहिए ।

 भीमसेन ने कहा -

हे पितामह मेरे एक समय के भोजन से निर्वाह नही होता ,मेरे उदर में वृक नाम की अग्नि सदैव जलती रहती है ।बहुत मात्रा में भोजन करने से मेरी भूख शांत होती है ।

हे मुनिराज मुझे कोई एक ऐसा व्रत बताए जिसके करने से मेरा कल्याण हो । उसे में अवश्य ही विधिपूर्वक करूँगा ।

व्यास जी ने कहा- जेष्ठ शुक्ल एकादशी को निर्जला व्रत किया करो , स्नान व आचमन करने का कोई दोष नही है । अन्न बिलकुल नही खायें , अन्न ग्रहण करने से व्रत खण्डित हो जाता है ।हे भीमसेन तुम सदा यही व्रत किया करो । जिससे सभी एकादशी में अन्न खाने का दोष भी समाप्त हो जाएगा और वर्ष की सभी एकादशी का पुण्य भी प्राप्त होगा ।

💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐

बुधवार, 9 जून 2021

वट सावित्री व्रत कथा

वट सावित्री व्रत या बड़ - मावस ( ज्येष्ठ अमावस्या ) 

यह सौभाग्यवती स्त्रियों का प्रमुख पर्व है । इस दिन वट वृक्ष की पूजा की जाती है ।मान्यता है कि सावित्री ने वट वृक्ष के नीचे बैठ कर सत्यवान को दोबारा जीवित किया था। स्त्रियां बड़े सवेरे स्नान करती हैं और केशों को धोती हैं । जल , मोली , रोली , चावल , गुड़ , भीगे चने , फूल , धूप - दीप से वट वृक्ष की पूजा की जाती है और उसके चारों ओर कच्चे सूत का धागा लपेटा जाता है । भीगे हुए चनों का भोग लगाया जाता है । कहीं - कहीं पर यह त्यौहार ज्येष्ठ कृष्णपक्ष त्रयोदशी से अमावस्या तक किया जाता है । यह व्रत स्त्रियों द्वारा अखण्ड सौभाग्यवती की कामना से किया जाता है । सुहागिन नारियां पूर्ण श्रृंगार करके और सुन्दर वस्त्राभूषण धारणकर सामूहिक रूप में पूजा करती हैं । वट वृक्ष के तने पर जल चढ़ाकर रोली चन्दन लगाया जाता हैं ,और पूजन के लिए लाई गई सभी सामग्री चढ़ा दी जाती है । घी का दीपक जलाकर कच्चे सूत के धागे को हल्दी से रंगकर वृक्ष के तने पर लपेटते हुए वृक्ष की सात परिक्रमाएं की जाती हैं । यदि आपके आस - पास बड़ का कोई पेड़ न हो तब भी निराश न हों , कहीं से एक टहनी मंगा लें अथवा दीवार पर वट वृक्ष को अंकित करके पूजा कर लें । पूजा - आराधना में मुख्य महत्व भावना , श्रद्धा , विश्वास और आस्था का है अतः आप दीवार पर बड़ के पेड़ का अंकन करें अथवा वास्तविक वट वृक्ष का पूजन , इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । इस अवसर पर सत्यवान - सावित्री की यह कहानी कही और सुनी जाती है । -

कथा- 

बहुत समय पूर्व मद्रदेश में अश्वपति नामक एक परम ज्ञानी राजा थे । उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए पण्डितों की सम्मति से भगवती सावित्री की आराधना की । इस पूजा से उनके यहां एक पुत्री का जन्म हुआ । उन्होंने इसका नाम सावित्री रखा । सावित्री सर्वगुण सम्पन्न थी । जब वह विवाह योग्य हुई तब राजा ने उसे स्वयं अपना वर चुनने को कहा । एक दिन महर्षि नारद राजा अश्वपति के घर आये हुए थे । तभी सावित्री भी अपने लिए वर चुनकर लौटी । उसने आदरपूर्वक नारदजी को प्रणाम किया । नारदजी के पूछने पर सावित्री ने बताया कि महाराज , राज्यच्युत राजा धुमत्सेन के आज्ञाकारी पुत्र सत्यवान को मैंने अपना पति बनाने का निश्चय किया है । तीनों लोकों में भ्रमण करने वाले नारदजी ने उसके भूत , वर्तमान और भविष्य को देखकर राजा से कहा - राजन् तुम्हारी कन्या ने वर खोजने में निस्सन्देह भारी परिश्रम किया है । सत्यवान गुणवान और धर्मात्मा है । वह सावित्री के लिए सब प्रकार से योग्य है परन्तु उसमें एक भारी दोष है । वह अल्पायु है और एक वर्ष के पश्चात् वह मृत्यु को प्राप्त होगा । नारदजी के वचन सुनकर राजा ने पुत्री को कोई अन्य वर खोजने की सलाह दी । परंतु सावित्री ने दृढ़तापूर्वक कहा कि जिसे मैंने एक बार मन से पति स्वीकार कर लिया है , वह अब चाहे जैस भी है , वही मेरा पति होगा । सावित्री के ऐसे दृढ़ वचन सुनकर राजा अश्वपति ने उसका विवाह सत्यवान के साथ कर दिया । सावित्री अपने पति और अंध सास - ससुर की सेवा करती हुई सुखपूर्वक वन में रहने लगी । नारदजी के कथनानुसार जब उसके पति के जीवन के तीन दिन बचे , तभी से वह उपवास करने लगी । तीसरे दिन उसने पितरों का पूजन किया । तत्पश्चात् वह सत्यवान के साथ वन में जाने की 

उद्यत हुई । इसके लिए उसने सास - ससुर से आज्ञा प्राप्त कर ली । सत्यवान लकड़ी काटने के लिए एक वृक्ष पर चढ़ा , परन्तु शीघ्र ही सिर में पीड़ा होने के कारण नीचे उतर आया और सावित्री की गोद में सिर रखकर लेट गया । तभी सावित्री ने यमराज और उसके दूतों को सत्यवान का जीव निकालकर ले जाते हुए देखा । यह देख वह भी उनके पीछे - पीछे चल पड़ी । यमराज ने उसे.समझाकर वापस लौट जाने के लिए कहा । सावित्री ने कहा - धर्मराज , पति के पीछे जाना ही स्त्री का धर्म है । पतिव्रत के प्रभाव और आपकी कृपा से कोई मेरी गति नहीं रोक सकता । सावित्री के धर्मयुक्त वचनों से प्रसन्न होकर यमराज ने उसे वर मांगने को कहा । सावित्री ने अपने सास - ससुर को दिखाई देने का वरदान मांगा । वर प्राप्त करके भी सावित्री ने अपने पति का साथ नहीं छोड़ा । यमराज ने दूसरी बार वर मांगने को कहा । सावित्री ने अपने ससुर के खोए हुए राज्य की प्राप्ति और अपने पिता के लिए सौ पुत्रों का वरदान मांगा । वर देने के बाद यमराज ने पुनः सावित्री को वापस लौट जाने का आग्रह किया , किन्तु सावित्री अपने प्रण पर अडिग रही । तब यमराज ने उससे अंतिम वर मांगने के लिए कहा । सावित्री ने सत्यवान से सौ पुत्र प्राप्त होने का वरदान मांगा । सावित्री की पतिभक्ति और युक्तिपूर्ण वचनों के बंधन में बंधे यमराज ने सत्यवान के जीव को पाश से मुक्त कर दिया । सावित्री को वर देकर यमराज अंतर्ध्यान हो गये और वह लौटकर वट वृक्ष के नीचे आई । सत्यवान के मृत शरीर में पुनः जीवन का संचार हो गया था । इस प्रकार सावित्री ने अपने पतिव्रत धर्म का पालन करके अपने ससुर कुल एवं पितृकुल दोनों का कल्याण कर दिया । 

💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐

गुरुवार, 27 मई 2021

शिवजी की पूजा में ध्यान रखने योग्य बात

।। शिवजी की पूजा में ध्यान रखने योग्य बात।।


शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव को कौन सी चीज़ चढाने से मिलता है क्या फल ,

किसी भी देवी-देवता का पूजन करते समय उनको अनेक चीज़ें अर्पित की जाती है। प्रायः भगवान को अर्पित की जाने वाली हर चीज़ का फल अलग होता है। शिव पुराण में इस बात का वर्णन मिलता है की भगवान शिव को अर्पित करने वाली अलग-अलग चीज़ों का क्या फल होता है। शिवपुराण के अनुसार जानिए कौन सा अनाज भगवान शिव को चढ़ाने से क्या फल मिलता है:

१. भगवान शिव को चावल चढ़ाने से धन की प्राप्ति होती है।

२. तिल चढ़ाने से पापों का नाश हो जाता है।

३. जौ अर्पित करने से सुख में वृद्धि होती है।

४. गेहूं चढ़ाने से संतान वृद्धि होती है।यह सभी अन्न भगवान को अर्पण करने के बाद गरीबों में वितरीत कर देना चाहिए।


शिव पुराण के अनुसार जानिए भगवान शिव को कौन सा रस (द्रव्य) चढ़ाने से उसका क्या फल मिलता है -

१. ज्वर (बुखार) होने पर भगवान शिव को जलधारा चढ़ाने से शीघ्र लाभ मिलता है। सुख व संतान की वृद्धि के लिए भी जलधारा द्वारा शिव की पूजा उत्तम बताई गई है।

२. नपुंसक व्यक्ति अगर शुद्ध घी से भगवान शिव का अभिषेक करे, ब्राह्मणों को भोजन कराए तथा सोमवार का व्रत करे तो उसकी समस्या का निदान संभव है।

३. तेज दिमाग के लिए शक्कर मिश्रित दूध भगवान शिव को चढ़ाएं।

४. सुगंधित तेल से भगवान शिव का अभिषेक करने पर समृद्धि में वृद्धि होती है।

५. शिवलिंग पर ईख (गन्ना) का रस चढ़ाया जाए तो सभी आनंदों की प्राप्ति होती है।

६. शिव को गंगाजल चढ़ाने से भोग व मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।

७. मधु (शहद) से भगवान शिव का अभिषेक करने से राजयक्ष्मा (टीबी) रोग में आराम मिलता है।

शिव पुराण के अनुसार जानिए भगवान शिव को कौन का फूल चढ़ाया जाए तो उसका क्या फल मिलता है -

१. लाल व सफेद आंकड़े के फूल से भगवान शिव का पूजन करने पर भोग व मोक्ष की प्राप्ति होती है।

२. चमेली के फूल से पूजन करने पर वाहन सुख मिलता है।

३. अलसी के फूलों से शिव का पूजन करने से मनुष्य भगवान विष्णु को प्रिय होता है।

४. शमी पत्रों (पत्तों) से पूजन करने पर मोक्ष प्राप्त होता है।

५. बेला के फूल से पूजन करने पर सुंदर व सुशील पत्नी मिलती है।

६. जूही के फूल से शिव का पूजन करें तो घर में कभी अन्न की कमी नहीं होती।

७. कनेर के फूलों से शिव पूजन करने से नए वस्त्र मिलते हैं।

८. हरसिंगार के फूलों से पूजन करने पर सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है।

९. धतूरे के फूल से पूजन करने पर भगवान शंकर सुयोग्य पुत्र प्रदान करते हैं, जो कुल का नाम रोशन करता है।

१०. लाल डंठलवाला धतूरा पूजन में शुभ माना गया है।

११. दूर्वा से पूजन करने पर आयु बढ़ती है।




बिल्व वृक्ष लगाने का फल

बिल्व वृक्ष-




जीवन काल मे प्रत्येक मनुष्य को वृक्षारोपण करना चाहिये । मनुष्य जब एक वृक्ष का रोपण करता है तो उसे दस पुत्रों के सदृश फल प्राप्त होता हैं।प्रयास यह हो कि हम ऐसे वृक्षों का रोपण करें की मानव जाती को उसका लाभ पीढ़ी दर पीढ़ी हो, साथ साथ प्रकृति की सुंदरता बनी रहे। वृक्ष होंगे तो मानव जाति भी सुरक्षित रहेगी ।

१. बिल्व वृक्ष के आसपास सांप नहीं आते ।

२. अगर किसी की शव यात्रा बिल्व वृक्ष की छाया से होकर गुजरे तो उसका मोक्ष हो जाता है ।

३. वायुमंडल में व्याप्त अशुध्दियों को सोखने की क्षमता सबसे ज्यादा बिल्व वृक्ष में होती है ।

४. चार, पांच, छः या सात पत्तो वाले बिल्व पत्र पाने वाला परम भाग्यशाली और शिव को अर्पण करने से अनंत गुना फल मिलता है।

५. बेल वृक्ष को काटने से वंश का नाश होता है एवं बेल वृक्ष लगाने से वंश की वृद्धि होती है।

६. सुबह शाम बेल वृक्ष के दर्शन मात्र से पापो का नाश होता है।

७. बेल वृक्ष को सींचने से पित्र तृप्त होते है।

८. बेल वृक्ष और सफ़ेद आक् को जोड़े से लगाने पर अटूट लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।

९. बेल पत्र और ताम्र धातु के एक विशेष प्रयोग से ऋषि मुनि स्वर्ण धातु का उत्पादन करते थे ।

१०. जीवन में सिर्फ एक बार और वो भी यदि भूल से भी शिव लिंग पर बेल पत्र चढ़ा दिया हो तो भी जीव सभी पापों से मुक्त हो जाते है l

११. बेल वृक्ष का रोपण, पोषण और संवर्धन करने से महादेव से साक्षात्कार करने का अवश्य लाभ मिलता है।

कृपया बिल्व पत्र का पेड़ जरूर लगाये और बिल्व पत्र के लिए पेड़ को क्षति न पहुचाएं ।

💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐

बुधवार, 26 मई 2021

पार्थिव शिवलिंग के पूजन का महात्म्य

पार्थिव शिवलिंग पूजन का महत्व
एक बार ऋषि गणों के पूछने पर सूत जी महाराज ने पार्थिव शिवलिंग पूजन का महात्म्य बताते हुवे कहा ।

ब्रह्मा , विष्णु , प्रजापति तथा अनेक ऋषियों ने पार्थिव लिंग की पूजा करके अभीष्ट को प्राप्त किया है । देव , असुर ,मनुष्य , गन्धर्व ,नाग , राक्षसगण और अन्य प्राणियों ने भी पार्थिव लिंग पूजा करके परम सिद्धि को प्राप्त किया है ।

सतयुग में मणि लिंग ,त्रेतायुग में स्वर्ण लिंग, द्वापरयुग में पारद लिँग और कलयुग में पार्थिव लिङ्ग पूजन को श्रेष्ठ माना गया है ।

भगवान शिव की सभी पूजा में पार्थिव मूर्ति श्रेष्ठ है ।नव निर्मित पार्थिव मूर्ति की पूजा करने से तपस्या से भी अधिक फल मिलता है ।

जैसे सभी देवताओं में शंकर श्रेष्ठ है उसी प्रकार सभी लिंग मुर्तियों मे पार्थिव लिंग श्रेष्ठ है ।

जैसे सभी नदियों में गंगा जेष्ठ व श्रेष्ठ कही गयी है ,वैसे ही सभी लिंग मुर्तियों मे पार्थिव लिंग श्रेष्ठ कहा जाता है ।

जैसे सभी मंत्रो में प्रणव (ॐ) महान कहा गया है , उसी प्रकार शिव का पार्थिव शिवलिंग श्रेष्ठ आराध्य तथा पूजनीय है ।

जैसे मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है ,उसी प्रकार देवों में शिव पार्थिव लिंग पूजन श्रेष्ठ है।

जो मनुष्य पार्थिव शिवलिंग का निर्माण करके विल्बपत्रों से ग्यारह वर्ष  तक पूजन करता है ,वह मनुष्य रुद्रलोक में प्रतिष्ठित होता है।उसके दर्शन ,स्पर्श से मनुष्यों के पाप नष्ट हो जाते है ।

जो मनुष्य जीवन पर्यंत पार्थिव लिंग का पूजन करता है , वह असंख्य वर्षो तक शिवलोक में वास करता है । जो मनुष्य निष्काम भाव से विधिवत पार्थिव शिवलिंग पूजन करता है ,वह सदा के लिये शिवलोक में वास करता है और शिव सायुज्य को प्राप्त कर लेता है।

निष्कामः पूजयेन्नित्यं पार्थिवं लिंग मुत्तमम् ।

शिवलोके सदा तिष्ठेत्तस्य सायुज्यमाप्नुयात् ।।

शिव पार्थिव लिंग पूजन से मनुष्यों की सभी प्रकार मनोकामना पूर्ण होती है ।

आचार्य हरीश लखेड़ा
9004013983


पापमोचनी एकादशी

पापमोचनी एकादशी ( चैत्र कृष्णा एकादशी ) 

यह एकादशी पापमोचनी एकादशी कहलाती है । इस दिन विष्णु की पूजा की जाती है । इस व्रत के करने से समस्त पापों का नाश होता है और सुख समृद्धि प्राप्त होती है । 

कथा - 

प्राचीन काल में चित्ररथ नामक वन में देवराज इन्द्र गन्धर्वो और अप्सराओं के साथ विहार कर रहे थे । वहीं महर्षि के मेधावी ऋषि भी तपस्या कर रहे थे । मेधावी ऋषि के सुन्दर रूप को देखकर मंजुघोषा नामक अप्सरा उन पर आसक्त हो गई । उसने अपने हाव - भावों से ऋषि को मोहित कर लिया । अनेकों वर्ष उन दोनों ने साथ - साथ गुजारे । 

एक दिन जब मंजुघोषा वापस जाने लगी , तब ऋषि को अपनी तपस्या भंग होने का भान हुआ । उन्होंने क्रोधित होकर अप्सरा को पिशाचनी होने का शाप दिया । बहुत अनुनय - विनय करने पर ऋषि का हृदय पसीज गया और उन्होंने उसे चैत्र कृष्णा एकादशी को विधिपूर्वक व्रत करने के लिए कहा और बताया कि इसके करने से उसके पाप और शाप समाप्त हो जायेंगे और वह पुनः अपने पूर्व रूप को प्राप्त करेगी । मंजुघोषा से इतना कहकर ऋषि मेधावी अपने पिता महर्षि च्यवन के पास पहुंचे । च्यवन ऋषि ने सारी बात सुनकर कहा - पुत्र यह तुमने अच्छा नहीं किया । तुमने अप्सरा को शाप देकर स्वयं पाप कमाया है अतः तुम भी पापमोचनी एकादशी का व्रत करो । इस प्रकार पापमोचनी एकादशी का व्रत करके मंजुघोषा ने शाप से और ऋषि मेधावी ने पाप से मुक्ति पाई । 

💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐

अक्षय तृतीया

अक्षय तृतीया अर्थात अखातीज

अक्षय तृतीया का यह दिन विशेषकर पवित्र व शुभ माना गया है। जो युगादि तिथि के नाम से भी जानी जाती है।इस दिन होम जप तप दान स्नान आदि से प्राप्त होने वाला पुण्य अक्षय होता है ।इसी कारण इस तिथि का नाम अक्षय तृतीया पड़ा ।इस दिन गंगा स्नान का भारी महत्व है ।जो मनुष्य आज के दिन गंगा आदि तीर्थो में स्नान करता है , वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है।

अक्षय तृतीया के दिन प्रातःकाल में घड़ी , पंखा , चावल, दाल, साग, फल , वस्त्र ,दक्षिणा ब्राह्मणों को दान देनी चाहिए ।

यह दिन वर्ष के सभी दिनों में विशेष महत्व रखता है ।

इसी दिन भगवान परशुराम जी का जन्म हुआ था ,इसी दिन श्रीबद्री नारायण के पट खुलते है , जिन लोगों के घरों में ठाकुर जी नही है वे लोग आज के दिन नारायण श्रीबद्री विशाल को स्थापित कर मिश्री व चने का भोग लगावे ,तुलसी दल चढ़ाकर विधिवत भक्तिभाव से पूजन आरती करें ।

इस  दिन कि कुछ महत्वपुर्ण जानकारियाँ:


🕉 ब्रह्माजी के पुत्र अक्षय कुमार का अवतरण।

🕉 माँ अन्नपूर्णा का जन्म।

🕉 चिरंजीवी महर्षी परशुराम का जन्म हुआ था इसीलिए आज परशुराम जन्मोत्सव भी हैं।

🕉 कुबेर को खजाना मिला था।

🕉 माँ गंगा का धरती अवतरण हुआ था।

🕉 सूर्य भगवान ने पांडवों को अक्षय पात्र दिया।

🕉 महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था।

🕉 वेदव्यास जी ने महाकाव्य महाभारत की रचना गणेश जी के साथ आरम्भ किया था।

🕉 प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेवजी भगवान के 13 महीने का कठीन उपवास का पारणा इक्षु (गन्ने) के रस से किया था।

🕉 प्रसिद्ध तीर्थ स्थल श्री बद्री नारायण धाम का कपाट आज ही खोले जाते है।

🕉 बृंदावन के बाँके बिहारी मंदिर में श्री कृष्ण चरण के दर्शन होते है।

🕉 जगन्नाथ भगवान के सभी रथों को बनाना प्रारम्भ किया जाता है।

🕉 आदि शंकराचार्य ने कनकधारा स्तोत्र की रचना की थी।

🕉 अक्षय तृतीया अपने आप में स्वयं सिद्ध मुहूर्त है कोई भी शुभ कार्य का प्रारम्भ किया जा सकता है ।

कथा -- 

एक बार महाराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्णचन्द्र से पूछा - हे भगवान ! कृपा करके अक्षय तृतीया का माहात्म्य वर्णन करें । इसे सुनने की मेरी बड़ी भारी इच्छा है । 

भगवान श्रीकृष्ण बोले - हे राजन् ! सुनो । यह परम पुण्यमयी तिथि है । इस दिन दोपहर से पहले स्नान , जप , तप , होम , स्वाध्याय , पितृतर्पण और दानादि करने वाला महाभाग अक्षय पुण्य फल का भागी होता है । इसी दिन से सत्ययुग का भी आरम्भ होता है । इसलिए यह ' युगादि तृतीया ' के नाम से भी प्रसिद्ध है । 

हे युधिष्ठिर प्राचीनकाल में एक बहुत निर्धन , सदाचारी और देव - ब्राह्मणों में श्रद्धा रखने वाला वैश्य था । उसका कुटुम्ब - कबीला बहुत बड़ा था , जिसके कारण वह सदैव व्याकुल रहता था । उसने किसी से वैशाख शुक्ला तृतीया के माहात्म्य में सुना कि इस दिन किये हुए दान , जप , हवन आदि से अक्षय पुण्य प्राप्त होता है । उसने अक्षय तृतीया के दिन प्रातःकाल गंगाजी के पावन जल में स्नान करके विधिपूर्वक देवताओं और पितरों का पूजन किया । फिर उसने गोले के लड्डू , पंखा , जल से भरे घड़े , जौ , गेहूं , नमक , सत्तू , दही , चावल , गुड़ , स्वर्ण , वस्त्र आदि दिव्य वस्तुओं का भक्तिपूर्वक दान किया । स्त्री के बार - बार मना करने तथा कौटुम्बीजनों से चिन्तित और बुढ़ापे के कारण अनेक रोगों से पीड़ित होने पर भी वह अपने धर्म - कर्म से विमुख नहीं हुआ । इसी कारण समय पाकर उस वैश्य का जन्म कुशावती नगरी में एक क्षत्रिय के घर में हुआ । वह अक्षय तृतीया के प्रभाव से बहुत धनवान और प्रतापी हुआ । वैभव सम्पन्न होकर भी उसकी बुद्धि कभी धर्म से विचलित नहीं हुई । यह सब अक्षय तृतीया का ही पुण्य - प्रभाव है ।

💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐

ॐ जय गौरी नंदा

         डाउनलोड ऐप  आज की तिथि  त्योहार  मंदिर  आरती  भजन  कथाएँ  मंत्र  चालीसा  आज का विचार  प्रेरक कहानियाँ  ब्लॉग  खोजें होम भजन ओम जय ग...