गुरुवार, 21 दिसंबर 2023

कुम-गढ़ की धात

              ।।कुम-गढ़।।

कुम(कुमाऊँ)गढ़(गढ़वाल) भारत भूमि में एक रमणीय सुन्दर देवताओं,संतो की तपस्थली छु देवभूमि उत्तराखंड,जा चारधाम , पंच बद्री,  पंच केदार,  गोलू देवता , जागेश्वर , बागनाथ,  दुनागिरी, वाराही माता आदि बहुत देव स्थान यां छी। देव भूमि कि गाथा सृष्टिक आरम्भ बटी रामायण महाभारत पुराणादि शास्त्रो में वर्णित छू।जो लोगुल उत्तराखंड भूमि लिजी आपणी जान तक दीदी हम सब उनर बलिदान भूली गयु। कुम गढ़ कै उत्तर प्रदेश वै अलग हैवे दी दशक पुर हणी छू। उत्तराखंड अलग हण हैवे पली ,कतुक भल सुणि देखी लोगुल। पर हम  बोली कुमाऊँनी गढ़वाली भाषा पौड़ी चमोली टेहरी कुमाऊँ गढ़वाल क्षेत्रवाद पर लटकी छू।जैक हमर आणि वा पीढ़ी पर असर पड़ल ।हमर पूर्वजोल कुतु भल सोचि रहची की हमर आणि वा पीढ़ी की पहाड़ उत्तराखंड छोड़ी बै दूसर प्रदेश नि जाण पड़ो,ओर हमर पाणी हमर जवानी पहाडक काम एजो। पर हमर ,हमर पहाडक दुर्भाग्य छु की आज पुर पहाड़ खाली हैंगो। आज सबुल आपण पुर्वजो घर कुड़ी देवता पटो खेति छोड़ी हाली रीत राह क्वे निजाणन सब रज बनी वै बैठी रही। भ्यारक लोग पहाड़ में बसि गयीं जो सोचिबै हिको विदीर्ण करू।पुराणी विचार धारा छोड़ी वै नई सोच पैद हून चै ।आपण नई पीढ़ी कै पढ़े लिखे पहाड़ भेजण चै।जैल पहाड़ में शिक्षा नई तकनीक ,छुपी पहाडक संस्कृति बढ़ावा,जन जागृति मददगार हैं सको।


म्यर छू कुमाऊँ म्यर छू गढ़वाल।

राजी  खुसी  रहो  म्यर पहाड़।।

बोली भाषा छोड़ी एक हेजाओ।

कंध बै कंध मिलै जोड़ो पहाड़।।

कतु भल पाणी कतु भल बाणी।

कतु भल मनखी कतु भल विचार।।

म्यर छू भाबर म्यर छू  हरिद्वार।

छुटि गयी घर छुटि गयी परिवार।।

म्यर छू -------


पुर पहाड़ आयर्वेदिक औषधीय वनस्पति द्वारा भरि पड़ी छू। हमर पहाड़ में रोजगारक अपार सम्पदा जसि आयर्वेद धूप अगरबत्ती हवन पूजा सामग्री नवग्रह समिधा पशुपालन स्वरोजगार मछली मुर्गी पालन  टूर ट्रेवल्स  फल सब्जी किसानी सरकारी योजना जस बहूत काम छि। पुर भारत मे स्वर्ग अगर कै छू तो उत्तराखंड।आज हमर पहाड़क लोग ईमानदारी में सबु में पली नम्बर छू।उत्तराखंडक धनवान उधोगपति ढुल ढुल पदों पर बैठी लोगुल एक समूह द्वारा विचार मंथन करण चहै। समाजक कु रीत कु प्रथा केँ बन्द करण चहै हमू केँ आपण पितर कुड़ी जनम स्थान लिजी सोचण चै आपण पहाडक विषय मे आपण ननों कै आपण रीत राह ,बार त्यौहार, गीत गाथा, जागर  आदि विषय मे बताण चै।आपण गाँव केँ जागृत रखिया यई मेरी कामना छू।सब राजी कुशल मंगल रहिया।आपण मातृ भूमि जन्म भूमि कै झन भुलिय। ।

                  ।।जय ईस्ट देव।।





       
             

।।धर्मप्रशंसा।।

       ।।धर्मप्रशंसा।।

धर्मेण हन्यते व्याधिर्धर्मेण हन्यते ग्रहः । 

धर्मण हन्यते शत्रुर्यतो धर्मस्ततो जयः ॥ १ ॥ 

देवब्राह्मणवन्दनाद् गुरुवचः सम्पादनात्प्रत्यहं 

साधूनामपि भाषणाच्छ तिरवश्रेयःकथाकारणात् । 

होमादध्वरदर्शनाच्छुचिमनोभावाज्जपाद्दानतः 

नो कुर्वन्ति कदाचिदेव पुरुषस्यवं ग्रहाः पीडनम् ।। २ ।। 


धर्म से व्याधि का नाश होता है , धर्म से ग्रह दब जाता है , धर्म से शत्रु का नाश होता है , जिस ओर धर्म हो उसी ओर जय होती है ।। १ ।। 

जो मनुष्य देवता तथा ब्राह्मणों को नमस्कार करते हैं , अपने गुरु का वचन पूरा कराते हैं , साधु लोगों से बोलचाल करते हैं , वेद की ध्वनि सुनते हैं , पुराणों की कथा सुनते हैं , होम करते हैं , यज्ञ के स्थान का दर्शन करते हैं , स्वच्छ चित्त से जप तथा दान करते हैं , उन मनुष्यों को ग्रह पीड़ित नहीं करते हैं ॥ २ ॥

 

पापिष्ठा ये दुराचारा देवब्राह्मणनिन्दकाः ।

अपथ्यभोजिनस्तेषामकालमरणं ध्रुवम् ।। ३ ।। 

धर्मिष्ठा ये सदाचारा देवब्राह्मणपूजकाः । 

ये पथ्यभोजनरतास्ते सर्वे दीर्घजीविनः ॥ ४ ॥ 


जो मनुष्य पापी होते हैं , बुरे आचरण वाले होते हैं , देवता तथा ब्राह्मणों की निन्दा करते हैं , पथ्य भोजन नहीं करते , उनकी मृत्यु अकाल में होती है ॥ ३ ॥ 

जो मनुष्य धर्मात्मा होते हैं , अच्छे आचरण वाले होते हैं , देवता तथा ब्राह्मणों की पूजा करते हैं तथा पथ्य भोजन करते हैं वे चिरकाल तक जीते हैं ।। ४ ।। 


धर्मात्मनां नीतिमतां सदा जयो

दुरात्मनां वाऽनयिनां पराजयः ॥ ५ ॥

ग्रहा न पीडयन्त्येव श्रुतिस्मृत्युक्तकारिणम् ।

दयाधर्मरतं बालं ब्रह्मज्ञं सत्यवादिनम् ।। ६ ।। 

सुरार्चनेन दानेन साधूनां सङ्गमेन हि । 

शुश्रूषया च विप्राणामल्पमृत्युविनश्यति ॥ ७ ॥ 


जो मनुष्य धर्मात्मा तथा नीतिमान होते हैं , उनका सदा जय होता है , जो मनुष्य दुरात्मा तथा दुर्नीति वाले होते हैं , उनका पराजय होता है ।। ५ ।।

जो मनुष्य श्रुति स्मृति के अनुसार कर्म करता है , दया तथा धर्म में प्रीति रखता है , ब्रह्मज्ञ तथा सत्यवादी है उसको ग्रह पीड़ित नहीं करते हैं ॥ ६ ॥ 

देवताओं के पूजन करने से ,दान देने से , साधुओं के संगम से , ब्राह्मणों की सेवा करने अल्यमृत्यु का नाश होता है ।। ७ ॥ 

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*कुमाऊं का पौराणिक वृद्ध केदार शिव मंदिर*

 *कुमाऊं का पौराणिक वृद्ध केदार शिव मंदिर*


 ग्राम केदार जो कि जिला अल्मोड़ा उत्तराखंड मै रामनगर से 101 किमी, भतरोजखान से 33  किमी, तथा रानीखेत से भाया जालली मासी 67 किमी व रानीखेत से भाया भतरोजखान 61 किमी व भिकियासेन से 8 किमी दूर रामनगर बद्रीनाथ मोटर मार्ग पर रामगंगा नदी के किनारे बसा है। हरी भरी खूबसूरत वादियों के बीच यह मंदिर एक रमणीय स्थल है। इस मंदिर की स्थापना चंद वंशीय राजा रूद्र चंद जी ने राष्ट्रीय शाके 1490 (1568 ईसवी ) में की थी। माना जाता है कि युद्ध के दौरान राजा रूद्र चंद एक रात इस स्थान पर ठहरे थे। भगवान शिव ने उन्हें सपने में दर्शन दिए तथा उन्हें इस स्थान पर मंदिर के निर्माण का आदेश दिया। मंदिर की स्थापना के बाद राजा की हारती हुई सेना ने अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त की। तब से इस मंदिर पर श्रदालुओं की अटूट आस्था है। वृद्ध केदार मंदिर को भगवान केदारनाथ की भी मान्यता प्राप्त है। यह मंदिर कुमाऊँ में बूढ़ केदार के नाम से प्रसिद्ध है। इस मंदिर का वर्णन स्कन्द पुराण के मानस खंड में किया गया है।


मंदिर स्थापना के बाद राजा रूद्र चंद ने शिव मंदिर के पुजारी के लिए ब्राह्मण जाति के कुछ लोगो को ग्राम डुंगरी पौड़ी गढ़वाल से यहाँ लाकर बसाया। मूलरूप से डुंगरी गांव के होने के कारण ये पुजारी डुंगरियाल के नाम से जाने जाते हैं। मंदिर के सरपंच के लिए मनराल जाति के लोगों को नियुक्त किया गया।


वृद्ध केदार शिव मंदिर में शिव धड़ स्वरुप में विराजमान हैं। केदारनाथ में शिव पिंडी स्वरुप में तथा पशुपतिनाथ में शिव सिर स्वरुप में विराजमान हैं l इस क्षेत्र के श्रदालु उत्तराखंड के चार धामों की यात्रा पर प्रस्थान से पहले वृद्ध केदार शिव मंदिर में दर्शन करते हैं। श्रदालुओं के विश्राम के लिए शिव मंदिर के आस पास कई धर्मशालाए निर्मित हैं।


वृद्ध केदार शिव मंदिर मै बैकुंठ चतुर्दशी को सायंकाल के समय मेला लगता है तथा दूसरे दिन कार्तिक पूर्णिमा को श्रदृालु रामगंगा नदी में स्नान करने के पश्चात शिव महादेव का जलाभिषेक तथा पूजा अर्चना करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं l


बैकुंठ चतुर्दशी के दिन यदि कोई निःसंतान स्त्री संतान प्राप्ति की मनोकामना के लिए वृद्ध केदार शिव मंदिर में महादेव का वरदान प्राप्त करने की इच्छा से आती है तथा बैकुंठ चतुर्दशी को रात्रि में प्रज्वलित दीपक हाथ में लेकर ॐ नमः शिवाय का जाप करती है और दूसरे दिन पूर्णमासी को सूर्यौदय के समय उस दीपक को रामगंगा नदी में प्रवाहित कर तैरते दीपक का पांच बार दर्शन करती है तो निःसंदेह ही उन्हें शिव की कृपा से संतान की प्राप्ति होती है।


सावन के महीने में वृद्ध केदार मंदिर में दर्शन हेतु श्रदालुओं की काफी भीड़ रहती है। सावन के सोमवार के दिन जो शिव भक्त १०८ लोटाजल,बेलपत्री,तिल,जौ तथा चावल शिवलिंग पर चढ़ाते हैं, भगवान शिव उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं l वृद्ध केदार मंदिर में सावन के महीने में हर वर्ष महापुराण की कथा का आयोजन किया जाता है जिसमें कथा श्रवण हेतु श्रदालुओं की काफी भीड़ रहती है।


उत्तराखंड में ३३ केाटि देवी देवता वास करते हैं l यहाँ समय समय पर ११ दिन या २२ दिन तक देवी देवताओं की जातरा (जागर ) लगती है। जातरा के अंतिम दिन देवी देवताओं को स्नान हेतु तीर्थ स्थान पर ले जाया जाता है। वृद्ध केदार शिव मंदिर को महातीर्थ स्थल माना जाता है क्योकि यहाँ पर रामगंगा तथा विनोद नदी का संगम है जो कि त्रिवेणी संगम के नाम से प्रसिद्ध है । इसलिए क्षेत्रवासी देवी देवताओं को स्नान के लिए वृद्ध केदार शिव मंदिर लाते हैं l जागरी में अवतार  लिए  पितरों की आत्मा की शांति के लिए उन्हें स्नान हेतु वृद्ध केदार शिव मंदिर में लाते हैं । महातीर्थ होने के कारण वृद्ध केदार शिव मंदिर में जनेऊ संस्कार तथा विवाह भी संपन्न होते हैं l


महादेव शिव की महिमा अपरंपार है l हम उनकी महिमा का व्याख्यान नहीं कर सकते हैं l

 🚩 *हर हर महादेव* 🚩

कन्यादान -योग्य स्थान व कन्यादानाधिकारी


कन्यादान -योग्य स्थान व कन्यादानाधिकारी

कन्यादान का फल शास्त्रों में अनन्त कहा गया है ।कन्यादान को सभी दस दानों में श्रेष्ठदान , महादान कहा है । माता पिता के द्वारा गुण श्रेष्ठ वर के हाथों कन्या का दान किया जाता है ।किस स्थान पर कन्यादान करने से कन्यादान का फल दुगना हो जाता है । जिसके करने से जीव को सभी दानों का पुण्य प्राप्त होता है। इसलिये कन्यादान का स्थल बहुत महत्व पूर्ण है । जो निम्नवत है ।

१ -स्वगृह --

अपने घर में कन्यादान करने से कुलदेवता ,पितृदेव प्रसन्न हो आशीर्वाद देते है। कन्यादाता पितृ ऋण से मुक्त होता है ।

२ - गौशाला --

गौशाला में कन्यादान करने का दसगुना गुना फल मिलता है ।

३ - शिवालय --

शिवालय में कन्यादान करने से हजार गुना फल मिलता  है ।

४ -विष्णु मन्दिर --

विष्णु मन्दिर में कन्यादान करने से दसहजार गुना फल है ।

तीर्थ,देवस्थान ,समुद्र तट पर भी कन्यादान सम्पन्न होता है ।

कन्यादान के लिए स्थान का चुनाव सतर्कता से करना चाहिए ।

कन्यादानाधिकारी --

विवाह संस्कार में जब कन्यादान का शुभ मुहूर्त आता है और कन्यादाता कन्या का हाथ थाम के कन्यादान का संकल्प लेते है। वह क्षण माता पिता को दुख भी देता है और सुख भी देता है । 

कन्यादान के समय पिता के उपस्थित नही रहने पर  दादा ,भाई, चाचा ,सगोत्री नातेदार , नाना नानी ,मामा आदि कन्यादान कर सकते है । परस्थितियाँ  के अनुसार माता भी कन्यादान कर सकती है । 

धर्म सिंधु में लिखा है।"सर्वाभावे जननी"

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आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
     ज्योतिषाचार्य
            वसई
 

धन की लूट

 धन की लूट 

समाज ने आज बहुत विकृति रूप ले लिया है, आज मनुष्य का जो लक्ष्य है,  मात्र धन एकत्रित करना सारे रिस्ते नाते मात्र धन पर इंगित होते जा रहे है ,जो परिवार में पहले मेल जोल हुआ करता था , वह सब धन ने खत्म कर दिया है धन के आगे मानवता भी खत्म हो गयी है । 

धन है तो सभी आपके प्रिय है ,धन नही तो अपना सगा भी आपसे दूरी बना लेते है ।धन ने ही माता पिता से पुत्र को दूर कर दिया ,धन ने ही सयुक्त परिवार को विखेर दिया है ,धन ने ही प्यार प्रेम की सीमा बना दिया है। मानो जैसे निर्धन का संसार मे कोई नही वह अकेले चलने को मजबूर है , उसका कोई सगा संबंधी नही आज के परिपेक्ष्य में मानव जाति ने मानवता को शर्मसार कर दिया है। जिसके परिणाम नित दिखाई व सुनाई देते है ।

बड़े बड़े समाज के ठेकेदार जो समाज को नयी दिशा देने का व अपने धर्म को महान बताने वाले ठेकेदारों ने समाज को खोखला कर दिया है आज सभी देखते होंगे हर दस कदम पर व घर घर मे ऐसे लोग मिलेंगे जो समाज के लोगो को बर्गला कर धन इखट्टा करने का व्यापार करते है ।आज समाज मे कुछ ऐसे कसाई है जो मानव के नाम पर कलंक है ।वर्तमान समय में जिस तरह भयावह स्थिति है, कॅरोना नाम के वायरस ने सभी धर्म सम्प्रदाय देश विदेश सभी शक्तियों को सोचने व स्थिति को समझने को मजबूर कर दिया है।इस कॅरोना महामारी के समय में मानवता की मिसाल पेश करना चाहिए था,किंतु कुछ धन के लोभियों ने लोगो का शोषण करना शुरू कर दिया है ।कोई दवा की कालाबाजारी , कोई औक्सीजन की कालाबाजारी, कही बीमारी के नाम पर कालाबाजारी , कही मुर्दो पर कालाबाजारी न् जाने कितनी भूख है इन धन के लुटेरे भिखारियों को ,जीते जी इन्हों ने जिंदा इन्सानों को लूटा पर मरने के बाद भी मर्दो पर हो रही है सौदेबाजी।

जिस तरह आज समाज मे एक नई रेखा खिंची जा रही है उसे देख कर लगता है आने वाला कल कितना भयावहः स्तिथि पैदा करेगा यह सभी बुद्धिजीवी लोगो को विचार करने पर मजबूर कर देगा ।आज धर्म दया दान रहम शर्म इंसानियत जैसे शब्दों का कोई महत्व नही रह गया है । बस एक ही बात दिखती है बह है धन की लूट , कैसे किस इंसान को कैसे लूट जाय कैसे इसको नीचे गिराया जाय ,और समाज मे अपने आप को कैसे ऊंचा बनाया जाय ।

कलयुग को सतयुग बनाना हो तो एक दुसरो पर दया करो ।

मानवता की मिसाल पेश करें ।

भूखे लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था करना ।

सभी को सुखी बनाने का प्रयास करें ।

हर रोज कमजोर मनुष्य की रक्षा करें ।

चोरिचकारी लूट खसौट ना करें ।

जो दुसरो की मदद के लिए हाथ बढ़ता है उसका हाथ ईश्वर थाम लेता है ।

एक दूसरों पर दया करो ।

मानव का मतलब है कि नित नया करो , अच्छा करो ,शुभ करो जिससे समाज व आने वाली पीढ़ी का उत्थान हो सके ।

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आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
       मुम्बई
हर हर महादेव

हिन्दू धर्म ग्रंथ

हिंदू धर्मग्रंथों का सार, जानिए किस ग्रंथ में क्या है।अधिकतर हिंदुओं के पास अपने ही धर्मग्रंथ को पढ़ने की फुरसत नहीं है। वेद, उपनिषद पढ़ना तो दूर वे गीता तक को नहीं पढ़ते जबकि गीता को एक घंटे में पढ़ा जा सकता है। हालांकि कई जगह वे भागवत पुराण सुनने या रामायण का अखंड पाठ करने के लिए समय निकाल लेते हैं या घर में सत्यनारायण की कथा करवा लेते हैं। लेकिन आपको यह जानकारी होना चाहिए कि पुराण, रामायण और महाभारत हिन्दुओं के धर्मग्रंथ नहीं है। धर्मग्रंथ तो वेद ही है। 


शास्त्रों को दो भागों में बांटा गया है:- श्रुति और स्मृति। श्रुति के अंतर्गत धर्मग्रंथ वेद आते हैं और स्मृति के अंतर्गत इतिहास और वेदों की व्याख्‍या की पुस्तकें पुराण, महाभारत, रामायण, स्मृतियां आदि आते हैं। हिन्दुओं के धर्मग्रंथ तो वेद ही है। वेदों का सार उपनिषद है और उपनिषदों का सार गीता है। आओ जानते हैं कि उक्त ग्रंथों में क्या है।


वेद --

वेदों में ब्रह्म (ईश्वर), देवता, ब्रह्मांड, ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, संस्कार, रीति-रिवाज आदि लगभग सभी विषयों से संबंधित ज्ञान भरा पड़ा है। वेद चार है ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्यवेद ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं।

 ऋग्वेद : ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान। इसमें भौगोलिक स्थिति और देवताओं के आवाहन के मंत्रों के साथ बहुत कुछ है। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियां और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा आदि की भी जानकारी मिलती है।

यजुर्वेद : यजु अर्थात गतिशील आकाश एवं कर्म। यजुर्वेद में यज्ञ की विधियां और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। तत्व ज्ञान अर्थात रहस्यमयी ज्ञान। ब्रम्हांड, आत्मा, ईश्वर और पदार्थ का ज्ञान। इस वेद की दो शाखाएं हैं शुक्ल और कृष्ण।

 सामवेद: साम का अर्थ रूपांतरण और संगीत। सौम्यता और उपासना। इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं का संगीतमय रूप है। इसमें सविता, अग्नि और इंद्र देवताओं के बारे में जिक्र मिलता है। इसी से शास्त्रीय संगीत और नृत्य का जिक्र भी मिलता है। इस वेद को संगीत शास्त्र का मूल माना जाता है। इसमें संगीत के विज्ञान और मनोविज्ञान का वर्णन भी मिलता है।


अथर्वदेव: थर्व का अर्थ है कंपन और अथर्व का अर्थ अकंपन। इस वेद में रहस्यमयी विद्याओं, जड़ी बूटियों, चमत्कार और आयुर्वेद आदि का जिक्र है। इसमें भारतीय परंपरा और ज्योतिष का ज्ञान भी मिलता है।

 

उपनिषद् --

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उपनिषद वेदों का सार है। सार अर्थात निचोड़ या संक्षिप्त। उपनिषद भारतीय आध्यात्मिक चिंतन के मूल आधार हैं, भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के स्रोत हैं। ईश्वर है या नहीं, आत्मा है या नहीं, ब्रह्मांड कैसा है आदि सभी गंभीर, तत्व ज्ञान, योग, ध्यान, समाधि, मोक्ष आदि की बातें उपनिषद में मिलेगी। उपनिषदों को प्रत्येक हिन्दुओं को पढ़ना चाहिए। इन्हें पढ़ने से ईश्वर, आत्मा, मोक्ष और जगत के बारे में सच्चा ज्ञान मिलता है।

 

वेदों के अंतिम भाग को 'वेदांत' कहते हैं। वेदांतों को ही उपनिषद कहते हैं। उपनिषद में तत्व ज्ञान की चर्चा है। उपनिषदों की संख्या वैसे तो 108 हैं, परंतु मुख्य 12 माने गए हैं, जैसे- 1. ईश, 2. केन, 3. कठ, 4. प्रश्न, 5. मुण्डक, 6. माण्डूक्य, 7. तैत्तिरीय, 8. ऐतरेय, 9. छांदोग्य, 10. बृहदारण्यक, 11. कौषीतकि और 12. श्वेताश्वतर।


षड्दर्शन --

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वेद से निकला षड्दर्शन : वेद और उपनिषद को पढ़कर ही 6 ऋषियों ने अपना दर्शन गढ़ा है। इसे भारत का षड्दर्शन कहते हैं। दरअसल यह वेद के ज्ञान का श्रेणीकरण है। ये छह दर्शन हैं:- 1.न्याय, 2.वैशेषिक, 3.सांख्य, 4.योग, 5.मीमांसा और 6.वेदांत। वेदों के अनुसार सत्य या ईश्वर को किसी एक माध्यम से नहीं जाना जा सकता। इसीलिए वेदों ने कई मार्गों या माध्यमों की चर्चा की है।

 

गीता --

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महाभारत के 18 अध्याय में से एक भीष्म पर्व का हिस्सा है गीता। गीता में भी कुल 18 अध्याय हैं। 10 अध्यायों की कुल श्लोक संख्या 700 है। वेदों के ज्ञान को नए तरीके से किसी ने व्यवस्थित किया है तो वह हैं भगवान श्रीकृष्ण। अत: वेदों का पॉकेट संस्करण है गीता जो हिन्दुओं का सर्वमान्य एकमात्र ग्रंथ है। किसी के पास इतना समय नहीं है कि वह वेद या उपनिषद पढ़ें उनके लिए गीता ही सबसे उत्तम धर्मग्रंथ है। गीता को बार बार पढ़ने के बाद ही वह समझ में आने लगती है।

 

गीता में भक्ति, ज्ञान और कर्म मार्ग की चर्चा की गई है। उसमें यम-नियम और धर्म-कर्म के बारे में भी बताया गया है। गीता ही कहती है कि ब्रह्म (ईश्वर) एक ही है। गीता को बार-बार पढ़ेंगे तो आपके समक्ष इसके ज्ञान का रहस्य खुलता जाएगा। गीता के प्रत्येक शब्द पर एक अलग ग्रंथ लिखा जा सकता है।


गीता में सृष्टि उत्पत्ति, जीव विकासक्रम, हिन्दू संदेवाहक क्रम, मानव उत्पत्ति, योग, धर्म, कर्म, ईश्वर, भगवान, देवी, देवता, उपासना, प्रार्थना, यम, नियम, राजनीति, युद्ध, मोक्ष, अंतरिक्ष, आकाश, धरती, संस्कार, वंश, कुल, नीति, अर्थ, पूर्वजन्म, जीवन प्रबंधन, राष्ट्र निर्माण, आत्मा, कर्मसिद्धांत, त्रिगुण की संकल्पना, सभी प्राणियों में मैत्रीभाव आदि सभी की जानकारी है।

 

श्रीमद्भगवद्गीता योगेश्वर श्रीकृष्ण की वाणी है। इसके प्रत्येक श्लोक में ज्ञानरूपी प्रकाश है, जिसके प्रस्फुटित होते ही अज्ञान का अंधकार नष्ट हो जाता है। ज्ञान-भक्ति-कर्म योग मार्गो की विस्तृत व्याख्या की गयी है, इन मार्गो पर चलने से व्यक्ति निश्चित ही परमपद का अधिकारी बन जाता है। गीता को अर्जुन के अलावा और संजय ने सुना और उन्होंने धृतराष्ट्र को सुनाया। गीता में श्रीकृष्ण ने- 574, अर्जुन ने- 85, संजय ने 40 और धृतराष्ट्र ने- 1 श्लोक कहा है।


ईश्वर --

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ब्रह्म (परमात्मा) एक ही है जिसे कुछ लोग सगुण (साकार) कुछ लोग निर्गुण (निराकार) कहते हैं। हालांकि वह अजन्मा, अप्रकट है। उसका न कोई पिता है और न ही कोई उसका पुत्र है। वह किसी के भाग्य या कर्म को नियंत्रित नहीं करता। ना कि वह किसी को दंड या पुरस्कार देता है। उसका न तो कोई प्रारंभ है और ना ही अंत। वह अनादि और अनंत है। उसकी उपस्थिति से ही संपूर्ण ब्रह्मांड चलायमान है। सभी कुछ उसी से उत्पन्न होकर अंत में उसी में लीन हो जाता है। ब्रह्मलीन।

 ब्रह्मांड --

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यह दिखाई देने वाला जगत फैलता जा रहा है और दूसरी ओर से यह सिकुड़ता भी जा रहा है। लाखों सूर्य, तारे और धरतीयों का जन्म है तो उसका अंत भी। जो जन्मा है वह मरेगा। सभी कुछ उसी ब्रह्म से जन्में और उसी में लीन हो जाने वाले हैं। यह ब्रह्मांड परिवर्तनशील है। इस जगत का संचालन उसी की शक्ति से स्वत: ही होता है। जैसे कि सूर्य के आकर्षण से ही धरती अपनी धुरी पर टिकी हुई होकर चलायमान है। उसी तरह लाखों सूर्य और तारे एक महासूर्य के आकर्षण से टिके होकर संचालित हो रहे हैं। उसी तरह लाखों महासूर्य उस एक ब्रह्मा की शक्ति से ही जगत में विद्यमान है।

 

आत्मा --

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आत्मा का स्वरूप ब्रह्म (परमात्मा) के समान है। जैसे सूर्य और दीपक में जो फर्क है उसी तरह आत्मा और परमात्मा में फर्क है। आत्मा के शरीर में होने के कारण ही यह शरीर संचालित हो रहा है। ठीक उसी तरह जिस तरह कि संपूर्ण धरती, सूर्य, ग्रह नक्षत्र और तारे भी उस एक परमपिता की उपस्थिति से ही संचालित हो रहे हैं।


आत्मा का ना जन्म होता है और ना ही उसकी कोई मृत्यु है। आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करती है। यह आत्मा अजर और अमर है। आत्मा को प्रकृति द्वारा तीन शरीर मिलते हैं एक वह जो स्थूल आंखों से दिखाई देता है। दूसरा वह जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं जो कि ध्यानी को ही दिखाई देता है और तीसरा वह शरीर जिसे कारण शरीर कहते हैं उसे देखना अत्यंत ही मुश्किल है। बस उसे वही आत्मा महसूस करती है जो कि उसमें रहती है। आप और हम दोनों ही आत्मा है हमारे नाम और शरीर अलग अलग हैं लेकिन भीतरी स्वरूप एक ही है।

 

स्वर्ग और नरक --

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वेदों के अनुसार पुराणों में स्वर्ग या नर्क को गतियों से समझा जा सकता है। स्वर्ग और नर्क दो गतियां हैं। आत्मा जब देह छोड़ती है तो मूलत: दो तरह की गतियां होती है:- 1.अगति और 2. गति।


1.अगति: अगति में व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिलता है उसे फिर से जन्म लेना पड़ता है।


2.गति: गति में जीव को किसी लोक में जाना पड़ता है या वह अपने कर्मों से मोक्ष प्राप्त कर लेता है।


अगति के चार प्रकार है- 1.क्षिणोदर्क, 2.भूमोदर्क, 3. अगति और 4.दुर्गति।


क्षिणोदर्क-  क्षिणोदर्क अगति में जीव पुन: पुण्यात्मा के रूप में मृत्यु लोक में आता है और संतों सा जीवन जीता है।


भूमोदर्क: भूमोदर्क में वह सुखी और ऐश्वर्यशाली जीवन पाता है।


अगति: अगति में नीच या पशु जीवन में चला जाता है।

दुर्गति- दुर्गति में वह कीट, कीड़ों जैसा जीवन पाता है।


गति के भी 4 प्रकार :-गति के अंतर्गत चार लोक दिए गए हैं:-

1.ब्रह्मलोक, 2.देवलोक, 3.पितृलोक और 4.नर्कलोक। जीव अपने कर्मों के अनुसार उक्त लोकों में जाता है।

 

तीन मार्गों से यात्रा 


जब भी कोई मनुष्य मरता है या आत्मा शरीर को त्यागकर यात्रा प्रारंभ करती है तो इस दौरान उसे तीन प्रकार के मार्ग मिलते हैं। ऐसा कहते हैं कि उस आत्मा को किस मार्ग पर चलाया जाएगा यह केवल उसके कर्मों पर निर्भर करता है। ये तीन मार्ग हैं- अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग। अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए होता है, वहीं धूममार्ग पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है।

 धर्म और मोक्ष --

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धर्मग्रंथों के अनुसार धर्म का अर्थ है यम और नियम को समझकर उसका पालन करना। नियम ही धर्म है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से मोक्ष ही अंतिम लक्ष्य होता है। हिंदु धर्म के अनुसार व्यक्ति को मोक्ष के बारे में विचार करना चाहिए। मोक्ष क्या है? स्थितप्रज्ञ आत्मा को मोक्ष मिलता है। मोक्ष का भावार्थ यह कि आत्मा शरीर नहीं है इस सत्य को पूर्णत: अनुभव करके ही अशरीरी होकर स्वयं के अस्तित्व को पुख्‍ता करना ही मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है।


व्रत और त्योहार--

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हिन्दु धर्म के सभी व्रत, त्योहार या तीर्थ सिर्फ मोक्ष की प्राप्त हेतु ही निर्मित हुए हैं। मोक्ष तब मिलेगा जब व्यक्ति स्वस्थ रहकर प्रसन्नचित्त और खुशहाल जीवन जीएगा। व्रत से शरीर और मन स्वस्थ होता है। त्योहार से मन प्रसन्न होता है और तीर्थ से मन और मस्तिष्क में वैराग्य और आध्यात्म का जन्म होता है।

 

मौसम और ग्रह नक्षत्रों की गतियों को ध्यान में रखकर बनाए गए व्रत और त्योहार का महत्व अधिक है। व्रतों में चतुर्थी, एकादशी, प्रदोष, अमावस्या, पूर्णिमा, श्रावण मास और कार्तिक मास के दिन व्रत रखना श्रेष्ठ है। यदि उपरोक्त सभी नहीं रख सकते हैं तो श्रावण के पूरे महीने व्रत रखें। त्योहारों में मकर संक्रांति, महाशिवरात्रि, नवरात्रि, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी और हनुमान जन्मोत्सव ही मनाएं। पर्व में श्राद्ध और कुंभ का पर्व जरूर मनाएं।

 

व्रत करने से काया निरोगी और जीवन में शांति मिलती है। सूर्य की 12 और 12 चंद्र की संक्रांति होती है। सूर्य संक्रांतियों में उत्सव का अधिक महत्व है तो चंद्र संक्रांति में व्रतों का अधिक महत्व है। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, अषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन। इसमें से श्रावण मास को व्रतों में सबसे श्रेष्ठ मास माना गया है। इसके अलावा प्रत्येक माह की एकादशी, चतुर्दशी, चतुर्थी, पूर्णिमा, अमावस्या और अधिमास में व्रतों का अलग-अलग महत्व है। सौरमास और चंद्रमास के बीच बढ़े हुए दिनों को मलमास या अधिमास कहते हैं। साधुजन चतुर्मास अर्थात चार महीने श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक माह में व्रत रखते हैं।

 

उत्सव, पर्व और त्योहार सभी का अलग-अलग अर्थ और महत्व है। प्रत्येक ऋतु में एक उत्सव है। उन त्योहार, पर्व या उत्सव को मनाने का महत्व अधिक है जिनकी उत्पत्ति स्थानीय परम्परा या संस्कृति से न होकर जिनका उल्लेख वैदिक धर्मग्रंथ, धर्मसूत्र, स्मृति, पुराण और आचार संहिता में मिलता है। चंद्र और सूर्य की संक्रांतियों अनुसार कुछ त्योहार मनाएं जाते हैं। 12 सूर्य संक्रांति होती हैं जिसमें चार प्रमुख है:- मकर, मेष, तुला और कर्क। इन चार में मकर संक्रांति महत्वपूर्ण है। सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व है छठ, संक्रांति और कुंभ। पर्वों में रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, गुरुपूर्णिमा, वसंत पंचमी, हनुमान जयंती, नवरात्री, शिवरात्री, होली, ओणम, दीपावली, गणेशचतुर्थी और रक्षाबंधन प्रमुख हैं। हालांकि सभी में मकर संक्रांति और कुंभ को सर्वोच्च माना गया है।


तीर्थ --

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तीर्थ और तीर्थयात्रा का बहुत पुण्य है। जो मनमाने तीर्थ और तीर्थ पर जाने के समय हैं उनकी यात्रा का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं। तीर्थों में चार धाम, ज्योतिर्लिंग, अमरनाथ, शक्तिपीठ और सप्तपुरी की यात्रा का ही महत्व है। अयोध्या, मथुरा, काशी और प्रयाग को तीर्थों का प्रमुख केंद्र माना जाता है, जबकि कैलाश मानसरोवर को सर्वोच्च तीर्थ माना है। बद्रीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम और जगन्नाथ पुरी ये चार धाम है। सोमनाथ, द्वारका, महाकालेश्वर, श्रीशैल, भीमाशंकर, ॐकारेश्वर, केदारनाथ, विश्वनाथ, त्र्यंबकेश्वर, रामेश्वरम, घृष्णेश्वर और बैद्यनाथ ये द्वादश ज्योतिर्लिंग है। काशी, मथुरा, अयोध्या, द्वारका, माया, कांची और अवंति उज्जैन ये सप्तपुरी। उपरोक्त कहे गए तीर्थ की यात्रा ही धर्मसम्मत है।

 

संस्कार --

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संस्कारों के प्रमुख प्रकार सोलह बताए गए हैं जिनका पालन करना हर हिंदू का कर्तव्य है। इन संस्कारों के नाम है-गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णवेधन, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशांत, सम्वर्तन, विवाह और अंत्येष्टि। प्रत्येक हिन्दू को उक्त संस्कार को अच्छे से नियमपूर्वक करना चाहिए। यह मनुष्य के सभ्य और हिन्दू होने की निशानी है। उक्त संस्कारों को वैदिक नियमों के द्वारा ही संपन्न किया जाना चाहिए।

 

पाठ---

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वेदो, उपनिषद या गीता का पाठ करना या सुनना प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है। उपनिषद और गीता का स्वयंम अध्ययन करना और उसकी बातों की किसी जिज्ञासु के समक्ष चर्चा करना पुण्य का कार्य है, लेकिन किसी बहसकर्ता या भ्रमित व्यक्ति के समक्ष वेद वचनों को कहना निषेध माना जाता है। प्रतिदिन धर्म ग्रंथों का कुछ पाठ करने से देव शक्तियों की कृपा मिलती है। हिन्दू धर्म में वेद, उपनिषद और गीता के पाठ करने की परंपरा प्राचीनकाल से रही है। वक्त बदला तो लोगों ने पुराणों में उल्लेखित कथा की परंपरा शुरू कर दी, जबकि वेदपाठ और गीता पाठ का अधिक महत्व है।

 

धर्म, कर्म , सेवा --

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धर्म-कर्म और सेवा का अर्थ यह कि हम ऐसा कार्य करें जिससे हमारे मन और मस्तिष्क को शांति मिले और हम मोक्ष का द्वार खोल पाएं। साथ ही जिससे हमारे सामाजिक और राष्ट्रिय हित भी साधे जाते हों। अर्थात ऐसा कार्य जिससे परिवार, समाज, राष्ट्र और स्वयं को लाभ मिले। धर्म-कर्म को कई तरीके से साधा जा सकता है, जैसे- 1.व्रत, 2.सेवा, 3.दान, 4.यज्ञ, 5.प्रायश्चित, दीक्षा देना और मंदिर जाना आदि।

 

सेवा का मतलब यह कि सर्व प्रथम माता-पिता, फिर बहन-बेटी, फिर भाई-बांधु की किसी भी प्रकार से सहायता करना ही धार्मिक सेवा है। इसके बाद अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना पुण्य का कार्य माना गया है। इसके अलवा सभी प्राणियों, पक्षियों, गाय, कुत्ते, कौए, चींटी आति को अन्न जल देना। यह सभी यज्ञ कर्म में आते हैं।


दान --

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दान से इंद्रिय भोगों के प्रति आसक्ति छूटती है। मन की ग्रथियां खुलती है जिससे मृत्युकाल में लाभ मिलता है। देव आराधना का दान सबसे सरल और उत्तम उपाय है। वेदों में तीन प्रकार के दाता कहे गए हैं- 1.उत्तम, 2.मध्यम और 3.निकृष्‍ट। धर्म की उन्नति रूप सत्यविद्या के लिए जो देता है वह उत्तम। कीर्ति या स्वार्थ के लिए जो देता है तो वह मध्यम और जो वेश्‍यागमनादि, भांड, भाटे, पंडे को देता वह निकृष्‍ट माना गया है। पुराणों में अन्नदान, वस्त्रदान, विद्यादान, अभयदान और धनदान को ही श्रेष्ठ माना गया है, यही पुण्‍य भी है। 


यज्ञ --

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यज्ञ के प्रमुख पांच प्रकार हैं- ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ। यज्ञ पालन से ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृ ऋण, धर्म ऋण, प्रकृति ऋण और मातृ ऋण समाप्त होता है। नित्य संध्या वंदन, स्वाध्याय तथा वेदपाठ करने से ब्रह्म यज्ञ संपन्न होता है। देवयज्ञ सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से सम्पन्न होता है। अग्नि जलाकर होम करना अग्निहोत्र यज्ञ है। पितृयज्ञ को श्राद्धकर्म भी कहा गया है। यह यज्ञ पिंडदान, तर्पण और सन्तानोत्पत्ति से सम्पन्न होता है। वैश्वदेव यज्ञ को भूत यज्ञ भी कहते हैं। सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्त्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना ही भूत यज्ञ कहलाता है। अतितिथ यज्ञ से अर्थ मेहमानों की सेवा करना। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। इसके अलावा अग्निहोत्र, अश्वमेध, वाजपेय, सोमयज्ञ, राजसूय और अग्निचयन का वर्णण यजुर्वेद में मिलता है।


मंदिर --

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प्रति गुरुवार को मंदिर जाना चाहिए: घर में मंदिर नहीं होना चाहिए। प्रति गुरुवार को मंदिर जाना चाहिए। मंदिर में जाकर परिक्रमा करना चाहिए। भारत में मंदिरों, तीर्थों और यज्ञादि की परिक्रमा का प्रचलन प्राचीनकाल से ही रहा है। मंदिर की 7 बार (सप्तपदी) परिक्रमा करना बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह 7 परिक्रमा विवाह के समय अग्नि के समक्ष भी की जाती है। इसी प्रदक्षिणा को इस्लाम धर्म ने परंपरा से अपनाया जिसे तवाफ कहते हैं। प्रदक्षिणा षोडशोपचार पूजा का एक अंग है। प्रदक्षिणा की प्रथा अतिप्राचीन है। हिन्दू सहित जैन, बौद्ध और सिख धर्म में भी परिक्रमा का महत्व है। इस्लाम में मक्का स्थित काबा की 7 परिक्रमा का प्रचलन है। पूजा-पाठ, तीर्थ परिक्रमा, यज्ञादि पवित्र कर्म के दौरान बिना सिले सफेद या पीत वस्त्र पहनने की परंपरा भी प्राचीनकाल से हिन्दुओं में प्रचलित रही है। मंदिर जाने या संध्यावंदन के पूर्व आचमन या शुद्धि करना जरूरी है। इसे इस्लाम में वुजू कहा जाता है।

 
संध्यावंदन --
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संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। मंदिर में जाकर संधि काल में ही संध्या वंदन की जाती है। वैसे संधि आठ वक्त की मानी गई है। उसमें भी पांच महत्वपूर्ण है। पांच में से भी सूर्य उदय और अस्त अर्थात दो वक्त की संधि महत्वपूर्ण है। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। संध्योपासना के चार प्रकार है- 1.प्रार्थना, 2.ध्यान, 3.कीर्तन और 4.पूजा-आरती। व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है।

 

 धर्म की सेवा --

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धर्म की प्रशंसा करना और धर्म के बारे में सही जानकारी को लोगों तक पहुंचाना प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य होता है। धर्म प्रचार में वेद, उपनिषद और गीता के ज्ञान का प्रचार करना ही उत्तम माना गया है। धर्म प्रचारकों के कुछ प्रकार हैं। हिन्दू धर्म को पढ़ना और समझना जरूरी है। हिन्दू धर्म को समझकर ही उसका प्रचार और प्रसार करना जरूरी है। धर्म का सही ज्ञान होगा, तभी उस ज्ञान को दूसरे को बताना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को धर्म प्रचारक होना जरूरी है। इसके लिए भगवा वस्त्र धारण करने या संन्यासी होने की जरूरत नहीं। स्वयं के धर्म की तारीफ करना और बुराइयों को नहीं सुनना ही धर्म की सच्ची सेवा है।

 

मंत्र --

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वेदों में बहुत सारे मंत्रों का उल्लेख मिलता है, लेकिन जपने के लिए सिर्फ प्रणव और गायत्री मंत्र ही कहा गया है बाकी मंत्र किसी विशेष अनुष्ठान और धार्मिक कार्यों के लिए है। वेदों में गायत्री नाम से छंद है जिसमें हजारों मंत्र है किंतु प्रथम मंत्र को ही गायत्री मंत्र माना जाता है। उक्त मंत्र के अलावा किसी अन्य मंत्र का जाप करते रहने से समय और ऊर्जा की बर्बादी है। गायत्री मंत्र की महिमा सर्वविदित है। दूसरा मंत्र है महामृत्युंजय मंत्र, लेकिन उक्त मंत्र के जप और नियम कठिन है इसे किसी जानकार से पूछकर ही जपना चाहिए।

 

प्रायश्चित --

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प्राचीनकाल से ही हिन्दु्ओं में मंदिर में जाकर अपने पापों के लिए प्रायश्चित करने की परंपरा रही है। प्रायश्‍चित करने के महत्व को स्मृति और पुराणों में विस्तार से समझाया गया है। गुरु और शिष्य परंपरा में गुरु अपने शिष्य को प्रायश्चित करने के अलग-अलग तरीके बताते हैं। दुष्कर्म के लिए प्रायश्चित करना , तपस्या का एक दूसरा रूप है।   यह मंदिर में देवता के समक्ष 108 बार साष्टांग प्रणाम , मंदिर के इर्दगिर्द चलते हुए साष्टांग प्रणाम और कावडी अर्थात वह तपस्या जो भगवान मुरुगन को अर्पित की जाती है, जैसे कृत्यों के माध्यम से की जाती है। मूलत: अपने पापों की क्षमा भगवान शिव और वरूणदेव से मांगी जाती है, क्योंकि क्षमा का अधिकार उनको ही है।

 

दीक्षा --

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दीक्षा देने का प्रचलन वैदिक ऋषियों ने प्रारंभ किया था। प्राचीनकाल में पहले शिष्य और ब्राह्मण बनाने के लिए दीक्षा दी जाती थी। माता-पिता अपने बच्चों को जब शिक्षा के लिए भेजते थे तब भी दीक्षा दी जाती थी। हिन्दू धर्मानुसार दिशाहीन जीवन को दिशा देना ही दीक्षा है। दीक्षा एक शपथ, एक अनुबंध और एक संकल्प है।  दीक्षा के बाद व्यक्ति द्विज बन जाता है। द्विज का अर्थ दूसरा जन्म। दूसरा व्यक्तित्व। सिख धर्म में इसे अमृत संचार कहते हैं।

 

यह दीक्षा देने की परंपरा जैन धर्म में भी प्राचीनकाल से रही है, हालांकि दूसरे धर्मों में दीक्षा को अपने धर्म में धर्मांतरित करने के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा। धर्म से इस परंपरा को ईसाई धर्म ने अपनाया जिसे वे बपस्तिमा कहते हैं। अलग-अलग धर्मों में दीक्षा देने के भिन्न-भिन्न तरीके हैं।

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महिलाओं का जनेऊ कैसे होता है । महिलाओं को हवन का फल व गुरु सेवा का फल कैसे प्राप्त होता है ।

युग प्रारम्भ के कुछ समय व्यतीत हुए थे । सभी धार्मिक कार्यो को लोग नियम से निर्वहन करते किन्तु कालांतर में मातृ शक्ति के मन मे विचार आया कि --

 १- ब्रह्मा जी ने पुरुषों को गुरुकुल में रहकर गुरु सेवा का अधिकार दिया किन्तु महिलाओं को नही दिया ।

२-पुरुषों को यज्ञोपवीत संस्कार का अधिकार दिया किन्तु महिलाओ को नही दिया ।

३- पुरुषों को यज्ञ में आहुति का अधिकार दिया किन्तु महिलाओं को नही दिया ।

यह तीन प्रश्नों को लेकर महिलाएं ने  भगवान ब्रह्मा जी के ब्रह्मलोक पर चढ़ाई कर दी ,महिलाओं का समूह देख ब्रह्मा जी भयभीत हो गए । भयभीत मन से ब्रह्मा जी ने सभी महिलाओं का स्वागत किया । स्वागत के उपरान्त ब्रह्मा जी ने मधुर वाणी में सभी स्त्रियों के ब्रह्मलोक आने का कारण पूछा ।

ब्रह्मा जी के पूछे जाने पर सभी महिलाओं ने एक स्वर में ब्रह्म जी से कहा प्रभु आपने महिलाओं के साथ पक्षपात किया है ।

इसलिए हम भूलोक की सभी महिलाऐं आपसे लड़ने आये है । आपके बचने का एक ही उपाय है या तो युद्ध होगा  या आप हमारे सभी प्रश्नों का जबाब दीजिये ।

ब्रह्मा जी बोले बस इतनी से बात को लेकर आप परेशान है, मैने तो हमेशा आपके लिए सोचा , पुरुषों को कितने कष्ट भोगने पड़ते है ,महिलाऐ तो घर बैठे इन तीनो कर्मो का फल प्राप्त कर सकते है ।

महिलाओं ने कहा कैसे-


ब्रह्म जी बोले कि पुरुषों का जनेऊ होता है तो उसके बाद जनेऊ के नियम पालन करना पुरुषों की जिम्मेदारी बढ़ा देता है ।

महिलाओं के विवाह के समय जो सात फेरे होते है वही स्त्री का जनेऊ है जहाँ से स्त्री को समाज मे प्रतिष्ठा मिल जाती है ।

सभी महिलाएं ब्रह्म देव की जय बोलकर महिलाओं ने दूसरे प्रश्न के उत्तर के विषय मे पूछा --

ब्रह्मा जी ने उत्तर दिया पुरुष गुरुकुल में रहकर गुरु सेवा करता है ।पुरुष गुरुकुल में रहकर प्रातः चार बजे उठना , मंदिर की सेवा , गुरु सेवा ,अन्न सेवा, गौ सेवा ,जंगल से लकड़ी काट कर लाना , भोजन तैयार करना विद्याध्ययन करना ऐसी बहुत सी सेवा देने पर गुरुसेवा का फल प्राप्त होता है । किन्तु महिलाओं को पति सेवा से ही गुरुसेवा का फल मिल जाता है ।

ब्रह्मा जी की जय ब्रह्मा जी की जय बोलकर सभी माताओं ने अपने तीसरे प्रश्न का जबाब मांगा


ब्रह्मा जी बोले पुरुष यज्ञ मंडप के पास बैठकर आहुति देता है आग की लपटें आती है तिल चटकता है जो बहुत कठिन है ।

ओर स्त्रियां जब खाना बनाकर पांच ग्रास खाना चूल्हे में चढ़ा दें तो यज्ञ का पूर्ण फल मिलता है । उत्तर जानने के बाद सभी महिलाऐ ब्रह्म देव जय जयकारे लगाते लौट आयी ।

जय सनातन धर्म


जनन मरण अशौच विचार

           ।।अशौच - विचार।।

अशौच दो प्रकारका होता है - १ - जननाशौच तथा २ - मरणाशौच । यहाँ मरणाशौचके संदर्भमें कुछ विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं ।

( १ ) मरणाशौचके सम्बन्धमें शास्त्रके वचनानुसार ब्राह्मणको दस दिनका , क्षत्रियको बारह दिनका , वैश्यको पंद्रह दिनका और शूद्रको एक महीनेका अशौच लगता है । परंतु शास्त्रमें निर्णयात्मक यह व्यवस्था है कि चारों वर्णोकी शुद्धि दस दिनमें हो जाती है । यह कायशुद्धि अर्थात् सामान्य शुद्धि है । इसके अनन्तर अस्पृश्यताका दोष नहीं रहता । अन्नादिप्रयुक्त पूर्ण शुद्धि बारहवें दिन सपिण्डीकरणके बाद ही होती है । इसीलिये देवार्चन आदि इसके अनन्तर ही किये जा सकते हैं । 

( २ ) दस दिनके लिये प्रवृत्त अशौचके अन्तर्गत यदि दूसरा दस दिनतकके लिये प्रवृत्त अशौच हो जाय ( किसी व्यक्तिको मृत्यु हो जाय ) तो पूर्वप्रवृत्त दशाहाशौचकी शुद्धिके साथ उत्तरप्रवृत्त दशाहाशौचकी भी निवृत्ति हो जायगी अर्थात् पहले व्यक्तिको मृत्युतिथिके अनुसार दूसरेके अशौचको भी निवृत्ति हो जायगी , किंतु प्रथम मरणाशौचके दसवें दिनकी रातके तीन प्रहरतक दस दिनतक रहनेवाला यदि दूसरा मरणाशौच हो गया तो पहले के दस दिनके बाद दूसरे मरणाशौच को निमित्त दो दिन और मरणाशौच रहता है । यदि पूर्वोक्त शत के चौथे  प्रहरमें दूसरा मरणाशीच हो गया तो दूसरे मरणाशौच के लिये प्रथम मरणाशौच के बाद तीन दिनका और मरणाशीच रहता है । क्रिया - कर्म करनेवालेको तो पूरे दस दिनतक मरणाशौच रहता है ।

 ( 3 ) पिताके मरनेके दस दिनके भीतर माताको भी मृत्य होनेपर पिताके मृत्यु दिवश दिनसे डेढ़ दिन ( पक्षिणी )   मरणाशौच अधिक रहता है । यह पक्षिणी मरणाशौच दशम रात्रि के पूर्व मरने पर होता है । दशम रात्रिके तीन प्रहर तक मृत्यु होनेपर दो दिनका तथा चौथे प्रहर में मरने तक तीन दिनका ही अशौच होगा , पक्षिणी अशौच नहीं होगा । 

( ४ ) पिताके मरने के अनन्तर माताको मृत्यु हो जाय और माताका पक्षिणी अथवा दो या तीन दिनका अधिक अशौच  प्रवृत्त हो तो भी ग्यारहवें दिन पिताका आद्यश्राद्ध महैकोदिष्ट , शय्यादान तथा वृषोत्सर्ग आदि कृत्य करने चाहिये । अन्य सपिण्डोंके ग्यारहवें दिन आद्यश्राद्धदि के विषयमें दोनों पक्ष है । कुछ का मत है करना चाहिये तथा कुछका मत है नहीं । अत : देशाचारके अनुसार करना चाहिये । 

( 5 ) माताको मृत्यु के बाद दस दिनके भीतर पिताकी भी मृत्यु हो जाय तो पिताके मरणदिनसे पूरे दस दिनतक मरणाशौच रहता है अर्थात् माताके मरणाशौच कि शुध्दि होनेपर भी पिताके मरणाशौचकी शुद्धि नहीं होती । 

( ६ ) किसी कारण वश मृत्यु दिवस के दिन दाह - संस्कार न हो सके और किसी दूसरे दिन दाह - संस्कार करना पड़े तो भी मृत्युदिनसे हो गिनकर पूरे दस दिनका अशौच लगता है , किंतु अग्निहोत्रीके मरनेपर दाह संस्कारके दिनसे ही दस दिनका अशौच लगता है ।

 ( ७ ) किसी कारणवश माता - पिताका दस दिनके भीतर ही पुत्तलदाह करना पड़े और उसका पहले अशौचसम्बन्धी क्रियाकर्म नहीं किया हो तो मरणदिनसे पूरे दस दिनका अशौच रहता है । मृत्युदिवससे दस दिनके बाद माता - पिताका पुत्तलदाह करके क्रियाकर्म करना पड़े तो पुत्र और पली को दाह संस्कारके दिनसे पूरे दस दिनका अशौच रहता है । माता - पिताके अतिरिक्त यदि दस दिनके अनन्तर किसीका पुतलदाह करना पड़े तो तीन दिनका अशौच रहता है ।

 ( ८ ) माता - पिताके मरनेपर विवाहिता लड़की को तीन दिन का अशौच लगता है ।

 ( ९ ) घर में जबतक शव रहे तब तक वहाँ अन्य गोत्रियों को भी अशौच रहता है ।

 ( १० ) एक जाति के व्यक्ति यदि किसी शव को कन्धा देते हैं , उसके घरमें रहते हैं और वहाँ भोजन करते हैं तो उन्हें भी दस दिनका अशौच रहेगा । यदि वे केवल भोजनमात्र करते हैं अथवा मात्र गृहवास करते हैं तो उन्हें तीन रातका अशौच लगेगा । यदि केवल शवको कन्धा देते हैं तो उन्हें एक दिनका अशौच लगता है ।

 ( ११ ) दिनमें शवका दाह - संस्कार होनेपर शवयात्रामें शामिल होनेवाले लोगोंको सूर्यास्त होनेके पूर्वतक अशौच रहता है । सूर्यास्त होने पर नक्षत्र - दर्शनके अनन्तर स्नान आदि करके यज्ञोपवीत बदल देना चाहिये । रात्रि में दाह - संस्कार होनेपर सूर्योदयके पूर्वतक का अशौच रहता है । 


बालकों की मृत्यु पर अशौच - विचार।


( १ ) नाल कटने के बाद नामकरण के पूर्व अर्थात् बारह दिनके भीतर यदि बालक मर गया तो बन्धुवर्ग स्नानमात्रसे मरणाशौचसे निवृत्त हो जाते हैं । माता - पिताको पुत्रके मरने पर तीन रात्रि का तथा कन्या के मरने पर एक दिन का अशौच रहता है , परंतु जनना शौच पूरे दस दिन तक रहता है । 

( २ ) नामकरण के पश्चात् दाँत की उत्पत्ति ( छः मास ) -के पूर्व बालक के मरनेपर बन्धुवर्ग स्नान मात्र से शुद्ध हो जाते हैं । माता - पिता को पुत्रके मरने पर तीन रात्रिका तथा कन्याके मरनेपर एक दिनका अशौच रहता है । 

( ३ ) दाँतको उत्पत्ति तथा चूडाकर्म ( मुण्डन - संस्कार - तीन वर्ष ) हो चुके बालकके मरनेपर माता - पिताको तीन दिनका मरणाशीच लगता है और सपिण्डको एक दिनका मरणाशीच लगता है ।

 ( ४ ) नामकरणके बाद उपनयन संस्कारके पहले मरनेपर तीन दिनका मरणाशीच रहता है । 

( ५ ) उपनयन संस्कार होनेके बाद मृत्यु होनेपर सात पुश्त के भीतरके लोगोंको दस दिनका मरणाशौच रहता है । चूंकि ब्राह्मण बालक के उपनयनका मुख्य काल आठ वर्षका है । अतः आठ वर्षकी अवस्था हो जानेपर उपनयन न होनेपर भी बालकको मृत्यु होनेपर पूरे दस दिनका मरणाशौच रहता है । इसी प्रकार अन्य वर्णो के लिये भी उपनयनके लिये निर्धारित मुख्य कालके अनन्तर उपनयन न होनेपर भी बालकको मृत्यु होनेपर दस दिनका मरणाशौच रहता है ।

 ( ६ ) अनुपनीत बालक तथा अविवाहिता कन्याको माता और पिताके मरनेपर ही दस दिनका अशौच होता है । अन्य सगोत्रियोंके मरनेपर कोई अशौच नहीं होता । 


            
                 
                           
                  
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   English translation

.. Ashouch - Thoughts.

 There are two types of Ashouches - 1 - Jannashouch and 2 - Death.  Here some ideas are being presented in the context of death.

 (1) According to the scripture in relation to death, Brahmins think ten days, Kshatriyas twelve days, Vaishyas fifteen days and Shudras one month Ashoka.  But in scripture, it is a decisive arrangement that the purification of the four varnas is done in ten days.  This is Kayasuddhi i.e. general purification.  Apart from this, there is no fault of untouchability.  The complete purification of the Annadipruta is done on the twelfth day only after the intensification.  That is why Devarchan etc. can be done only within it.

 (2) Under Ashoka, the tenure for ten days, if the Ashoka is in force for the second ten days (if a person dies) then the condition of the predecessor will be retired along with the purity of the predecessor i.e. the first person will also be retired according to the death date.  If the second death has occurred for ten days for three days of the night of the tenth day of death, then after the first ten days, there is two more days for the second death.  If the second death has taken place in the fourth half of the aforesaid terms, then for the second death row, there will be three more days after the first death.  The person who performs Kriya-karma remains mortified for the whole ten days.

 (3) Within ten days of the father's death, if the mother also dies, the death of the father is more than one and a half days from the day of death (birds).  This bird death occurs before the night of the tenth night.  On the death of three nights till the tenth night, there will be ashoka for two days and till death in the fourth day, there will be no ashoka.

 (4) If the mother dies within the death of the father, and if the mother's wife or more than two or three days of ill-treatment is prevalent, then on the eleventh day, the father's Adyashradha should perform acts of Mahayakoda, Shayadan and Vrishotsarga etc.  On the eleventh day of the other sapindas, there is both sides regarding the Adyasradhadhi.  Some have their opinion and some have no opinion.  Therefore, it should be done according to the behavior.

 (5) If the father also dies within ten days after the mother's death, then the death of the father remains for the entire ten days, that is, even after the purity of the mother's death, the death of the father is not purified.

 (4) Due to some reason the cremation cannot be done on the day of death and even if you have to perform the cremation on another day, even after the death day, the whole ten day's ashach takes place, but on the death of Agnihotri, ten days from the cremation itself.

 (4) For some reason, the parents have to do the work within ten days and if they have not done Ashoka-related work before, then there is a full ten-day Ashoka from the day of death.  After ten days from the day of death, if the parents have to perform the rituals by performing the work, then the son and the wife have a complete ten days of the cremation day.  In addition to the parents, if one has to do mannequin within ten days, then there will be three days of Ashoka.

 (4) Married girl gets a three-day Ashoka on the death of her parents.

 (4) As long as there is a dead body in the house, other tribes also remain unhappy there.

 (10) If a person gives shoulders to a dead body, lives in his house and dines there, he will also have ten days of uneasiness.  If they eat only food or stay home only, then they will suffer three nights.  If only the bodies are shaved then they feel ashaka for a day.

 (11) After the cremation of the body in the day, the people who attend the funeral procession remain untouched before sunset.  After sunset, the Yajnopavit should be changed by taking a bath in the constellation - darshan.  As the rites are cremated, Ashoka remains before sunrise.


 Ashouch on the death of children - thoughts.


 (1) Before naming, after cutting the placenta, that is, if the child dies within twelve days, then the exile is removed from the bathing body.  The parents have three nights on the death of their son and one day of death on the death of the girl child, but the massacre lasts for ten days.

 (2) After naming, the origin of the tooth (six months) - Before the child dies, the exiles are purified from bathing.  The parents have three nights on the death of their son and one day's rest on the death of the girl child.

 (3) On the death of a child having been born of tooth and chudakarma (shaving - rites - three years), the parents feel death for three days and the spindle feels death for one day.

 (4) After naming, there is a three-day death after dying before the Upanayana ceremony.

 (5) On the death of the people after the Upanayana rituals, the people within seven ancestors have ten days of death.  Since the main period of upanayaka of a Brahmin child is eight years.  Therefore, even after the completion of eight years of age, there is no death for the child, even if the child dies, the death of the child remains complete for ten days.  In the same way, even if there is no upanayan within the main period prescribed for Upanayana for other characters also, the child remains ten days old after death.

 (4) Ten days of unhappiness takes place only after the death of the mother and father of the unmarried child and unmarried girl.  There is no Ashoka on the death of other siblings.







 

शुक्रवार, 8 दिसंबर 2023

नीति श्लोक

 नीति श्लोक--

नमस्कारों प्रियो भानु: , जलधारा शिवप्रिया ।

अलंकारों प्रियो कृष्ण:, ब्राह्मण मोदक प्रिय ।।


शतं विहाय भोक्तव्यं ,सहस्रं नाम आचारेत ।

लक्ष्य त्यक्त्वा दातव्यं, कोटी त्यक्त्वा हरी भजेत ।।

प्रदक्षिणा क्रम--

एक चंड़या रवे सप्त:, तिस्र कार्या विनायके ।

हरे चत्रश्च कर्तव्या शिवस्थ अर्थ प्रदक्षिणा ।।


आयु कर्म वित्तं च , विद्या निधन मेंव च । 

पंचैतानी ही सृजन्ते ,गर्भस्थस्यैव देहिन: ।।


बलं विद्यां च विप्राणां , राज्ञां सैन्यं बलं  तथा ।

बलं वितं वैश्याणां , शुद्रानां परिचर्याका।।


सोमवार, 4 दिसंबर 2023

गिरिराज गोवर्धन पर्वत की उत्पति

गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति के विषय में नंद जी ने सानंद जी से पूछा।

 गोवर्धन गिरिराज पर्वत की उत्पत्ति कैसे हुई और इनको गिरिराज क्यों कहते हैं।

 सानंद जी ने कहा कि एक समय की बात है हस्तिनापुर में महाराज पांडु ने धर्मधारियों में श्रेष्ठ श्री भीष्म जी से ऐसा ही प्रश्न किया था।

 उनके उन प्रश्न को भीष्म द्वारा दिए गए उत्तर को अन्य बहुत से लोग भी सुन रहे थे उसमें भीष्म जी ने उत्तर दिया वही मैं यहां सुन रहा हूं साक्षात परी पूर्णतम भगवान श्री कृष्णा जो असंख्य ब्रह्मांड के अधिपति गोलोक के नाथ और सब कुछ करने में समर्थ है जब पृथ्वी का भार उतारने के लिए स्वयं इस भूतल पर पधारने लगे उन भगवान जनार्दन देवाधिदेव ने अपनी प्राण बल्लभा राधा से कहा प्रिये तुम मेरे वियोग में भयभीत रहती हो अतः तुम भी भूतल पर चलो.

श्रीराधा जी बोली - प्राणनाथ जहां वृंदावन नहीं है, जहां वह यमुना नदी नहीं है,तथा जहां गोवर्धन पर्वत नहीं है, वहां मेरे मन को सुख नहीं मिल सकता।

श्री राधा जी की बात सुनकर स्वयं श्री हरि ने अपने धाम से 84 कोश विस्तृत भूमि गोवर्धन पर्वत और यमुना नदी को गोलोक भूतल पर भेजा।

उस समय 84 कोश विस्तार वाली गोलोंक की सर्वलोक बंदिता भूमि 24 वनों के साथ यहां आई गोवर्धन पर्वत ने भारतवर्ष से पश्चिम दिशा में  शाल्मली द्वीप के भीतर द्रोणाचल की पत्नी के गर्भ से जन्म ग्रहण किया.

 उस अवसर पर देवताओं ने गोवर्धन के ऊपर फूल बरसाए हिमालय और सुमेर आदि समस्त पर्वतों ने वहां जाकर प्रणाम किया और परिक्रमा करके गोवर्धन का विधिवत पूजन किया पूजन के पश्चात उन महान पर्वतों ने उसकी स्तुति प्रारंभ की.

पर्वत बोले तुम साक्षात पूर्ण परिपूर्णतम भगवान श्री कृष्ण के गोलोक धाम में जहां दिव्य गौ का समुदाय निवास करता है तथा गोपाल एवं गोप सुंदरिया शोभा पाती है  तुम्हीं गोवर्धन नाम से वृंदावन में विराजित हो इस समय तुम ही हम समस्त पर्वतों में गिरिराज हो तुम वृंदावन की गोद में निवास करने वाले गोलोक मे मुकुट मणि हो तुम गोवर्धन को सादर प्रणाम है।

 तभी से यह गिरीश श्रेष्ठ गोवर्धन साक्षात गिरिराज कहलन  लगे।


 एक समय मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्य जी तीर्थ यात्रा के लिए भूतल पर भ्रमण करने लगे उन मुनिश्रेष्ठ ने द्रोणाचल के पुत्र श्याम वर्ण वाले श्रेष्ठ पर्वत गोवर्धन को देखा जिसके ऊपर माधवी लता के सुमन सुशोभित हो रहे थे वहां वृक्ष फलों के भार से लगे हुए थे झरनों के झर झर शब्द वहां गूंज रहे थे उन पर्वत पर उनकी बड़ी शांति विराज रही थी|

पुलस्त्य जी उसे पर्वत से बोले कि तुम पर्वतों के स्वामी हो समस्त देवता तुम्हारा सादर सत्कार करते हैं तुम दिव्य औषधियां से संपन्न तथा मनुष्यों को सदा जीवन देने वाले हो।

 मुनिवर पुलस्त्य जी के मन मे उस पर्वत को प्राप्त करने की इच्छा हुई इसके लिए वह द्रोणाचल के समीप गए ओर द्रोणगिरि ने उनका पूजन सत्कार किया।

 इसके बाद पुलस्त्य जी उस पर्वत से बोले मैं काशी निवासी हूं तुम्हारे निकट याचक बनकर आया हूं

 तुम अपने पुत्र गोवर्धन को मुझे दे दो यहां अन्य वस्तुओं से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है?

 भगवान विश्वेश्वर की महानगरी काशी नाम से प्रसिद्ध है ,जहां मरण को प्राप्त हुआ पापी पुरुष भी तत्काल परम मोक्ष प्राप्त कर लेता है ,जहां गंगा नदी प्राप्त होती है ,जहां साक्षात विश्वनाथ विराजमान है ,मैं वहीं तुम्हारे पुत्र को स्थापित करूंगा जहां कोई दूसरा पर्वत नहीं है ।मैं वहां तुम्हारे ऊपर बैठकर तपस्या करूंगा ऐसी मेरी अभिलाषा है।

 द्रोणाचल बोले -मैं पुत्र स्नेह से आकूल हूं यह पुत्र मेरा अत्यंत प्रिय है तथापि आपके शाप के भय से इसे मैं आपके हाथों में देता हूं।


 पुलस्त्य जी - बेटा तुम मेरे हाथ पर बैठकर सुख पूर्वक चलो जब तक काशी नहीं आ जाती तब तक मैं तुम्हें हाथ पर ही लेके चलूंगा।

गोवर्धन ने कहा - मुनि मेरी एक प्रतिज्ञा है आप जहां कहीं भी भूमि पर मुझे एक बार रख देंगे वहां की भूमि से मैं पुनः उत्थान नहीं करूंगा।

पुलस्त्य जी बोले मैं इस शल्मली द्वीप से लेकर भारत के कौशल देश तक तुम्हें कहीं भी रास्ते में नहीं रखूंगा यह मेरी प्रतिज्ञा है।

 ऋषि पुलस्त्य जी हाथ में  गिरिराज पर्वत को हाथ में रखकर चलने लगे और लोगों को अपना तेज दिखाने लगे चलते चलते ब्रजमंडल पहुंचे और ब्रज मंडल पहुंचते ही मुनिवर को लघुशंका लगी और भूल बस उन्होंने गोवर्धन पर्वत को ब्रज मंडल में रख दिया और लघु शंका स्नान से निवृत्त होकर पर्वत उठाने लगे ओर नहीं उठने पर गोवर्धन पर्वत ने उनकी प्रतिज्ञा याद दिलाई, 

मुनिवर के अथक प्रयास करने के बाद भी पर्वत हिला नहीं ।

मुनिवर ने गिरिराज पर्वत को श्राप दे दिया कि तू बड़ा ढीठ है तूने मेरा मनोरथ पूर्ण नहीं होने दिया, इसलिए तू तिल तिल छोटा होता चला जाएगा ।



सोमवार, 13 नवंबर 2023

प्रकटेश्वर महादेव मन्दिर बसई की खोज

  प्रकटेश्वर महादेव वसई का इतिहास 

श्री प्रकटेश्वर महादेव जी कि उत्पत्ति का उल्लेख सन १९६० के दशक में हुआ । जिसकी स्थापना श्रीकिशन गिरि बाबा ने की थी। किशन गिरि बाबा के बाद श्रीलिखेश्वर महाराज जी को इस मंदिर का उत्तराधीकारी माना जाता था। महाराज जी के शरीर छुटने पर ग्राम बसई वालो ने मंदिर का देखभाल करना शुरू किया।

प्रकटेश्वर महादेव मंदिर अल्मोड़ा जनपद के स्याल्दे तहसील बसई गांव के अंर्तगत आता है ।जिसमे समस्त ग्रामवासियों के द्वारा धनराशि एकत्रित करके मन्दिर व धर्मशाला का निर्माण किया गया ।


मन्दिर में पुजारी के रूप में लखेड़ा ब्राह्मणों को नियुक्त किया गया । समय समय पर सभी ग्राम वासियों के द्वारा योगदान मिलता रहा है ।

सन १९९८ में मंदिर का जीर्णोद्धार श्री महेश चंद्र बेलवाल जी के कर कमलों द्वारा शिव मन्दिर ,भैरव मंदिर ,माता का मन्दिर व धर्मशाला का पुनः निर्माण किया गया ।

क्षेत्र के श्रद्धालु भक्तों के द्वारा शिवरात्रि जागरण ,श्रावण माह में अभिषेक पूजन व भण्डारा किया जाता है ।

प्रकटेश्वर महादेव जी को हलवा, पूरी, चना ,रोट का भोग लगाया जाता है ।भगवान भोलेनाथ सभी भक्तों की मनोकामना पूर्ण करते है ।

बसई ग्राम वासियों के द्वारा मन्दिर में पूजा अर्चना का कार्य मन्दिर को सुसज्जित व व्यवस्थित बनाने का कार्य ग्रामवासियों द्वारा किया जाता है। ।

भगवान भोलेनाथ हिमालय क्षेत्रों में शिव पार्वती जी की अनेक लीलाओं के द्वारा प्रकटेश्वर रूप धारण करके भक्तों के कष्टों का निवारण कर मनोकामना पूर्ण करते है।

    । । जय श्री प्रकटेश्वर महादेव।।

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आचार्य हरीश चन्द्र लखेड़ा            
   
           

श्रीषष्ठीदेवीस्तोत्रम्

॥ श्रीषष्ठीदेवीस्तोत्रम् ॥

सन्तान प्राप्ति के लिये अद्भुत अनुष्ठान  

यदि कोई महानुभाव कि किसी कारणवश सन्तान न होनेसे निराश हों तो विश्वासपूर्वक श्रीषष्ठीदेवीस्तोत्र का नियमित रूप से नित्य पाठ करें ।

 ध्यानम्- 

षष्ठांशा प्रकृतेः शुद्धां प्रतिष्ठाप्य च सुप्रभाम् ।

सुपुत्रदां च सुभगां  दयारूपां  जगत्प्रसूम् ॥ 

श्वेतचम्पकवर्णाभां    रक्तभूषणभूषिताम्  ।

पवित्ररूपां परमां     देवसेना परां भजे ।।

मंत्र:-- 

ॐ ह्रीं षष्ठीदेव्यै स्वाहा । ( यथाशक्ति जप करें ) 

स्तोत्रं श्रृणु मुनिश्रेष्ठ सर्वकामशुभावहम् । 

आज्ञाप्रदं  च  सर्वेषां  गूढं  वेदेषु  नारद ॥

 प्रियव्रत उवाच :--

नमो देव्यै महादेव्यै सिद्ध्यै शान्त्यै नमो नमः । 

शुभायै देवसेनायै    षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥१॥

वरदाय  पुत्रदायै।   धनदायै  नमो  नमः । 

सुखदायै  मोक्षदायै  षष्ठीदेव्यै  नमो  नमः ॥ २॥

शक्तिषष्ठांशरूपायै सिद्धाय च नमो नमः । 

मायायै सिद्धयोगिन्यै षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ३॥

साराय शारदायै च  पारायै सर्वकारिण्यै । 

बालाधिष्ठायै देव्यै च षष्ठीदेव्यै नमो नमः ।। ४॥

कल्याणदाय कल्याण्यै फलदायै च कर्मणाम् । 

प्रत्यक्षायै च भक्तानां  षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥५॥

पूज्यायै  स्कन्दकान्तायै  सर्वेषां  सर्वकर्मसु । 

देवरक्षणकारिण्यै   षष्ठीदेव्यै  नमो  नमः ॥ ६॥

शुद्धसत्त्वस्वरूपायै वन्दितायै  नृणां  सदा । 

हिंसाक्रोधवर्जितायै  षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ७॥

धनं  देहि  प्रियां  देहि  पुत्रं  देहि  सुरेश्वरि । 

धर्म  देहि  यशो देहि  षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ८॥

भूमिं देहि प्रजां देहि विद्यां देहि सुपूजिते । 

कल्याणं च जयं देहि  षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥ ९॥

इति देवीं च  संस्तुत्य लेभे  पुत्रं  प्रियव्रतः । 

यशस्विनं  च  राजेन्द्रं  षष्ठीदेवी प्रसादतः ॥१०॥

षष्ठीस्तोत्रमिदं ब्रह्मन् यः शृणोति च वत्सरम् । 

अपुत्रे  लभते  पुत्रं   वरं    सुचिरजीविनम् ॥११॥

वर्षमेकं च या भक्त्या संस्तुत्येदं शृणोति च । 

सर्वपापविनिर्मुक्ता   महावन्ध्या प्रसूयते ॥ १२॥

वीरं पुत्रं च गुणिनं विद्यावन्तं  यशस्विनम् । 

सुचिरायुष्मन्तमेव।  षष्ठीदेवी  प्रसादतः ॥ १३॥

काकवन्ध्या च या नारी मृतापत्या च या भवेत् । 

वर्षं श्रुत्वा लभेत् पुत्रं  षष्ठीदेवीप्रसादतः ॥१४॥

रोगयुक्ते च बाले च पिता माता शृणोति चेत् । 

मासेन मुच्यते बालः षष्ठीदेवी  प्रसादतः ॥ १५॥

                              प्रणाम - मन्त्र

            जय देवि जगन्मातर्जगदानन्दकारिणि । 

            प्रसीद मम कल्याणि नमस्ते षष्ठि देवते ॥ 


नित्य प्रायः सायं स्मरणीय मंगल श्लोक

प्रातः व सायंकाल नित्य मंगल श्लोक का पाठ करने से बहुत कल्याण होता है। दिन अच्छा बीतता है। दुःस्वप्न भय नही होता है। धर्म मे वृद्धि ,अज्ञानता का नाश , निर्धन से धनी होना । सभी प्रकार की बाधाओं से छुटकारा मिलता है।

इससे व्यक्ति में दैवीय गुणों का आधान होता है। प्रातः काल मे मंगलकारी मंगलाचरण के साथ दैनिक दिनचर्या को प्रारम्भ करना चाहिये।

                   ।।  प्रथम गणपति वन्दना ।।      


ॐ वक्रतुण्ड महाकाय सूर्य कोटि समप्रभ ।

निर्विघ्नं कुरुमेदेव सर्व कार्येषु सर्वदा ।।

                        गजाननं   भूत   गणादि सेवितं  ।

                        कपित्थ जम्बू फल चारु भक्षणं।।

                        उमा सुतं शोक  विनाश कारकं ।

                        नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम्।।


                     ।।  गुरु वन्दना ।।                   

गुरु  ब्रह्मा  गुरु विष्णु: गुरु देवो महेश्वर:।

गुरु साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।


मुकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम् ।

यत्कृपा तमहं वन्दे   परमानंद माधवम  ।।


अज्ञानंतिमिरांधस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।

चक्षुरुन्मीलितं येन  तस्मै  श्रीगुरवे नमः ।।


                  ।।  व्यास जी ध्यान  ।।               


व्यसाय विष्णु रूपाय ,व्यास रूपाय विष्णवे ।

नमो वै ब्रह्मनिधये  , वाशिष्ठाय नमो नमः ।।


नमोस्तुते व्यास विशाल बुद्धे 

फुल्लार रविन्दाय तपत्र नेत्रं ।

येन त्वया भारत तैल पूर्णे: 

प्रज्वालितो ज्ञान मयः प्रदीप ।।


नारायणं  नमस्कृत्य   नरं चैव नरोत्तम्म ।

देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जय मुदीरयेत ।।


सीता राम समारम्भाम श्रीरामानंदार्य मध्यमाम् ।

अस्मदाचार्य पर्यंतां   वन्दे श्रीगुरु  परम्पराम् ।



                  ।।श्री विष्णु वन्दना ।।               


शान्ताकारं   भुजगशयनं   पद्म नाभं    सुरेशं ।

विश्वाधारं   गगन   सदृशं मेघ वर्णम शुभांगम।।

लक्ष्मीकान्तम कमलनयनं योगीभिर्ध्यान गम्यम ।

वन्दे  विष्णुम  भवभयहरं सर्व   लोकैकनाथम् ।।


           ।। कृष्ण वन्दना ।।                     


वसुदेव   सुतं     देवं      कंस    चाणूरमर्दनं।

देवकी परमानन्दम कृष्णम वन्दे जगदगुरूम।।

श्री कृष्ण गोबिन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव।  

हे नाथ नारायण वासुदेव    हे नाथ नारायण वासुदेव ।।

                   ।।श्री राम वन्दना ।।                  


रामाय  राम भद्राय  राम चंद्राय वेधसे ।

रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः।।


राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनाम ततुल्यं राम नाम वरानने ।।


                    ।।  हनुमान वंदना ।।।              


मानोजपं मारुत तुल्य वेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम ।

वातात्मजं  वानरयूथमुख्यं  श्रीराम  दूतं  शरणं  प्रपद्ये ।।


                    ।।श्री गौरी शंकर वन्दना ।।       


कर्पूर   गौरं  करुणावतारं  संसारसारं  भुजगेन्द्रहारं ।

सदा वसन्तम हृदयारविन्दे भवं भवानी सहितंनमामि।।


               ।। श्री दुर्गा देवी वन्दना ।।              


सर्व  मंगल मांगल्ये  शिवे  सर्वार्थ साधिके ।

शरण्ये   त्र्यम्बके गौरि नारायणी नमोस्तुते।।


जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी ।

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते।।


                  ।।श्री महालक्ष्मी वन्दना ।।          


महालक्ष्मी नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं सुरेश्वरि।

हरि प्रिये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं दयानिधे ।।


नमोस्तुते महामाये श्री पीठे सुर पूजिते ।

शंख चक्र गदा हस्ते महालक्ष्मी नमोस्तुते ।।

              ।।श्री सरस्वती वन्दना ।।                


सरस्वती  महाभागे  विध्ये  कमल  लोचने।

विद्या रूपी विशालाक्षी विद्याम देहि नमोस्तुते।।


सरस्वत्यै नमो नित्यं भद्रकाल्यै नमो नमः ।

वेद वेदान्त वेदाङ्ग बिद्या स्थनीभ्यः एवं च ।।


या कुन्देन्दुतुषारहारधवला   या शुभ्रवस्त्रा  वृता ।

या वीणा वर दंड मण्डित करा या श्वेत पद्मासना ।।

या ब्रह्मा च्युत शंकर प्रभृतिभिर्देवै: सदा वंदिता ।

सा मा पातु सरस्वती भगवती निः शेष जाड्या पहा ।।


शुक्लां ब्रह्म विचार सार परमा माद्यम जगदव्यापिनी 

वीणापुस्तकधारिणीमभयदां    जाड्यान्धकारापहाम्। 

हस्ते स्फाटिक मालिकां विदधती पद्मासने संस्थितां

वन्दे  तां  परमेश्वरि  भगवती   बुद्धि  प्रदां शारदाम्  ।।


                  ।।  सूर्य वन्दना  ।।                     


आदित्यं च नमस्कार ये कुर्वन्ति दिने दिने।

जन्मांतर  सहस्रेषु  दारिद्रम  नोप जयते ।।

नमो धर्म विधात्रे हि नमो कर्म  सुसाक्षिणे।

 नमो प्रत्यक्ष देवाय भास्कराय नमोनमः।।


                      ।। नवग्रह स्मरण ।।               


        ब्रह्मा मुरारि स्त्रिपुरान्त कारी ।

        भानुः शशी भूमि सुतो बुधश्च।।

        गुरुश्च शुक्र: शनिराहु केतवः।

        सर्वेग्रहा  शान्तिकरा भवन्तु।।



                          ।। मंत्र पुष्पांजलि । ।         

यज्ञेन यज्ञ मयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्या सन् 

तेहनाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ।। 

ॐ राजाधिराजाय प्रसह्य साहिने।नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे । समे कामान काम कामाय मह्यं कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु । कुबेराय  वैश्रवणाय  महाराजाय नमः।।

ॐ स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठयं राज्यं महाराज्य माधिपत्य मयं समन्त पर्यायी स्यात् सार्वभौमः सार्वायुष आन्तादापरार्धात् । पृथिव्यै समुंद्र पर्यन्ताया एक राडिति। तदप्येष श्लोकोऽभि गीतो मरुतः परिवेष्टारो मरूत स्यावसन् गृहे।आविक्षितस्य काम प्रेर्विश्वे देवाः सभासद् इति ।।  


 सेवन्तिका वकुल चम्पक पाटलाब्जैः।

 पुन्नाग जाति  करवीर रसाल  पुष्पैः।।

 बिल्व प्रवाल  तुलसीदल मंजरीभिः।

 त्वां पूजयामि जगदीश्वर मे प्रसीद ।।


नाना सुगंधि पुष्पाणि यथाकालोद् भवानि च । 

पुष्पांजलिर्मया   दत्त    गृहाण    परमेश्वर ।।


कायेन  वाचा     मनसेन्द्रियैर्वा ।

बुद्धयात्मना वानुसृत स्वभावात् ।। 

करोमि  यद्यत्  सकलं परस्मै ।

नारायणायेति    समर्पयेतत् ।। 


सर्वे  भवन्तु  सुखिनः  सर्वे सन्तु  निरामयाः । 

सर्वे भद्राणि पश्यन्ति मा कश्चिद दुःख भाग्भवेत् ।। 


त्वमेव माता च पिता त्वमेव ।

त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव।

त्वमेव सर्वं मम देव  देवः ।। 

                           ।।प्रदक्षिणा।।                  


यानी कानी च पापानि जन्मांतर कृतानि च ।

तानी सर्वाणि पश्यन्तु प्रदक्षिणाम पदे पदे ।।


                         ।। क्षमा प्रार्थना ।।              


अपराध सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया । 

दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि।।१ ।।

आवाहनंन जानामि , न जानामि विसर्जनम् । 

पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि ॥२ ॥ 

मन्त्रहीन क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि । 

यत्यूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे।।३ ।।

अपराध शतंकृत्वा जगदम्बेति चोच्चरेत् । 

यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादयाः सुराः ।।४ ।। 

सापराधोऽस्मिशरणं प्राप्तस्त्वां जगदम्बिके । 

इदानी मनु कम्प्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ।।५ ।। 

अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रान्त्या यन्यूनमधिकं कृतम् । 

तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि।।६ ।। 

कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानन्दविग्रहे ।

गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि।।७ ।। 

गुह्याति गुह्यगोप्ती त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् । 

सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादात्सुरेश्वरि।।८ ।। 



 ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।

     पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।। 

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                             पं हरीश चंद्र लखेड़ा
                                 ज्योतिषाचार्य
                                      वसई
                                जय बद्री विशाल
                              


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ॐ जय गौरी नंदा

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