सोमवार, 6 अक्टूबर 2025
ब्रह्मा जी का एक दिन
*ब्रह्मा जी के एक दिन की गणना*
पूर्ण भगवान् कृष्ण व्रजेन्द्रकुमार।
गोलोके व्रजेर सह नित्य विहार।।
ब्रह्मार एकदिने तिँहो एकबार।
अवतीर्ण हञा करेन प्रकट विहार।।
अनुवाद - व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण ही पूर्ण भगवान् हैं। व्रजधाम समन्वित गोलोकमें वे नित्य - विहार करते हैं। ब्रह्माके एक दिनमें वे एक बार इस जगत्में अवतीर्ण होकर प्रकट-लीला करते हैं।
ब्रह्मा जी का एक दिन
सत्य त्रेता द्वापर कलि चरियुग जानि।
सेइ चरियुगे दिव्य युग मानि।।
एकात्तर चतुर्युगे एक मन्वन्तर।
चौद्द मन्वन्तर ब्रह्मार दिवस भितर।।
अनुवाद - सत्य, त्रेता, द्वापर और कलिं, ये चार युग होते हैं। ये चारों युग मिलकर एक दिव्य-युग कहलाते हैं। इकहत्तर चतुर्युगोंका एक मन्वन्तर होता है और ब्रह्माके एक दिनमें चौदह मन्वन्तर होते हैं।
ब्रह्मा जी के एक दिन को एक कल्प कहते हैं।
एक दिन में 14 मन्वंतर
एक मन्वंतर में 71 चतुर्युग
एक चतुर्युगी में चार युग
1. सत्य
2. त्रेता
3.द्वापर
4.कलि
यह चारों एक युग या युगी कहलाता है।
एक युगी की गणना
कलि = 4,32000
द्वापर = 8,64000
त्रेता = 12, 96000
सत्य = 17,28000
Total एक चतुर युगी के साल हुए।
43,20,000
इसको एक युग बोला जाता है
एक युगी -
43,20,000 × 71
=30,67,20,000 साल होते हैं ।
यह एक मन्वन्तर का परिणाम है इसे गुणा करते हैं 14 से।
30,67,20,000×14
=4,29,40,80,000
यह ब्रह्मा जी का एक दिन का परिणाम है 4,29,40,80,000,
एक दिन में 14 मन्वतर होते हैं - फिर एक महीने में देखते हैं फिर एक साल में देखते हैं, फिर 100 साल में
1 दिन में 14
14 × 30 दिन में = 420
420 × 12 महीने में
= 5040
5040×100 साल
एक साल में 5040
100 साल की ब्रह्मा की आयु है यानि 5040 × 100 = 5,04,000 मनु होते हैं।
ब्रह्मा जी के एक दिन में
कलि = 994 बार आता है ।
द्वापर = 994 बार आता है ।
त्रेता = 994 बार आता है ।
सत्य = 994 बार आता है।
अब यहां पर एक संधिकाल आता है जो 15 सत्य युगों के परिणाम का होता है ।
15 × 17,28,000 = 2,59,20,000
6 महायुगों के काल से देखें तब भी यही आएगा ( एक चतुर्युगी के साल )
6 × 43,20,000 = 2,59,20,000
इस प्रकार 14 मन्वन्तरों और संधिकाल को मिलाकर एक हज़ार महायुगों के काल के बराबर ब्रह्मा का एक दिन एक कल्प होता है और इतनी ही बड़ी ब्रह्मा जी की रात्रि भी होती है
'वैवस्वत' नाम एइ सप्तम मन्वन्तर
साताइश चतुर्युग गेले ताहार अन्तर
अनुवाद - वर्तमान सप्तम मन्वन्तरका नाम वैवस्वतं' है और इसके सत्ताईस चतुर्युग बीत चुके हैं।
अनुभाष्य - वैवस्वत - नामके सातवें मनुके मन्वन्तरमें श्रीमन्महाप्रभुका आविर्भाव होता है “स्वायम्भुवाख्यो मनुराद्य आसीत्, स्वारोचिषश्चोत्तम-तामसाख्यौ। जातौ ततो रैवतचाक्षुषौ च वैवस्वतः सम्प्रति सप्तमोऽयम्॥ सावर्णिर्दक्षसावर्णिब्रह्मसावर्णिकस्ततः । धर्मसावर्णिको रुद्रपुत्रो रौच्यश्च भौत्यकः ॥”
14 मनु के नाम इस प्रकार हैं
(१) स्वायम्भुव,
(२) स्वारोचिष,
(३) उत्तम,
(४) तामस,
(५) रैवत,
(६) चाक्षुष,
(७) वैवस्वत,
(८) सावर्णि,
(९) दक्षसावर्णि,
(१०) ब्रह्मसावर्णि,
(११) धर्मसावर्णि,
(१२) रुद्रपुत्र (सावर्णि),
(१३) रोच्य (देवसावर्णि) और
(१४) भौत्यक (इन्द्रसावर्णि)
– ये चौदह मनु हैं। प्रत्येक मनु का भोगकाल इकहत्तर महायुग है।
बुधवार, 1 अक्टूबर 2025
विजया दशमी
आश्विन मास के शुक्लपक्ष की दशमी तिथि को विजया दशमी और लौक व्यवहार की भाषा में दशहरा कहते हैं । भगवान ने इसी दिन लंका पर चढ़ाई करके विजय प्राप्त की थी ।
'ज्योति र्निबन्ध में लिखा है- आश्विन शुक्ला दशमी को तारा उदय होने के समय ' विजय ' नामक काल होता है । वह सब कार्यों को सिद्ध करने वाला होता है । विजया दशमी हमारा राष्ट्रीय पर्व है । दशमी के दिन रामचन्द्रजी की सवारी बड़ी धुमधाम के साथ निकलती है। और रावण - वध की लीला का प्रदर्शन होता है । इस दिन नीलकंठ का दर्शन बहुत शुभ माना जाता है ।
होली , दीपावली और रक्षाबंधन के समान ही हमारे चार प्रमुख त्यौहार में से एक है विजया दशमी ,पूरे भारतवर्ष में उत्तर से दक्षिण तक सभी वर्ण और वर्ग के व्यक्ति पूरी धूमधाम से मनाते हैं यह त्यौहार ।
क्षत्रियों का विशेष दिन--
प्राचीनकाल से ही इसे क्षत्रियों , राजाओं और वीरों का विशेष त्यौहार माना जाता रहा है । आज के दिन अस्त्र - शस्त्रों , घोड़ों और वाहनों की विशेष पूजा की जाती है । प्राचीन काल में तो राजा - महाराजा आज विशेष सवारियां और सैनिक परेड निकालते थे तथा ब्राह्मणों को प्रचुर दान देते थे ।
वैसे दशमी को रामलीला का समापन और रावण , उसके पुत्र मेघनाद और भाई कुम्भ कर्ण के पुतलों का दहन ही आज का विशिष्ट उत्सव रह गया है । बंगाली भाई आज नौ दिन के दुर्गा और काली पूजन के बाद मूर्तियों का नदियों में विसर्जन भी बड़ी धूमधाम से करते हैं तथा बड़े - बड़े जलूस निकालते हैं ।
इनके अतिरिक्त प्रत्येक क्षेत्र और परिवार में दशहरा मनाने के अलग - अलग कुछ विधान भी हैं । कुछ क्षेत्रों में गोबर का दशहरा रखकर उसकी पूजा भी की जाती है । इसी प्रकार अनेक परिवारों में आज बहिनें भाइयों के तिलक भी करती हैं । प्रथम नौ रात्रे के दिन देवी के नाम के जौ बोकर आज के दिन उनके छोटे - छोटे पौधे उखाड़ कर भाइयों को देने का रिवाज भी कुछ क्षेत्रों में है।
शुक्रवार, 26 सितंबर 2025
आचार्य पंडित जी मिलेंगे
सनातन संस्कृति संस्काराे में आस्था रखने वाले सभी धर्म प्रेमी धर्मानुरागी परिवारों का स्वागत अभिनंदन ।
आपको बताते हर्ष हो रहा है। कि हमारे पंडित जी मिलेंगे ब्लॉग के माध्यम से सभी प्रकार के षोडश संस्कार, शतचंडी ,सहस्र चंडी,लक्ष्य चंडी , रुद्राभिषेक, लघुरुद्र ,महारुद्र ,अतिरुद्र , कथा , भजन संध्या , माता की चौकी , रामायण , सुंदरकांड , नवग्रह शांति , कालसर्प दोष शांति , श्रीमहामृत्युंजय जप , गृहप्रवेश वास्तु शांति , कुंडली निर्माण , कुंडली मिलान ,वार्षिक व्रत आदि कर्म , मूर्ति मंदिर प्राण प्रतिष्ठा , आदि सभी कर्म करवाए जाते है ।
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मंगलवार, 16 सितंबर 2025
नित्य प्रायः सायं स्मरणीय मंगल श्लोक
प्रातः व सायंकाल नित्य मंगल श्लोक का पाठ करने से बहुत कल्याण होता है। दिन अच्छा बीतता है। दुःस्वप्न भय नही होता है। धर्म मे वृद्धि ,अज्ञानता का नाश , निर्धन से धनी होना । सभी प्रकार की बाधाओं से छुटकारा मिलता है।
इससे व्यक्ति में दैवीय गुणों का आधान होता है। प्रातः काल मे मंगलकारी मंगलाचरण के साथ दैनिक दिनचर्या को प्रारम्भ करना चाहिये।
।। प्रथम गणपति वन्दना ।।
ॐ वक्रतुण्ड महाकाय सूर्य कोटि समप्रभ ।
निर्विघ्नं कुरुमेदेव सर्व कार्येषु सर्वदा ।।
गजाननं भूत गणादि सेवितं ।
कपित्थ जम्बू फल चारु भक्षणं।।
उमा सुतं शोक विनाश कारकं ।
नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम्।।
।। गुरु वन्दना ।।
गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु: गुरु देवो महेश्वर:।
गुरु साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।
मुकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम् ।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानंद माधवम ।।
अज्ञानंतिमिरांधस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।
।। व्यास जी ध्यान ।।
व्यसाय विष्णु रूपाय ,व्यास रूपाय विष्णवे ।
नमो वै ब्रह्मनिधये , वाशिष्ठाय नमो नमः ।।
नमोस्तुते व्यास विशाल बुद्धे
फुल्लार रविन्दाय तपत्र नेत्रं ।
येन त्वया भारत तैल पूर्णे:
प्रज्वालितो ज्ञान मयः प्रदीप ।।
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तम्म ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जय मुदीरयेत ।।
सीता राम समारम्भाम श्रीरामानंदार्य मध्यमाम् ।
अस्मदाचार्य पर्यंतां वन्दे श्रीगुरु परम्पराम् ।
।।श्री विष्णु वन्दना ।।
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्म नाभं सुरेशं ।
विश्वाधारं गगन सदृशं मेघ वर्णम शुभांगम।।
लक्ष्मीकान्तम कमलनयनं योगीभिर्ध्यान गम्यम ।
वन्दे विष्णुम भवभयहरं सर्व लोकैकनाथम् ।।
।। कृष्ण वन्दना ।।
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूरमर्दनं।
देवकी परमानन्दम कृष्णम वन्दे जगदगुरूम।।
श्री कृष्ण गोबिन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव।
हे नाथ नारायण वासुदेव हे नाथ नारायण वासुदेव ।।
।।श्री राम वन्दना ।।
रामाय राम भद्राय राम चंद्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः।।
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम ततुल्यं राम नाम वरानने ।।
।। हनुमान वंदना ।।।
मानोजपं मारुत तुल्य वेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीराम दूतं शरणं प्रपद्ये ।।
।।श्री गौरी शंकर वन्दना ।।
कर्पूर गौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारं ।
सदा वसन्तम हृदयारविन्दे भवं भवानी सहितंनमामि।।
।। श्री दुर्गा देवी वन्दना ।।
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणी नमोस्तुते।।
जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते।।
।।श्री महालक्ष्मी वन्दना ।।
महालक्ष्मी नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं सुरेश्वरि।
हरि प्रिये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं दयानिधे ।।
नमोस्तुते महामाये श्री पीठे सुर पूजिते ।
शंख चक्र गदा हस्ते महालक्ष्मी नमोस्तुते ।।
।।श्री सरस्वती वन्दना ।।
सरस्वती महाभागे विध्ये कमल लोचने।
विद्या रूपी विशालाक्षी विद्याम देहि नमोस्तुते।।
सरस्वत्यै नमो नित्यं भद्रकाल्यै नमो नमः ।
वेद वेदान्त वेदाङ्ग बिद्या स्थनीभ्यः एवं च ।।
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रा वृता ।
या वीणा वर दंड मण्डित करा या श्वेत पद्मासना ।।
या ब्रह्मा च्युत शंकर प्रभृतिभिर्देवै: सदा वंदिता ।
सा मा पातु सरस्वती भगवती निः शेष जाड्या पहा ।।
शुक्लां ब्रह्म विचार सार परमा माद्यम जगदव्यापिनी
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फाटिक मालिकां विदधती पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरि भगवती बुद्धि प्रदां शारदाम् ।।
।। सूर्य वन्दना ।।
आदित्यं च नमस्कार ये कुर्वन्ति दिने दिने।
जन्मांतर सहस्रेषु दारिद्रम नोप जयते ।।
नमो धर्म विधात्रे हि नमो कर्म सुसाक्षिणे।
नमो प्रत्यक्ष देवाय भास्कराय नमोनमः।।
।। नवग्रह स्मरण ।।
ब्रह्मा मुरारि स्त्रिपुरान्त कारी ।
भानुः शशी भूमि सुतो बुधश्च।।
गुरुश्च शुक्र: शनिराहु केतवः।
सर्वेग्रहा शान्तिकरा भवन्तु।।
।। मंत्र पुष्पांजलि ।।
यज्ञेन यज्ञ मयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्या सन्
तेहनाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ।।
ॐ राजाधिराजाय प्रसह्य साहिने।नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे । समे कामान काम कामाय मह्यं कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु । कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नमः।।
ॐ स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठयं राज्यं महाराज्य माधिपत्य मयं समन्त पर्यायी स्यात् सार्वभौमः सार्वायुष आन्तादापरार्धात् । पृथिव्यै समुंद्र पर्यन्ताया एक राडिति। तदप्येष श्लोकोऽभि गीतो मरुतः परिवेष्टारो मरूत स्यावसन् गृहे।आविक्षितस्य काम प्रेर्विश्वे देवाः सभासद् इति ।।
सेवन्तिका वकुल चम्पक पाटलाब्जैः।
पुन्नाग जाति करवीर रसाल पुष्पैः।।
बिल्व प्रवाल तुलसीदल मंजरीभिः।
त्वां पूजयामि जगदीश्वर मे प्रसीद ।।
नाना सुगंधि पुष्पाणि यथाकालोद् भवानि च ।
पुष्पांजलिर्मया दत्त गृहाण परमेश्वर ।।
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा ।
बुद्धयात्मना वानुसृत स्वभावात् ।।
करोमि यद्यत् सकलं परस्मै ।
नारायणायेति समर्पयेतत् ।।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्ति मा कश्चिद दुःख भाग्भवेत् ।।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव ।
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव।
त्वमेव सर्वं मम देव देवः ।।
।।प्रदक्षिणा।।
यानी कानी च पापानि जन्मांतर कृतानि च ।
तानी सर्वाणि पश्यन्तु प्रदक्षिणाम पदे पदे ।।
।। क्षमा प्रार्थना ।।
अपराध सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया ।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि।।१ ।।
आवाहनंन जानामि , न जानामि विसर्जनम् ।
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि ॥२ ॥
मन्त्रहीन क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि ।
यत्यूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे।।३ ।।
अपराध शतंकृत्वा जगदम्बेति चोच्चरेत् ।
यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादयाः सुराः ।।४ ।।
सापराधोऽस्मिशरणं प्राप्तस्त्वां जगदम्बिके ।
इदानी मनु कम्प्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ।।५ ।।
अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रान्त्या यन्यूनमधिकं कृतम् ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि।।६ ।।
कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानन्दविग्रहे ।
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि।।७ ।।
गुह्याति गुह्यगोप्ती त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् ।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादात्सुरेश्वरि।।८ ।।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।
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पं हरीश चंद्र लखेड़ा
ज्योतिषाचार्य
वसई
जय बद्री विशाल
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रविवार, 14 सितंबर 2025
श्रीविश्वकर्मा पूजा विधि
श्री विश्वकर्मा पूजा विधि --
हम जिस प्रकार सभी अन्य पर्व त्योहार पर देवताओं के लिए पीठ तैयार करते हैं ,उसी प्रकार विश्वकर्मा पूजा के लिए पीठ तैयार करें , उसके ऊपर विश्वकर्मा की पौराणिक चित्र लगाए या मूर्ति स्थापित करें । विश्वकर्मा जी की पूजा करे । हो सके तो संगीत कीर्तन आदि से श्रद्धा का वातावरण बनाएं ।
पूजन क्रम --
शुद्ध वस्त्र आदि पहनकर दीप,धूप प्रज्वलित कर आचमनी, पवित्रीकरण, आसन शुद्धि, तिलक धारण, भूतोत्साधन , शिखा स्पर्श, सूर्य ध्यान प्राणायाम करके स्वस्तिवाचन संकल्प आदि करके प्रथम गणपति कुलदेवी कुलदेवता, वरुण भगवान का पूजन करें नवग्रहों का ध्यान पूजन करें । विश्वकर्मा जी का पूजन करे।
श्री विश्वकर्मा जी का ध्यान --
कम्बा सूत्राम्बु पात्रम् वहती करतले पुस्तकं ज्ञान सूत्रम्।
हंसारूढ़स्त्रिनेत्र: शुभमुकुटशिरा सर्वेतो वृद्धकाय: ।।
त्रैलोक्यम् येन सृष्टं सकलसुर गृह ं राज हर्म्यादि हर्म्यं ।
देवोंअ्सो सूत्र धारों जगत खिल हित: पातु वो विश्व कर्मन् ।।
श्री विश्व कर्मणे नमः ।।
ध्यान आवाहन प्रतिष्ठा करके षोडशोपचार करें ।
प्रार्थना --
नमामि विश्व कर्माणं द्विभुजं विश्व वंदितं।
गृह वास्तु विधातारं महा बल पराक्रमम् ।।
प्रसिद विश्व कर्मस्त्वं शिल्पविद्या विशारद: ।
दण्डपाणे ! नमस्तुभ्यं तेजोमूर्तिधरप्रभो ।।
विश्वकर्मा जी के हाथ में चार प्रतिक कहे गए हैं ।
१ - पुस्तक
२ - पैमाना
३ - जल पात्र
४ - सूत्र
१ - पुस्तक ज्ञान का प्रतीक
२ - पैमाना मूल्यांकन का प्रतीक
३ - जल पात्र शक्ति साधन का प्रतीक
४ - सूत्र कौशल का प्रतीक
यह सारे प्रतीक विश्वकर्मा के सम्मुख रखना चाहिए। और इनका पूजन करना चहिए ।
विश्वकर्मा जी से प्रार्थना करें।
हमें सृजन का ज्ञान दें । हम उसका लाभ उठा सकें ।
हमें सृजन का उत्साह प्रदान करें।
मैं शक्ति और साधन दें ।
हमें कौशल वहन करने की साहस दें।
विश्वकर्मा जी को ५ या २४ दीपदान करें ।
तत्पश्चात विश्वकर्मा जी के निमित्त यज्ञ करें ।
मंत्र --
ॐ विश्व कर्मन हविषा वावृधान: स्वयं यजस्व पृथिवी मुतद्याम्।
मुह्यन्त्वन्ये अमित: सपत्ना इहास्माकं मनवा सूरिरस्तु स्वाहा । इस मंत्र से विश्वकर्मा जी को आहुति प्रदान करें।
पूर्णाहुति प्रदान करके आरती करें ।
।।आरती श्री विश्वकर्माजी की।।
जय श्री विश्वकर्मा प्रभु जयश्री विश्वकर्मा ।
सकल सृष्टी मे विधि को श्रुति उपदेश दिया ।।
जीव मात्र का जग मे ज्ञान विकास किया ।
ऋषि अंगिरा तप से शांति नही पाई ।।
रोग ग्रस्त राजा ने जब आश्रय लीना ।
संकट मोचन बनकर दूर दुख कीना ।।
जय श्री विश्वकर्मा प्रभु जयश्री विश्वकर्मा।
जब रथकार दम्पति, तुम्हारी टेक करी ।
सुनकर दीन प्रार्थना विपत हरी सगरी।।
एकानन चतुरानन, पंचानन राजे ।
द्विभुज चतुभुज दशभुज, सकल रूप सजे ।।
ध्यान धरे तब पद का, सकल सिद्धि आवे ।
मन द्विभुज मिट जावे, अटल शक्ति पावे ।।
श्री विश्वकर्मा भगवान की आरती जो कोई गावे ।
भजत गजानंद स्वामी सुख संपति पावे ।।
जय श्रीविश्वकर्मा प्रभु जय श्रीविश्वकर्मा ।
मंत्र पुष्पांजलि नमस्कार आदि करके विश्वकर्मा जी का नाम जयकार घोष करें । सभी को प्रसाद वितरण करें।
।।इति श्री विश्वकर्मा पूजा।।
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शनिवार, 13 सितंबर 2025
पृथ्वी लोक में गरुड़ पुराण की कल्पना
सभी सनातन धर्म प्रेमी भाइयों गरुड़ पुराण को पढ़ने के बाद कल्पना की आखिर इस पृथ्वी को जिसे हम नरक कहते हैं । जिसमें पुण्य और पाप कर्मों के आधार पर मानव नरक भोक्ता हैं।
विचार करने पर मुझे कहीं ना कहीं सत्य नजर जरूर आया और जब उस पर विचार किया तो पाया कि इस पृथ्वी पर आखिर यमराज की भूमिका और चित्रगुप्त की भूमिका , श्रवण श्रावणी कि भूमिका और यमदूतों कि भूमिका कौन निभा रहा है । जो मानव शुभ अशुभ कार्य करते है ,उन्हें दंड कौन देता है ।
गरुड़ पुराण में कहां है ,जब किसी की आयु पूर्ण हो जाती हैं ,तो उसे यम के दूत के लेने के लिए आते हैं। उन्होंने यम दरबार में प्रस्तुत किया जाता है । उसके द्वारा किए गये शुभ अशुभ कर्मों का निर्धारण करने के लिए यम दरवार सजाया जाता है ।
चित्रगुप्त उनके कर्मों का वर्णन करते है। झूठ बोलने पर श्रवण और श्रावणी गवाही प्रस्तुत करते हैं।
यमराज के द्वारा दंड निधारण करने पर उस आत्मा रूपी शरीर को यम यातना भोगनी होती है ।
पृथ्वी लोक जिसे नरक लोक भी कहा जाता है ।
जो इस पृथ्वी लोक में पापा करते है । उन्हें पुलिस रूपी यम दूत पकड़ते है ।
पकड़ने के बाद पुलिस पूछताछ के बाद न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है ।
न्यायलय में सबसे ऊपर बैठे जज साहब यम कि भूमिका में नजर आते है । और अपराधी को लाने का कारण पूछते है ।
नीचे बैठे वकील चित्रगुप्त के रूप में उसके द्वारा किए गए अपराधों को जज साहब को बताते है, कि इसने किस प्रकार अपराध किया है ।
न्यायालय में जो गवाह गवाही देते है । वे श्रवण और श्रावणी कि भूमिका में निभाते नजर आते है । फिर जज साहब के द्वारा अपराधी की सजा निर्धारित किया जाता है ।
गरुड़ पुराण में कहा गया है कि जो मानव शुभ कर्म करता है उसे यम के दूत कभी स्पर्श भी नहीं करते है ।
उसी प्रकार पृथ्वी लोक में जो मनुष्य शुभ कर्म करते हैं । उन्हें न्याय रूपी परमात्मा के द्वारा सुरक्षा प्रदान कि जाती है ।
बुधवार, 10 सितंबर 2025
खंड सूर्यग्रहण 21 सितंबर 2025
खंड सूर्यग्रहण --
खंड सूर्यग्रहण आश्विन मास के अमावस्या रविवार 21 सितंबर 2025 को लगने वाला खंड सूर्यग्रहण भारत में दृश्य नहीं होगा ।
यह ग्रहण न्यूज़ीलैंड पूर्वी मेलानेशिया, दक्षिणी पोलिनेशिया तथा पश्चिमी अंटार्कटिका वाले क्षेत्र में दिखाई देगा। भारतीय मानक समय अनुसार ग्रहण का प्रारंभ रात्रि में 11 pm बजे तथा मोक्ष रात्रि में 3 बजकर 24 am मिनट पर होगा ।
भारत में सूर्य ग्रहण नहीं दिखाई देने के कारण कोई भी सावधानी नहीं रखनी है । नित्य जीवन चर्या के अनुरूप कार्य करें । भारत में किसी पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
रविवार, 7 सितंबर 2025
तर्पणविधि
।। श्रीगणेशाय नमः ।।
।।अथ तर्पणविधिः ।।
श्राद्ध कर्ता प्रातः स्नानादि निवृत्ति के बाद शुद्ध आसान में पूर्वाभिमुख बैठकर आचमन प्राणायाम करके गणपति स्मरण करें।
यं ब्रह्म वेदान्तविदो वदन्ति ,परे प्रधानं पुरुष तथान्ये।
विश्वोद्गते: कारणमीश्वरं वा तस्मै नमो विघ्नविनाशनाय ॥
अभीप्सितार्थसिद्धयर्थं पूजितो यः सुरैरपि ।
सर्वविघ्नच्छिदे तस्मै गणाधिपतये नमः ।।
हाथ मे कुश जौ तिल जल लेकर संकल्प करें-
ॐ विष्णुः ३ नमः परमात्मने श्रीपुराणपुरुषोत्तमाय अत्र पृथिव्यां विष्णुप्रजापतिक्षेत्रे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतेऽमुक पुण्यक्षेत्रे ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमकलियुगस्य प्रथमचरणे षष्टयब्दानां मध्ये अमुक नाम संवत्सरे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकवासरान्वितायाम् अमुकतिथौ अमुकगो त्रोत्पन्नो अमुक नामाऽहं ममोपात्तदुरितक्षयाय देवर्षिमनुष्यपितॄणां स्वपितॄणा ञ्चाक्षयतृप्तितकामनया तर्पणमहं करिष्ये ।
जल में कुशा घुमावें --
ॐविश्वेदेवासआगत शृणुता मऽइमं हवम् । एवं व्वर्हीनिषीदत ॥१ ॥ ॐ विश्वेदेवाः शृणुतेमं हवम्मे येऽअन्तरिक्ष य उपद्यविष्ठ । येऽअग्निजिह्वा ऽउत वा यजत्रा आसद्यास्मिन्वर्हिषि मादयध्वम् ॥
नदी में अथवा जिस पात्र में तर्पण करना हो उसमें जो डाले।
ॐ भूर्भुवः स्व ब्रह्मादयो देवा इहागच्छन्तु । इहतिष्ठन्तु । गृह्णन्त्वेताञ्जला ञ्जलीन् ।
पूर्व की ओर मुंह करके कुश और जो मिले हुए जल से देवतीर्य हथेली में चारों अंगुलियो जहां से निकलती हैं , से एक एक अंजलि देकर तर्पण करें ।
ॐ ब्रह्मातृप्यताम् । ॐ विष्णुस्तृप्यताम् । ॐ रुद्रस्तृप्यताम् । ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम् । ॐ देवास्तृप्यन्ताम् । ॐ छन्दांसि तृप्यन्ताम् । ॐ वेदास्तृप्यन्ताम् । ॐ ऋषयस्तृप्यन्ताम् । ॐ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम् । ॐ गन्धर्वास्तुप्यन्ताम् । ॐ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम् । ॐ सव्वत्सर : सावयवास्तृप्यन्ताम् । ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम् । ॐ अप्सरसस्तृप्यन्ताम् । ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम् । ॐ नागास्तृप्यन्ताम् । ॐ सागरास्तृप्यन्ताम् । ॐ पर्वतास्तृप्यन्ताम् । ॐ सरितस्तृप्यन्ताम् । ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम् । ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम् । ॐ रक्षांसितृप्यन्ताम् । ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम् । ॐ सुपर्णास्तृप्यन्ताम् । ॐ भूतानि तृप्यन्ताम् । ॐ पशवस्तृप्यन्ताम् । ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् । ॐ ओषधयस्तृप्यन्ताम् । ॐ भूतनामश्चतुर्विधस्तृप्यताम् ।
निवीती होकर जनेऊ माला की तरह गले में लटका कर उत्तर की ओर मुंह करके अक्षतों से आवाहन करें फिर कुश और अक्षत मिले जल से मनुष्य तीर्थ अनामिका और कनिष्ठिका के मूल भाग से प्रत्येक को दो - दो अंजलि देकर तपंण करें ।
ॐ भूर्भुवः स्वःसनकादिसप्तमनुष्या इहागच्छन्त्विहतिष्ठन्तु गृह्णन्त्वेताजलाञ्जलीन् ।
ॐ सनकस्तृप्यताम् २ । ॐ सनन्दनस्तृप्यताम् २ ।ॐ सनातनस्तृप्यताम् २ । ॐ कपिलस्तृप्यताम् २। ॐ आसुरिस्तृप्यताम् २। ॐ वोढुस्तृप्यताम् २। ॐ पञ्चशिखस्तृप्यताम् २ ।
( तिलों से पितरों का आवाहन करें अपसव्य जनेऊ दायें कन्धे के ऊपर बायें हाथ से नीचे होकर दक्षिण की ओर मुख कर के तिल और कुशमोटक दोहरा मोड़ा हुआ कुश से पितृतीर्थ से अंगुष्ठ और तर्जनी के बीच से प्रत्येक को तीन - तीन अंजलि दे । )
ॐ उशन्तस्त्वा निधीमहयुशन्तः समिधीमहि उशन्नुशतऽआवह पितॄन्हविषे अत्तवे ।
ॐ भूर्भुवः स्वः कव्यवाडनलादयो दिव्यपितर इहागच्छन्तु , इहतिष्ठन्तु गृह्णन्त्वेताञ्जलाञ्जलीन् ।
ॐ कव्यवाडनलस्तृप्यताम् ३ । ॐ सोमस्तृप्यताम् ३।ॐ यमस्स्तृप्यताम् ३ । ॐ अर्यमा तृप्यताम् ३ । ॐ अग्निष्वात्ताः पितरस्तृप्यन्ताम् ३ । ॐ सोमपा पितरस्तृप्यन्ताम् ३ । ॐ बहिषदः पितरस्तृप्यन्ताम् ३ ।
( तिलों से १४ यमों का आवाहन करे और पितृतीर्थ से ही प्रत्येक को कुशमोटक और तिलमिश्रित ३/३ अंजलि दे । )
ॐ भूर्भुवः स्वः चतुर्दशयमा इहागच्छन्त्विह तिष्ठन्तु गृह्णन्त्वेताञ्जलाञ्जलीन् ।
ॐ यमाय नमः ३। ॐ धर्मराजाय नमः ३ । ॐ मृत्यवे नमः ३। ॐ अन्तकाय नमः ३ । ॐ वैवस्वताय नमः ३ । ॐ कालाय नमः ३ । ॐ सर्वभूतक्षयाय नमः ३ । ॐ औदुम्बराय नमः ३ ।ॐ दध्नाय नमः ३ । ॐ नीलाय नमः ३ । ॐ परमेष्ठिने नमः३ । ॐ वृकोदराय नमः३ । ॐ चित्राय नमः ३ । ॐचित्र गुप्ताय नमः ३।
इसके बाद इन मन्त्रों को पढ़े और फिर अपने पितरों का तर्पण करने के लिये तिलों से आवाहन करें ।
ॐ उदीरतामवरऽउत्परासऽउन्मद्धयमाः पितरः सोम्यासः । असुय्यऽईयुरवृकाऽऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु ।। ३ ।।
ॐ अङ्गिरसो नः पितरो नवग्रवाऽअथर्वाणो भृगवः सोम्यासः । तेषां व्वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ।। ४ ।।
ॐ आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः । अस्म्मिन्यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ।। ५ ।।
ॐ ऊज वहन्तीरमृतघृतम्पयः कीलालम्परिस्रुतम् । स्वधास्थ तर्पयत मे पितृन् । ६ ।।
ॐ पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः पितामहेभ्यः स्वधा यिभ्यः स्वधा नमः प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः । अक्षल्पितरोऽमीमदन्त पितरोऽतीतूपन्त पितरः शुन्धध्वम् ।। ७ ।।
ॐ ये चेह पितरो ये च नेह यांश्च विद्म याँ २॥ उच न प्रविद्म । त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञ सुकृतञ्जुषस्व ॥ ८ ॥
ॐ मधुव्वाताऽऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः माध्वीनः सन्त्वोषधीः ।। ९ ।। मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः मधुद्यौरस्तु नः पिता ।। १० ।। मधुमान्नो व्वनस्पतिर्मधुमाँ शाऽअस्तु सूर्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः ।। ११ ।।
ॐ मधु । मधु । मधु । ॐ तृप्यध्वम् । तृप्यध्वम् । तृप्यध्वम् ।
ॐ भूर्भुवः स्वः अस्मत्पितर इहागच्छन्त्विहतिष्ठन्तु गृह्णन्त्वेताञ्जलाञ्जलीन् ।
पिता पितामह प्रपितामह , माता , पितामही , प्रपिता मही का तर्पण करे , सकल्पपूर्वक गोत्र नाम उच्चारण करके तृप्यताम् , इदं जलं तस्मै स्वधा नमः कहे और तृप्यध्वम् को ३ बार उच्चारण करें । यदि सौतेली माँ हो तो उसका तर्पण भी मां के साथ ही करें ।
ॐ अद्येहेत्यादि देशकालौ संकीर्त्य अमुकगोत्रोऽस्मत्पिता अमुकशर्मा ( वर्मा गुप्तो वा ) वसुस्वरूपस्तृप्यताम् , तृप्यताम् , तृप्यताम् इदं जलं सतिलं तस्मै स्वधा नमः । तृप्यध्वम् , तृप्यध्वम् , तृप्यध्वम् ।।
ॐ अमुकगोत्रः अस्मत्पितामहोऽमुकशर्मा रुद्रस्वरूपस्तृप्यताम् ३ । इदं जलं सतिलं तस्मै स्वधानमः तृप्यध्वम् ३ ।
ॐ अमुकगोत्रोऽस्मत्प्रपितामहोऽमुकशर्मा आदित्यस्वरूपस्तृप्यताम् ३। इदं जलं सतिलं तस्मै स्वधानमः । तृप्यध्वम् ३ ॥
ततो मातृतर्पणम् ।
ॐ अमुकगोत्रा ऽस्मन्माता अमुक सुन्दरी देवी वसुस्वरूपा तृप्यताम् ३। इदं जलं सतिलं तस्यै स्वधानमः तृप्यध्वम् ३ ।
ॐ अमुकगोत्रास्मपितामही अमुकसुन्दरी देवी तृप्यताम् ३ । इदं जलं सतिलं तस्यै स्वधानमः तृप्यध्वम् ३।
ॐ अमुकगोत्रा अस्मत्प्रपितामही अमुकसुन्दरो देवी आदित्यस्वरूपा तृप्यताम् ३। इदं जलं तस्य स्वधानमः तृप्यध्वम् ३ ।
ॐ नमो वः पितरो रसाय नमो वः पितरः शोषाय नमो वः पितरो जीवाय नमो वः पितरः स्वधायै नमो वः पितरो घोराय नमो वः पितरो मन्यवे नमो वः पितरः पितरो नमो वो गृहान्नः पितरो दत्त सतो वः पितरो द्वेषम्मैतद्वः पितरो व्वासऽआधत्त ।। आधत्त पितरो गर्भकुमारम्पुष्करस्रजम् । यथेह पुरुषो सत् ।।
पूर्वोक्त प्रकार से मातामह आदि का तर्पण करें, नेनिहाल पक्ष
ॐ अद्यहेत्यादि - अमुक गोत्रोऽस्मन्मातामहः अमुक शर्मा सपत्नीको वसुस्वरूपस्तृप्यताम् ३ । इदं जलं तस्मै स्वधा नमः । तृप्यध्वम् ३ ।
ॐ अद्येह अमुकगी त्रोऽस्मत्प्रमातामहः अमुकशर्मा सपत्नीकः रुद्रस्वरूपस्तृप्यताम् ३ । इदं जलं तस्मै स्वधा नमः । तृप्यध्वम् ३ । ॐ अमुकगोत्रोऽस्मद्वद्धप्रमातामहोऽमुकशर्मा सप त्नीक आदित्यस्वरूपस्तृप्यताम् ३ । इदं जलं तस्मै स्वधा नमः । तृष्यध्वम् ३ ।
इसी प्रकार अन्य सपिण्डों आदि का तर्पण करके सामान्य तपंण करें ।
गुरवस्तृप्यन्ताम् ॐ आचार्यास्तृप्यन्ताम् ॐ शिष्यास्तृप्यन्ताम् ॐ बान्ध वास्तृप्यन्ताम् ॐ ज्ञातयस्तृप्यन्ताम् ।
ॐ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवर्षिपितुमानवाः ।
तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमातामहादयः ।। १ ।।
अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम् ।
आब्रह्म भुवनाल्लोकानिदमस्तु तिलोदकम् ।। २ ॥
आब्रह्मणो ये पितृवंशजाता मातुस्तथा वंशभवा मदीयाः ।
कुलद्वये ये मम संगताश्च तेभ्यः स्वधातोयमिदं ददामि ।।
देवासुरास्तथा नागा यक्षगन्धर्वकिन्नराः ।
पिशाचा गुह्यकाश्चैव कूष्माण्डा तरवस्तथा ।।
जलेचरा भूमिचरा वाय्वाहाराश्च जन्तवः ।
ते सर्वे तप्तिमायान्तु मद्दत्तेनाम्बुनाऽखिलाः ।।
नरकेषु समस्तेषु यातनासु च संस्थिता ।
तेषामाप्यायनायेतद्दीयते सलिलं मया ।।
यत्र क्वचन संस्थानां क्षुषोपहतात्मनाम् ।
इदमक्षय्यमेवास्तु मया दत्तं तिलोदकम् ।।
मातृवंशे मृता ये च पितृवंशे च ये मृताः ।
गुरुश्वसुरबन्धूनां ये चान्ये बान्धवा मृताः ।।
ये मे कुले लुप्तपिण्डाः पुत्रदारविजिताः ।
क्रियालोपगता ये च जात्यन्धाः पङ्गवस्तथा ॥
विख्पा आमगर्भाश्च ज्ञाताऽज्ञाताः कुले मम ।
तेषामाप्यायनायै तद, दीयते सलिलं मया ।।
येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवाः ।
ते सर्वे तृप्तिमायान्तु येऽस्मत्तोयाभिकाक्षिणः । ।
यदि नदी में स्नान करके तर्पण कर रहे हों तो स्नान वस्त्र अन्यथा यज्ञोपवीत जल में भिगोकर इस मन्त्र से गार दें ।
ये चास्माकं कुले जाता अपुत्रा गोत्रिणो मृताः ।
ते गृह्णन्तु मया दत्तं वस्त्रनिष्पीडनोदकम् ।।
सव्य जनेऊ बायें कन्धे दाहिने हाथ के नीचे करके आचमन करें , चन्दन से तर्पण के जल में षड़दल कमल बनाकर गन्धाक्षत फूल और तुलसीदल से ब्रह्मा आदि का पूजन करें ।
ॐ ब्रह्मयज्ञानम्प्रथमम्पुरस्ताद्विसीमतः सुरुचो व्वेन आवः ।
स बुध्न्याऽउपमा अस्यविष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च व्विव ।।
ॐ ब्रह्मणे नमः ।। १ ।।
ॐ इदं विष्णु विचक्रमे त्रेधा निदघे पदम् ।समूढमस्य पांसुरे स्वाहा ।
ॐ विष्णवे नमः ॥२ ॥
ॐ नमस्ते रुद्रमन्यव उतोतइषवे नमः बाहुभ्यामुतते नमः ।
ॐ रुद्राय नमः ।।३ ।।
ॐ आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च हिरण्ययेन सविता रथेन देवो याति भुवनानि पश्यन् ।
ॐ सूर्याय नमः ।। ४ ।।
ॐ मित्रस्य चर्षणी धृतो वो देवस्य सानसि ।
द्युम्नं चित्रश्रवस्तमम्।
ॐ मित्राय नमः ।। ५ ।।
ॐ इमम्मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृडय त्वामवस्यु राचके ।
ॐ वरुणाय नमः ।। ६ ।।
सूर्य को अर्ध दें ।
एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते ।
अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणा गृहाणार्घ्यं दिवाकर ।।
सूर्योपस्थानम्-
ॐ अदृश्श्रमस्य केतवो चिरश्मयो जना अनुभ्राजन्तोऽअग्नयो
ॐ हंसः शुचिषद्वसुरंन्तरिक्षसद्धोताव्वेदिसदतिथिर्दुरोणसत् वृषद्वरस दृतसद्वयोमसदब्जा गोजाऽऋतजाअद्रिजाऽनतम्बृहत् ॥ २॥
दिशाओं और उनके देवताओं को नमस्कार करें -
ॐ प्राच्यै दिशे नमः ॐ इन्द्राय नमः । ॐ आग्नेय्य दिशे नमः ॐ अग्नये नमः । ॐ दक्षिणायै दिशे नमः । ॐ यमाय नमः ।ॐ नैऋत्यै दिशे नमः । ॐ निऋतये नमः । ॐ पश्चिमायै दिशे नमः । ॐ वरुणाय नमः । ॐ वायव्यै दिशे नमः । ॐ वायवे नमः । ॐ उदीच्यै दिशे। ॐ कुबेराय नमः । ॐ ऐशान्यै नमः । ॐ ईशानाय नमः । ॐ ऊर्ध्वायै दिशे नमः । ॐ ब्रह्मणे नमः । ॐ अधोदिशे नमः । ॐ अनन्ताय नमः।
पुनः देवतीर्थ से केवल जल से तर्पण करें ।
ॐ ब्रह्मणे नमः ॐ अग्नये नमः ॐ पृथिव्यै नमः ॐ ओषधिभ्यो नमः ॐ वाचे नमः ॐ वाचस्पतये नमः ॐ विष्णवे नमः ॐ महद्भूयो नमः ॐ अद्भयो नमः ॐ अपांपतये वरुणाय नमः । तर्पण किये हुए जल से मुख का मार्जन करें ।
ॐ संब्वर्चसा पयसा संतनूभिरगन्महि मनसा सं शिवेन ।।
त्वष्टा सुदत्त्रो विदधातुरायो न माष्टुं तन्न्वो यद्विलिष्टम् ।।
विसर्जन करें --
ॐ देवा गातु विदो गातु वित्त्वा गातुमित ।
मनसस्पतऽइमं देवयज्ञं स्वाहा व्वातेधाः ।।
आचमनी करके विष्णु जी का स्मरण करें।
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु ।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम् ।।
।।ॐ अच्युतायनमः ३ ।।
अनेन तर्पणा ख्येन कर्मणा तेन श्री नारायण देवताः प्रीयतां न मम।
।इति तर्पणविधिः सम्पूर्णः ।
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आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
शनिवार, 6 सितंबर 2025
अनन्त चतुर्दशी
अनन्त चतुर्दशी
( भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी )
यह व्रत भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी को किया जाता है । इसमें उदय तिथि ली जाती है । पूर्णिमा का सहयोग होने से इसका बल बढ़ जाता है । यदि मध्याह्न तक चतुर्दशी रहे तो और भी अच्छा है। व्रती को चाहिए कि प्रातःकाल नित्य क्रिया आदि से निवृत्त होकर शुद्ध स्थान में चौकी पर मण्डप बनाकर उसमें भगवान् की साक्षात् प्रतिमा या कुशा से बनाई हुई सात फणों वाली शेष स्वरूप अनन्त (विष्णु) मूर्ति स्थापित करे । रेशम या सूत,कच्चे डोरे को हल्दी में रंग कर चौदह गांठ लगाए चौदह गांठ का अनन्त पूजा स्थान में रखे, और आचार्य द्वारा पूजा प्रतिष्ठा करावें। भगवान अनन्त स्वरूप का ध्यान कर गन्ध , अक्षत , पुष्प ,धूप , दीप , नैवेद्य आदि से पूजन करे । तत्पश्चात् अनन्त देव का ध्यान करके अनन्त को धारण करना चाहिए,पुरुष अपनी दाहिनी भुजा में बांध ले ।महिला यह डोरा बाई भुजा में बांधे।यह १४ गांठ का डोरा अनन्त फल देने और भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला होता है। जो मनुष्य इस १४ गांठ के अनन्त को १४ वर्ष धारण करता है। वह सदा के लिए विष्णु लोक में स्थान प्राप्त करता है।
जिस घर मे भगवान अनन्त देव का पूजन होता है । वहाँ के क्लेश दुःख दरिद्रता वस्तु दोष दूर होता है।
अनन्त धारण मंत्र-
अनन्तः कामदः श्रीमाननन्तो दोररूपकः।
अनन्त कामान्मे देहि पुत्रपौत्र विवर्द्धन ।।१।।
अनन्त संसार महा समुद्रे
मग्नं समभ्युध्दर वासुदेव।
अनन्तरुपे विनियोजयस्व
अनन्त सूत्राय नमो नमस्ते।।२।।
भगवान सत्यनारायण के समान ही अनन्तदेव भी भगवान विष्णु का ही एक अन्य नाम है । यही कारण है कि इस दिन सत्यनारायण का व्रत और कथा का आयोजन प्रायः ही किया जाता है । जिसमें सत्यनारायण की कथा के साथ - साथ अनन्त देव की कथा भी सुनी जाती है ।
अनंत चतुर्दशी की पौराणिक कथा -
एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय यज्ञ मंडप का निर्माण सुंदर तो था ही, अद्भुत भी था वह यज्ञ मंडप इतना मनोरम था कि जल व थल की भिन्नता प्रतीत ही नहीं होती थी। जल में स्थल तथा स्थल में जल की भांति प्रतीत होती थी। बहुत सावधानी करने पर भी बहुत से व्यक्ति उस अद्भुत मंडप में धोखा खा चुके थे।
एक बार कहीं से टहलते-टहलते दुर्योधन भी उस यज्ञ-मंडप में आ गया और एक तालाब को स्थल समझ उसमें गिर गया। द्रौपदी ने यह देखकर 'अंधों की संतान अंधी' कह कर उनका उपहास किया। इससे दुर्योधन चिढ़ गया।
यह बात उसके हृदय में बाण समान लगी। उसके मन में द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने पांडवों से बदला लेने की ठान ली। उसके मस्तिष्क में उस अपमान का बदला लेने के लिए विचार उपजने लगे। उसने बदला लेने के लिए पांडवों को द्यूत-क्रीड़ा में हरा कर उस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने पांडवों को जुए में पराजित कर दिया।
पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पांडवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा। वन में रहते हुए पांडव अनेक कष्ट सहते रहे। एक दिन भगवान कृष्ण जब मिलने आए, तब युधिष्ठिर ने उनसे अपना दुख कहा और दुख दूर करने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा- 'हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनंत भगवान का व्रत करो, इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा।'
इस संदर्भ में श्रीकृष्ण ने उन्हें एक कथा सुनाई -
प्राचीन काल में सुमंत नाम का एक तपस्वी ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। उसकी एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थी। जिसका नाम सुशीला था। सुशीला जब बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई।
पत्नी के मरने के बाद सुमंत ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया। सुशीला का विवाह ब्राह्मण सुमंत ने कौंडिन्य ऋषि के साथ कर दिया। विदाई में कुछ देने की बात पर कर्कशा ने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बांध कर दे दिए।
कौंडिन्य ऋषि दुखी हो अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए। परंतु रास्ते में ही रात हो गई। वे नदी तट पर संध्या करने लगे। सुशीला ने देखा- वहां पर बहुत-सी स्त्रियां सुंदर वस्त्र धारण कर किसी देवता की पूजा पर रही थीं। सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनंत व्रत की महत्ता बताई। सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांध कर ऋषि कौंडिन्य के पास आ गई।
कौंडिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी। उन्होंने डोरे को तोड़ कर अग्नि में डाल दिया, इससे भगवान अनंत जी का अपमान हुआ। परिणामत: ऋषि कौंडिन्य दुखी रहने लगे। उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। इस दरिद्रता का उन्होंने अपनी पत्नी से कारण पूछा तो सुशीला ने अनंत भगवान का डोरा जलाने की बात कहीं।
पश्चाताप करते हुए ऋषि कौंडिन्य अनंत डोरे की प्राप्ति के लिए वन में चले गए। वन में कई दिनों तक भटकते-भटकते निराश होकर एक दिन भूमि पर गिर पड़े। तब अनंत भगवान प्रकट होकर बोले- 'हे कौंडिन्य! तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा। तुम दुखी हुए। अब तुमने पश्चाताप किया है। मैं तुमसे प्रसन्न हूं। अब तुम घर जाकर विधिपूर्वक अनंत व्रत करो। चौदह वर्ष पर्यंत व्रत करने से तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा। तुम धन-धान्य से संपन्न हो जाओगे। कौंडिन्य ने वैसा ही किया और उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई।
श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनंत भगवान का व्रत किया जिसके प्रभाव से पांडव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक राज्य करते रहे।
आचार्य हरीश लखेड़ा
मो 9004013983
गुरुवार, 4 सितंबर 2025
खग्रास चंद्रग्रहण (7 सितंबर2025)
श्री संवत 2082 सन 2025 में लगने वाला साल का पहला चंद्रग्रहण
यह चंद्रग्रहण भाद्रपद पूर्णिमा तिथि रविवार 7 सितंबर 2025 को लगने वाला खग्रास चंद्र ग्रहण है । यह ग्रहण भारत मैं दिखाई देगा ।
यह चंद्रग्रहण भारत के सभी भागों में दिखाई देगा । शुरू से लेकर अंतिम तक या ग्रहण दिखाई देगा
ग्रहण समय--
भारत में यह ग्रहण भारतीय समय के अनुसार ग्रहण का प्रारंभ रात्रि 9:57 पर शुरू होगा।
ग्रहण मध्य, मध्य रात्रि 11:41 पर
ग्रहण मोक्ष रात्रि 1:27 पर होगा ग्रहण का स्पर्श ,मध्य, मोक्ष पूरे भारत में दिखाई देगा ।
ग्रहण फल--
यह ग्रहण मिथुन ,कर्क ,सिंह ,तुला ,वृश्चिक ,मकर ,कुंभ ,मीन राशि वालों के लिए कष्टकारी होने वाला है।
ग्रहण सावधानी --
जिन राशियों के लिए ग्रहण भारी होने वाला है। उन्हें चंद्र ग्रहण का दर्शन नहीं करना चहिए ।
जो बहनें पेट से हैं । उन्हें भी यह ग्रहण का दर्शन नहीं करना चाहिए ।
ग्रहण काल मे भोजन पानी का निषेध करें ।
ग्रहण काल मे हरिनाम संकीर्तन करें ।
जप दान करें।
गंगा स्नान करें ।
विशेष --
ग्रहण काल में किया गया जप और दान अक्षय पुण्य देने वाला सिद्धि देने वाला होता है।
मंगलवार, 8 जुलाई 2025
डॉक्टर से कैसे बचें
चैते गुड़ बैसाखे तेल, जेठे पन्थ असाढ़े बेल।
सावन साग न भादों दही, क्वार करेला न कातिक मही।।
अगहन जीरा पूसे धना, माघे मिश्री फागुन चना।
ई बारह जो देय बचाय, वहि घर बैद कबौं न जाय।।
शब्दार्थ- पन्थ-यात्रा, मही- माठा, धना-धनिया।
भावार्थ- यदि व्यक्ति चैत में गुड़, बैसाख में तेल, जेठ में यात्रा, आषाढ़ में बेल, सावन में साग, भादों में दही, क्वाँर में करेला, कार्तिक में मट्ठा अगहन में जीरा, पूस में धनिया, माघ में मिश्री और फागुन में चना, ये वस्तुएँ स्वास्थ्य के लिए कष्टकारक होती हैं। जिस घर में इनसे बचा जाता है, उस घर में वैद्य कभी नहीं आता क्योंकि लोग स्वस्थ बने रहते हैं।
सोमवार, 7 जुलाई 2025
हरिशयनी एकादशी
हरिशयनी या देवसोनी एकादशी ( आषाढ़ शुक्ला एकादशी ) आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को हरिशयनी अथवा देवसोनी एकादशी कहते हैं । इस दिन से भगवान् विष्णु चार मास के लिए क्षीर - सागर में शयन करते है । पुराणों में यह भी कहा गया है कि इस दिन से विष्णु भगवान चार मास तक बलि के द्वार पर पाताल में रहते हैं और कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी को लौटते हैं। इसी कारण इस एकादशी को हरि शयनी एकादशी और कार्तिक शुक्ला एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं । इन चार महीनों में भगवान विष्णु के क्षीर सागर में शयन करने के कारण विवाह आदि कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता । आषाढ़ से कार्तिक तक का यह समय “ चातुर्मास्य " कहलाता है । इन दिनों में साधु एक ही स्थान पर रहकर तपस्या करते हैं । ब्रह्मवैवर्त पुराण में इस एकादशी का विशेष माहात्म्य लिखा है । इस व्रत के करने से सभी पाप - नष्ट होते हैं और भगवान हृषीकेश प्रसन्न होते हैं । लगभग सभी एकादशियों को भगवान विष्णु की पूजा - आराधना की जाती है , परन्तु आज की रात्रि से तो भगवान का शयन प्रारम्भ होगा अतः उनकी विशेष विधि - विधान से पूजा की जाती है । भगवान विष्णु की प्रतिमा को आसन पर आसीन कर उनके हाथों में शंख , चक्र , गदा , पद्म सुशोभित कर उन्हें पीताम्बर , पीत वस्त्रों या पीले दुपट्टे से सजाया जाता है । पंचामृत से स्नान करवा कर तत्पश्चात् भगवान् की धूप , दीप , पुष्प इत्यादि से पूजाकर घृत दीपक से आरती उतारी जाती है । भगवान् को तांबूल ( पान ) और मुंगीफल ( सुपारी ) अर्पित करने के बाद निम्नलिखित मंत्र द्वारा भगवान् की स्तुति की जाती है । " सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जमत्सुप्तं भवेदिदम् । विबुद्धे त्वयि बुद्धं च जगत्सर्व चराचरम् ।। "
भावार्थ - हे जगन्नाथ जी आपके निद्रित हो जाने पर सम्पूर्ण विश्व निद्रित हो जाता है और आपके जाग जाने पर सम्पूर्ण विश्व तथा चराचर भी जाग्रत हो जाते हैं । इस प्रकार प्रार्थना करके भगवान् विष्णु का पूजन करना चाहिये । तत्पश्चात् सात्विक वेद पाठी ब्राह्मणों को प्रेम पूर्वक भोजन कराकर स्वयं फलाहार करना चाहिये । रात्रि में भगवान् के मन्दिर में ही शयन करना चाहिये तथा शयन करते समय भगवान् का भजन एवं स्तुति करनी चाहिये । स्वयं निद्रित होने के पूर्व भगवान् को भी शयन करा देना चाहिये । अनेक परिवारों में आज रात्रि को महिलाए पारिवारिक परम्परा के अनुसार देवों को सुलाती हैं । जो श्रद्धालु जन इस एकादशी को पूर्ण विधिविधान पूर्वक भगवान का पूजन करते और व्रत रखते हैं वे मोक्ष को प्राप्त कर भगवत् लीन हो जाते हैं । कथा - एक बार नारदजी ने ब्रह्माजी से हरिशयनी एकादशी के माहात्म्य के बारे में पूछा । ब्रह्माजी ने कहा कि सत्ययुग मान्धाता नगर में एक चक्रवर्ती राजा राज्य करता था । उसके राज्य में सब प्रजा आनन्द से रहती थी । एक बार लगातार तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण उसके राज्य में भयानक अकाल पड़ा । प्रजा व्याकुल हो गई । सब ओर त्राहि - त्राहि मचने लगी । यज्ञ , हवन , पिण्डदान आदि समस्त शुभ कर्म बन्द हो गए । प्रजा ने राजा से दरबार में जाकर दुहाई मचाई । राजा ने कहा आप लोगों का कष्ट भारी है । मैं प्रजा की भलाई के हेतु पूरा प्रयत्न करूंगा । इस प्रकार प्रजा को समझा - बुझा कर राजा मान्धाता सेना अपने साथ लेकर वन की ओर चल दिये ।
अब वे ऋषि - मुनियों के आश्रम में विचरने लगे । एक दिन वे ब्रह्माजी के तेजस्वी पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम पर पहुंचे । राजा ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया । मुनि ने उन्हें आशीर्वाद देकर कुशल - मंगल पूछी और उनका वन में आने का अभिप्राय जानना चाहा । राजा ने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि हे भगवान सब प्रकार से धर्म का पालन करते हुए भी मेरे राज्य में अकाल पड़ा । मैं इसका कारण नहीं जानता । हे महामुने मेरा संशय दूर कीजिए । ऋषि ने कहा - राजन् ! यह सत्ययुग सब युगों से उत्तम है । इसमें थोड़े से पाप का भी बड़ा भारी फल मिलता है । इसमें लोग ब्रह्म की उपासना करते हैं । इसमें धर्म अपने चारों चरणों में स्थित रहता है । इसमें ब्राह्मणों के अतिरिक्त और कोई तप नहीं करता । तुम्हारे राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है , इसलिए वर्षा नहीं होती । यदि वह न मारा गया तो दुर्भिक्ष शान्त नहीं होगा । उसको मारने से ही पाप की शान्ति होगी । राजा ने उस निरपराध तपस्वी को मारना उचित न विचार कर ऋषि से अन्य उपाय पूछा । तब ऋषि ने बताया कि आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की हरशयनी अर्थात् पद्मा एकादशी का व्रत करो । उसके प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी । यह सुनकर राजा राजधानी में लौट आया और उसने चारों वर्णों सहित पद्या एकादशी का व्रत किया । व्रत के प्रभाव से वर्षा हुई और पृथ्वी अन्न से परिपूर्ण हो गई , जिससे सबका कष्ट दूर हो गया ।
शुक्रवार, 27 जून 2025
शुक्रवार, 20 जून 2025
ॐ जय गौरी नंदा
ओम जय गौरी नंदा: भजन (Om Jai Gauri Nanda)
ॐ जय गौरी नंदा,
प्रभु जय गौरी नंदा,
गणपति आनंद कंदा,
गणपति आनंद कंदा,
मैं चरणन वंदा,
ॐ जय गौरी नंदा ॥
सूंड सूंडालो नयन विशालो,
कुण्डल झलकंता,
प्रभु कुण्डल झलकंता,
कुमकुम केसर चन्दन,
कुमकुम केसर चन्दन,
सिंदूर बदन वंदा,
ॐ जय गौरी नंदा ॥
ॐ जय गौरी नंदा,
प्रभु जय गौरी नंदा,
गणपति आनंद कंदा,
गणपति आनंद कंदा,
मैं चरणन वंदा,
ॐ जय गौरी नंदा ॥
मुकुट सुगढ़ सोहंता,
मस्तक सोहंता,
प्रभु मस्तक सोहंता,
बईया बाजूबन्दा,
बईया बाजूबन्दा,
ओंची निरखंता,
ॐ जय गौरी नंदा ॥
ॐ जय गौरी नंदा,
प्रभु जय गौरी नंदा,
गणपति आनंद कंदा,
गणपति आनंद कंदा,
मैं चरणन वंदा,
ॐ जय गौरी नंदा ॥
मूषक वाहन राजत,
शिव सूत आनंदा,
प्रभु शिव सूत आनंदा,
कहत शिवानन्द स्वामी,
जपत शिवानन्द स्वामी,
मिटत भव फंदा,
ॐ जय गौरी नंदा ॥
ओम जय गौरी नंदा,
प्रभु जय गौरी नंदा,
गणपति आनंद कंदा,
गणपति आनंद कंदा,
मैं चरणन वंदा,
ॐ जय गौरी नंदा ॥
हरेला त्योहार (हरियाली )
उत्तराखंड का लोक त्योहार हरेला (हरियाली)
(कर्क संक्रान्ति १ गते श्रावण मास)
उत्तराखंड में समय समय पर ऋतु व संक्रान्ति के आगमन पर अनेक त्योहार मनाये जाते है । जिनकी प्रसिद्धि पूरे उत्तराखंड व देश विदेशों में दिखायी देता है । हरेला त्यौहार मूलरूप से उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में विशेष हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है ।
हरेला त्यौहार हरियाली ,प्रकृति संरक्षण का प्रतीक है ,जो हमे पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है।सावन के आगमन पर लोग वृक्षारोपण करते है। यह हरेला त्यौहार प्रकृति की रक्षा व सुख शांति के लिये मनाया जाता है। जिसमें सभी जन मानुष प्रकृति की रक्षा का संकल्प लेते है ।
हरेला का त्यौहार भगवान शिव व शिव परिवार को समर्पित है ।सावन के आगमन पर लोग अपने घरों में मिट्टी से शिव परिवार की मूर्ति बनाकर अभिषेक पूजन करते है । मान्यताओं के अनुसार हरेले के दिन भगवान शिव व पार्वती जी का विवाह हुआ था ।इस लिये भगवान शिव जी को सावन का महीना प्रिय है ।
हरेला त्यौहार -
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हरेला त्यौहार श्रावण मास के १गते कर्क संक्रान्ति को मनाया जाता है । हरेला त्यौहार के नौ दिन ,दश दिन ,ग्यारह दिन पूर्व बांस या रिंगाल से बनी टोकरी में मिट्टी डालकर उसमे पांच या सात प्रकार के धान्य जौ ,धान ,गहत ,भट्ट ,मक्का , सरसों ,कपास, झुंगर बोते है । रोज सुबह बोये हरेले में पानी दिया जाता है ।नौ दिन तक हरेले पर सूर्य का प्रकाश नही पड़ना चाहिए । हरेला घर के मंदिर या सामूहिक रूप से गाँव या परिवार के कुलदेवता के मंदिर में बोते है ।
हरेला त्यौहार के दिन प्रातः स्नानादि से निवृत हो हरेला व देवताओं की पूजा करके हरेला काट कर प्रथम देवताओं को अर्पित किया जाता है ।फिर घर के बड़े बुजुर्ग या माताओं के हाथों से सबके सिर व कान में लगाया जाता है ।
हरेला लगाते समय माँ अपने बच्चों को शुभ आशीष देते हुवे कहती है ।
आशीष वचन -
लाग हर्या लाग पंचमी
लाग दशै लाग बोगाव
जी रये जागि रये
यो दिन यो मास भेंटने रया
दुब जस पनपी जाया
अगास जस उच्च
धरती जस चकाव हे जाया
शेर जस तराण हो
स्याव जस बुद्धि हो
हिमालय में हिंयु रण तलक
गंग जमुन में पाणि रण तलक
जी रये जागि रये
जो परिवार के सदस्य नॉकरी या अन्य कार्यो के लिए दूसरे शहरों में रहते है। उन्हें लिफाफे में हरेला डालकर डाक द्वारा भेजा जाता है ।
आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
रविवार, 15 जून 2025
संध्योपासन विधि
सध्या वंदन
( १ ) पवित्रीकरणम्
बाये हाथ मे जल लेकर दाहिने हाथ से जल का छिड़काव शरीर पर करें ।
ॐ अपवित्र: पवित्रो वेत्यस्य वामदेव ऋषि: विष्णुर्देवता गायत्रीच्छन्द: हृदि पवित्रकरणे विनियोग:।
ॐ अपवित्र पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:।।
( २ ) त्रिराचमनम्
तीन बार जल पीवे चौथे में जल छोड़ दे ।
अन्तर्जानुहस्त: संहताङ्गुलिना शुद्धजलं गृहीत्वा मुक्ताङगुष्ठकनिष्ठेनवामेनान्वारब्धपाणिना ब्रह्मतीर्थेन त्रिरप: पिबेत्।
१ ॐ केशवाय नमः
२ ॐ नारायणाय नमः
३ ॐ माधवाय नमः
४ ॐ हृषीकेशाय नमः
( ३ ) आसनशुद्धि:
एक चम्मच जल लेकर आसन शुद्धि करे ।
ॐ पृथ्वीतिमन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषि: सुतलं छन्द: कूर्मो देवता आसने विनियोग:।
ॐ पृथ्वि त्वया धता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम्।।
( ४ ) पवित्रीधारणम्
कुश से निर्मित पवित्री अनामिका अंगुली में धारण करें ।
ॐ पवित्रेस्थोव्वैष्णव्यौ सवितुर्व: प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभि: । तस्य ते पवित्रते पवित्रपूतस्य यत्काम: पुनेतच्छकेयम्।।
( ५ ) त्र्यायुषमित्यस्य नारायण ऋषि: रुद्रो देवता उष्णिक्छन्द: भस्मधारणे विनियोग:।
( ६ ) स्वस्ति - तिलक धारणम्
चंदन या कुमकुम का तिलक धारण करें ।
ॐ स्वस्ति नऽइन्द्रोव्वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषाव्विश्ववेदा:। स्वस्ति नस्तार्क्षोऽअरिष्टनेमि: स्वस्ति नो बृहस्पतिर्द्दधातु।।
( ७ ) ॐ मानस्तोक इति मन्त्रस्य कुत्स ऋषि: जगती छन्द: एको रुद्रो देवता शिखाबन्धने विनियोग:।
ॐ मानस्तोकेतनये मानऽआयुषि मानोगोषु मानोऽअश्वेषुरीरिष:। मानोव्वीरान्नुद् द्रभामिनोव्वधी र्हविष्म्मन्त: सदमित्वाहवामहे।।
चिद्रूपिणि महामाये दिव्यतेज: समन्विते।
तिष्ठ देवि शिखाबन्धे तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे।।
( ८ )संकल्प:
ॐ शुभे शोभनेमुहुर्ते अद्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेयवाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशान्तर्गते पुण्यक्षेत्रे ------ कलियुगे कलिप्रथमचरणे ------- सम्वत्सरे ------- मासे ------- पक्षे -------- तिथौ -------- वासरे ------- नक्षत्रे ------- योग -------- ममोपात्तदुरितक्षयार्थं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं ब्रह्मवर्चस्वाप्तये
प्रात:/मध्याह्न/सायं संध्योपासनं करिष्ये।
( ९ ) अघमर्षणाचमनम्
विनियोग:--
ॐ ऋतं चेति त्र्यचस्य माधुच्छन्दसोऽघमर्षण ऋषिरनुष्टुप्छन्दो भाववृत्तं दैवतमपामुपस्पर्शने विनियोग:।
ॐ ऋतं च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।
ततो रात्र्यजायत तत: समुद्रोअर्णव:।।
समुद्रादर्णवादधिसंवत्सरो अजायत।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वंशी।।
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।
दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्व:।।
( १० ) प्राणायाम:
विनियोगः--
ॐ कारस्यब्रह्मऋषिर्दैवीगायत्रीछन्द: परमात्मादेवता सप्तव्याहृतीनां प्रजापतिर्ऋषिर्गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहती पंक्तित्रिष्टुब्जगत्यश्छन्दांस्यग्नि वायु सूर्य बृहस्पतिर्वरुणेन्द्रविश्वेदेवादेवता: तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्द: सविता देवता आपोज्योतिरितिशिरस: प्रजापतिर्ऋषिर्यजुश्छन्दो ब्रह्माग्निवायुसूर्या देवता: प्राणायामे विनियोग:।
ॐ भू: ॐ भुव: ॐ स्व: ॐ मह: ॐ जन: ॐ तप: ॐ सत्यम् ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
ॐ आपो ज्योति रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्।।
( ११ ) प्रातराचमनम्
सूर्यश्च मेति नारायण ऋषि: प्रकृति श्छन्द: सूर्यमन्युमन्युपतयो रात्रिश्च देवता अपामुपस्पर्शने विनियोग:।
ॐ सूर्यश्च मामन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्य: पापेभ्योरक्षन्ताम् यद्रात्र्या पापमकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां पभ्द्यामुदरेण शिश्ना रात्रिस्तदवलुम्पतु । यत्किञ्च दुरितं मयि इदमहं माममृतयोनौ सूर्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा ।।
( १२ ) मध्याह्नाचमनम्
आप: पुनन्त्विति मंत्रस्य नारायण ऋषि: अनुष्टुप् छन्द: आप: पृथिवी, ब्रह्मणस्पतिर्ब्रह्म च देवता अपामुस्पर्शने विनियोग: ।
ॐ आप: पुनन्तु पृथिवीं पृथिवी पूता पुनातु माम् ।
पुनन्तु ब्रह्मणस्पतिर्ब्रह्मपूता पुनातु माम्।
यदुच्छिमभोज्यं च यद्वा दुश्चरितं मम।
सर्वे पुनन्तु मामापोऽसतां च प्रति ग्रह गुं स्वाहा ।।
( १३ ) सायमाचमनम्
अग्निश्चमेति नारायण ऋषि: प्रकृतिश्छन्दोग्निमन्युमन्युपतयोऽहश्च देवता अपामुपस्पर्शने विनियोग: ।
ॐ अग्निश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्य: पापेभ्यो रक्षन्ताम् यदह्ना पापमकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां पभ्द्यामुदरेण शिश्ना अहस्तदवलुम्पतु ।
यत्किञ्च दुरितं मयि इदमहं माममृतयोनौ सत्ये जुहोमि स्वाहा ।।
( १३ ) मार्जनम्
ॐ आपो हिष्ठेति त्र्यचस्य सिन्धुद्विप ऋषिर्गायत्री छन्द: आपोदेवता मार्जने विनियोग: ।
ॐ आपो हिष्ठा मयो भुव:।
ॐ ता न ऊर्जे दधितन।
ॐ महे रणाय चक्षसे।
ॐ तो व: शिवतमो रस:।
ॐ तस्य भाजयतेह न:।
ॐ ऊशतीरिव मातर।
ॐ तस्या अरङ्गमाम व:।
ॐ यस्य क्षयाय जिन्वथ।
ॐ आपो जनयथा च न:।
( १४ ) अभिमन्त्रणम्
द्रुपदादिवेत्यश्विसरस्वतीन्द्रा ऋषियोऽनुष्टुप्छन्द आपो देवता शिरस्सेके विनियोग।
ॐ द्रुपदादिव मुमुचान: स्विन्न: स्नातो मलादिव ।
पूतं पवित्रेणेवाज्यमाप: शुन्धन्तु मैनस:।।
( १५ ) अघमर्षणम्
ऋतञ्चेतित्र्यचस्यमाधुच्छन्दसोऽघमर्षण ऋषि: अनुष्ठुप्छन्दोभाववृतं दैवतमघमर्षणे विनियोग:।
ॐ ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।
ततो रात्र्यजायत तत: समुद्रोअर्णव।।
समुद्रादर्णवादधिसंवत्सरो अजायत।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।।
सुर्याचन्द्रमासौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत्।
दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्व:।।
( १६ ) आचमनम्
अन्तश्चरसीति तिरश्चीन ऋषिरनुष्टुप्छन्द: आपो देवता अपामुपस्पर्शने विनियोग:।
ॐ अन्तश्चरसि भूतेषु गुहायां विश्वतोमुख: ।
त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कार आपो ज्योती रसोऽमृतम्।।
( १७ ) सूर्यार्घ्यम्
कारस्य ब्रह्म ऋषिर्दैवी गायत्री छन्द: परमात्मा देवता तिसृणां महाव्याहृतीनां प्रजापतिर्ऋषिर्गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्छन्दांस्यग्निवायुसूर्यो देवता तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्द: सविता देवता सूर्यार्घ्यदाने विनियोग:।
ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेणयं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
( इस मंत्र से सूर्यनारायण भगवान को तीन बार अर्घ्य दें )
( १८ ) सूर्योपस्थानम्
उद्वयमिति प्रस्कण्व ऋषि: अनुष्टुप्छन्द: सूर्यो देवता उदुत्यमिति प्रस्कण्व ऋषि: निचृद्गायत्री छन्द: सूर्यो देवता तच्चक्षुरिति दध्यडाथर्वण ऋषि: एकाधिका ब्राह्मी त्रिष्टुप्छन्द: सूर्यो देवता सूर्योपस्थाने विनियोग:।
ॐ उद्वयं तमसस्परि स्व: पश्यन्त उत्तरम्।
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ।।
ॐ उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतव:।
दृशे विश्वाय सूर्यम् ।।
ॐ चित्रं देवानामुदनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्ने:।आप्राद्यावापृथ्वी अन्तरिक्ष गुं सूर्यऽआत्मा जगतस्तस्थुषश्च।।
ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छक्रमुच्चरत्।
पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शत गुं श्रृणुयाम शरद: शतं प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: स्याम शरद: शतं भूयश्च शरद: शतात् ।।
( १९ ) न्यास:
प्रतिमत्रं दक्षिणेन पाणिना वामकरस्थितोयैरभिषिञ्चेत्।
ॐ भू: पुनातु - शिरसि।
ॐ भुव: पुनातु - नेत्रयो:।
ॐ स्व: पुनातु - कण्ठे।
ॐ मह: पुनातु - हृदये।
ॐ जन: पुनातु - नाभ्याम्।
ॐ तप: पुनातु - पादयो:।
ॐ सत्यं पुनातु - पुनः शिरसि।
( २० ) गायत्र्यावाहनम्
तेजोऽसीति धामनामासि च परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिर्यजुस्त्रिष्टुबुगुष्णिहौछन्दसा सविता देवता गायत्र्यावाहने विनियोग:।
ॐ तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि।
धामनामासि प्रियं देवनामनाधृष्टं देवयजनमसि।।
गायत्रीध्यानम्
ॐ श्वेतवर्णा समुद्दिष्टा कौशेयवसना तथा ।
श्वेतैर्विलेपनै: पुष्पैरलङ्कारैश्च भूषिता ।।
आदित्यमण्डलस्था च ब्रह्मलोकगताऽथवा ।
अक्षसूत्रधरा देवी पद्मसनगता शुभा ।।
( २१ ) गायत्र्युपस्थानम्
गायत्र्यसीति विवस्वान् ऋषि: स्वराण्महापंक्तिश्छन्द: परमात्मादेवता गायत्र्युपस्थाने विनियोग: ।
ॐ गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि न हि पद्यसे नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परोरजसेऽसावदो मा प्रापत्।।
( २२ ) गायत्री - शापविमोचन
(१) ब्रह्म शापविमोचन
ॐ अस्य श्री ब्रह्म शापविमोचन मन्त्रस्य ब्रह्माऋषिर्भुक्तिमुक्तिप्रदा ब्रह्म शापविमोचनी गायत्री शक्तिर्देवता गायत्री छन्द: ब्रह्मशापविमोचने विनियोग: ।
ॐ गायत्रीं ब्रह्मेत्युपासीत यद्रुपं ब्रह्मविदो विदु:।
तां पश्यन्ति धीरा: सुमनसो वाचमग्रत:।।
ॐ वेदान्तनाथाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्।
ॐ देवि! गायत्री! त्वं ब्रह्मशापाद्विमुक्ता भव।
(२) वसिष्ठ - शापविमोचन
ॐ अस्य श्री वसिष्ठ शापविमोचनमन्त्रस्य निग्रहानुग्रहकर्ता वसिष्ठ ऋषिर्वसिष्ठानुगृहहीता गायत्री शक्तिर्देवता विश्वोद्भवा गायत्री छन्द: वसिष्ठशापविमोचनार्थं जपे विनियोग:।
ॐ सोऽहमर्कमयं ज्योतिरात्मज्योतिरहं शिव:।
आत्मज्योतिरहं शुक्र: सर्वज्योतीरसोऽस्म्यहम्।।
( योनिमुद्रा दिखाकर तीन बार गायत्री जपे )
ॐ देवि!गायत्री! त्वं वसिष्ठशापाद्विमुक्ताभव।
(३) विश्वामित्र - शापविमोचन
ॐ अस्य श्री विश्वामित्र शापविमोचनमन्त्रस्य नूतनसृष्टिकर्ता विश्वामित्र ऋषिर्विश्वामित्रानुगृहीता गायत्री शक्तिर्देवता वाग्देहा गायत्री छन्द: विश्वामित्र शापविमोचनार्थं छपे विनियोग: ।
ॐ गायत्रीं भजाम्यग्निमुखीं विश्वगर्भां यदुद्भवा:।
देवाश्चक्रिरे विश्वसृष्टिं तां कल्याणीमिष्टकरीं प्रपद्ये।।
ॐ देवि!गायत्री! त्वं विश्वामित्रशापाद्विमुक्ता भव।
(४) शुक्र - शापविमोचन
ॐ अस्य श्री शुक्रशापविमोचनमन्त्रस्य श्री शुक्रऋषि: अनुष्टुप्छन्द: देवी गायत्री देवता शुक्रशापविमोचनार्थं जपे विनियोग: ।
सोऽहमर्कमयं ज्योतिरात्मज्योतिरहं शिव:।
आत्मज्योतिरहं शुक्र: सर्वज्योतीरसोऽस्म्यहम्।।
( पुनः फिर यौनी मुद्रा बनाकर तीन बार गायत्री जपे )
ॐ देवि गायत्री त्वं शुक्रशापाद्विमुक्ता भव ।
( प्रार्थना )
ॐ अहो देवि महादेवि संध्ये विद्ये सरस्वति।
अजरे अमरे चैव ब्रह्मयोनिर्नमोऽस्तु ते।।
( जप के पूर्व चौबीस मुद्राऐं )
सुमुखं सम्पुटं चैव विततं तथा।
द्विमुखं त्रिमुखं चैव चतुष्पञ्चमुखं तथा।।
षण्मुखाऽधोमुखं चैव। व्यापकाञ्जलिकं तथा।
शकटं यमपाशं च ग्रथितं चोन्मुखोन्मुखम्।।
प्रलम्बं मुष्टिकं चैव मत्स्य: कूर्मो वराहककम्।
सिंहाक्रान्तं महाक्रान्तं मुद्गरं पल्लवं तथा।।
एता मुद्राश्चतुर्विंशज्जपादौ परिकीर्तिता:।
( २४ ) गायत्री जप
ॐ कारस्य ब्रह्मऋषि: र्दैवी गायत्री छन्द: परमात्मा देवता तिसृणां महाव्याहृतीनां प्रजापतिर्ऋषिर्गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दास्यग्निवायुसूर्या देवता तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्द: सविता देवता जपे विनियोग: ।
ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेणयं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्
( जप के बाद आठ मुद्रायें )
सुरभिर्ज्ञानवैराग्ये योनि: शङ्खोऽथ पङ्कजम्।
लिङ्गनिर्वाणमुद्राश्च जपान्तेऽष्टौ प्रदर्शयेत्।।
( २५ ) जपसमर्पणम्
ॐ देवा गातुविद इति मनसस्पतिर्ऋषिर्विराडनुष्टुप्छन्द: वातो देवता जपनिवेदने विनियोग: ।
ॐ देवा गातुविद गातुं वित्त्वा गातुमित।
मनसस्पत इमं देव यज्ञ गुं स्वाहा व्वाते धा:।।
( २६ ) गायत्री कवच
ॐ अस्य श्री गायत्री कवचस्य ब्रह्मा ऋषिर्गायत्री छन्दो गायत्री देवता ॐ भू: बीजम् भुव: शक्ति: स्व: कीलकम् गायत्री प्रीत्यर्थं जपे विनियोग: ।
ध्यानम्
पञ्चवक्त्रां दशभुजा सूर्यकोटिसमप्रभम्।
सावित्रीं ब्रह्मवरदां चन्द्रकोटिसुशीतलाम्।।
त्रिनेत्रां सितवक्त्रां च मक्ताहारविराजिताम्।
वराभयाङ् कुशकशाहेमपात्राक्षमालिकाम्।।
शङ्खचक्राब्जयुगलं कराभ्यां दधतीं वराम्।
सितपंकजसंस्थां च हंसारूढां सुखस्मिताम्।।
ध्यात्वैवं मानसाम्भोजे गायत्राकवचं जपेत्।
ॐ ब्रह्मोवाच
विश्वामित्र! महाप्राज्ञ ! गायत्री कवचं श्रृणु।
यस्य विज्ञानमात्रेण त्रैलोक्यं वशयेत् क्षणात्।।
सावित्री में सिर: पातु सिखायाम मृतेश्वरी।
ललाटंं ब्रह्मदवत्या भ्रुवौ म पातु वैष्णवी।।
कर्णौ मे पातु रुद्राणी सूर्या सावित्रिकाऽम्बिके।
गायत्री वदनं पातु शारदा दशनच्छदौ।।
द्विजान यज्ञप्रिया पातु रसनायां सरस्वती।
सांख्यायनी नासिकां मे कपोलौ चंद्रहासिनी ।।
चिबुकं वेदगर्भा कंठ पात्वघनाशिनी।
स्तनौ मे पातु इन्द्राणी हृदयं ब्रह्मवादिनी ।।
उदरं विश्वभोक्ती च नाभौ पातु सुरप्रिया।
जघनं नारसिंही च पृष्ठं ब्रह्माण्डधारणी।।
पाश्वौ मे पातु पद्माक्षी गुह्यं गोगोप्त्रिकाऽवतु।
ऊर्वोरोंकाररूपा च जान्वो: संध्यात्मिकाऽवतु।।
जङ्घयो: पातु आक्षोभ्या गुल्फयोर्ब्रह्मशीर्षका।
सूर्या पदद्वयं पातु चन्द्रा पादाङगुलीषु च।।
सर्वाङ्गं वेदजननी पातु मे सर्वदा घना।
इत्येतत् कवचं ब्रह्मन् गायत्र्या: सर्वपावनम्।
पुण्यं पवित्रं पापघ्नं सर्व रोगनिवारणम्।।
त्रिसंध्यं य: पठेद्विद्वान् सर्वान् कामानवाप्नुयात।
सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञ: स भवेद्वेदवित्तम:।।
सर्वयज्ञफलं प्राप्य ब्रह्मान्ते समवाप्नुयात्।
प्राप्नोति जप मात्रेण पुरुषार्थांश्चतुर्विधान्।।
इति विश्वामित्र संहितोक्तं गायत्री कवचं संपूर्णम्।।
( २७ ) सूर्यप्रदक्षिणा
विश्वतश्चक्षुरिति भौवन ऋषि: त्रिष्टुप्छन्दो विश्वकर्मा देवता सूर्यप्रदक्षिणायां विनियोग:।
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात्।
सम्बाहुभ्यां धमति सम्पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन् देव एक:।
( २८ ) क्षमा प्रार्थना
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन।
यत्पूजितं मया देवी प्रसीद परमेश्वरी।।
उत्तमे शिखरे इत्यस्य वामदेव ऋषिर्नुष्टुप् छन्द: गायत्री देवता गायत्री विसर्जने विनियोग:।
उत्तमे शिखरे देवी भूम्यां पर्वतमूर्धनि।
ब्राह्मणेभ्योऽभ्यनुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखम्।।
अनेन संध्योपासनाख्येन कर्मणा श्रीपरमेश्वर: प्रीयतां न मम।ॐ तत्सत् श्रीब्रह्मार्पणमस्तु।
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्।।
( श्रीविष्णवे नमः ) तीन बार बोलें
श्री विष्णु स्मरणात् परिपूर्णतास्तु।
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