सोमवार, 15 जनवरी 2024

सत्संग बड़ा या तप

एक बार की बात है विश्वामित्र व वशिष्ठ जी मे बहस हो गयी कि सत्संग बड़ा या तप,।

विश्वामित्र जी की राय थी कि मैने तप के बल से सिद्धियाँ प्राप्त की है ,अतः तप का बल बड़ा है।वशिष्ठ जी उनके तर्क से सहमत नहीं थे,उन्होने कहा सत्संग अधिक श्रेष्ठ है।

अब दोनों इस बात को सिद्ध करने के लिये ब्रह्मा जी के पास गये और अपना प्रश्न उनके आगे रखा।ब्रह्मा जी ने कहा में अभी सृष्टि के कार्य मे व्यस्त हुँ ,इस लिये आप दोनों विष्णु जी के पास जायँ वहाँ आपके शंका का समाधान होगा ।

दोनों मुनि विष्णु जी के पास गयें ,प्रश्न सुनकर भगवान विष्णु जी ने मन में विचार किया अगर तप को श्रेष्ठ कहुँ तो वशिष्ठजी जी नाराज हो जायँगे ,इस लिए विष्णु जी ने बात टालते हुये ,कह दिया में सृष्टि के पालन कार्य में लगा हुँ ,इसलिये आप दोनो शिव जी के पास जाएं ।

जब दोनों ने भगवान शिव जी को प्रश्न रखा तो शिव जी ने शेषनाग के पास भेज दिया।शेषनाग को शंका का समाधान करने को कहा,शेषनाग जी ने कहा मैने अपने सिर पर पृथ्वी का भार उठा रखा है।इसलिए कुछ देर के लिये दोनों में से कोई पृथ्वी के भर को संभाल सको तो में किंचित विश्राम करके आपके प्रश्न का समाधान कर सकूंगा।

इस बात पर तप के अहंकार में विश्वामित्र ने कहा कि पृथ्वी को आप मुझे दीजिये।जब पृथ्वी नीचे की ओर आने लगी तो शेषनाग ने कहा सम्भालिये पृथ्वी रसातल को जा रही है।

तब विश्वामित्र ने कहा में अपना सारा तपोबल देता हूँ।पृथ्वी रुक जा परन्तु पृथ्वी नही रुकी।

यह देखकर वशिष्ठ जी ने कहा में आधी घड़ी के सत्संग का बल देता हूँ, वशिष्ठ जी के इतना कहते ही पृथ्वी रुक गयी।

अब पृथ्वी को शेषनाग जी ने अपने सिर पर धारण कर लिया और दोनों को जाने के लिये कहा।

विश्वामित्र जी मे कहा हमारे प्रश्न का उत्तर हमे मिला नही।तब शेषनाग जी ने कहा फैसला तो हो गया  कि पृथ्वी जीवन का सारा तपोबल लगाने से भी स्थिर नही हुई और आधी घड़ी के सत्संग से ठहर गयी।अथार्त  सत्संग तप से बड़ा होता है।।


बिनु सतसंग विवेक न होई।

राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।

यानी सत्संग से ही ज्ञान की प्राप्ति होती है


एक घड़ी ,आधी घड़ी,आधी में पुनि आध।

तुलसी चर्चा राम की, हरे  कोटि  अपराध ।।

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आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा

अपामार्जन विधान एवं कुशापामार्जन स्तोत्रम्

॥ अपामार्जनविधानं ॥

अपनी तथा दूसरों की रक्षा का उपाय है, उसका नाम है मार्जन या (अपामार्जन) यह वह रक्षा है,जिसके द्वारा मानव सभी दुःख से छूट जाता है और निरन्तर सुख को प्राप्त करता है ।

भगवान वराह ,नृसिंह , वामन को नमस्कार करके कुशपामार्जन स्तोत्र का पाठ करना चाहिए ,विष्णु जी के स्मरण मात्र से जगत में फैले समस्त दूषित रोग शांत होते है ।भगवान नारायण जी के शरीर से उत्पन्न कुशा के द्वारा रोग नष्ट होते है ।

विधि:-

शरीर में उत्पन्न रोग व जगत में फैलने वाली बीमारियों के समूल नाश के लिए

कुशपामार्जन स्तोत्र के पाठ से आसाध्य रोगी के रोग को ठीक किया जा सकता है, कुशा २१ गांठ बनाकर इस स्तोत्र का पाठ करते हुए रोगी को २१बार झाड़ा जय तो रोगी का रोग हरता चला जाता है ।

॥ कुशापामार्जन स्तोत्रम्॥

ॐ वराह  नरसिंहश  वामनेश  त्रिविक्रम ।

हयग्रीवेश  सर्वेश  हृषीकेश  हराशुभम ॥१॥

अपराजित    चक्राद्यैश्चर्भि    परमायुधैः । 

अखण्डितानुभावस्त्वं सर्वदुष्टहरो भव॥2॥

हरामुकस्य दुरितं  सर्व  च  कुशलं कुरु । 

मृत्युबन्धार्ति भयदं दुरिष्टस्य च यत्फलम् ॥३॥

पराभिध्यान सहितै: प्रयुक्तं चाभिचारिकम् । 

गरस्पर्शमहारोगप्रयोगं        जरया   जर ॥४॥

ॐ नमो वासुदेवाय नमः कृष्णाय खगिने खड्गिने ।

नमः पुष्करनेत्रा    केशवायादिचक्रिणे  ॥५॥ 

नमः कमल किन्जल्कपीतनिर्मलवाससे । 

महाहव रिपुस्कन्ध धृष्टचक्राय   चक्रिणे ॥६॥

 दँष्ट्रोधृत    क्षितिभूते त्रयीमूर्तिमते नमः ।

महायज्ञ वराहाय शेषभोगाङ्कशायिने ॥७॥ 

तप्तहाटक केशान्त  ज्वलत्पावक लोचन ।

वज्राधिक नख स्पर्श दिव्यसिंह नमोऽस्तु ते ॥८॥ 

कश्यपायाति ह्रस्वाय ऋग्यजु सामभूषिणे । 

तुभ्यं वामनरूपायानमते मां   नमो   नमः ॥९॥

वराहारोषदुष्टानि   सर्वपापफलानि  वै ।

मर्द मर्द महादंष्ट्र मर्द मर्द च तत्फलम् ॥१०॥ 

नारसिंह करालास्य दंत प्रांता नलोज्जवल ।

भंज भंज  निनादेन दुष्टान् पश्यार्तिनाशन ॥११॥

ऋग्यजुःसाम गर्भाभिर्वाग्भिर्वा मनरुपधृक् ।

प्रशमं सर्वदुःखानि नयत्वस्य जनार्दन ॥१२॥ 

ऐकाहिकं द्वयाहिकं च तथा त्रिदिवसं ज्वरम् । 

चातुर्थिकं तथा त्युग्रं तथैव सतनं ज्वरम् ॥ १३॥ 

दोषोत्थं संनिपातोत्यं तथैवागन्तुकं ज्वरम् । 

शमं नयाशु गोविन्द च्छिन्धि च्छिन्ध्यस्य वेदनाम् ॥१४॥

नेत्रदुःखं शिरोदुःखं दुःखं बोदरसम्भवम् । 

अनिश्वासमतिश्वासं परितापं सवेपथुम् ॥१५॥ 

गुद घ्राणाङघ्रिरोगांश्च कुष्टरोगांस्तथा क्षयम् ।

कामलादींस्तथा रोगान् प्रमेहांश्चातिदारुणान् ॥१६॥

भगन्दरातिसारांश्च मुखरोगांश्च बल्गुलीम् । 

अश्मरीं मूत्रकृच्छ्रांश्च रोगानन्यांश्च दारुणान् ॥१७॥

ये वातप्रभवा रोगा ये च पित्तसमुद्भवाः । 

कफोद्भवाश्च ये केचिद् ये चान्ये सांनिपातिकाः ॥१८॥

आगन्तुक ये रोगा लूताविस्फोटकादयः ।

ते सर्वे प्रशम यान्तु वासुदेवस्य कीर्तनात् ॥१९॥ 

विलयं यान्तु ते सर्वे विष्णोरुच्चारणेन च ।

क्षयं गच्छन्तु चाशेषास्ते चक्राभिहता हरेः ॥२०॥

अच्युतानन्तगोविन्दनामोचारणभेषजात् ।

नश्यन्ति सकला रोगाः सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥२१॥

स्थावर जङ्गमं वापि कृत्रिमं चापि यद्विषम् । 

दन्तोद्भव नखभवमाकाशप्रभवं विषम् ॥२२॥ 

लूतादिप्रभवं यच्च विषमन्यत्तु दुःखदम् । 

शमं नयतु तत्सर्व वासुदेवस्य कीर्तनम् ॥२३॥ 

ग्रहान् प्रेतग्रहांश्चापि तथा वै डाकिनीग्रहान् । 

बेतालांच पिशाचांश्च गन्धर्वान् यक्षराक्षसान् ॥ २४॥ 

शकुनीपूतनाद्यांश्च तथा वैनायकान् ग्रहान् । 

मुखमण्डी  तथा  क्रूरां  रेवती  वृद्धरेवतीम् ॥२५॥ 

वृद्धिकाख्यान्ग्रहांश्चोग्रांस्तथा मातृग्रहानपि ।

बालस्य विष्णोचरितं हन्तु बालग्रहानिमान् ॥२६॥ 

वृद्धाश्च ये ग्रहाः केचिद् ये च बालग्रहाः क्कचित् । 

नसिंहस्य ते दृष्ट्या दग्धा ये चापि यौवने ॥२७॥ 

सटाकरालवदनो   नारसिंहो  महाबलः । 

ग्रहानशेषान्नि: शेषान् करोतु जगतो हितः ॥२८॥ 

नरसिंह महासिंह ज्वालामालोज्ज्वलानन । 

ग्रहानशेषान्  सर्वेश खाद खादाग्निलोचन ॥२९॥

ये रोगा ये महोत्पाता  यद्विषं ये महाग्रहाः । 

यानि च क्रूरभूतानि प्रहपीडाञ्च दारुणाः ॥३०॥ 

शस्त्रक्षतेषु ये दोषा  ज्वालागर्दभकादयः । 

तानि सर्वाणि सर्वात्मा परमात्मा जनार्दनः ॥३१॥ 

किंचिद्रुपं  समास्थाय  वासुदेवास्य नाशय । 

क्षिप्त्वा सुदर्शनं चक्र ज्वालामालातिभीषणम् ॥३२॥

सर्वदुष्टोपशमनं     कुरु      देववराच्युत ।

सुदर्शन महाज्वाल च्छिन्धि च्छिन्धि महारव ॥३३॥

सर्वदुष्टानि  रक्षांसि  क्षयं यान्तु  विभीषण । 

प्राच्या प्रतीच्यां च दिशि दक्षिणोत्तरतस्तथा ॥३४॥ 

रक्षां करोतुह सर्वात्मा  नरसिंहः  स्वगर्जितै:। 

दिवि भुज्यन्तरिक्षे च पृष्ठतः पाश्वतोऽग्रतः ॥३५॥

रक्षां  करोतु भगवान्  बहुरूपी  जनार्दनः। 

यथा विष्णुर्जगत्सर्व सदेवासुरमानुषम् ॥३६॥ 

तेन सत्येन दुष्टानि  शममस्य व्रजन्तु  वै ।

यथाविष्णौस्मृते सद्य: संक्षयं यान्ति पातकाः ॥३७॥

सत्येन तेन सकलं  दुष्टमस्य प्रशाम्यतु । 

यथा यज्ञेश्वरो विष्णुर्देवेष्वपि हि गीयते ॥३८॥

सत्येन न सकलं  यन्मयो  तथास्तु  तत् । 

शान्तिरस्तु शिवं चास्तु दुष्टमस्य प्रशाम्यतु ।।३९।। 

वासुदेवशरीरोत्थेः  कुशेनिर्णाशितं  मया । 

अपामार्जन गोविन्दो नरो नारायणस्तथा ॥ ४०॥

तथास्तु सर्वदुःखानां  प्रशमो वचनाद्धरे:। 

अपामार्जनकं शस्तं सर्वरोगादिवारणं ॥४१॥

अहं हरि: कुशा विष्णुहर्ता रोगा मया तव ।।४२ ॥

॥ इति कुशपामार्जन स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

नोट:-

मेरे गुरुजी कमलाकान्त शुक्ल जी ने इस स्तोत्र को मुझसे कहा जब वे जीवित थे । आज उनका स्मरण होने पर मुझे इस स्तोत्र की याद आयी जी आप तक पहुंचाने की जिज्ञासा हुई । 

जय गुरुदेव

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आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा



॥ हनुमद्वडवानलस्तोत्रम् ॥

                 ॥ हनुमद्वडवानलस्तोत्रम् ॥ 


                                ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥

यह वाडवानल स्तोत्र सर्वसिद्धि प्रदायक है ।इसके पाठ से मनुष्य की सभी कामनाएं पूर्ण होती है ।

संकल्प: --

ॐ अस्य श्रीहनुमद्वडवानलस्तोत्रमंत्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषिः, श्रीवडवानल हनुमान् ,देवता , मम् समस्तरोगप्रशमनार्थं ,आयुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्ध्यर्थं   समस्तपापक्षयार्थम् सीतारामचंद्र  हनुमद्वडवानलस्तोत्रजपमहं  करिष्ये ।।

ध्यान:- 

मनोजवं मारुत तुल्य वेगं ,जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं ।

वातात्मजं वानरयूथमुख्यं ,श्रीराम दूतं शरणं प्रपद्ये ।।

स्तोत्रम --

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहाहनुमते प्रकटपराक्रम सकलदिङमण्डलय - शोवितानधवलीकृत - जगतत्रितय वज्रदेह रूद्रावतार लंकापुरी - दहन उमाअर्गल मंत्र उदधिबंधन दशशिरः कुतान्तक सीताश्वासन वायुपुत्र अंजनीगर्भसंभूत श्रीरामलक्ष्मणानन्दकर कपिसैन्यप्राकार सुग्रीव सहाय रणपर्वतोत्पाटन कुमारब्रह्मचारिन् गंभीरनाद सर्वपापग्रहवारण सर्वज्वरोच्चाटन डाकिनीविध्वंसन ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महावीरवीराय सर्वदुःखानिवारणाय ग्रहमंडल - सर्वभूतमंडल सर्वपिशाचमडलोच्चाटन - भूतज्वर -एकाहिकज्वर- द्व्याहिकज्वर- त्रयाहिकज्वर -चातुर्थिकज्वर -संतापज्वर - विष मज्वर - तापज्वर - माहेश्वरवैष्णवज्वरान् छिंधि छिंधि यक्ष -ब्रह्मराक्षस -भूत - प्रेत - पिशाचान् उच्चाटय उच्चाटय ।

ॐ ह्रां ह्रीं श्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहाहनुमते ॐ ह्रां ह्रीं हूं हैं ह्रौं हः आं हां हां हां हां औं सौं एहि एहि एहि ॐ हं ॐ हं ॐ हं ॐ हं ॐ नमो भगवते श्रीमहाहनुमते श्रवणचक्षुर्भूतानां शाकिनी डाकिनीनां विषमदुष्टानां सर्वविषं हर हर आकाशभुवने भेदय भेदय छेदय छेदय मारय मारय शोषय शोषय मोहय मोहय ज्वालय ज्वालय प्रहारय प्रहारय सकलमायां भेदय भेदय ।

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महाहनुमते सर्वग्रहोच्चाटन परबलं क्षोभय क्षोभय सकलबंधन - मोक्षणं कुरू कुरू शिरःशूल - गुल्मशूल - पर्वशूलानिर्मूलय निर्मूलय नागपाशानंतवासुकि - तक्षक - कर्कोटक - कालियान् यक्षकुल - जगत- रात्रिचर - दिवाचर - सर्पा निर्विषान् कुरू कुरू स्वाहा ।

राजभय - चोरभय -परमंत्र -परयंत्र -परतंत्र परविद्याश्छेदय छेदय स्वमंत्र - स्वयंत्र -स्वतंत्रका - विद्याः प्रकटय प्रकटय सर्वारिष्टान्नाशय नाशय सर्वशत्रूनाशय नाशय असाध्यं साधय साधय हुं फट् स्वाहा ।। 

        ॥ इति विभीषणकृतं हनुमद्वडवानलस्तोत्रं संपूर्णम् ॥ 




रविवार, 7 जनवरी 2024

विश्व के रामभक्तों से निवेदन

 विश्व के राम भक्तों से निवेदन माताओं ,बहनों एवं भाइयों आगामी पौष शुक्ल द्वादशी विक्रम संवत २०८० सोमवार दिनांक २२ जनवरी २०२४ के शुभ दिन प्रभु श्री राम के बाल रूप नूतन विग्रह को श्री राम जन्मभूमि पर बना रहे नवीन मंदिर भूतल के गर्भगृह में विराजित करके प्राण प्रतिष्ठा की जाएगी ।

इस अवसर पर अयोध्या में अभूतपूर्व आनंद का वातावरण होगा, आप भी प्राण प्रतिष्ठा के दिन पूर्वाह्न ११:०० बजे से अपराह्न १:०० बजे के मध्य अपने ग्राम मोहल्ले कॉलोनी में स्थित किसी मंदिर के आस पड़ोस के राम भक्तों को एकत्रित करके भजन कीर्तन करें।

टेलीविजन अथवा कोई पर्दा एलईडी स्क्रीन लगाकर अयोध्या का प्राण प्रतिष्ठा समारोह समाज को दिखाएं शंख ध्वनि घंटानाद आरती करे प्रसाद वितरण करें कार्यक्रम का स्वरूप मंदिर केंद्रित रहे अपने मंदिर में स्थित देवी देवताओं का भजन कीर्तन आरती पूजा तथा श्री राम जय श्री राम जय श्री राम विजय महामंत्र का 108 बार सामूहिक जाप करें इसके साथ हनुमान चालीसा सुंदरकांड राम रक्षा स्तोत्र आदि का सामूहिक पाठ भी कर सकते हैं सभी देवी देवता प्रसन्न होंगे वातावरण सर्वत्र सात्विक एवं राममय हो जाएगा । 

प्राण प्रतिष्ठा समारोह दूरदर्शन द्वारा सीधे प्रसारित किया जाएगा। अनेक चैनलों के माध्यम से भी प्रसारण किया जाएगा।

प्राण प्रतिष्ठा के दिन सायंकाल सूर्यास्त के बाद अपने घर के सामने देवताओं की प्रसन्नता के लिए दीपक जलाएं दीपमालिका सजा विश्व के करोड़ों घरों में दीपोत्सव मनाया जाएगा ।

आपसे निवेदन है की प्राण प्रतिष्ठा के दिन के उपरांत प्रभु श्री रामलला तथा नव निर्मित मंदिर के दर्शन हेतु अपने अनुकूल समय अनुसार अयोध्या जी में परिवार सहित पधारे ।

जय श्री राम भगवान श्री राम आपकी कृपा बनाए रखें

सोमवार, 1 जनवरी 2024

ईसवी नववर्ष २०२४

 आंग्ल नव वर्ष २०२४

🕉️मंगलं भगवान विष्णु मंगलं गरुड़ ध्वज ।

 मंगलं पुण्डरीकाक्ष  मंगलायतनो  हरि: ।।

आंग्ल नववर्ष २०२४ की सभी जनमानुष को शुभ मंगलकामनाएं ,

नया वर्ष आया, नई राहें हैं खुली,

आशा की किरणें, दिल में हैं भरी।

सपनों में ऊँचाई, राह में चुनौतियां,

जीवन में विश्वास, और लिए दिल में एहसास।

नव वर्ष में हो नव सृजन,मिले नई सौगात,सुख,

समृद्धि  मिलें,बना रहे अपनों का साथ।।

आपके जीवन में सुख, सम्पदा का लाभ ,

शुभ,लाभ, रिद्धि, सिद्धि,वैभव हो हाथ,


विगत कई वर्षों से मनाते आ रहे हिंदू, अंग्रेजी नव वर्ष जिसका संबंध सनातन धर्म से कही दूर दूर तक नही है ।बड़े धूम धाम से लोग आनंद उठाते है। कई लोग तो मांस मदिरा का उपयोग कर नया साल के आने पर उत्सव मनाते है मानो संसार में जैसे मनुष्य नही असुर नया साल मना रहे है ।

सनातन धर्म में नववर्ष के आगमन पर तो प्रथम देव पूजन से नववर्ष का स्वागत किया जाता है।

गुरुवार, 21 दिसंबर 2023

कुम-गढ़ की धात

              ।।कुम-गढ़।।

कुम(कुमाऊँ)गढ़(गढ़वाल) भारत भूमि में एक रमणीय सुन्दर देवताओं,संतो की तपस्थली छु देवभूमि उत्तराखंड,जा चारधाम , पंच बद्री,  पंच केदार,  गोलू देवता , जागेश्वर , बागनाथ,  दुनागिरी, वाराही माता आदि बहुत देव स्थान यां छी। देव भूमि कि गाथा सृष्टिक आरम्भ बटी रामायण महाभारत पुराणादि शास्त्रो में वर्णित छू।जो लोगुल उत्तराखंड भूमि लिजी आपणी जान तक दीदी हम सब उनर बलिदान भूली गयु। कुम गढ़ कै उत्तर प्रदेश वै अलग हैवे दी दशक पुर हणी छू। उत्तराखंड अलग हण हैवे पली ,कतुक भल सुणि देखी लोगुल। पर हम  बोली कुमाऊँनी गढ़वाली भाषा पौड़ी चमोली टेहरी कुमाऊँ गढ़वाल क्षेत्रवाद पर लटकी छू।जैक हमर आणि वा पीढ़ी पर असर पड़ल ।हमर पूर्वजोल कुतु भल सोचि रहची की हमर आणि वा पीढ़ी की पहाड़ उत्तराखंड छोड़ी बै दूसर प्रदेश नि जाण पड़ो,ओर हमर पाणी हमर जवानी पहाडक काम एजो। पर हमर ,हमर पहाडक दुर्भाग्य छु की आज पुर पहाड़ खाली हैंगो। आज सबुल आपण पुर्वजो घर कुड़ी देवता पटो खेति छोड़ी हाली रीत राह क्वे निजाणन सब रज बनी वै बैठी रही। भ्यारक लोग पहाड़ में बसि गयीं जो सोचिबै हिको विदीर्ण करू।पुराणी विचार धारा छोड़ी वै नई सोच पैद हून चै ।आपण नई पीढ़ी कै पढ़े लिखे पहाड़ भेजण चै।जैल पहाड़ में शिक्षा नई तकनीक ,छुपी पहाडक संस्कृति बढ़ावा,जन जागृति मददगार हैं सको।


म्यर छू कुमाऊँ म्यर छू गढ़वाल।

राजी  खुसी  रहो  म्यर पहाड़।।

बोली भाषा छोड़ी एक हेजाओ।

कंध बै कंध मिलै जोड़ो पहाड़।।

कतु भल पाणी कतु भल बाणी।

कतु भल मनखी कतु भल विचार।।

म्यर छू भाबर म्यर छू  हरिद्वार।

छुटि गयी घर छुटि गयी परिवार।।

म्यर छू -------


पुर पहाड़ आयर्वेदिक औषधीय वनस्पति द्वारा भरि पड़ी छू। हमर पहाड़ में रोजगारक अपार सम्पदा जसि आयर्वेद धूप अगरबत्ती हवन पूजा सामग्री नवग्रह समिधा पशुपालन स्वरोजगार मछली मुर्गी पालन  टूर ट्रेवल्स  फल सब्जी किसानी सरकारी योजना जस बहूत काम छि। पुर भारत मे स्वर्ग अगर कै छू तो उत्तराखंड।आज हमर पहाड़क लोग ईमानदारी में सबु में पली नम्बर छू।उत्तराखंडक धनवान उधोगपति ढुल ढुल पदों पर बैठी लोगुल एक समूह द्वारा विचार मंथन करण चहै। समाजक कु रीत कु प्रथा केँ बन्द करण चहै हमू केँ आपण पितर कुड़ी जनम स्थान लिजी सोचण चै आपण पहाडक विषय मे आपण ननों कै आपण रीत राह ,बार त्यौहार, गीत गाथा, जागर  आदि विषय मे बताण चै।आपण गाँव केँ जागृत रखिया यई मेरी कामना छू।सब राजी कुशल मंगल रहिया।आपण मातृ भूमि जन्म भूमि कै झन भुलिय। ।

                  ।।जय ईस्ट देव।।





       
             

।।धर्मप्रशंसा।।

       ।।धर्मप्रशंसा।।

धर्मेण हन्यते व्याधिर्धर्मेण हन्यते ग्रहः । 

धर्मण हन्यते शत्रुर्यतो धर्मस्ततो जयः ॥ १ ॥ 

देवब्राह्मणवन्दनाद् गुरुवचः सम्पादनात्प्रत्यहं 

साधूनामपि भाषणाच्छ तिरवश्रेयःकथाकारणात् । 

होमादध्वरदर्शनाच्छुचिमनोभावाज्जपाद्दानतः 

नो कुर्वन्ति कदाचिदेव पुरुषस्यवं ग्रहाः पीडनम् ।। २ ।। 


धर्म से व्याधि का नाश होता है , धर्म से ग्रह दब जाता है , धर्म से शत्रु का नाश होता है , जिस ओर धर्म हो उसी ओर जय होती है ।। १ ।। 

जो मनुष्य देवता तथा ब्राह्मणों को नमस्कार करते हैं , अपने गुरु का वचन पूरा कराते हैं , साधु लोगों से बोलचाल करते हैं , वेद की ध्वनि सुनते हैं , पुराणों की कथा सुनते हैं , होम करते हैं , यज्ञ के स्थान का दर्शन करते हैं , स्वच्छ चित्त से जप तथा दान करते हैं , उन मनुष्यों को ग्रह पीड़ित नहीं करते हैं ॥ २ ॥

 

पापिष्ठा ये दुराचारा देवब्राह्मणनिन्दकाः ।

अपथ्यभोजिनस्तेषामकालमरणं ध्रुवम् ।। ३ ।। 

धर्मिष्ठा ये सदाचारा देवब्राह्मणपूजकाः । 

ये पथ्यभोजनरतास्ते सर्वे दीर्घजीविनः ॥ ४ ॥ 


जो मनुष्य पापी होते हैं , बुरे आचरण वाले होते हैं , देवता तथा ब्राह्मणों की निन्दा करते हैं , पथ्य भोजन नहीं करते , उनकी मृत्यु अकाल में होती है ॥ ३ ॥ 

जो मनुष्य धर्मात्मा होते हैं , अच्छे आचरण वाले होते हैं , देवता तथा ब्राह्मणों की पूजा करते हैं तथा पथ्य भोजन करते हैं वे चिरकाल तक जीते हैं ।। ४ ।। 


धर्मात्मनां नीतिमतां सदा जयो

दुरात्मनां वाऽनयिनां पराजयः ॥ ५ ॥

ग्रहा न पीडयन्त्येव श्रुतिस्मृत्युक्तकारिणम् ।

दयाधर्मरतं बालं ब्रह्मज्ञं सत्यवादिनम् ।। ६ ।। 

सुरार्चनेन दानेन साधूनां सङ्गमेन हि । 

शुश्रूषया च विप्राणामल्पमृत्युविनश्यति ॥ ७ ॥ 


जो मनुष्य धर्मात्मा तथा नीतिमान होते हैं , उनका सदा जय होता है , जो मनुष्य दुरात्मा तथा दुर्नीति वाले होते हैं , उनका पराजय होता है ।। ५ ।।

जो मनुष्य श्रुति स्मृति के अनुसार कर्म करता है , दया तथा धर्म में प्रीति रखता है , ब्रह्मज्ञ तथा सत्यवादी है उसको ग्रह पीड़ित नहीं करते हैं ॥ ६ ॥ 

देवताओं के पूजन करने से ,दान देने से , साधुओं के संगम से , ब्राह्मणों की सेवा करने अल्यमृत्यु का नाश होता है ।। ७ ॥ 

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*कुमाऊं का पौराणिक वृद्ध केदार शिव मंदिर*

 *कुमाऊं का पौराणिक वृद्ध केदार शिव मंदिर*


 ग्राम केदार जो कि जिला अल्मोड़ा उत्तराखंड मै रामनगर से 101 किमी, भतरोजखान से 33  किमी, तथा रानीखेत से भाया जालली मासी 67 किमी व रानीखेत से भाया भतरोजखान 61 किमी व भिकियासेन से 8 किमी दूर रामनगर बद्रीनाथ मोटर मार्ग पर रामगंगा नदी के किनारे बसा है। हरी भरी खूबसूरत वादियों के बीच यह मंदिर एक रमणीय स्थल है। इस मंदिर की स्थापना चंद वंशीय राजा रूद्र चंद जी ने राष्ट्रीय शाके 1490 (1568 ईसवी ) में की थी। माना जाता है कि युद्ध के दौरान राजा रूद्र चंद एक रात इस स्थान पर ठहरे थे। भगवान शिव ने उन्हें सपने में दर्शन दिए तथा उन्हें इस स्थान पर मंदिर के निर्माण का आदेश दिया। मंदिर की स्थापना के बाद राजा की हारती हुई सेना ने अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त की। तब से इस मंदिर पर श्रदालुओं की अटूट आस्था है। वृद्ध केदार मंदिर को भगवान केदारनाथ की भी मान्यता प्राप्त है। यह मंदिर कुमाऊँ में बूढ़ केदार के नाम से प्रसिद्ध है। इस मंदिर का वर्णन स्कन्द पुराण के मानस खंड में किया गया है।


मंदिर स्थापना के बाद राजा रूद्र चंद ने शिव मंदिर के पुजारी के लिए ब्राह्मण जाति के कुछ लोगो को ग्राम डुंगरी पौड़ी गढ़वाल से यहाँ लाकर बसाया। मूलरूप से डुंगरी गांव के होने के कारण ये पुजारी डुंगरियाल के नाम से जाने जाते हैं। मंदिर के सरपंच के लिए मनराल जाति के लोगों को नियुक्त किया गया।


वृद्ध केदार शिव मंदिर में शिव धड़ स्वरुप में विराजमान हैं। केदारनाथ में शिव पिंडी स्वरुप में तथा पशुपतिनाथ में शिव सिर स्वरुप में विराजमान हैं l इस क्षेत्र के श्रदालु उत्तराखंड के चार धामों की यात्रा पर प्रस्थान से पहले वृद्ध केदार शिव मंदिर में दर्शन करते हैं। श्रदालुओं के विश्राम के लिए शिव मंदिर के आस पास कई धर्मशालाए निर्मित हैं।


वृद्ध केदार शिव मंदिर मै बैकुंठ चतुर्दशी को सायंकाल के समय मेला लगता है तथा दूसरे दिन कार्तिक पूर्णिमा को श्रदृालु रामगंगा नदी में स्नान करने के पश्चात शिव महादेव का जलाभिषेक तथा पूजा अर्चना करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं l


बैकुंठ चतुर्दशी के दिन यदि कोई निःसंतान स्त्री संतान प्राप्ति की मनोकामना के लिए वृद्ध केदार शिव मंदिर में महादेव का वरदान प्राप्त करने की इच्छा से आती है तथा बैकुंठ चतुर्दशी को रात्रि में प्रज्वलित दीपक हाथ में लेकर ॐ नमः शिवाय का जाप करती है और दूसरे दिन पूर्णमासी को सूर्यौदय के समय उस दीपक को रामगंगा नदी में प्रवाहित कर तैरते दीपक का पांच बार दर्शन करती है तो निःसंदेह ही उन्हें शिव की कृपा से संतान की प्राप्ति होती है।


सावन के महीने में वृद्ध केदार मंदिर में दर्शन हेतु श्रदालुओं की काफी भीड़ रहती है। सावन के सोमवार के दिन जो शिव भक्त १०८ लोटाजल,बेलपत्री,तिल,जौ तथा चावल शिवलिंग पर चढ़ाते हैं, भगवान शिव उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं l वृद्ध केदार मंदिर में सावन के महीने में हर वर्ष महापुराण की कथा का आयोजन किया जाता है जिसमें कथा श्रवण हेतु श्रदालुओं की काफी भीड़ रहती है।


उत्तराखंड में ३३ केाटि देवी देवता वास करते हैं l यहाँ समय समय पर ११ दिन या २२ दिन तक देवी देवताओं की जातरा (जागर ) लगती है। जातरा के अंतिम दिन देवी देवताओं को स्नान हेतु तीर्थ स्थान पर ले जाया जाता है। वृद्ध केदार शिव मंदिर को महातीर्थ स्थल माना जाता है क्योकि यहाँ पर रामगंगा तथा विनोद नदी का संगम है जो कि त्रिवेणी संगम के नाम से प्रसिद्ध है । इसलिए क्षेत्रवासी देवी देवताओं को स्नान के लिए वृद्ध केदार शिव मंदिर लाते हैं l जागरी में अवतार  लिए  पितरों की आत्मा की शांति के लिए उन्हें स्नान हेतु वृद्ध केदार शिव मंदिर में लाते हैं । महातीर्थ होने के कारण वृद्ध केदार शिव मंदिर में जनेऊ संस्कार तथा विवाह भी संपन्न होते हैं l


महादेव शिव की महिमा अपरंपार है l हम उनकी महिमा का व्याख्यान नहीं कर सकते हैं l

 🚩 *हर हर महादेव* 🚩

कन्यादान -योग्य स्थान व कन्यादानाधिकारी


कन्यादान -योग्य स्थान व कन्यादानाधिकारी

कन्यादान का फल शास्त्रों में अनन्त कहा गया है ।कन्यादान को सभी दस दानों में श्रेष्ठदान , महादान कहा है । माता पिता के द्वारा गुण श्रेष्ठ वर के हाथों कन्या का दान किया जाता है ।किस स्थान पर कन्यादान करने से कन्यादान का फल दुगना हो जाता है । जिसके करने से जीव को सभी दानों का पुण्य प्राप्त होता है। इसलिये कन्यादान का स्थल बहुत महत्व पूर्ण है । जो निम्नवत है ।

१ -स्वगृह --

अपने घर में कन्यादान करने से कुलदेवता ,पितृदेव प्रसन्न हो आशीर्वाद देते है। कन्यादाता पितृ ऋण से मुक्त होता है ।

२ - गौशाला --

गौशाला में कन्यादान करने का दसगुना गुना फल मिलता है ।

३ - शिवालय --

शिवालय में कन्यादान करने से हजार गुना फल मिलता  है ।

४ -विष्णु मन्दिर --

विष्णु मन्दिर में कन्यादान करने से दसहजार गुना फल है ।

तीर्थ,देवस्थान ,समुद्र तट पर भी कन्यादान सम्पन्न होता है ।

कन्यादान के लिए स्थान का चुनाव सतर्कता से करना चाहिए ।

कन्यादानाधिकारी --

विवाह संस्कार में जब कन्यादान का शुभ मुहूर्त आता है और कन्यादाता कन्या का हाथ थाम के कन्यादान का संकल्प लेते है। वह क्षण माता पिता को दुख भी देता है और सुख भी देता है । 

कन्यादान के समय पिता के उपस्थित नही रहने पर  दादा ,भाई, चाचा ,सगोत्री नातेदार , नाना नानी ,मामा आदि कन्यादान कर सकते है । परस्थितियाँ  के अनुसार माता भी कन्यादान कर सकती है । 

धर्म सिंधु में लिखा है।"सर्वाभावे जननी"

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आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
     ज्योतिषाचार्य
            वसई
 

धन की लूट

 धन की लूट 

समाज ने आज बहुत विकृति रूप ले लिया है, आज मनुष्य का जो लक्ष्य है,  मात्र धन एकत्रित करना सारे रिस्ते नाते मात्र धन पर इंगित होते जा रहे है ,जो परिवार में पहले मेल जोल हुआ करता था , वह सब धन ने खत्म कर दिया है धन के आगे मानवता भी खत्म हो गयी है । 

धन है तो सभी आपके प्रिय है ,धन नही तो अपना सगा भी आपसे दूरी बना लेते है ।धन ने ही माता पिता से पुत्र को दूर कर दिया ,धन ने ही सयुक्त परिवार को विखेर दिया है ,धन ने ही प्यार प्रेम की सीमा बना दिया है। मानो जैसे निर्धन का संसार मे कोई नही वह अकेले चलने को मजबूर है , उसका कोई सगा संबंधी नही आज के परिपेक्ष्य में मानव जाति ने मानवता को शर्मसार कर दिया है। जिसके परिणाम नित दिखाई व सुनाई देते है ।

बड़े बड़े समाज के ठेकेदार जो समाज को नयी दिशा देने का व अपने धर्म को महान बताने वाले ठेकेदारों ने समाज को खोखला कर दिया है आज सभी देखते होंगे हर दस कदम पर व घर घर मे ऐसे लोग मिलेंगे जो समाज के लोगो को बर्गला कर धन इखट्टा करने का व्यापार करते है ।आज समाज मे कुछ ऐसे कसाई है जो मानव के नाम पर कलंक है ।वर्तमान समय में जिस तरह भयावह स्थिति है, कॅरोना नाम के वायरस ने सभी धर्म सम्प्रदाय देश विदेश सभी शक्तियों को सोचने व स्थिति को समझने को मजबूर कर दिया है।इस कॅरोना महामारी के समय में मानवता की मिसाल पेश करना चाहिए था,किंतु कुछ धन के लोभियों ने लोगो का शोषण करना शुरू कर दिया है ।कोई दवा की कालाबाजारी , कोई औक्सीजन की कालाबाजारी, कही बीमारी के नाम पर कालाबाजारी , कही मुर्दो पर कालाबाजारी न् जाने कितनी भूख है इन धन के लुटेरे भिखारियों को ,जीते जी इन्हों ने जिंदा इन्सानों को लूटा पर मरने के बाद भी मर्दो पर हो रही है सौदेबाजी।

जिस तरह आज समाज मे एक नई रेखा खिंची जा रही है उसे देख कर लगता है आने वाला कल कितना भयावहः स्तिथि पैदा करेगा यह सभी बुद्धिजीवी लोगो को विचार करने पर मजबूर कर देगा ।आज धर्म दया दान रहम शर्म इंसानियत जैसे शब्दों का कोई महत्व नही रह गया है । बस एक ही बात दिखती है बह है धन की लूट , कैसे किस इंसान को कैसे लूट जाय कैसे इसको नीचे गिराया जाय ,और समाज मे अपने आप को कैसे ऊंचा बनाया जाय ।

कलयुग को सतयुग बनाना हो तो एक दुसरो पर दया करो ।

मानवता की मिसाल पेश करें ।

भूखे लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था करना ।

सभी को सुखी बनाने का प्रयास करें ।

हर रोज कमजोर मनुष्य की रक्षा करें ।

चोरिचकारी लूट खसौट ना करें ।

जो दुसरो की मदद के लिए हाथ बढ़ता है उसका हाथ ईश्वर थाम लेता है ।

एक दूसरों पर दया करो ।

मानव का मतलब है कि नित नया करो , अच्छा करो ,शुभ करो जिससे समाज व आने वाली पीढ़ी का उत्थान हो सके ।

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आचार्य हरीश चंद्र लखेड़ा
       मुम्बई
हर हर महादेव

हिन्दू धर्म ग्रंथ

हिंदू धर्मग्रंथों का सार, जानिए किस ग्रंथ में क्या है।अधिकतर हिंदुओं के पास अपने ही धर्मग्रंथ को पढ़ने की फुरसत नहीं है। वेद, उपनिषद पढ़ना तो दूर वे गीता तक को नहीं पढ़ते जबकि गीता को एक घंटे में पढ़ा जा सकता है। हालांकि कई जगह वे भागवत पुराण सुनने या रामायण का अखंड पाठ करने के लिए समय निकाल लेते हैं या घर में सत्यनारायण की कथा करवा लेते हैं। लेकिन आपको यह जानकारी होना चाहिए कि पुराण, रामायण और महाभारत हिन्दुओं के धर्मग्रंथ नहीं है। धर्मग्रंथ तो वेद ही है। 


शास्त्रों को दो भागों में बांटा गया है:- श्रुति और स्मृति। श्रुति के अंतर्गत धर्मग्रंथ वेद आते हैं और स्मृति के अंतर्गत इतिहास और वेदों की व्याख्‍या की पुस्तकें पुराण, महाभारत, रामायण, स्मृतियां आदि आते हैं। हिन्दुओं के धर्मग्रंथ तो वेद ही है। वेदों का सार उपनिषद है और उपनिषदों का सार गीता है। आओ जानते हैं कि उक्त ग्रंथों में क्या है।


वेद --

वेदों में ब्रह्म (ईश्वर), देवता, ब्रह्मांड, ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, संस्कार, रीति-रिवाज आदि लगभग सभी विषयों से संबंधित ज्ञान भरा पड़ा है। वेद चार है ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्यवेद ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं।

 ऋग्वेद : ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान। इसमें भौगोलिक स्थिति और देवताओं के आवाहन के मंत्रों के साथ बहुत कुछ है। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियां और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा आदि की भी जानकारी मिलती है।

यजुर्वेद : यजु अर्थात गतिशील आकाश एवं कर्म। यजुर्वेद में यज्ञ की विधियां और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। तत्व ज्ञान अर्थात रहस्यमयी ज्ञान। ब्रम्हांड, आत्मा, ईश्वर और पदार्थ का ज्ञान। इस वेद की दो शाखाएं हैं शुक्ल और कृष्ण।

 सामवेद: साम का अर्थ रूपांतरण और संगीत। सौम्यता और उपासना। इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं का संगीतमय रूप है। इसमें सविता, अग्नि और इंद्र देवताओं के बारे में जिक्र मिलता है। इसी से शास्त्रीय संगीत और नृत्य का जिक्र भी मिलता है। इस वेद को संगीत शास्त्र का मूल माना जाता है। इसमें संगीत के विज्ञान और मनोविज्ञान का वर्णन भी मिलता है।


अथर्वदेव: थर्व का अर्थ है कंपन और अथर्व का अर्थ अकंपन। इस वेद में रहस्यमयी विद्याओं, जड़ी बूटियों, चमत्कार और आयुर्वेद आदि का जिक्र है। इसमें भारतीय परंपरा और ज्योतिष का ज्ञान भी मिलता है।

 

उपनिषद् --

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उपनिषद वेदों का सार है। सार अर्थात निचोड़ या संक्षिप्त। उपनिषद भारतीय आध्यात्मिक चिंतन के मूल आधार हैं, भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के स्रोत हैं। ईश्वर है या नहीं, आत्मा है या नहीं, ब्रह्मांड कैसा है आदि सभी गंभीर, तत्व ज्ञान, योग, ध्यान, समाधि, मोक्ष आदि की बातें उपनिषद में मिलेगी। उपनिषदों को प्रत्येक हिन्दुओं को पढ़ना चाहिए। इन्हें पढ़ने से ईश्वर, आत्मा, मोक्ष और जगत के बारे में सच्चा ज्ञान मिलता है।

 

वेदों के अंतिम भाग को 'वेदांत' कहते हैं। वेदांतों को ही उपनिषद कहते हैं। उपनिषद में तत्व ज्ञान की चर्चा है। उपनिषदों की संख्या वैसे तो 108 हैं, परंतु मुख्य 12 माने गए हैं, जैसे- 1. ईश, 2. केन, 3. कठ, 4. प्रश्न, 5. मुण्डक, 6. माण्डूक्य, 7. तैत्तिरीय, 8. ऐतरेय, 9. छांदोग्य, 10. बृहदारण्यक, 11. कौषीतकि और 12. श्वेताश्वतर।


षड्दर्शन --

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वेद से निकला षड्दर्शन : वेद और उपनिषद को पढ़कर ही 6 ऋषियों ने अपना दर्शन गढ़ा है। इसे भारत का षड्दर्शन कहते हैं। दरअसल यह वेद के ज्ञान का श्रेणीकरण है। ये छह दर्शन हैं:- 1.न्याय, 2.वैशेषिक, 3.सांख्य, 4.योग, 5.मीमांसा और 6.वेदांत। वेदों के अनुसार सत्य या ईश्वर को किसी एक माध्यम से नहीं जाना जा सकता। इसीलिए वेदों ने कई मार्गों या माध्यमों की चर्चा की है।

 

गीता --

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महाभारत के 18 अध्याय में से एक भीष्म पर्व का हिस्सा है गीता। गीता में भी कुल 18 अध्याय हैं। 10 अध्यायों की कुल श्लोक संख्या 700 है। वेदों के ज्ञान को नए तरीके से किसी ने व्यवस्थित किया है तो वह हैं भगवान श्रीकृष्ण। अत: वेदों का पॉकेट संस्करण है गीता जो हिन्दुओं का सर्वमान्य एकमात्र ग्रंथ है। किसी के पास इतना समय नहीं है कि वह वेद या उपनिषद पढ़ें उनके लिए गीता ही सबसे उत्तम धर्मग्रंथ है। गीता को बार बार पढ़ने के बाद ही वह समझ में आने लगती है।

 

गीता में भक्ति, ज्ञान और कर्म मार्ग की चर्चा की गई है। उसमें यम-नियम और धर्म-कर्म के बारे में भी बताया गया है। गीता ही कहती है कि ब्रह्म (ईश्वर) एक ही है। गीता को बार-बार पढ़ेंगे तो आपके समक्ष इसके ज्ञान का रहस्य खुलता जाएगा। गीता के प्रत्येक शब्द पर एक अलग ग्रंथ लिखा जा सकता है।


गीता में सृष्टि उत्पत्ति, जीव विकासक्रम, हिन्दू संदेवाहक क्रम, मानव उत्पत्ति, योग, धर्म, कर्म, ईश्वर, भगवान, देवी, देवता, उपासना, प्रार्थना, यम, नियम, राजनीति, युद्ध, मोक्ष, अंतरिक्ष, आकाश, धरती, संस्कार, वंश, कुल, नीति, अर्थ, पूर्वजन्म, जीवन प्रबंधन, राष्ट्र निर्माण, आत्मा, कर्मसिद्धांत, त्रिगुण की संकल्पना, सभी प्राणियों में मैत्रीभाव आदि सभी की जानकारी है।

 

श्रीमद्भगवद्गीता योगेश्वर श्रीकृष्ण की वाणी है। इसके प्रत्येक श्लोक में ज्ञानरूपी प्रकाश है, जिसके प्रस्फुटित होते ही अज्ञान का अंधकार नष्ट हो जाता है। ज्ञान-भक्ति-कर्म योग मार्गो की विस्तृत व्याख्या की गयी है, इन मार्गो पर चलने से व्यक्ति निश्चित ही परमपद का अधिकारी बन जाता है। गीता को अर्जुन के अलावा और संजय ने सुना और उन्होंने धृतराष्ट्र को सुनाया। गीता में श्रीकृष्ण ने- 574, अर्जुन ने- 85, संजय ने 40 और धृतराष्ट्र ने- 1 श्लोक कहा है।


ईश्वर --

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ब्रह्म (परमात्मा) एक ही है जिसे कुछ लोग सगुण (साकार) कुछ लोग निर्गुण (निराकार) कहते हैं। हालांकि वह अजन्मा, अप्रकट है। उसका न कोई पिता है और न ही कोई उसका पुत्र है। वह किसी के भाग्य या कर्म को नियंत्रित नहीं करता। ना कि वह किसी को दंड या पुरस्कार देता है। उसका न तो कोई प्रारंभ है और ना ही अंत। वह अनादि और अनंत है। उसकी उपस्थिति से ही संपूर्ण ब्रह्मांड चलायमान है। सभी कुछ उसी से उत्पन्न होकर अंत में उसी में लीन हो जाता है। ब्रह्मलीन।

 ब्रह्मांड --

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यह दिखाई देने वाला जगत फैलता जा रहा है और दूसरी ओर से यह सिकुड़ता भी जा रहा है। लाखों सूर्य, तारे और धरतीयों का जन्म है तो उसका अंत भी। जो जन्मा है वह मरेगा। सभी कुछ उसी ब्रह्म से जन्में और उसी में लीन हो जाने वाले हैं। यह ब्रह्मांड परिवर्तनशील है। इस जगत का संचालन उसी की शक्ति से स्वत: ही होता है। जैसे कि सूर्य के आकर्षण से ही धरती अपनी धुरी पर टिकी हुई होकर चलायमान है। उसी तरह लाखों सूर्य और तारे एक महासूर्य के आकर्षण से टिके होकर संचालित हो रहे हैं। उसी तरह लाखों महासूर्य उस एक ब्रह्मा की शक्ति से ही जगत में विद्यमान है।

 

आत्मा --

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आत्मा का स्वरूप ब्रह्म (परमात्मा) के समान है। जैसे सूर्य और दीपक में जो फर्क है उसी तरह आत्मा और परमात्मा में फर्क है। आत्मा के शरीर में होने के कारण ही यह शरीर संचालित हो रहा है। ठीक उसी तरह जिस तरह कि संपूर्ण धरती, सूर्य, ग्रह नक्षत्र और तारे भी उस एक परमपिता की उपस्थिति से ही संचालित हो रहे हैं।


आत्मा का ना जन्म होता है और ना ही उसकी कोई मृत्यु है। आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करती है। यह आत्मा अजर और अमर है। आत्मा को प्रकृति द्वारा तीन शरीर मिलते हैं एक वह जो स्थूल आंखों से दिखाई देता है। दूसरा वह जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं जो कि ध्यानी को ही दिखाई देता है और तीसरा वह शरीर जिसे कारण शरीर कहते हैं उसे देखना अत्यंत ही मुश्किल है। बस उसे वही आत्मा महसूस करती है जो कि उसमें रहती है। आप और हम दोनों ही आत्मा है हमारे नाम और शरीर अलग अलग हैं लेकिन भीतरी स्वरूप एक ही है।

 

स्वर्ग और नरक --

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वेदों के अनुसार पुराणों में स्वर्ग या नर्क को गतियों से समझा जा सकता है। स्वर्ग और नर्क दो गतियां हैं। आत्मा जब देह छोड़ती है तो मूलत: दो तरह की गतियां होती है:- 1.अगति और 2. गति।


1.अगति: अगति में व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिलता है उसे फिर से जन्म लेना पड़ता है।


2.गति: गति में जीव को किसी लोक में जाना पड़ता है या वह अपने कर्मों से मोक्ष प्राप्त कर लेता है।


अगति के चार प्रकार है- 1.क्षिणोदर्क, 2.भूमोदर्क, 3. अगति और 4.दुर्गति।


क्षिणोदर्क-  क्षिणोदर्क अगति में जीव पुन: पुण्यात्मा के रूप में मृत्यु लोक में आता है और संतों सा जीवन जीता है।


भूमोदर्क: भूमोदर्क में वह सुखी और ऐश्वर्यशाली जीवन पाता है।


अगति: अगति में नीच या पशु जीवन में चला जाता है।

दुर्गति- दुर्गति में वह कीट, कीड़ों जैसा जीवन पाता है।


गति के भी 4 प्रकार :-गति के अंतर्गत चार लोक दिए गए हैं:-

1.ब्रह्मलोक, 2.देवलोक, 3.पितृलोक और 4.नर्कलोक। जीव अपने कर्मों के अनुसार उक्त लोकों में जाता है।

 

तीन मार्गों से यात्रा 


जब भी कोई मनुष्य मरता है या आत्मा शरीर को त्यागकर यात्रा प्रारंभ करती है तो इस दौरान उसे तीन प्रकार के मार्ग मिलते हैं। ऐसा कहते हैं कि उस आत्मा को किस मार्ग पर चलाया जाएगा यह केवल उसके कर्मों पर निर्भर करता है। ये तीन मार्ग हैं- अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग। अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए होता है, वहीं धूममार्ग पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है।

 धर्म और मोक्ष --

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धर्मग्रंथों के अनुसार धर्म का अर्थ है यम और नियम को समझकर उसका पालन करना। नियम ही धर्म है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से मोक्ष ही अंतिम लक्ष्य होता है। हिंदु धर्म के अनुसार व्यक्ति को मोक्ष के बारे में विचार करना चाहिए। मोक्ष क्या है? स्थितप्रज्ञ आत्मा को मोक्ष मिलता है। मोक्ष का भावार्थ यह कि आत्मा शरीर नहीं है इस सत्य को पूर्णत: अनुभव करके ही अशरीरी होकर स्वयं के अस्तित्व को पुख्‍ता करना ही मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है।


व्रत और त्योहार--

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हिन्दु धर्म के सभी व्रत, त्योहार या तीर्थ सिर्फ मोक्ष की प्राप्त हेतु ही निर्मित हुए हैं। मोक्ष तब मिलेगा जब व्यक्ति स्वस्थ रहकर प्रसन्नचित्त और खुशहाल जीवन जीएगा। व्रत से शरीर और मन स्वस्थ होता है। त्योहार से मन प्रसन्न होता है और तीर्थ से मन और मस्तिष्क में वैराग्य और आध्यात्म का जन्म होता है।

 

मौसम और ग्रह नक्षत्रों की गतियों को ध्यान में रखकर बनाए गए व्रत और त्योहार का महत्व अधिक है। व्रतों में चतुर्थी, एकादशी, प्रदोष, अमावस्या, पूर्णिमा, श्रावण मास और कार्तिक मास के दिन व्रत रखना श्रेष्ठ है। यदि उपरोक्त सभी नहीं रख सकते हैं तो श्रावण के पूरे महीने व्रत रखें। त्योहारों में मकर संक्रांति, महाशिवरात्रि, नवरात्रि, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी और हनुमान जन्मोत्सव ही मनाएं। पर्व में श्राद्ध और कुंभ का पर्व जरूर मनाएं।

 

व्रत करने से काया निरोगी और जीवन में शांति मिलती है। सूर्य की 12 और 12 चंद्र की संक्रांति होती है। सूर्य संक्रांतियों में उत्सव का अधिक महत्व है तो चंद्र संक्रांति में व्रतों का अधिक महत्व है। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, अषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन। इसमें से श्रावण मास को व्रतों में सबसे श्रेष्ठ मास माना गया है। इसके अलावा प्रत्येक माह की एकादशी, चतुर्दशी, चतुर्थी, पूर्णिमा, अमावस्या और अधिमास में व्रतों का अलग-अलग महत्व है। सौरमास और चंद्रमास के बीच बढ़े हुए दिनों को मलमास या अधिमास कहते हैं। साधुजन चतुर्मास अर्थात चार महीने श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक माह में व्रत रखते हैं।

 

उत्सव, पर्व और त्योहार सभी का अलग-अलग अर्थ और महत्व है। प्रत्येक ऋतु में एक उत्सव है। उन त्योहार, पर्व या उत्सव को मनाने का महत्व अधिक है जिनकी उत्पत्ति स्थानीय परम्परा या संस्कृति से न होकर जिनका उल्लेख वैदिक धर्मग्रंथ, धर्मसूत्र, स्मृति, पुराण और आचार संहिता में मिलता है। चंद्र और सूर्य की संक्रांतियों अनुसार कुछ त्योहार मनाएं जाते हैं। 12 सूर्य संक्रांति होती हैं जिसमें चार प्रमुख है:- मकर, मेष, तुला और कर्क। इन चार में मकर संक्रांति महत्वपूर्ण है। सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व है छठ, संक्रांति और कुंभ। पर्वों में रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, गुरुपूर्णिमा, वसंत पंचमी, हनुमान जयंती, नवरात्री, शिवरात्री, होली, ओणम, दीपावली, गणेशचतुर्थी और रक्षाबंधन प्रमुख हैं। हालांकि सभी में मकर संक्रांति और कुंभ को सर्वोच्च माना गया है।


तीर्थ --

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तीर्थ और तीर्थयात्रा का बहुत पुण्य है। जो मनमाने तीर्थ और तीर्थ पर जाने के समय हैं उनकी यात्रा का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं। तीर्थों में चार धाम, ज्योतिर्लिंग, अमरनाथ, शक्तिपीठ और सप्तपुरी की यात्रा का ही महत्व है। अयोध्या, मथुरा, काशी और प्रयाग को तीर्थों का प्रमुख केंद्र माना जाता है, जबकि कैलाश मानसरोवर को सर्वोच्च तीर्थ माना है। बद्रीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम और जगन्नाथ पुरी ये चार धाम है। सोमनाथ, द्वारका, महाकालेश्वर, श्रीशैल, भीमाशंकर, ॐकारेश्वर, केदारनाथ, विश्वनाथ, त्र्यंबकेश्वर, रामेश्वरम, घृष्णेश्वर और बैद्यनाथ ये द्वादश ज्योतिर्लिंग है। काशी, मथुरा, अयोध्या, द्वारका, माया, कांची और अवंति उज्जैन ये सप्तपुरी। उपरोक्त कहे गए तीर्थ की यात्रा ही धर्मसम्मत है।

 

संस्कार --

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संस्कारों के प्रमुख प्रकार सोलह बताए गए हैं जिनका पालन करना हर हिंदू का कर्तव्य है। इन संस्कारों के नाम है-गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णवेधन, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशांत, सम्वर्तन, विवाह और अंत्येष्टि। प्रत्येक हिन्दू को उक्त संस्कार को अच्छे से नियमपूर्वक करना चाहिए। यह मनुष्य के सभ्य और हिन्दू होने की निशानी है। उक्त संस्कारों को वैदिक नियमों के द्वारा ही संपन्न किया जाना चाहिए।

 

पाठ---

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वेदो, उपनिषद या गीता का पाठ करना या सुनना प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है। उपनिषद और गीता का स्वयंम अध्ययन करना और उसकी बातों की किसी जिज्ञासु के समक्ष चर्चा करना पुण्य का कार्य है, लेकिन किसी बहसकर्ता या भ्रमित व्यक्ति के समक्ष वेद वचनों को कहना निषेध माना जाता है। प्रतिदिन धर्म ग्रंथों का कुछ पाठ करने से देव शक्तियों की कृपा मिलती है। हिन्दू धर्म में वेद, उपनिषद और गीता के पाठ करने की परंपरा प्राचीनकाल से रही है। वक्त बदला तो लोगों ने पुराणों में उल्लेखित कथा की परंपरा शुरू कर दी, जबकि वेदपाठ और गीता पाठ का अधिक महत्व है।

 

धर्म, कर्म , सेवा --

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धर्म-कर्म और सेवा का अर्थ यह कि हम ऐसा कार्य करें जिससे हमारे मन और मस्तिष्क को शांति मिले और हम मोक्ष का द्वार खोल पाएं। साथ ही जिससे हमारे सामाजिक और राष्ट्रिय हित भी साधे जाते हों। अर्थात ऐसा कार्य जिससे परिवार, समाज, राष्ट्र और स्वयं को लाभ मिले। धर्म-कर्म को कई तरीके से साधा जा सकता है, जैसे- 1.व्रत, 2.सेवा, 3.दान, 4.यज्ञ, 5.प्रायश्चित, दीक्षा देना और मंदिर जाना आदि।

 

सेवा का मतलब यह कि सर्व प्रथम माता-पिता, फिर बहन-बेटी, फिर भाई-बांधु की किसी भी प्रकार से सहायता करना ही धार्मिक सेवा है। इसके बाद अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना पुण्य का कार्य माना गया है। इसके अलवा सभी प्राणियों, पक्षियों, गाय, कुत्ते, कौए, चींटी आति को अन्न जल देना। यह सभी यज्ञ कर्म में आते हैं।


दान --

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दान से इंद्रिय भोगों के प्रति आसक्ति छूटती है। मन की ग्रथियां खुलती है जिससे मृत्युकाल में लाभ मिलता है। देव आराधना का दान सबसे सरल और उत्तम उपाय है। वेदों में तीन प्रकार के दाता कहे गए हैं- 1.उत्तम, 2.मध्यम और 3.निकृष्‍ट। धर्म की उन्नति रूप सत्यविद्या के लिए जो देता है वह उत्तम। कीर्ति या स्वार्थ के लिए जो देता है तो वह मध्यम और जो वेश्‍यागमनादि, भांड, भाटे, पंडे को देता वह निकृष्‍ट माना गया है। पुराणों में अन्नदान, वस्त्रदान, विद्यादान, अभयदान और धनदान को ही श्रेष्ठ माना गया है, यही पुण्‍य भी है। 


यज्ञ --

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यज्ञ के प्रमुख पांच प्रकार हैं- ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ। यज्ञ पालन से ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृ ऋण, धर्म ऋण, प्रकृति ऋण और मातृ ऋण समाप्त होता है। नित्य संध्या वंदन, स्वाध्याय तथा वेदपाठ करने से ब्रह्म यज्ञ संपन्न होता है। देवयज्ञ सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से सम्पन्न होता है। अग्नि जलाकर होम करना अग्निहोत्र यज्ञ है। पितृयज्ञ को श्राद्धकर्म भी कहा गया है। यह यज्ञ पिंडदान, तर्पण और सन्तानोत्पत्ति से सम्पन्न होता है। वैश्वदेव यज्ञ को भूत यज्ञ भी कहते हैं। सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्त्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना ही भूत यज्ञ कहलाता है। अतितिथ यज्ञ से अर्थ मेहमानों की सेवा करना। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। इसके अलावा अग्निहोत्र, अश्वमेध, वाजपेय, सोमयज्ञ, राजसूय और अग्निचयन का वर्णण यजुर्वेद में मिलता है।


मंदिर --

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प्रति गुरुवार को मंदिर जाना चाहिए: घर में मंदिर नहीं होना चाहिए। प्रति गुरुवार को मंदिर जाना चाहिए। मंदिर में जाकर परिक्रमा करना चाहिए। भारत में मंदिरों, तीर्थों और यज्ञादि की परिक्रमा का प्रचलन प्राचीनकाल से ही रहा है। मंदिर की 7 बार (सप्तपदी) परिक्रमा करना बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह 7 परिक्रमा विवाह के समय अग्नि के समक्ष भी की जाती है। इसी प्रदक्षिणा को इस्लाम धर्म ने परंपरा से अपनाया जिसे तवाफ कहते हैं। प्रदक्षिणा षोडशोपचार पूजा का एक अंग है। प्रदक्षिणा की प्रथा अतिप्राचीन है। हिन्दू सहित जैन, बौद्ध और सिख धर्म में भी परिक्रमा का महत्व है। इस्लाम में मक्का स्थित काबा की 7 परिक्रमा का प्रचलन है। पूजा-पाठ, तीर्थ परिक्रमा, यज्ञादि पवित्र कर्म के दौरान बिना सिले सफेद या पीत वस्त्र पहनने की परंपरा भी प्राचीनकाल से हिन्दुओं में प्रचलित रही है। मंदिर जाने या संध्यावंदन के पूर्व आचमन या शुद्धि करना जरूरी है। इसे इस्लाम में वुजू कहा जाता है।

 
संध्यावंदन --
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संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। मंदिर में जाकर संधि काल में ही संध्या वंदन की जाती है। वैसे संधि आठ वक्त की मानी गई है। उसमें भी पांच महत्वपूर्ण है। पांच में से भी सूर्य उदय और अस्त अर्थात दो वक्त की संधि महत्वपूर्ण है। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। संध्योपासना के चार प्रकार है- 1.प्रार्थना, 2.ध्यान, 3.कीर्तन और 4.पूजा-आरती। व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है।

 

 धर्म की सेवा --

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धर्म की प्रशंसा करना और धर्म के बारे में सही जानकारी को लोगों तक पहुंचाना प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य होता है। धर्म प्रचार में वेद, उपनिषद और गीता के ज्ञान का प्रचार करना ही उत्तम माना गया है। धर्म प्रचारकों के कुछ प्रकार हैं। हिन्दू धर्म को पढ़ना और समझना जरूरी है। हिन्दू धर्म को समझकर ही उसका प्रचार और प्रसार करना जरूरी है। धर्म का सही ज्ञान होगा, तभी उस ज्ञान को दूसरे को बताना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को धर्म प्रचारक होना जरूरी है। इसके लिए भगवा वस्त्र धारण करने या संन्यासी होने की जरूरत नहीं। स्वयं के धर्म की तारीफ करना और बुराइयों को नहीं सुनना ही धर्म की सच्ची सेवा है।

 

मंत्र --

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वेदों में बहुत सारे मंत्रों का उल्लेख मिलता है, लेकिन जपने के लिए सिर्फ प्रणव और गायत्री मंत्र ही कहा गया है बाकी मंत्र किसी विशेष अनुष्ठान और धार्मिक कार्यों के लिए है। वेदों में गायत्री नाम से छंद है जिसमें हजारों मंत्र है किंतु प्रथम मंत्र को ही गायत्री मंत्र माना जाता है। उक्त मंत्र के अलावा किसी अन्य मंत्र का जाप करते रहने से समय और ऊर्जा की बर्बादी है। गायत्री मंत्र की महिमा सर्वविदित है। दूसरा मंत्र है महामृत्युंजय मंत्र, लेकिन उक्त मंत्र के जप और नियम कठिन है इसे किसी जानकार से पूछकर ही जपना चाहिए।

 

प्रायश्चित --

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प्राचीनकाल से ही हिन्दु्ओं में मंदिर में जाकर अपने पापों के लिए प्रायश्चित करने की परंपरा रही है। प्रायश्‍चित करने के महत्व को स्मृति और पुराणों में विस्तार से समझाया गया है। गुरु और शिष्य परंपरा में गुरु अपने शिष्य को प्रायश्चित करने के अलग-अलग तरीके बताते हैं। दुष्कर्म के लिए प्रायश्चित करना , तपस्या का एक दूसरा रूप है।   यह मंदिर में देवता के समक्ष 108 बार साष्टांग प्रणाम , मंदिर के इर्दगिर्द चलते हुए साष्टांग प्रणाम और कावडी अर्थात वह तपस्या जो भगवान मुरुगन को अर्पित की जाती है, जैसे कृत्यों के माध्यम से की जाती है। मूलत: अपने पापों की क्षमा भगवान शिव और वरूणदेव से मांगी जाती है, क्योंकि क्षमा का अधिकार उनको ही है।

 

दीक्षा --

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दीक्षा देने का प्रचलन वैदिक ऋषियों ने प्रारंभ किया था। प्राचीनकाल में पहले शिष्य और ब्राह्मण बनाने के लिए दीक्षा दी जाती थी। माता-पिता अपने बच्चों को जब शिक्षा के लिए भेजते थे तब भी दीक्षा दी जाती थी। हिन्दू धर्मानुसार दिशाहीन जीवन को दिशा देना ही दीक्षा है। दीक्षा एक शपथ, एक अनुबंध और एक संकल्प है।  दीक्षा के बाद व्यक्ति द्विज बन जाता है। द्विज का अर्थ दूसरा जन्म। दूसरा व्यक्तित्व। सिख धर्म में इसे अमृत संचार कहते हैं।

 

यह दीक्षा देने की परंपरा जैन धर्म में भी प्राचीनकाल से रही है, हालांकि दूसरे धर्मों में दीक्षा को अपने धर्म में धर्मांतरित करने के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा। धर्म से इस परंपरा को ईसाई धर्म ने अपनाया जिसे वे बपस्तिमा कहते हैं। अलग-अलग धर्मों में दीक्षा देने के भिन्न-भिन्न तरीके हैं।

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ॐ जय गौरी नंदा

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