लोकभाषा में प्रायः आश्विन माह को क्वार का महीना कहा जाता है वर्ष के इस सातवें मास में वर्षा बीतकर शरद् ऋतु का आगमन हो जाता है । दिन छोटे और रातें लम्बी होने लगती हैं । न तो अधिक गर्मी होती है और न ही अधिक सर्दी। पितरों के श्राद्ध भी इसी माह में होते हैं तो दुर्गापूजन के शारदीय नवरात्रे और विजयदशमी का त्यौहार भी इसी मास में पड़ता है ।
श्राद्ध--
श्राद्ध शब्द ही श्रध्दा का द्योतक है।अथार्त हम अपने पितरों की तृप्ति के लिये श्रद्धापूर्वक जो सत्कर्म करते है वही श्राद्ध है। संसार मे ऐसा कोई देश जाति सम्प्रदाय नही जो अपने धर्मग्रंथों या परमपरा के अनुसार किसी न किसी रूप में अपने मृत पितरो के प्रति श्रद्धा जरूर व्यक्त करता है।
श्राद्ध केवल मृत पितरो का होता है।पितर दो प्रकार के होते है।
१-दिव्यपितर
मानव जाति के आरंभिक पूर्वज जो पितृलोक में रहते है ,वे दिव्यपितर होते है।
२-मनुष्यपितर
हमारे वे सभी वंशज जो हमेशा श्राद्ध की अपेक्षा रखते है,वे मानुष पितर होते है।
पितृपक्ष महालया पार्वण श्राद्ध--
भादों की पूर्णिमा के दूसरे दिन से प्रारम्भ हो जाता है आश्विनी अर्थात क्वार मास । आश्विनी कृष्ण प्रतिपदा से अमावस्या तक के ये पन्द्रह दिन हमारे यहां पितृपक्ष कहलाते हैं । इस पूरे पक्ष में कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता है और न ही नए वस्त्र बनवाए अथवा पहने जाते हैं । अपने मृतक पूर्वजों को याद करने और उनकी मृत्य की तिथि को उनका श्राद्ध करने की परम्परा वैदिक काल से ही चली आ रही है ।
तिथि निर्णय--
इस पक्ष में मृतक माता - पिता , दादा - दादी और अन्य परिजनों के श्राद्ध उस तिथि को किए जाते हैं जिस तिथि को मृतक का दाह - संस्कार हुआ था । वर्ष के किसी भी मास के किसी भी पक्ष में मृत्यु हुई हो , श्राद्ध इन पन्द्रह दिनों में ही उस तिथि को किया जाता है । पुर्णिमा का श्राद्ध भादों शुक्ल पूर्णिमा को किया जाता है, कुल सोलह श्राद्ध होते है।
प्रायः घर के मुखिया द्वारा तर्पण श्राद्ध कर्म किया जाता है।मृतक पुरुष हेतु ब्राह्मण को भोजन कराने के बाद उन्हें श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार वस्त्र तथा दक्षिणा दी जाती है तो महिला के लिए किसी ब्राह्मणी को भोजन कराया जाता है ।
ब्रह्मपुराण में लिखा है कि आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में यमराज यमपुरी से पितरों को मुक्त कर देते हैं और वे अपनी संतानों तथा वंशजों से पिण्ड दान लेने के लिए भूलोक में आ जाते हैं ।
सूर्य के कन्या राशि में आने पर वे यहां आते हैं और अमावस्या के दिन तक घर के द्वार पर ठहरते हैं । सूर्य के कन्या राशि में आने के कारण ही आश्विन मास के कृष्ण पक्ष का नाम ' कनागत ' अर्थात् कन्या + गत पड़ गया है । जिन लोगों के माता - पिता स्वर्गवासी हो गए हैं उन्हें चाहिए कि वे इस पक्ष में प्रातःकाल उठकर किसी नदी में स्नान करके तिल , अक्षत और कुश हाथ में लेकर वैदिक मंत्रों द्वारा सूर्य के सामने खड़े होकर पितरों को जलांजलि दें ।
यह कार्य पितृ - पक्ष में प्रतिदिन होना चाहिए । पितरों को मृत्यु - तिथि को श्राद्ध करके ब्राह्मणों को भोजन कराना और दक्षिणा देनी चाहिए । इस पक्ष में गयाजी में श्राद्ध करने का विशेष महत्व है ।
श्राद्ध पक्ष अमावस्या को पूर्ण हो जाता है , परन्तु श्राद्धकर्म और तान्त्रिक दृष्टिकोण से बहुत अधिक महत्व है इस अमावस्या को भूले - भटके पितरों के नाम से ब्राह्मण को इस दिन भोजन प्रसाद कराया जाता है , यदि किसी कारणवश किसी तिथि विशेष को श्राद्धकर्म नहीं हो पाता तब उन पित्तरों का श्राद्ध भी इस दिन किया जा सकता है।
इस अमावस्या के दूसरे दिन से शारदीय नवरात्र प्रारम्भ हो जाते हैं । यही कारण है कि मां दुर्गा के प्रचण्ड रूपों के आराधक और तन्त्र साधनाएं करने वाले इस रात्रि को विशिष्ट तान्त्रिक साधनाएं भी करते हैं । यही कारण है कि आश्विन मास की इस अमावस्या को महालया और पितृ - विसर्जन अमावस्या भी कहा जाता है ।
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पितृदेवो भव:
जवाब देंहटाएं🙏🙏गुरूजी जय बदरी विशाल । बहुत ही बढ़िया जानकारी दी है 👍👍
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम
जवाब देंहटाएं🙏
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद ,
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