शुक्रवार, 6 नवंबर 2020
।।अथ देव्यापराधक्षमापन स्त्रोत्रं।।
💐अथ देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् 💐
न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
नचाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः ।।
नजाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम्।।१ ।।
विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया
विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत् ।
तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणी शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।२ ।।
पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः
परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः ।
मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदंनो तव शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।३ ।।
जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया ।
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।४ ।।
परित्यक्ता देवा विविधविध सेवा कुलतया
मया पञ्चाशीते रधिक मपनीते तु वयसि ।
इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता
निरालम्बो लम्बो दरजननिकं यामि शरणम्।।५ ।।
श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाको पमगिरा
निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटि कनकैः ।
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं
जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ।।६ ।।
चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो
जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः ।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं
भवानि त्वत्पाणि ग्रहण परिपाटी फलमिदम्।।७ ।।
न मोक्षस्या काडक्षा भव विभव वाञ्छापि च न मे
न विज्ञाना पेक्षा शशि मुखि सुखेच्छापि न पुनः ।
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै
मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः।।८ ।।
नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः
किं रुक्ष चिन्तन परैर्न कृतं वचोभिः ।
श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्य नाथे
धत्से कृपा मुचितमम्ब परंतवैव।।९ ।।
आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि ।
नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति ।।१० ।।
जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि ।
अपराध परम्परापरं न हि माता समुपेक्षते सुतम्।।११ ।।
मत्समः पातकी नास्ति पापानी त्वत्समान हि ।
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु ।।१२ ।।
इति श्री शङ्कराचार्यविरचितं देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
।। श्री दुर्गार्पणमस्तु ।।
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रविवार, 1 नवंबर 2020
करकचतुर्थी अर्थात् करवा चौथ व्रत कथा।
करकचतुर्थी अर्थात् करवा चौथ
( कार्तिक कृष्णा चतुर्थी)
करवा चौथ के व्रत से ही धार्मिक रूप में प्रारंभ हो जाता है।कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को गणेशजी और चन्द्रमा का व्रत किया जाता है , परन्तु इनमें सर्वाधिक महत्व है करवा चौथ का व्रत अटल सुहाग और पति की दीर्घ आयु के लिए प्रत्येक सुहागिन स्त्री करती है यह व्रत पटरे पर पूजन सामग्री और मिट्टी के करवों में जल भरकर महिलाएं भगवान शिव - पार्वती , कार्तिकेय , चन्द्रदेव और अन्य सभी देवी - देवताओं की पूजा करती हैं तथा चन्द्रमा को अर्घ्य देने के बाद ही भोजन करती हैं । घरों में प्रायः खीर - पूड़ी- हलवा आदि बनाया जाता है और एक उत्सव के रूप में पूर्ण किया जाता है महिलाओं द्वारा इस व्रत को ।
पूजन व वायना
करवा चौथ सुहागिन औरतों का व्रत है , पुरुष और कुंवारी लड़कियां इस व्रत को नहीं करते । इस व्रत में दिन में पानी भी नहीं पिया जाता । चन्द्रोदय के कुछ पूर्व एक पटरे पर कपड़ा बिछाकर अथवा बालू से बेदी बनाकर उस पर मिट्टी से शिवजी , पार्वतीजी , कार्तिकेयजी और चन्द्रमा की छोटी - छोटी मूर्तियां बनाते हैं । आजकल करवा चौथ पूजन के छपे हुए पोस्टर भी आते हैं । नगरों में महिलाएं प्रायः इन्हें दीवार पर चिपका कर पूजा कर लेती हैं ।
पटरे के पास पानी से भरा लोटा और करवा रखकर करवाचौथ की कहानी सुनी जाती है । कहानी सुनने के पूर्व करवे पर रोली से एक सतिया बनाकर उस पर रोली से तैरह बिन्दियाँ लगाई जाती है। गेहूं के तेरह दाने हाथ में लेकर कहानी सुनी जाती है और चांद निकल आने पर चंद्रमा को अर्घ्य देने के पश्चात स्त्रियां भोजन करती है। सामान्य रूप से एक कटोरे में चीनी भरकर और उस पर रुपए रखकर करवा चौथ का बायना निकाल कर सास , बड़ी ननद या जिठानी को दिया जाता है । जिस वर्ष लड़की की शादी होती है उस वर्ष मायके से चौदह चीनी के करवों , बर्तनों , कपड़ों और गेहूं आदि के साथ विशेष बायना भी आता है ।
उजमन -- करवा चौथ के उजमन में एक थाल में तेरह जगह चार - चार पूड़ियां रखकर उनके ऊपर सूजी का हलुवा रखा जाता है । इसके ऊपर साड़ी - ब्लाउज और सामर्थ्यानुसार रुपए रखे जाते हैं । हाथ में रोली - चावल लेकर थाल के चारों ओर हाथ घुमाने के बाद यह बायना सासूजी को दिया जाता है । तेरह सुहागिन ब्राह्मणियों को भोजन कराने के बाद उनके माथे पर बिन्दी लगाकर और सामर्थ्यानुसार सुहाग की वस्तुएं एवं दक्षिणा देकर विदा कर दिया जाता है । लोकव्यवहार में प्रायः ही पूड़ी - हलुवा तो भोजन करने वाली ब्राह्मणियों को परोस दिया जाता है और साड़ी - ब्लाउज व रुपए सासूजी को दे देते हैं । यह सिद्धान्त से अधिक व्यावहारिक सुविधा की बात है ।
कथा--
करवा चौथ के व्रत में गणेश जी से संबंधित कोई कहानी तथा लोक प्रचलित अन्य कोई कहानी भी महिलाएं कहती हैं , वैसे इसकी विशिष्ट कहानी इस प्रकार है ।
प्राचीन काल की बात है । करवा नाम की एक पतिव्रता स्त्री अपने पति के साथ नदी किनारे के एक गांव में रहती थी । एक दिन उस पतिव्रता स्त्री करवा का पति नदी में स्नान करने गया । नदी में स्नान करते समय एक मगर ने उस व्यक्ति का एक पैर पकड़ लिया । इस पर वह व्यक्ति ' करवा ' करवा ' कहकर चिल्लाता हुआ ,अपनी पत्नी को चिल्ला - चिल्लाकर सहायता के लिये पुकारने लगा । अपने पति की आवाज को सुनकर करवा भाग कर अपने पति के पास आ पहुंची और आकर मगर को कच्चे धागे से बांध दिया ।
मगर को सूत के कच्चे धागे से बांधने के बाद करवा यमराज के यहां जा पहुंची और यमराज से बोली--हे प्रभु एक मगर ने नदी के जल में मेरे पति का पैर पकड़ लिया है । उस मगर को मेरे पति का पैर पकड़ने के अपराध में मारकर आप अपनी शक्ति से उसे नर्क में ले जाओ । करवा की बात सुनकर यमराज बोले ,अभी मगर की आयु शेष है अतएव आयु रहते हुए मैं असमय मगर को मार नहीं सकता । इस पर करवा बोली यदि मगर को मारकर आप मेरे पति की रक्षा नहीं करोगे तो मैं शाप देकर आपको नष्ट कर दूंगी ।
करवा की धमकी सुनकर यमराज डर गये । वे उस पतिव्रता स्त्री करवा के साथ वहां आये जहां मगर ने उसके पति का पैर पकड़ रखा था । यमराज ने मगर को मार कर यमलोक पहुंचा दिया और करवा के पति की प्राण रक्षा कर उसे दीर्घायु प्रदान की । करवा ने पतिव्रत बल से अपने पति की प्राण रक्षा की थी । इस चमत्कारिक घटना के दिन से करवा चौथ का व्रत करवा के नाम से प्रचलित हो गया । जिस दिन करवा ने अपने पति के प्राण बचाये थे उस दिन कार्तिक के कृष्ण पक्ष की चौथ थी । हे करवा माता ! जैसे आपने अपने पति की प्राण रक्षा की वैसे ही सबके पतियों के जीवन की रक्षा करना ।
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बुधवार, 21 अक्टूबर 2020
नवरात्र के अष्टम दिवस में माँ महागौरी की पूजा से भक्तों का कल्याण होता है।
महागौरी--
श्वेतेवृषे समारूढ़ा श्वेताम्बरधरा शुचिः ।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेव प्रमोददा ।।
माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है । इनका वर्ण पूर्णतः गौर है , जिसकी उपमा शंख , चन्द्र और कुन्द के फूल से दी गई है । इनकी अवस्था आठ वर्ष की है ‘ अष्टवर्षा भवेद् गौरी ' । इनके वस्त्र एवं आभूषण सभी श्वेत एवं स्वच्छ है । इनके तीन नेत्र है ।
ये वृषभवाहिनी और चार भुजाओं वाली है । ऊपर वाले दक्षिण हस्त में अभयमुद्रा और नीचे के दक्षिण हस्त में त्रिशूल है । ऊपर वाले वाम हस्त में डमरू और नीचे के वाम हस्त में वर मुद्रा है । इनकी मुद्रा अत्यंत शांत है । ये सुवासिनी और शांत मूर्ति हैं । इन्होंने अपने पार्वती रूप में भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी ।
इनकी प्रतिज्ञा थी कि ' वियेऽदं वरदं शम्भुं नान्यं देवं महेश्वरात् ' कठोर तपस्या के कारण इनका शरीर धूल मिट्टी से ढककर मलिन हो गया था । तब शिवजी ने गंगाजल से मलकर उसे धोया , तब वह विद्युत के समान कान्तिमान हो गया । अत्यन्त गौर हो गया । इसी से ये विश्व में महागौरी नाम से विख्यात हुई । दुर्गा पूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है । इनकी शक्ति अमोघ और सद्यः फल देने वाली है । माँ महागौरी का ध्यान स्मरण पूजन - आराधन भक्तों के लिए सब प्रकार से कल्याणकारी है ।
नवरात्र के नवें दिन माँ सिद्धिदात्री की उपासना से समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होती है।
सिद्ध गन्धर्व यक्षा द्यैरसुरैरमरैरपि ।
सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी ।।
माँ दुर्गाजी की नवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है ।
ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं । मार्कण्डेय पुराण में आठ सिद्धियाँ बतलाई गई हैं - अणिमा , महिमा , गरिमा , लघिमा , प्राप्ति , प्राकाम्य , ईशीत्व एवं वशित्व ।
ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह संख्या अठारह बताई गई है -
( 1 ) अणिमा ( 2 ) लघिमा ( 3 ) प्राप्ति ( 4 ) प्राकाम्य ( 5 ) महिमा ( 6 ) ईशित्व , वशित्व ( 7 ) सर्वकामावसचिता ( 8 ) सर्वज्ञत्व ( 9 ) दूरश्रवण ( 10 ) परकाय प्रवेशन ( 11 ) वासिद्धि ( 12 ) कल्पवृक्षत्व ( 13 ) सृष्टि ( 14 ) संहारकरण सामर्थ्य ( 15 ) अमरत्व ( 16 ) सर्वन्यायकत्व ( 17 ) भावना ( 18 ) सिद्धि ।
देवी पुराण के अनुसार भगवान शिव ने इनकी कृपा से ही इन सिद्धियों को प्राप्त किया था । इनकी कृपा से ही भगवान शिव का आधा शरीर देवी का हुआ था और वे अर्धनारीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए । ये चार भुजाओं वाली हैं । इनका वाहन सिंह है । ये कमल पुष्प पर भी आसीन होती है । इनकी दाहिने तरफ के नीचे वाले हाथ में चक्र , ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बांयी तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्प है । दुर्गा के इस स्वरूप को देवता , ऋषि , मुनि , सिद्ध , योगी , साधक और भक्त सभी सर्वज्ञेय की प्राप्ति के लिए आराधना करते हैं ।
नवरात्र के सप्तम दिवस में माँ कालरात्रि की उपासना से भक्त भय मुक्त हो जाता है
कालरात्रि --
एकवेणी जपा कर्णपरा नग्ना खरास्थिता ।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्त शरीरिणी ।।
वामपादोल्लसल्लोहलता कण्टक भूषणा ।
वर्धन मूर्ध ध्वजा कृष्णा कालरात्रि भयंकरी ।।
माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती है । इनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है । सिर के बाल बिखरे हुए हैं । गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है । इनके तीन नेत्र हैं , ये तीनों नेत्र ब्रह्माण्ड के समान गोल है , इनसे बिजली के समान चमकीली किरणें निकलती रहती हैं । इनकी नासिका के श्वास प्रश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालायें निकलती रहती हैं । इनका वाहन गदहा है । ऊपर उठा हुआ दाहिना हाथ वरमुद्रा में है । बायो तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग ( कटार ) है । ये अपने भक्तों को सब प्रकार के कष्टों से मुक्त करती हैं । अतएव ये शुभ करने से शुभंकरी है । माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है , लेकिन ये सदैव शुभ फल देने वाली है ।
दुर्गा पूजा के सातवें दिन माँ कालरात्रि की उपासना का विधान है इस दिन साधक का मन ' सहस्रार ' चक्र में स्थित रहता है । उसके लिए ब्रह्माण्ड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है । माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश करने वाली हैं । इनकी कृपा से भक्त सर्वथा भयमुक्त हो जाता है ।
नवरात्र के षष्ठ दिवस में माँ कात्यायनी की उपासना से धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है।
कात्यायनी--
चन्द्रहासो ज्ज्वलकरा शार्दूलवर वाहना ।
कात्यायनी शुभ दधा देवी दानवघातिनी ।।
माँ दुर्गा के छठवें स्वरूप का नाम कात्यायनी है । कत नाम से एक प्रसिद्ध महर्षि थे । उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए । इन्हीं कात्य के गोत्र में महर्षि कात्यायन उत्पन्न हुए थे । इन्होंने भगवती पराम्बा की कठोर तपस्या की कि आप मेरी पुत्री हो जायें । माँ भगवती ऋषि की भावना की पूर्णता के लिए उनके यहाँ पुत्री के रूप में अवतीर्ण हुई । इससे इनका नाम कात्यायनी पड़ा । एक बार जब दानव महिषासुर का अत्याचार पृथ्वी पर बहुत बढ़ गया तब भगवान ब्रह्मा , विष्णु , महेश तीनों ने अपने अपने तेज का अंश देकर महिषासुर के विनाश के लिए एक देवी को उत्पन्न किया । महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी पूजा की , इस कारण से कात्यायनी कहलाई ।
एक कथा के अनुसार भगवती ने महर्षि कात्यायन के यहाँ आश्विन कृष्ण चर्तुदशी को जन्म लेकर शुक्ल सप्तमी , अष्टमी तथा नवमी तक तीन दिन कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण की तथा दशमी को महिषासुर का वध किया था । माँ कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत भव्य और दिव्य है । इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला है । इनके तीन नेत्र तथा चार भुजायें है । माताजी का दाहिनी तरफ का ऊपर वाला हाथ अभय मुद्रा में नीचे वाला वर मुद्रा में है । बांयी तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमल का फूल सुशोभित है । इनका वाहन सिंह है । दुर्गा पूजा के छठवें दिन इनके स्वरूप की उपासना की जाती है । उस दिन साधक का मन ' आज्ञा ' चक्र में अवस्थित होता है । योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । माँ कात्यायनी की भक्ति से मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ , धर्म , काम , मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है ।
मंगलवार, 20 अक्टूबर 2020
नवरात्र के पंचम दिवस में💐 माँ स्कन्द माता 💐 की पूजा से समस्त इच्छाओं की पूर्ति होती है।
स्कन्दमाता --
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया ।
शुभ दास्तु सदा देवी स्कन्द माता यशस्विनी ।।
माँ दुर्गाजी के पाँचवे स्वरूप को स्कन्द माता के नाम से जाना जाता है । शैलपुत्री पार्वतीजी ने ब्रह्मचारिणी बन कर तपस्या करने के बाद भगवान शिव से विवाह किया । तदन्तर स्कन्द उनके पुत्र रूप में उत्पन्न हुए ।
स्कन्द कुमार कार्तिकेय नाम से भी जाने जाते हैं । ये प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे । पुराणों में इन्हें कुमार और शक्तिधर भी कहा गया है । इन्हीं भगवान स्कन्द की माता होने के कारण माँ दुर्गाजी के पाँचवे स्वरूप को स्कन्द माता के नाम से जाना जाता है । इनके विग्रह में स्कन्दजी बाजू रूप में इनकी गोद में बैठे होते हैं । इन देवी की चार भुजायें , तीन आँखें हैं । ये स्कन्द माता अग्नि मंडल की देवता हैं । ये शुभ्रवर्णा हैं तथा पद्म के आसन पर विराजमान है । इसी कारण इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है । सिंह इनका वाहन है । ये दाहिनी तरफ की ऊपर की भुजा से भगवान स्कन्द को गोद में पकड़े हुए हैं और दाहिने तरफ की नीचे वाली भुजा जो ऊपर की ओर उठी हुई है , उसमें कमल पुष्प है । बांयी तरफ से ऊपर वाली भुजा वर मुद्रा में तथा नीचे वाली भुजा जो ऊपर की ओर उठी है उसमें भी कमल पुष्प है ।
इन देवी की उपासना नवरात्रि पूजा के पाँचवे दिन की जाती है । इस दिन साधक का मन ‘ विशुद्ध ' चक्र में अवस्थित होता है । इस दिन का शास्त्रों में पुष्कल महत्व बताया गया है । इस चक्र में अवस्थित मन वाले साधक की समस्त बाह्य क्रियाओं एवं चित्त वृत्तियों का लोप हो जाता है । वह विशुद्ध चैतन्य स्वरूप की ओर अग्रसर हो रहा होता है । माँ स्कन्द माता की उपासना से भक्त की समस्त इच्छायें पूर्ण हो जाती है ।
सोमवार, 19 अक्टूबर 2020
नवरात्र के चौथे दिन माँ कुष्मांडा की उपासना से समस्त रोग शोक नष्ट होते है
कूष्माण्डा--
सुरा सम्पूर्ण कलशं रूधिराष्लुत मेव च ।
दूधाना हस्त पद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभ दास्तु मे ।।
माँ दुर्गा जी के चौथे स्वरूप का नाम कुष्माण्डा है । ईषत् हँसने से अण्ड को अर्थात् ब्रह्माण्ड को जो पैदा करती है , वे शक्ति कूष्माण्डा हैं । यही सृष्टि की आदि शक्ति हैं । इनके पूर्व ब्रह्माण्ड का अस्तित्व नहीं था । ये सूर्य मण्डल के भीतर निवास करती है । सूर्य के समान इनके तेज की झलक दशों दिशाओं में व्याप्त है । इनकी आठ भुजायें हैं , अतः ये अष्टभुजा देवी के नाम से भी विख्यात हैं ।
इनकी सात भुजाओं में कमण्डलु , धनुष , बाण , कमल पुष्प , अमृत से भरा कलश , चक्र तथा गदा तथा आठवें हाथ में जप माला है । इनका वाहन सिंह हैं । कूष्माण्ड अर्थात् कुम्हड़े की बलि इन्हें प्रिय है , इस कारण से भी इनका कूष्माण्डा नाम विख्यात है । नवरात्र पूजन के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की पूजा की जाती है । इस दिन साधक का मन ' अनाहत ' चक्र में अवस्थित होता है । इन देवी की उपासना से भक्तों के समस्त रोग शोक नष्ट हो जाते हैं । आयु , यश , बल और आरोग्य में वृद्धि होती है ।
नवरात्रि के तृतीय दिवस में माँ चन्द्रघंटा की उपासना से परमकल्याण होता है।
चन्द्रघण्टा--
पिण्डज प्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्र कैर्युता ।
प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघण्टे ति विश्रुता ।।
माँ दुर्गाजी की तीसरी शक्ति का नाम चन्द्रघण्टा है । इनका यह स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है । इनके मस्तक में घण्टा के आकार का अर्धचन्द्र है , इसी कारण इन्हें चन्द्रघण्टा देवी कहा जाता है । ये लावण्यमयी दिव्य मूर्ति हैं । सुवर्ण के समान इनके शरीर का रंग है । इनके तीन नेत्र और दस हाथ हैं , जिनमें दस प्रकार के खड्ग आदि शस्त्र तथा बाण आदि अस्त्र विभूषित हैं । इनका वाहन सिंह है । इनकी मुद्रा लड़ने के लिए युद्ध में जाने के लिए उन्मुख रहने की है । ये वीररस की अपूर्व मूर्ति हैं । इनके घण्टे की सी भयानक चन्डजाने से सभी दुष्ट दैत्य दावन एवं राक्षस त्रस्त हो जाते हैं । नवरात्र उपासना में तीसरे दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन किया जाता है ।
इसदिन साधक का मन मणिपूर ' चक्र में प्रविष्ठ होता है । माँ चन्द्रघण्टा की कृपा से उसे अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं । दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है , दिव्य ध्वनियां सुनाई देती हैं । इनकी आराधना सद्यफलदायी है । माँ चन्द्रघण्टा का ध्यान इहलोक और परलोक दोनों के लिए परमकल्याणकारी और सद्गति को देने वाला है ।
शनिवार, 17 अक्टूबर 2020
💐ब्रह्मचारिणी💐
ब्रह्मचारिणी--
दधाना कर पद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू ।
देवि प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा ।।
भगवती ब्रह्मचारिणी ब्रह्म ( तप ) का आचरण करने वाली हैं । ( वेदस्तत्त्वं तपोब्रह्म - वेद , तत्व एवं तप ब्रह्म शब्द का अर्थ हैं ) इनका स्वरूप पूर्ण ज्योर्तिमय एवं अत्यन्त भव्य है । इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बांये हाथ में कमण्डलु है तथा ये आनन्द से परिपूर्ण हैं ।
ये पूर्व जन्म में पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती हेमवती थी । तब नारद के उपदेश से इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी । इसी दुष्कर तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात् ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया । कई हजार वर्ष तप करते - करते पहले इन्होंने केवल फल - फूल खाये फिर शाक पर निर्वाह किया , कुछ समय कठिनउपवास रख खुले आकाश के बीच वर्षा , धूप , शीत के आघात सहे , इसके पश्चात् केवल जमीन पर पड़े हुए सूखे बेल पत्ते खाकर आराधना की । अन्त में सूखे बेल पत्तों को भी खाना छोड़ दिया तथा निर्जल और निराहार तपस्या करती रही । पत्तों को भी खाना छोड़देने के कारण इनका नाम अर्पणा पड़गया ।
कठिन तपस्या से जब इनका शरीर अत्यंत कृश हो गया तब इनकी माता मेनका अत्यन्त दुःखी हो उठी । उन्होंने कहा पुत्री उ - मा ! ( तप मत करो ) तबसे इनका नाम उमा भी प्रसिद्ध हो गया । उनकी इस तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने आकाशवाणी के द्वारा इन्हें संबोधित करते हुए कहा - हे देवि तुम्हारी मनोकामना सर्वतोभावेन परिपूर्ण होगी । भगवान चन्द्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे ।
माँ दुर्गा का यह दूसरा स्वरूप भक्तों को अनन्त फल देने वाला हैं । इनकी उपासना से मनुष्य में तप , त्याग , वैराग्य , सदाचार , संयम की वृद्धि होती है । उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय प्राप्ति होती है । दुर्गा पूजा के दूसरे दिन इन्हीं के स्वरूप की उपासना की जाती है । इस दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित होता है । इस चक्र में अवस्थित मन वाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है ।
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