रविवार, 22 नवंबर 2020

कार्तिक पुर्णिमा देव दीपावली

 कार्तिकी पूर्णिमा --

कार्तिक मास की पूर्णिमा ' त्रिपुरी पूर्णिमा ' भी कहलाती है । इस दिन यदि कृतिका नक्षत्र हो तो ‘ महाकार्तिकी ' होती है , भरणी नक्षत्र होने से विशेष फल देती है और रोहिणी नक्षत्र होने पर इसका महत्त्व बहुत अधिक बढ़ जाता है । इसी दिन सायंकाल में भगवान का मत्स्यावतार हुआ था ।इस दिन दिये हुए दानादि का दस यज्ञों के समान फल होता है ।

कार्तिक पूर्णिमा का दिन देव दीपावली के रूप में मनाया जाता है । जिसका फल- ब्रह्मा , विष्णु , शिव , अंगिरा और आदित्य ने इसे महापुनीत - पर्व कहा है । इस दिन किये हुए गंगा - स्नान , दीप - दान , होम , यज्ञ , उपासना आदि का विशेष महत्त्व है और इन सभी सत्कर्मों का अनंत फल होता है । इस दिन कृत्तिका पर चन्द्रमा और बृहस्पति हों तो यह ‘ महापूर्णिमा ' कहलाती है । कृत्तिका पर चन्द्रमा और विशाखा पर सूर्य हों तो ‘ पद्भक ' योग होता है जो पुष्कर में भी दुर्लभ है । इस दिन संध्याकाल में त्रिपुरोत्सव करके दीप - दान करने से पुनर्जन्मादि नहीं होता । इस तिथि में कृत्तिका में विश्व स्वामी का दर्शन करने से ब्राह्मण सात जन्म तक वेदपाठी और धनवान् होता है । 


इस दिन चन्द्रोदय के समय शिवा , संभूति , संतति , प्रीति , अनुसूया और क्षमा - इन छह कृतिकाओं का पूजन करना चाहिए । कार्तिकी पूर्णिमा की रात्रि में व्रत करके वृषदान करने से शिव - पद प्राप्त होता है । गाय , हाथी , घोड़ा , रथ , घी आदि का दान करने से सम्पत्ति बढ़ती है । इस दिन उपवास करके भगवान् का स्मरण - चिन्तन करने से अग्निष्टोम यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है और सूर्य लोक की प्राप्ति होती है । मेष अर्थात भेड़ दान करने से ग्रहयोग के कष्ट नष्ट हो जाते हैं । कार्तिकी को अपनी अथवा परायी अलंकृता कन्या का दान करने से ' संतान - व्रत ' पूर्ण होता है । कार्तिकी पूर्णिमा में प्रारम्भ करके प्रत्येक पूर्णिमा को रात्रि में व्रत और जागरण करने से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं , ऐसा शास्त्रों का कथन है ।

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बुधवार, 18 नवंबर 2020

देवोत्थानी ( देव - उठानी )

 देवोत्थानी ( देव - उठानी )

एकादशी ( कार्तिक शुक्ला एकादशा ) 

दीपावली के पश्चात् कार्तिक शुक्ला एकादशी को देवात्थान या देवठान होता है । इस दिन सारे घर को लीप पोत कर साफ करना चाहिये । आंगन को खड़िया मिट्टी और गेरू से काढ़ना चाहिये । 

आंगन के बीचोबीच या फिर एक ओखली में गेरू से चित्र ऋतुफल आर गन्ना उस स्थान पर रखकर एक परात अथवा डलिया से ढक दिया है तथा एक दीपक भी जला दिया जाता है । रात्रि में परिवार के सभी वयस्क सदस्य तथा बालक और महिलाएं देवताओं की भगवान् विष्णु सहित पूजा और भजन कीर्तन भी करते हैं । इसके साथ ही घड़ियाल बजाकर या थाली बजाकर इस प्रकार कहें। 

  उठो देवा , बैठो देवा , आंगुरिया चटकाओ देवा ।

 यह एकादशी देव प्रबोधिनी एकादशी के नाम से भी जानी जाती है । आषाढ़ शुक्ला एकादशी की तिथि को देव शयन करते हैं और इस कार्तिक शुक्ला एकादशी के दिन देव उठते हैं । इसीलिये इस एकादशी को देवोत्थानी या देव - उठानी एकादशी कहा जाता है । इस एकादशी से ही सभी शुभ कार्य , विवाह , उपनयन इत्यादि प्रारम्भ हो जाते हैं ।

कुछ धार्मिक व्यक्ति देवोत्थान के दिन तुलसी और सालिग्राम के विवाह का आयोजन भी करते हैं । तुलसी के वृक्ष और सालिग्राम की यह शादी पूरे धूमधाम से उसी प्रकार की जाती है जिस प्रकार सामान्य विवाह । जिन दम्पत्तियों के कन्या नहीं होती , वे जीवन में एक बार तुलसी का विवाह करके कन्यादान का पुण्य अवश्य प्राप्त करें , ऐसी शास्त्रों की मान्यता है ।

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मंगलवार, 17 नवंबर 2020

सूर्य-षष्ठी व्रत,छठ पूजा

सूर्य षष्ठी व्रत--

 ( कार्तिक शुक्ला षष्ठी ) 

भरतीय नारि हर तरफ अपने साहस व धैर्य का परिचय गृहस्थ जीवन हो पूजा पाठ जप तप या हो कठिन से कठिन व्रत जो पुत्रवती सुहागिन नारियाँ ही करती हैं यह व्रत । इस व्रत में पंचमी से सप्तमी तक तीन दिन उपवास किया जाता है । जिसे छठ पूजा, सूर्य षष्ठी कहा जाता है।

पंचमी के दिन केवल एक बार नमक रहित भोजन किया जाता है , तो षष्ठी के पूरे दिन जल भी नहीं पिया जाता । शाम के समय डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य देकर फल , पकवान , नमकीन और पुष्प आदि भगवान भास्कर को अर्पित किए जाते हैं । निराहार रहकर रात्रि भर जागरण करती हैं और दूसरे दिन सूर्योदय के पूर्व ही नदी अथवा सरोवर पर जाकर स्नान करने और उदित होते हुए भगवान भास्कर की पूजा करने एवं अर्घ्य देने के बाद मुँह में जल डाला जाता है।

काफी कठिन है यह व्रत , परन्तु इसे करने वाली स्त्रियां पति - पुत्रों , धन - सम्पति एवं एश्वर्य से परिपूर्ण भी रहती हैं ।


सोमवार, 16 नवंबर 2020

माघी गणेश चतुर्थी अथवा सकट चौथ

 गणेश चतुर्थी अथवा सकट चौथ

 ( माघ शुक्ल चतुर्थी ) 

प्रत्येक मास के प्रारम्भ अर्थात कृष्ण पक्ष की चतुर्थी यों तो । गणेश चौथ कहलाती है , और धार्मिक प्रवृत्ति की महिलाएं उस दिन व्रत एवं गणेश जी की पूजा करती है। परन्तु जहां तक माघ मास के शुक्ल पक्ष की इस चतुर्थी का प्रश्न है सभी महिलाएं इस व्रत को करती हैं । यह व्रत संकट विनायक गणेशजी के निमित किया जाता है , परन्तु लोक व्यवहार में अधिकांश महिलाएं इसे सकट चौथ ही कहती हैं । वक्रतुण्डी चतुर्थी , माघी चौथ अथवा तिलकुट्टा चौथ भी कुछ क्षेत्रों में इसे कहा जाता है । 

आज के दिन संकट मोचन गणेश जी , गौरी और चन्द्रमा की पूजा की जाती है । एक पटरे पर मिट्टी की डली को गणेश जी के रूप में रखकर उनकी पूजा की जाती है और कहानी सुनने के बाद लोटे में भरा जल चन्द्रदेव को चढ़ाने के बाद व्रत खोला जाता है । रात्रि को चन्द्रमा पर जल चढ़ाने के बाद ही महिलाएं भोजन करती हैं , पूरे दिन पानी भी नहीं पीतीं । चौथ का चन्द्रमा रात्रि दस बजे के लगभग उदित होता है । यही कारण है कि पूरे दिन पानी भी नही पिया जाता है।जहां तक भोजन का विषय है।तो सामान्य भोजन ही किया जाता है । 

सकट चौथ का व्रत एक त्यौहार के रूप में मनाया जाता के बनाया जाता है । सफेद तिल व गुड़ का तिलकुट बनाया जाता है।उस दिन तिल के लड्डू चौथ का सबसे प्रमुख उपादान है । तिलकुटा का पूजन किया जाता है ,इसका ही बायना निकालते हैं और तिलकुट को भोजन के साथ खाते भी हैं । जिस घर में लड़का उत्पन्न होता है या लड़के की शादी होती है , उस वर्ष इस चौथ को सवा किलोग्राम तिलों को सवा किलोग्राम शक्कर या गुड़ के साथ कूटकर इसके तेरह लड्डू बनाए जाते हैं । बहु इन लड्डूओं को बायने के रूप में सासु जी को देती है । वैसे सभी स्त्रियां इस दिन तिलकुट का सामान्य बायना तो निकालती हैं ।


 कथा -

 किसी नगर में एक कुम्हार रहता था । एक बार जब उसने बर्तन बना कर आंवा लगाया तो आंवा पका ही नहीं । ऐसा कई बार हुआ । वह आंवे में बर्तन रखता परन्तु आंवा न पकता । हार कर वह राजा के पास गया और प्रार्थना करने लगा । राजा ने राजपंडित को बुला कर कारण पूछा । राज - पण्डित ने कहा यदि हर बार आंवा लगाते समय बच्चे की बलि दी जाएगी तो आंवा पक जाएगा । 

राजा का आदेश हो गया । बलि आरम्भ हुई । जिस परिवार की बारी होती वह परिवार अपने बच्चों में से एक बच्चा बलि के लिए भेज देता । इसी तरह कुछ दिनों बाद सकट के दिन एक बुढ़िया के इकलौते लड़के की बारी आई । बुढ़िया के लिए वही जीवन का सहारा था । दुःखी बुढ़िया सोच रही थी कि मेरा यही तो एक बेटा है , वह भी सकट के दिन मुझ से जुदा हो जाएगा । बुढ़िया ने लड़के को सकट की सुपारी तथा दूब का बीड़ा देकर कहा , “ अब भगवान का नाम लेकर आंवा में बैठ जाना । सकट माता रक्षा करेंगी । " बालक आंवा में बिठा दिया गया और बुढ़िया सकट माता के सामने बैठ कर पूजा - प्रार्थना करने लगी । पहले तो आंवा पकने में कई दिन लग जाते थे ; पर इस बार सकट माता की कृपा से एक ही रात में आंवा पक गया । सवेरे कुम्हार ने देखा तो हैरान रह गया । आंवा पक गया था । बुढ़िया का बेटा तथा पहले आंवे में बैठाए गये अन्य बालक भी जीवित तथा सुरक्षित थे।नगर निवासियों ने सकट की महिमा स्वीकार की तथा लड़के को भी धन्य माना।

उस दिन राजा ने नगर में ढिंढ़ोरा पिटवा दिया कि आज से हर कोई माता सकट माता की पूजा अवश्य करें।

हे सकट माता जैसे आपने बुढ़िया के बेटे की रक्षा की वैसे ही सबकी रक्षा करना।

।।बोलो सकट माता की जय।।

।।श्री गणेश महाराज की जय।।

नरक चतुर्दशी, रूप चौदस और हनुमान जयंती

 नरक चतुदर्शी , रूप चौदस और हनुमान जयन्ती

 ( कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी )

धनतेरस के आगामी दिन को लोक व्यवहार में छोटी दीवाली कहा जाता है , क्योंकि इसके आगामी दिन दीपावली मनाई जाती है । कृष्ण पक्ष की इस चतुर्दशी का विशिष्ट नाम नरक चतुर्दशी है , क्योंकि यह माना जाता है कि आज जो व्यक्ति स्नान - ध्यान और शाम को दीपदान करता है , उसे नरक में नहीं जाना पड़ता । आज घर और स्वयं के शरीर की सम्पूर्ण सफाई विशेष रूप से करनी चाहिए , क्योंकि यह माना जाता है कि जो व्यक्ति आज के दिन मलीन अर्थात् गन्दा रहता है वह पूरे वर्ष दरिद्र और दीनहीन बना रहता है । यद्यपि अब तो दीपावली हेतु घरों की पूर्ण सफाई और सजावट कई दिनों पूर्व ही कर ली जाती है , परन्तु पहले घरों और सम्पूर्ण गांव की सफाई आज विशेष रूप से की जाती थी । आज शाम को दीपक जलाते समय तो स्त्रियां विशिष्ट वस्त्र और आभूषण पहनकर सम्पूर्ण श्रृंगार करती ही हैं , प्रातः स्नान का भी विशिष्ट विधान है । प्रातःकाल सम्पूर्ण शरीर में उबटन लगाकर स्नान करना चाहिए । स्नान के बाद तीन अंजुलि जल से यमराज 

करते हैं यमराज के निमित्त यह तर्पण । धन तेरस को यमराज के निमित्त दीपक जलाने और आज प्रातः यह तर्पण करने से यमराज ही उस व्यक्ति को नर्क में जाना पड़ता है । आज शाम को ग्यारह , प्रसन्न होते हैं । उस घर में न तो अकाल मृत्यु होती है और न 1 इक्कीस अथवा इक्कत्तीस दीपक जलाने का विधान है । पांच अथवा सात दीपक तो घी के जलाए जाते हैं और शेष तेल के घी का एक - एक दीपक पूजा के स्थान , रसोई , पानी रखने के स्थान , भण्डारगृह और गोशाला में रखा जाता है । शेष दीपक विभिन्न स्थानों पर रख दिए जाते हैं । दीपक जलाते समय रोली , चावल , खील और बताशों से इनकी पूजा भी की जाती है ।

अधिकांश धर्मग्रन्थ तो चैत्र मास की पूर्णिमा को हनुमान जी का जन्म दिन मानते हैं और उसी दिन हनुमान जयन्ती मनाते हैं । देश के कुछ भागों में आज के दिन को हनुमान जी का जन्म दिन मानकर हनुमान जयन्ती भी मनाई जाती है । शास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु ने आज के दिन ही नरकासुर नामक दैत्य का वध किया था और इसी कारण छोटी दीपावली का एक नाम नरक चौदस भी है , जबकि पूर्ण स्वच्छता कारण रूप चतुर्दशी ।

भीष्म पंचक स्नान एवं व्रतविधि

 भीष्म पंचक स्नान एवं व्रत --

( कार्तिक शुक्ला एकादशी से पूर्णिमा तक )

जो महिलाएं पूरे कार्तिक मास तक किसी पवित्र नदी अथवा  सरोवर में स्नान नहीं कर पातीं , वे भी पांच दिन का यह पंचक स्नान तो करती ही हैं । सामान्य स्नान और पूजा के स्थान पर जब यह क्रिया निम्न विधि से की जाती है , तब कहलाने लगती है भीष्म पंचक व्रत ।

कार्तिक शुक्ला एकादशी के दिन स्नानादि से शुद्ध होकर पापों के नाश और धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए इस व्रत का संकल्प करें । घर के आंगन या नदी के तट पर चार दरवाजों वाला मण्डप बनाकर उसे गोबर से लीप देना चाहिए । बाद में सर्वतोभद की वेदी बनाकर उस पर तिल भरकर कलश स्थापित करें । “ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय " इस मन्त्र से भगवान् वासुदेव की पूजा करनी चाहिए । पांच दिनों तक लगातार घी का दीपक जलाना चाहिए और मौन होकर मन्त्र का जाप करना तथा “ ॐ विष्णवे नमः स्वाहा " इस मन्त्र से घी , तिल और जौ की एक सौ आठ आहुतियां देकर हवन करना चाहिए । पांचों दिन ऐसा ही किया जाता है । काम - क्रोधादि का त्याग करके ब्रह्मचर्य , क्षमा , दया और उदारता धारण करनी चाहिए । 

पूजन में सामान्य पूजा के अतिरिक्त पहले दिन भगवान् के हृदय का कमल के पुष्पों से , दूसरे दिन कटि - प्रदेश का विल्बपत्रों से , तीसरे दिन घुटनों का केतकी के पुष्पों से , चौथे दिन चरणों का चमेली के पुष्पों से और पांचवें दिन सम्पूर्ण विग्रह का तुलसी की मंजरियों से पूजन करना चाहिए । हमारे देश में अधिकतर स्त्रियां एकादशी और द्वादशी को निराहार , त्रयोदशी को शाकाहार और चतुर्दशी तथा पूर्णमासी को फिर निराहार रहकर प्रतिपदा को प्रातःकाल में द्विज - दम्पती को भोजन कराकर इस व्रत को पूर्ण करती हैं ।

शनिवार, 14 नवंबर 2020

महालक्ष्मी जी की आरती व स्तुति पाठ

 - : श्री लक्ष्मीजी की आरती : -

ॐ जय लक्ष्मी माता- मैया जय लक्ष्मी माता । 

तुमको निसिदिन सेवत 2 हर विष्णु धाता ।।ॐ ।।

उमा , रमा , ब्रह्माणी -तुम  ही  जग  माता । 

सूर्य , चन्दमा ध्यावत 2 नारद ऋषि गाता ।।ॐ।।

दुर्गारूप निरंजनि- सुख- सम्पति- दाता ।

जो कोई तुमको ध्यावत 2 ऋषि -सिधि -धनपाता ।।ॐ। 

तुम  पाताल  निवासिनि - तुम  ही  शुभदाता । 

कर्म - प्रभाव- प्रकाशिनि 2 भवनिधि की त्राता ॥ॐ ।। 

जिस घर तुम रहती , तहँ - सब सदगुण आता । 

सब  संभव  हो  जाता 2 मन  नहिं  घबराता ।।ॐ ।। 

तुम  बिन यज्ञ न  होते- वस्त्र  न  हो  राता ।

खान - पान का वैभव 2 सब तुमसे आता || ॐ ।। 

शुभ - गुण - मन्दिर सुन्दर - क्षीरोदधि जाता ।

राम चतुर्दश तुम बिन 2 कोई नहिं पाता ।।ॐ ।। 

महालक्ष्मी ( जी ) की आरती- जो कोई नर गाता ।

 उर  आनंद  समाता 2 पाप  उतर   जाता ।। ॐ ॥

स्तुति पाठ--

        ।।श्रीमहालक्ष्मयष्टकस्तवः ।। 

नमस्तेऽस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते ।

शंखचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।1 ।।

नमस्ते गरुडारूढे कोलासुर भयंकरि ।

सर्वपाप हरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।2 ।।

सर्वज्ञे सर्व वरदे सर्वदुष्ट भयंकरि ।

सर्वदुःख हरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।3 ।। 

सिद्धि बुद्धि प्रदे देवि भुक्तिमुक्ति प्रदायिनि ।

मन्त्रमूर्ते महादेवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।4 ।। 

आद्यन्त रहिते देवि आधशक्ति महेश्वरि ।

योगजे योगसम्भूते महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।5 ।। 

स्थूल सूक्ष्म महारौद्रे महाशक्ति महोदरे ।

महापापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।6 ।।

पदमासनस्थिते देवि पर ब्रह्म स्वरूपिणि । 

परमेशि जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।7 ।।

श्वेताम्बरधरे देवि नानालंकार भूषिते ।

जगत स्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।8 ।।

महालक्ष्म्यष्टकस्तोत्रं यः पठेदभक्तिमान्नरः । 

सर्वसिध्दिमवाप्नोति राज्यं प्राप्नोति सर्वदा ।।9 ।।

एककालं पठेन्नित्यं महापापविनाशनम् ।

द्विकाल यः पठेन्नित्यं धनधान्यसमन्वितः ।।10 ।।

त्रिकालं यः पठेन्नित्यं महाशत्रुविनाशनम् ।

महालक्ष्मी भवेन्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा।।11।।

।। इतीन्द्रकृतः श्रीमहालक्ष्म्यष्टकस्तवः।।

          ।।नमस्कार ।। 

           नमस्ते सर्वलोकेशि 

           नमो भक्त जनप्रिये ।

          नमस्तेऽस्तु महालक्ष्मि 

           त्राहि मां शरणागतम्।।

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शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

दीपावली और लक्ष्मी पूजा

दीपावली और लक्ष्मी पूजन --


कार्तिक अमावस्या --

दीपावली पर लक्ष्मीजी का पूजन घर में ही नहीं , दुकानों और सभी व्यापारिक प्रतिष्ठानों में भी किया जाता है । कर्मचारियों को पूजा के बाद मिठाई , बर्तन और रुपए आदि देने की प्रथा है । त्यौहार का जो वातावरण और सायंकाल दीपदान का जो आयोजन धनतेरस से प्रारम्भ होता है ।

आज के दिन रात्रि को घरों तथा दुकानों पर बड़ी भारी संख्या में दीपक , मोमबत्तियां और विद्युत बल्ब जलाए जाते हैं । रात्रि के समय प्रत्येक घर में धूमधाम से धनधान्य की अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी जी , विघ्न विनाशक , ऋद्धि - सिद्धि - दाता गणेशजी और विद्या एवं कला की देवी मातेश्वरी सरस्वती की पूजा - आराधना की जाती है । मिट्टी के बने लक्ष्मी - गणेश , सरस्वती  और विभिन्न खिलौने एक स्थान पर सजाकर खील - बताशों तथा धूप - दीप से उनकी पूजा की जाती है । मूर्तियों के सम्मुख पूरी रात घी का दीपक जलाया जाता है और लगभग पूरी रात्रि ही आमोद - प्रमोद में गुजारी जाती है ।

लक्ष्मी पूजन का जहाँ तक धार्मिक दृष्टि का प्रश्न है आज पूरे दिन व्रत रखना चाहिए

और मध्यरात्रि में लक्ष्मी - पूजन के बाद ही भोजन करना चाहिए , परन्तु बहुत कम व्यक्ति ऐसा करते हैं  । लक्ष्मी - गणेश के पूजन में अन्य सभी पूजन - सामग्री का प्रयोग तो करते ही हैं खील - बताशों का प्रयोग भी अनिवार्य रूप से किया जाता है । इसके साथ ही चांदी अथवा धातु के रुपयों का भी पूजन किया जाता है । मिट्टी के बड़े दीपक में मोटी बत्ती डालकर और उस पर कच्ची मिट्टी का सकोरा रखकर काजल बनाने की प्रथा भी है । जहां तक व्यावहारिकता का प्रश्न है ।महालक्ष्मीजी , गणेशजी और सरस्वतीजी के संयुक्त पूजन के बावजूद इस पूजा में त्यौहार का उल्लास ही अधिक रहता है । 

ब्रह्मपुराण के अनुसार कार्तिक अमावस्या की इस अंधेरी रात्रि में महालक्ष्मीजी स्वयं भूलोक में आती हैं और प्रत्येक सद्गृहस्थ के घर कुछ क्षण के लिए रुकती हैं । जो घर हर प्रकार से स्वच्छ , शुद्ध , सुन्दर तरीके से सुसज्जित और प्रकाशयुक्त होता है , वहां अंश रूप में ठहर जाती हैं और गन्दे स्थानों की ओर पलटकर भी नहीं देखतीं । इसीलिए आज घर - दुकान सजाकर लक्ष्मी जी की आराधना की जाती है ।कि वह हमारे यहाँ वास करें । इस उत्सव को मनाए जाने का एक अन्य कारण यह भी है कि आज के दिन ही लंका विजय के उपरान्त भगवान् राम अयोध्या वापस आए थे महावीर स्वामी और महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आज के दिन ही निर्वाण प्राप्त किया था । यही कारण है कि आर्य समाजी और जैन बन्धु भी विशेष उत्सव के रूप में मनाते हैं आज के दिन को ।

लक्ष्मी पूजन विशेष कर सायं में  वृष ,सिंह ,वृश्चिक, कुम्भ स्थिर लग्न में किया जाता है । जिससे हमारे कार्य व्यापार में स्थिरता बनी रहे। माँ महालक्ष्मी का आशीर्वाद व प्रसन्नता के लिए कमल पुष्पों से अर्चन व वेलपत्र व कमल बीज से हवन का भी विधान है।

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शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

धनतेरस और धन्वंतरि जयन्ती

धनतेरस और धन्वन्तरि जयन्ती

( कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी )

हमारे देश मे सर्वाधिक धूमधाम से मनाए जाने वाले त्यौहार दीपावली का व्यवहारिक रूप में उत्सव प्रारम्भ हो जाता है धनतेरस से दीपावली के लिए विविध वस्तुओं की खरीदारी आज की जाती है । अपनी सामर्थ्यानुसार नए बर्तन , दीपावली पूजन हेतु लक्ष्मी - गणेश , खिलौने , खील - बताशे आदि तो अधिकांश व्यक्ति आज खरीदते हैं ।सुविधा होने पर सोने चांदी के जेवर भी खरीदे जाते हैं । घरों में दीपावली की सजावट भी आज से प्रारम्भ हो जाती है। और हर तरफ माहौल दीपावली मय हो जाता है । लोकाचार में तो आज के दिन का अत्यधिक महत्व है ।

धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से भी विशेष महत्व है ।इस तिथि को आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के जन्मदाता धन्वन्तरिजी का आज जन्म हुआ था। अतः वैद्य - हकीम और ब्राह्मण समाज आज धन्वन्तरि जयन्ती मनाता है ।

जहां तक धर्म का प्रश्न हैं , पूरे वर्ष में एक मात्र यही वह दिन है जब मृत्यु के देवता यमराज की पूजा की जाती है ।  यह पूजा रात्रि होते समय यमराज के निमित एक दीपक जलाया जाता है । जम दीवा अर्थात यमराज का दीपक कहा जाता है इस दीप को धार्मिक विधान के अनुसार तो घर के बाहर एक ढेर के रूप में अनाज रखकर उसके ऊपर मिट्टी का पर्याप्त बड़ा दीपक रखना चाहिए । इसमें नई रूई की बत्ती डालकर तिल का तेल भर दें । दीपक की बत्ती दक्षिण दिशा की ओर रखें और रात्रि भर जलता रखें इस दीपक को, समय - समय पर तेल डालते रहें और बुझने न दें । जहां तक लोकाचार का प्रश्न है मिट्टी के दिवे में फूटी कोड़ी भी डाली जाती है । घर के बाहर दक्षिण की ओर बत्ती करके इस दीपक को रखने के बाद जला देते हैं । जब तक तेल जलता रहता है , इस दीपक की बुझने से रक्षा करते हैं और जब बत्ती जलने लगती है तब दिया से कोड़ी घर में उठा लाते हैं और दीपक को वहीं छोड़ आते हैं । परन्तु जहाँ तक व्यावहारिकता का प्रश्न है आजकल तो एक दीपक जलाकर यमराज के निमित्त घर के बाहर रख दिया जाता है , बाद में उस ओर देखते तक नहीं ।

आप दीपक किसी भी प्रकार जलाये प्रश्न आपकी आस्था का है।आज के दिन यम के नाम का दिया लगाने से कभी परिवार जनों की अकाल मृत्यु नही होती है।

।।अथ देव्यापराधक्षमापन स्त्रोत्रं।।


    💐अथ देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् 💐

न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो 

नचाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः ।।

नजाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं

परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम्।।१ ।। 

विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया

विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत् ।

तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणी शिवे

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।२ ।। 

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः 

परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः । 

मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदंनो तव शिवे

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।३ ।। 

जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता 

न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया ।

तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।४ ।। 

परित्यक्ता देवा विविधविध सेवा कुलतया

मया पञ्चाशीते रधिक मपनीते तु वयसि । 

इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता 

निरालम्बो लम्बो दरजननिकं यामि शरणम्।।५ ।।

श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाको पमगिरा

निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटि कनकैः । 

तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं 

जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ।।६ ।।

चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो 

जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः ।

कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं 

भवानि त्वत्पाणि ग्रहण परिपाटी फलमिदम्।।७ ।। 

न मोक्षस्या काडक्षा भव विभव वाञ्छापि च न मे 

न विज्ञाना पेक्षा शशि मुखि सुखेच्छापि न पुनः ।

अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै 

मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः।।८ ।। 

नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः

किं रुक्ष चिन्तन परैर्न कृतं वचोभिः । 

श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्य नाथे 

धत्से कृपा मुचितमम्ब परंतवैव।।९ ।। 

आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि ।

नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति ।।१० ।।

जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि । 

अपराध परम्परापरं न हि माता समुपेक्षते सुतम्।।११ ।।

मत्समः पातकी नास्ति पापानी त्वत्समान हि । 

एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु ।।१२ ।।

इति श्री शङ्कराचार्यविरचितं देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

                ।। श्री दुर्गार्पणमस्तु ।। 

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रविवार, 1 नवंबर 2020

करकचतुर्थी अर्थात् करवा चौथ व्रत कथा।

 करकचतुर्थी अर्थात् करवा चौथ 

( कार्तिक कृष्णा चतुर्थी)

करवा चौथ के व्रत से ही धार्मिक रूप में प्रारंभ हो जाता है।कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को गणेशजी और चन्द्रमा का व्रत किया जाता है , परन्तु इनमें सर्वाधिक महत्व है करवा चौथ का व्रत अटल सुहाग और पति की दीर्घ आयु के लिए प्रत्येक सुहागिन स्त्री करती है यह व्रत पटरे पर पूजन सामग्री और मिट्टी के करवों में जल भरकर महिलाएं भगवान शिव - पार्वती , कार्तिकेय , चन्द्रदेव और अन्य सभी देवी - देवताओं की पूजा करती हैं तथा चन्द्रमा को अर्घ्य देने के बाद ही भोजन करती हैं । घरों में प्रायः खीर - पूड़ी- हलवा आदि बनाया जाता है और एक उत्सव के रूप में पूर्ण किया जाता है महिलाओं द्वारा इस व्रत को । 

पूजन व वायना 

करवा चौथ सुहागिन औरतों का व्रत है , पुरुष और कुंवारी लड़कियां इस व्रत को नहीं करते । इस व्रत में दिन में पानी भी नहीं पिया जाता । चन्द्रोदय के कुछ पूर्व एक पटरे पर कपड़ा बिछाकर अथवा बालू से बेदी बनाकर उस पर मिट्टी से शिवजी , पार्वतीजी , कार्तिकेयजी और चन्द्रमा की छोटी - छोटी मूर्तियां बनाते हैं । आजकल करवा चौथ पूजन के छपे हुए पोस्टर भी आते हैं । नगरों में महिलाएं प्रायः इन्हें दीवार पर चिपका कर पूजा कर लेती हैं ।

 पटरे के पास पानी से भरा लोटा और करवा रखकर करवाचौथ की कहानी सुनी जाती है । कहानी सुनने के पूर्व करवे पर रोली से एक सतिया बनाकर उस पर रोली से तैरह बिन्दियाँ लगाई जाती है। गेहूं के तेरह दाने हाथ में लेकर कहानी सुनी जाती है और चांद निकल आने पर चंद्रमा को अर्घ्य देने के पश्चात स्त्रियां भोजन करती है। सामान्य रूप से एक कटोरे में चीनी भरकर और उस पर रुपए रखकर करवा चौथ का बायना निकाल कर सास , बड़ी ननद या जिठानी को दिया जाता है । जिस वर्ष लड़की की शादी होती है उस वर्ष मायके से चौदह चीनी के करवों , बर्तनों , कपड़ों और गेहूं आदि के साथ विशेष बायना भी आता है ।

उजमन -- करवा चौथ के उजमन में एक थाल में तेरह जगह चार - चार पूड़ियां रखकर उनके ऊपर सूजी का हलुवा रखा जाता है । इसके ऊपर साड़ी - ब्लाउज और सामर्थ्यानुसार रुपए रखे जाते हैं । हाथ में रोली - चावल लेकर थाल के चारों ओर हाथ घुमाने के बाद यह बायना सासूजी को दिया जाता है । तेरह सुहागिन ब्राह्मणियों को भोजन कराने के बाद उनके माथे पर बिन्दी लगाकर और सामर्थ्यानुसार सुहाग की वस्तुएं एवं दक्षिणा देकर विदा कर दिया जाता है । लोकव्यवहार में प्रायः ही पूड़ी - हलुवा तो भोजन करने वाली ब्राह्मणियों को परोस दिया जाता है और साड़ी - ब्लाउज व रुपए सासूजी को दे देते हैं । यह सिद्धान्त से अधिक व्यावहारिक सुविधा की बात है । 

कथा--

 करवा चौथ के व्रत में गणेश जी से संबंधित कोई कहानी तथा लोक प्रचलित अन्य कोई कहानी भी महिलाएं कहती हैं , वैसे इसकी विशिष्ट कहानी इस प्रकार है ।

प्राचीन काल की बात है । करवा नाम की एक पतिव्रता स्त्री अपने पति के साथ नदी किनारे के एक गांव में रहती थी । एक दिन उस पतिव्रता स्त्री करवा का पति नदी में स्नान करने गया । नदी में स्नान करते समय एक मगर ने उस व्यक्ति का एक पैर पकड़ लिया । इस पर वह व्यक्ति ' करवा ' करवा ' कहकर चिल्लाता हुआ ,अपनी पत्नी को चिल्ला - चिल्लाकर सहायता के लिये पुकारने लगा । अपने पति की आवाज को सुनकर करवा भाग कर अपने पति के पास आ पहुंची और आकर मगर को कच्चे धागे से बांध दिया ।

 मगर को सूत के कच्चे धागे से बांधने के बाद करवा यमराज के यहां जा पहुंची और यमराज से बोली--हे प्रभु एक मगर ने नदी के जल में मेरे पति का पैर पकड़ लिया है । उस मगर को मेरे पति का पैर पकड़ने के अपराध में मारकर आप अपनी शक्ति से उसे नर्क में ले जाओ । करवा की बात सुनकर यमराज बोले ,अभी मगर की आयु शेष है अतएव आयु रहते हुए मैं असमय मगर को मार नहीं सकता । इस पर करवा बोली यदि मगर को मारकर आप मेरे पति की रक्षा नहीं करोगे तो मैं शाप देकर आपको नष्ट कर दूंगी ।

 करवा की धमकी सुनकर यमराज डर गये । वे उस पतिव्रता स्त्री करवा के साथ वहां आये जहां मगर ने उसके पति का पैर पकड़ रखा था । यमराज ने मगर को मार कर यमलोक पहुंचा दिया और करवा के पति की प्राण रक्षा कर उसे दीर्घायु प्रदान की । करवा ने पतिव्रत बल से अपने पति की प्राण रक्षा की थी । इस चमत्कारिक घटना के दिन से करवा चौथ का व्रत करवा के नाम से प्रचलित हो गया । जिस दिन करवा ने अपने पति के प्राण बचाये थे उस दिन कार्तिक के कृष्ण पक्ष की चौथ थी । हे करवा माता ! जैसे आपने अपने पति की प्राण रक्षा की वैसे ही सबके पतियों के जीवन की रक्षा करना ।

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ॐ जय गौरी नंदा

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