शनिवार, 26 सितंबर 2020
रविवार, 13 सितंबर 2020
🌹 राम नाम महिमा🌹
।।श्री जानकीवल्लभो विजयते।।
सहस्रनाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने।।
यह शरीर परमात्मा का दिया एक सुन्दर उपहार है।जिसे मनुष्य अपने जीवन को सुन्दर विचार व शुभकार्यों के द्वारा सुशोभित करता है।मनुष्य का पहला कर्तव्य है कि जीवन में शुभकर्म करते हुए ,इस शरीर को मुक्ति मार्ग तक ले जाना ,पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,जन्म मृत्यु के बन्धन से मुक्त करना।
मनुष्य दैनिक दिनचर्या में इतना व्यस्त हो जाता है ,कि उपासना कर्म से दूर होकर नरक रूपी दलदल में फसता चला जाता है।फल स्वरूप नरक की यातना भोगनी पड़ती है।जो मनुष्य नित्य जप तप या एक बार भी सच्चे मन से प्रभु का स्मरण करता है। बह जीवन मुक्त होता है।क्या है एक बार राम नाम जप का फल-
दृष्टान्त--
किसी नगर में एक बनिया रहता था ,व्यापार कर्म में कुशल बनिया को दो सन्तान थी ।बनिया नित व्यापार करने चला जाता और रात में लौटने पर धन का आंकलन करके सो जाता ।रोज बनिये की यही दिनचर्या थी।जिसके कारण वह भक्ति मार्ग से कोशो दूर हो गया ।किन्तु काल की प्रेरणा से उसके दोनों बच्चे बड़े होने पर धर्मिक विचारधारा वाले हुए।
एक दिन दोनों के मन मे विचार आया कि पिता जी रोज व्यापार में लगे रहते है। पिताजी जप तप नही कर पाते इस लिए हमे पिता जी से जप तप करवाना चाहिये।
एक दिन सुबह सुबह दोनों लड़को ने पिता से कहा, पिता जी आप कभी जप तप नही करते कभी आप भी राम नाम जप किया कीजिये,बच्चो की बाते सुनकर पिता जी ने मुँह मोड़ते हुए बोले मुझे तुम्हारे इस नाम से कोई लेना देना नही है ।पिता की बाते सुनकर बच्चें घर से निकल कर कही दूर नदी किनारे पर बैठ गये।और सोचने लगे कैसे पिता जी से जप तप कराया जाय।
उधर से जा रहे एक सन्त ने उन्हें देखा और बोले बेटा क्या बात है।दोनों चिंतित लग रहे हो।बाबा की बात सुनकर दोनों ने अपनी व्यथा व्यक्त कर दी।सन्त बोले बेटा आपकी चिंता समाप्त हो गयी ।आप दोनों घर जाओ।दोनों बालक घर लौट आये।
दूसरे दिन बाबा घर पर आ गये,दरवाजे से आवाज दी ,भिक्षां देहि,बाबा की आवाज सुनकर बनिया बोला बाबा ये लीजिये भिक्षा बनिया को देखकर बाबा बोले में अन्न धन की भिक्षा नही लेता।मुझे तो राम नाम की भिक्षा चाहिये, बनिया बोला बाबा जो चाहिए में दूंगा,पर नाम वाम क्या रहा है।
बाबा बोले एक बार बोल राम जीवन तर जायेगा, बाबा की बात सुनकर घर के अन्दर चला गया।बाबा बनिये को बोले जब तक राम नाम नही बोलोगे तब तक मै यहाँ से नही जाऊँगा।
दिन के दो बज गये, बनिये को काम पर जाना था।बाबा को बोले दरवाजें से हट जाओ मुझे काम पर जाना है।सन्त बोले बेटा राम बोल जीवन तर जाएगा।बनियां बाबा के ऊपर से कूदकर भाग गया और बोला ,बाबा आप बैठे रहो मै गया काम पर ,बनिये को भागता देख बाबा जी भी पीछे से भागे बोले बेटा रुक ,बनिया भागते भागते एक नदी के किनारे पर गया ।पानी की प्यास लगी थी बनिये ने एक चुल्लू पानी पिया और पानी गले मे अटक गया ।तुरन्त बाबा से पुछा क्या होता है ,एक बार राम नाम लेने से,इतने में बनिया ने शरीर त्याग दिया।मरने के बाद यमलोक गया।यमराज ने पूछा चित्रगुप्त इस मनुष्य का जीवन काल कैसा था।चित्रगुप्त बोला महाराज इस मनुष्य ने कभी कोई धर्मकर्म, जप, तप नही किया इस लिए इसे घोर नरक यातना भोगनी पड़ेगी ।
इतने में बनिया बोला मेने मरने से पहले एक बार रामनाम लिया था।चित्रगुप्त में यमराज से पुछा एक बार राम नाम लेने का क्या फल है।यमराज बोले इस विषय मे मुझे नही मालूम चलो ब्रह्मा जी से पूछते है। यमराज बनिये से बोले चलो ब्रह्मलोक ,बनिया बोला मै कभी अपने घर मे पैदल नही चला ।मेरे पास तो गाड़ी घोड़ा सब है।इस लिए में पैदल नही चलूंगा ।यमराज ने बनिये को कन्धे में उठाकर ब्रह्म लोक चल पड़े।
ब्रह्म लोक पहुँचने पर सारी बात ब्रह्मा जी से कह दी।ब्रह्मा जी बोले कि एक बार रामनाम का क्या फल होता है ,में नही जानता।इस लिए शिव जी के पास जाओ।
शिव लोक जाने पर शिव जी ने भी कह दिया ,इस विषय मे श्रीहरि ही आपकी मदद कर सकते है। बैकुण्ठ पहुँचने पर यम ने अपनी बात विष्णु जी को कही।प्रभु इस जीव ने कभी जप तप नही किया ये बोलता है ,कि मरते समय मैने राम नाम लिया था।
प्रभु आप बताये एक बार राम नाम का क्या फल है।
विष्णु जी ने कहा जो जीव यमलोक से यम के कन्धे पर बैठकर ब्रह्मा, शिव और विष्णु के दर्शन कर लिया । अब यह सदा के लिए बैकुण्ठ में वास करेगा।एक बार रामनाम का यही फल है।।
🌹🌹🌹 बोलों जय श्री राम🌹🌹🌹
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शारदीय नवरात्र व दुर्गाष्टमी
शारदीय नवरात्र व दुर्गाष्टमी
( आश्विन शुक्ला प्रतिपदा से )
सर्व मंगल मंगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणी नमोस्तुते ।।
हमारे सनातन धर्म में तैतीस करोड़ देवी - देवता हैं , परन्तु साक्षात् ईश्वर अर्थात् पारब्रह्म परमेश्वर भगवान ब्रह्मा ,विष्णु,महेश और उनके राम कृष्ण अवतारों को ही माना जाता है । मातृशक्ति में यही स्थान भगवती भवानी को प्राप्त है। माता भगवती के तीन रूप विशेष है।
जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते ।।
1 - श्री महाकाली
2 - श्री महालक्ष्मी
3 - श्री महासरस्वती
माँ पार्वती जी धनधान्य की अधिष्ठात्री महालक्ष्मी जी तथा वीणा वादिनि सरस्वती जी आप के ही रूप है। जब - जब धरा पर पाप व पापियों का बोझ बढ़ जाता है। तब माँ भवानी कभी दुर्गा , कभी काली तो कभी विकराल चण्डी के रूप में अवतार धारण करती हैं ।और अपने बच्चों पर दया करती है। माता के रूप और अवतार अनेक है , परन्तु इनमें नौ रूप तो बहुत ही प्रसिद्ध और जनजन में पूज्य है ।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥
पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च ।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः ।
वैसे तो भगवती भवानी की पूजा - आराधना नित्य ही भक्त करते हैं , वर्ष में दो बार नौ - नौ दिन तक मातेश्वरी की विशेष पूजाएं की जाती हैं ।
ये नवरात्रे स्त्री - पुरुषों दोनों को चाहिए, कि वह नवरात्रों के इन नौ दिनों तक व्रत करें। यदि यह संभव न हो सके तो पहले और अन्तिम नवरात्र व्रत करें । नित्य व्रत मे एक समय फलाहार कर सकते है,निराहारी यथाशक्ति व्रत का पालन करे। नित्य पूजा में परिवार के सभी सदस्य पूजा करें और पूजा के बाद ही फल प्रसाद ग्रहण करें ।
पूजा की विधि एवं विधान -
नवरात्रि पूजा घर पर ही किसी एक निश्चित स्थान पर प्रतिदिन की जाती है। पूजास्थल कच्चा होने पर गोबर से लीपकर और पक्का होने पर जल से धोकर शुद्ध करने के बाद वहां लकड़ी का चौरंग या पाट रखा जाता है,उस पाट मेंं लाल कपड़ा बिछाकर चावल से गणपति ,कलश, मातृका ,नवग्रह स्थापन पीठ बनाना चाहिये ।
सर्व प्रथम गणेश पूजा करके,लोटा या घड़े में मौली बांधकर नारियल पर लाल कपड़ा लपेटकर कलश को जल से पूर्ण कर पंचपल्लव लगाये कलश के अन्दर सुपारी, हल्दीगांठ, दुर्वा ,पैसा डालकर नारियल रख कलश स्थापन करें।मातृका ,नवग्रह स्थापना के बाद ,भगवती भवानी की नवदुर्गा की फोटो या प्रतिमा को चौरंग में स्थापित कर माता भगवती की विधिवत पूजा करें। माता का आवाहन कर चावल से प्रतिष्ठा करें।माता नवदुर्गा को पाद्य अर्घ्य आचमनी दूध दही घी शहद शक्कर पंचामृत से स्नान करावे,मातारानी को सुन्दर वस्त्र भेंट करें, गंध अक्षत पुष्पहार श्रृंगार चढ़ाये।नैवेद्य फल दक्षिणा चढ़ाकर आरति स्त्रोत्रादि क्षमा नमस्कार करें। नव दुर्गा की प्रसन्नता के लिए ब्राह्मण के द्वारा नित्य सप्तसती पाठ करना चाहिये। नवरात्रि में माता सिंहवाहिनी के नव रूपों की पूजा करें। माता रानी के मण्डप के दोनों ओर किसी बाँस या मिट्टी के पात्र में जौ या सप्तधान्य बोना चाहिये।
कुल परम्परा के अनुसार अष्टमी या नवमी में परिवार के सभी सदस्य हवन में विशेष आहुति प्रदान करते है। तत्पश्चात छोटे बालक व बालिकाओं को कन्या लांगुर के रूप मे पूजन करके हलवा ,पूरी,काले चने की सूखी सब्जी का भोजन कराकर खिलौना वस्त्र रुपया आदि दिया जाता है।फिर प्रसाद ग्रहण करे है।
भक्तगण प्रतिदिन दुर्गा , महाकाली , चण्डी आदि रूपों की पूजा - आराधना और उपासना करते हैं , परन्तु वर्ष में दो बार विशेष रूप से भगवती भवानी की आराधना करते है । भगवती के नौ प्रमुख रूप या अवतार हैं और प्रत्येक बार नौ - नौ दिन ही की जाती हैं ये विशिष्ट पूजाएं । इस काल को नवरात्रि या नवराते कहा जाता है । इनमें एक नवरात्र तो नववर्ष की प्रथम दिन से चैत्र शुक्ला नवमी तक होते है और दूसरे श्राद्धपक्ष के दूसरे दिन आश्विन शुक्ला प्रतिपदा से दशहरे के एक दिन पहले अर्थात आश्विन शुक्ला नवमी तक । आश्विन मास के इन नवरात्र को शारदीय नवरात्र कहा जाता है । क्योंकि इस समय शरद ऋतु होती है । इन नवरात्रों में भगवती की पूजा - आराधना होती है।
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शनिवार, 12 सितंबर 2020
मलमास कैसे बना पुरुषोत्तम मास
।।मलमास कैसे बना पुरुषोत्तम मास।।
मंगलं भगवान विष्णु मंगलं गरुड़ ध्वज:।
मंगलं पुण्डरीकाक्ष मंगलाय तनो हरि:।।
मलमास के नाम से बहुत से लोगों के मन अनेक भ्रान्ति होती है।इसी प्रकार मलमास के नाम से देवता भी दूर भागते थे।किन्तु मलमास भाग्यशाली था ,श्रीहरि ने मलमास को शरण देकर उसे पुरूषोत्तम मास का वरदान दिया ।
स्वामी विहीन होने के कारण अधिकमास को मलमास कहने से उसकी निन्दा होने लगी।हिरण्यकश्यप दैत्य को मारने के लिये भगवान श्रीहरि ने तेरहवाँ महीना बनाया ।जो अधिकमास मलमास कहलाया।इस महीने को किसी देवता ने स्वीकार नही किया और न अपना नाम दिया। तो देवताओं से पूछा गया अपने मलमास का चयन क्यो नही किया।देवताओं ने उत्तर दिया जिस महीने में विवाह यज्ञोपवीत यज्ञ अनुष्ठान दान पुण्य आदि नही होते उस महीने को कौन देवता अपना नाम व स्थान देगा।
देवताओं की बातों से ऋषी मुनि चिंतित हो गये। श्रीहरि के पास गये ,अपनी सारी बातें भगवान को कह दी।भगवान श्रीहरि मलमास को लेकर गौ लोक में श्रीकृष्ण के पास गये ।श्रीकृष्ण ने मलमास को अपना नाम दिया,औऱ कहा आज से मलमास, पुरुषोत्तम मास के नाम से जाना जाएगा ,और वरदान दिया जो इस मास में जप तप कथा यज्ञ दान पुण्य करेगा ।उसका फल अक्षय रहेगा। इस पुरुषोत्तम मास में निष्काम भावना से किया दान पुण्य अक्षय होता है।सकाम दान पुण्य इस माह में करना उपयुक्त नही है।
पुरुषोत्तम मास में द्वादशाक्षर मंत्र जप,श्रीमद्भागवत कथा का पाठ,विष्णु सहस्रनाम का पाठ, गीता जी का पाठ, सूर्य पूजा, जप, तप, दानादि जग कल्याण कि कामना के लिए करना चाहिये।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।।
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शुक्रवार, 11 सितंबर 2020
पुरुषोत्तम अधिकमास व्रत
।।अधिकमास।।
पुरुषोत्तम मास के व्रत-
हमारा भारतीय मास चन्द्रमा पर आधारित है अतः कुछ महीने तीस दिन के होते हैं और कुछ तिथि क्षय होने के कारण उन्तीस दिन के । इस प्रकार तीन सौ पचपन अथवा तीन सौ छप्पन दिन का होता है एक भारतीय वर्ष।सूर्य तीन सौ पैंसठ दिन पांच घंटे छप्पन मिनट में पृथ्वी की एक परिक्रमा पूर्ण करता है । इस मध्य भगवान भास्कर क्रम से बारह राशियों में भ्रमण करते हैं । इस प्रकार अंग्रेजी के प्रत्येक मास में एक राशि से दूसरी राशि में सूर्यदेव भ्रमण करते हैं । परन्तु चन्द्रमा पर आधारित भारतीय मासों में ऐसा नहीं हो पाता । प्रत्येक बत्तीस महीने , सोलह दिन और चार घड़ी बाद एक ऐसा महीना आता है । जिसमें सूर्य देव एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण नहीं करते । सूर्य संक्रान्ति - विहीन इस मास को ' पुरुषोत्तम मास ' मलमास ' अधिमास ' अथवा ' लोंद का महीना ' कहा जाता है । हमारी संस्कृति और धर्म अधिमास में विवाह , मुण्डन , जनेऊ जैसे सामाजिक समारोहों का निषेध करते हैं और कोई त्यौहार भी नहीं पड़ता मलमास में । परन्तु धार्मिक दृष्टि से इस पूरे मास के व्रत करने का विशिष्ट महत्व है । इसी प्रकार इस मास की दोनों एकादशियां भी विशिष्ट फलकारक कहीं गई हैं।
अधिमास फल--
अधिमास में फल - प्राप्ति की कामना से किये जाने वाले कार्य वर्जित हैं , फल की आशा से मुक्त होकर सभी आवश्यक कार्य करा सकते हैं । जो महीना अधिमास होता है, उसके सम्पूर्ण सवाहनों में से प्रथम मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ करके द्वितीय मास की अमावस्या तक तीस दिनों तक अधिमास के निमत्त उपवास और यथाशक्ति दान - पुण्य करना चाहिए ।अधिकमास में किया गया दान पूण्य व्रत अक्षय फल देने वाला होता है।
जिस प्रकार छोटा - सा बीज बोने से वट जैसा दीर्घ विशाल वृक्ष उत्पन्न होता है वैसे ही मलमास में दिया हुआ दान अनन्त फल देने वाला होता है ।
शास्त्रों का कथन है कि पुरुषोत्तम मास में किए जाने वाले व्रत और दान- पुण्य से भगवान विष्णु , महादेव शिवजीऔर सूर्यदेव परम प्रसन्न होते हैं।और करने वाले को इस लोक में सभी सुख तथा अन्त में मोक्ष की प्राप्ति होती है।
अधिमास व्रत का विधान बहुत ही सुगम है । साधक प्रतिदिन सायं एक समय भोजन करता है , परन्तु फलाहार अनिवार्य नहीं है । प्रातःकाल शौचादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर विष्णु - स्वरूप ' सहस्रांशु ( हजार किरणों वाले भगवान् सूर्य नारायण ) का विधिपूर्वक पूजन करना चाहिए । घी , गुड़ और अन्न नित्य दान करना चाहिए और घी , गेहूं और गुड़ के बने पैंतीस - पुओं को कांसे के बरतन में रखकर विष्णुरूपी सहस्रांशु के निमित्त दान करना चाहिए । इस प्रकार धन - धान्य और पुत्र - पौत्रादि की वृद्धि होती हैं । 💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
सोमवार, 31 अगस्त 2020
पितृपक्ष महालया पार्वण श्राद्ध
लोकभाषा में प्रायः आश्विन माह को क्वार का महीना कहा जाता है वर्ष के इस सातवें मास में वर्षा बीतकर शरद् ऋतु का आगमन हो जाता है । दिन छोटे और रातें लम्बी होने लगती हैं । न तो अधिक गर्मी होती है और न ही अधिक सर्दी। पितरों के श्राद्ध भी इसी माह में होते हैं तो दुर्गापूजन के शारदीय नवरात्रे और विजयदशमी का त्यौहार भी इसी मास में पड़ता है ।
श्राद्ध--
श्राद्ध शब्द ही श्रध्दा का द्योतक है।अथार्त हम अपने पितरों की तृप्ति के लिये श्रद्धापूर्वक जो सत्कर्म करते है वही श्राद्ध है। संसार मे ऐसा कोई देश जाति सम्प्रदाय नही जो अपने धर्मग्रंथों या परमपरा के अनुसार किसी न किसी रूप में अपने मृत पितरो के प्रति श्रद्धा जरूर व्यक्त करता है।
श्राद्ध केवल मृत पितरो का होता है।पितर दो प्रकार के होते है।
१-दिव्यपितर
मानव जाति के आरंभिक पूर्वज जो पितृलोक में रहते है ,वे दिव्यपितर होते है।
२-मनुष्यपितर
हमारे वे सभी वंशज जो हमेशा श्राद्ध की अपेक्षा रखते है,वे मानुष पितर होते है।
पितृपक्ष महालया पार्वण श्राद्ध--
भादों की पूर्णिमा के दूसरे दिन से प्रारम्भ हो जाता है आश्विनी अर्थात क्वार मास । आश्विनी कृष्ण प्रतिपदा से अमावस्या तक के ये पन्द्रह दिन हमारे यहां पितृपक्ष कहलाते हैं । इस पूरे पक्ष में कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता है और न ही नए वस्त्र बनवाए अथवा पहने जाते हैं । अपने मृतक पूर्वजों को याद करने और उनकी मृत्य की तिथि को उनका श्राद्ध करने की परम्परा वैदिक काल से ही चली आ रही है ।
तिथि निर्णय--
इस पक्ष में मृतक माता - पिता , दादा - दादी और अन्य परिजनों के श्राद्ध उस तिथि को किए जाते हैं जिस तिथि को मृतक का दाह - संस्कार हुआ था । वर्ष के किसी भी मास के किसी भी पक्ष में मृत्यु हुई हो , श्राद्ध इन पन्द्रह दिनों में ही उस तिथि को किया जाता है । पुर्णिमा का श्राद्ध भादों शुक्ल पूर्णिमा को किया जाता है, कुल सोलह श्राद्ध होते है।
प्रायः घर के मुखिया द्वारा तर्पण श्राद्ध कर्म किया जाता है।मृतक पुरुष हेतु ब्राह्मण को भोजन कराने के बाद उन्हें श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार वस्त्र तथा दक्षिणा दी जाती है तो महिला के लिए किसी ब्राह्मणी को भोजन कराया जाता है ।
ब्रह्मपुराण में लिखा है कि आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में यमराज यमपुरी से पितरों को मुक्त कर देते हैं और वे अपनी संतानों तथा वंशजों से पिण्ड दान लेने के लिए भूलोक में आ जाते हैं ।
सूर्य के कन्या राशि में आने पर वे यहां आते हैं और अमावस्या के दिन तक घर के द्वार पर ठहरते हैं । सूर्य के कन्या राशि में आने के कारण ही आश्विन मास के कृष्ण पक्ष का नाम ' कनागत ' अर्थात् कन्या + गत पड़ गया है । जिन लोगों के माता - पिता स्वर्गवासी हो गए हैं उन्हें चाहिए कि वे इस पक्ष में प्रातःकाल उठकर किसी नदी में स्नान करके तिल , अक्षत और कुश हाथ में लेकर वैदिक मंत्रों द्वारा सूर्य के सामने खड़े होकर पितरों को जलांजलि दें ।
यह कार्य पितृ - पक्ष में प्रतिदिन होना चाहिए । पितरों को मृत्यु - तिथि को श्राद्ध करके ब्राह्मणों को भोजन कराना और दक्षिणा देनी चाहिए । इस पक्ष में गयाजी में श्राद्ध करने का विशेष महत्व है ।
श्राद्ध पक्ष अमावस्या को पूर्ण हो जाता है , परन्तु श्राद्धकर्म और तान्त्रिक दृष्टिकोण से बहुत अधिक महत्व है इस अमावस्या को भूले - भटके पितरों के नाम से ब्राह्मण को इस दिन भोजन प्रसाद कराया जाता है , यदि किसी कारणवश किसी तिथि विशेष को श्राद्धकर्म नहीं हो पाता तब उन पित्तरों का श्राद्ध भी इस दिन किया जा सकता है।
इस अमावस्या के दूसरे दिन से शारदीय नवरात्र प्रारम्भ हो जाते हैं । यही कारण है कि मां दुर्गा के प्रचण्ड रूपों के आराधक और तन्त्र साधनाएं करने वाले इस रात्रि को विशिष्ट तान्त्रिक साधनाएं भी करते हैं । यही कारण है कि आश्विन मास की इस अमावस्या को महालया और पितृ - विसर्जन अमावस्या भी कहा जाता है ।
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मंगलवार, 25 अगस्त 2020
महालक्ष्मी का डोरा व्रत एवं पूजन
महालक्ष्मी का डोरा
(भाद्रपद शुक्ल अष्टमी)
व्रत एवं पूजन महालक्ष्मी के पूजन का अनुष्ठान भाद्रपद शुक्ला अष्टमी से प्रारम्भ होकर आश्विन कृष्णा अष्टमी को पूर्ण होता है । अनुष्ठान के लिए एक दिन पूर्व सूत के सोलह धागों का एक डोरा लेकर उसमें सोलह गाठे लगाई जाती हैं । फिर उसे हल्दी से रंग लिया । जाता है । इस अनुष्ठान को करने वाली स्त्रिया सुबह सवेरे समीप की नदी या सरोवर में स्नान करके सूर्य को अर्घ्य देती है । सुहागिन स्त्रिया चालीस अजलि और विधवा सोलह अजलि अर्घ्य देती हैं । इसके बाद घर आकर एक चौकी पर डोरा रखकर लक्ष्मीजी का आव्हान करती हैं और डोरे का पूजन करती हैं । फिर सोलह बोल की यह कहानी कहती हैं- “ अमोती - दमोती रानी , पोला - परपाटन गांव , मगरसेन राजा , बंभन बरुआ , कहे कहानी , सुनो हे महालक्ष्मी देवी रानी , हमसे कहते तुमसे सुनते सोलह बोल की कहानी । " इस प्रकार आश्विन कृष्णा अष्टमी तक सोलह दिन व्रत और पूजा करती हैं । अंतिम दिन एक मंडप बनाकर उसमें लक्ष्मीजी की मूर्ति , डोरा और एक मिट्टी का हाथी रखकर विधि विधान से सोलह बार उपरोक्त कहानी कहकर अक्षत छोड़ती हैं । पूजा और हवन करती हैं । पूजा के लिए सोलह प्रकार के पकवान बनाए जाते हैं । पूजा के बाद स्त्रियां यह कहानी कहती हैं । कथा - एक राजा की दो रानियां थीं । बड़ी रानी का एक पुत्र था और छोटी के अनेक । महालक्ष्मी पूजन के दिन छोटी रानी के बेटों ने मिलकर मिट्टी का हाथी बनाया तो बहुत बड़ा हाथी बन ।गया । छोटी रानी ने उसकी पूजा की । बड़ी रानी अपना सिर झुकाये चुपचाप बैठी थी । बेटे के पूछने पर उसकी मां ने कहा कि तुम थोड़ी सी मिट्टी लाओ । मैं भी उसका हाथी बनाकर पूजा कर लूं । तुम्हारे भाइयों ने तो पूजा के लिए बहुत बड़ा हाथी बनाया है । बेटा बोला , मां तुम पूजा की तैयारी करो , मैं तुम्हारी पूजा के लिए जीवित हाथी ले आता हूं । वह इन्द्र के यहां गया और वहां से अपनी माता के पूजन के लिए इन्द्र से उसका ऐरावत हाथी ले आया । माता ने श्रद्धापूर्वक पूजा पूरी की और कहा-
क्या करें किसी के सौ पचास ।
मेरा एक पुत्र पुजावे आस ।।
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सोमवार, 17 अगस्त 2020
कुशोत्पाटिनी अमावस्या व सती पूजा
कुशोत्पाटिनी अमावस्या व सती पूजा
( भाद्रपद अमावस्या )
हर दिन अपने आप मे श्रेष्ठ होता है ,वैसे ही भाद्रपद कृष्ण पक्ष अमावस्या भी श्रेष्ठ है,इस दिन जंगल व खेत से कुशा ग्रहण किया जाता है।इसलिए इसे कुशोत्पाटिनी अमावस्या कहते है,'ॐ हूं फट' मंत्र से कुशा ग्रहण करना चाहिये । आज लाया गया कुशा पूरे साल भर काम देता है।
यों तो प्रत्येक अमावस्या को ही पितरों को तर्पण करने का शास्त्रों में विधान है , परन्तु श्राद्ध पक्ष के पन्द्रह दिन पूर्व पड़ने वाली भाद्रपद मास की इस अमावस्या को तो पित्तरों का पूजन एवं तर्पण विशेष विधि - विधान से किया जाता है । कुशा नामक घास का एक छल्ला बनाकर अंगूठी के समान दाहिने हाथ की उंगली में पहनकर और अंजली में जल एवं काले तिल लेकर किया जाता है पितरों का तर्पण ।
पुरुष आज के दिन प्रातःकाल पित्तरों हेतु तर्पण करते हैं तो महिलाएं सती जी का व्रत रखती हैं । भगवान शिव भार्या सती जी की पूजा आराधना की जाती है । सती जी अथवा पार्वती की मूर्ति पर जल चढ़ाकर , रोली - चावल , फूल , धूप - दीप , नैवेद्य फल से उनकी पूजा की जाती है । सती जी को नारियल , चूड़ियां , सिन्दूर , सुहाग का सभी सामान वस्त्र और लड्डू अर्पित किए जाते हैं और दक्षिणा चढाई जाती है ।
तुलसी विवाह
तुलसी विवाह
( कार्तिक शुक्ल एकादशी )
कार्तिक शुक्ल एकादशी को तुलसी - पूजन का उत्सव भारत भर में खासकर उत्तर भारत में विशेष रूप से मनाया जाता है । तुलसी को विष्णु - प्रिया भी कहते हैं । तुलसी - विवाह के लिए कार्तिक शुक्ल नवमी ठीक तिथि है । नवमी , दशमी व एकादशी को व्रत करके नियम से पूजन कर अगले दिन तुलसी का पौधा ब्राह्मण को दिया जाए तो शुभ होता है ।
परन्तु कुछ एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी - पूजन करके पांचवें दिन तुलसी का विवाह करते हैं । तुलसी - विवाह की यही पद्धति अधिक प्रचलित है ।
तुलसी चाहे एक साधारण सा पौधा होता है । परन्तु भारतीयों के लिए यह गंगा - यमुना के समान पवित्र है । पूजा की सामग्री में तुलसी - दल ( पत्ती ) जरूरी समझा जाता है । तुलसी के पौधे को वैसे तो स्नान के बाद प्रतिदिन पानी देना स्वास्थ्य के लिए अति उत्तम है । तुलसी के कारण उसके आस - पास की वायु शुद्ध हो जाती है । तुलसी - पूजा क्यों आरम्भ हुई तथा इसकी पूजा से किसको लाभ हुआ , इस विषय में दो कथाएँ प्रस्तुत हैं ।
तुलसी कथा १-
प्राचीन काल में जालन्धर नामक राक्षस ने चारों तरफ बड़ा उत्पात मचा रखा था । वह बड़ा वीर तथा पराक्रमी था । उसकी वीरता का रहस्य था उसकी पत्नी वृन्दा का पतिव्रता धर्म । उसी के प्रभाव से वह सर्वजयी बना हुआ था । उसके उपद्रवों से भयभीत ऋषि व देवता मिलकर भगवान् विष्णु के पास गए तथा उससे रक्षा करने के लिए कहने लगे । भगवान् विष्णु ने काफी सोच विचार कर उस सती का पतिव्रत धर्म भंग करने का निश्चय किया । उन्होंने योगमाया द्वारा एक मृत - शरीर वृन्दा के प्रांगन में फिकवा दिया । माया का पर्दा होने से वृन्दा को अपने पति का शव दिखाई दिया । अपने पति को मृत देखकर वह उस मृत - शरीर पर गिरकर विलाप करने लगी । उसी समय एक साधु उसके पास आए और कहने लगे - बेटी इतना विलाप मत करो मैं इस मृत - शरीर में जान डाल दूंगा । साधु मृत शरीर में जान डाल दी । भावातिरेक में वृन्दा ने उसका ( मृत - शरीर का ) प्रालिगन कर लिया । बाद में वृन्दा को भगवान् का यह छल - कपट ज्ञात हुआ । उधर उसका पति जो देवताओं से युद्ध कर रहा था , वृन्दा का स्तीत्व नष्ट होते ही वह देवताओं द्वारा मारा गया । इस बात का जब उसे पता लगा तो क्रोधित हो उसने विष्णु भगवान् को शाप दे दिया कि “ जिस प्रकार तुमने छल से मुझे पति - वियोग दिया है उसी प्रकार तुम भी अपनी स्त्री का छलपूर्वक हरण होने पर स्त्री - वियोग सहने के लिए मृत्युलोक में जन्म लोगे । ' यह कहकर वृन्दा अपने पति के साथ सती हो गई ।
विष्णु अब अपने छल पर बड़े लज्जित हूए । देवताओं व ऋषियों ने उन्हें कई प्रकार से समझाया तथा पार्वती जी ने वृन्दा की चिता भस्म मैं आंवला , मालती व तुलसी के पौधे लगाए । भगवान् विष्णु ने तुलसी को ही वृन्दा का रूप समझा । कालान्तर में रामवतार के समय राम जी को सीता का वियोग सहना पड़ा ।
कहीं - कहीं यह भी प्रचलित है कि वृन्दा ने शाप दिया था कि तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है । अतः तुम पत्थर बनोगे । विष्णु बोले - हे वृन्दा ! तुम मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो गई हो । यह सब तुम्हारे सतीत्व का ही फल है । तुम तुलसी बनकर मेरे साथ रहोगी तथा जो मनुष्य तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा वह परमधाम को प्राप्त होगा । इसी कारण शालिग्राम या विष्ण - शिला को पूजा बिना तुलसी - दल के अधुरी होती है । इसी पुण्य की प्राप्ति के लिए आज भी तुलसी - विवाह बड़ी धूमधाम से किया जाता है । तुलसी को कन्या मानकर व्रत करने वाला यथाविधि से भगवान् विष्ण को कन्या - दान करके तुलसी - विवाह सम्पन्न करता है ।
तुलसी पूजा करने का बड़ा माहात्म्य है ।
तुलसी कथा २ –
एक परिवार में ननद - भाभी रहती थीं । ननद अभी कुंवारी थी । वह तुलसी की बड़ी सेवा करती थीं । पर भाभी को यह सब फूटी आँख नहीं सुहाता था । कभी - कभी तो भाभी गुस्से में कहती कि जब तेरा विवाह होगा तो तुलसी ही खाने को दूंगी तथा तुलसी ही तेरे दहेज में दूंगी । यथा - समय जब ननद की शादी हुई तो उसकी भाभी ने बारातियों के सामने तुलसी का गमला फोड़कर रख दिया । भगवान् की कृपा से वह गमला स्वादिष्ट व्यंजनों में बदल गया । गहनों के बदले भाभी ने ननद को तुलसी की मंजरी पहना दी तो वह सोने के गहनों में बदल गई । वस्त्रों के स्थान पर तुलसी का जनेऊ रख दिया तो वह रेशमी वस्त्रों में बदल गया । चारों तरफ ससुराल में उसके दहेज आदि के बारे में बहुत बढ़ाई हुई। उसकी भाभी की एक लड़की थी । भाभी अपनी लड़की से कहती कि तू भी तुलसी की सेवा किया कर तुझे भी तेरी बुआ की तरह फल मिलेगा । पर लड़की का मन तुलसी की सेवा में नहीं लगता था ।
उसके विवाह का समय आया तो उसने सोचा कि मैने जैसा व्यवहार अपनी ननद से किया उसी के कारण उसे इतनी इज्जत मिली है क्यों न मैं अपनी लड़की के साथ भी वैसा ही व्यवहार करूँ । उसने तुलसी का गमला तोड़कर बरातियों के सामने रखा , मंजरी के गहने पहनाए तथा वस्त्र के स्थान पर जनेऊ रखा । परन्तु इस बार मिट्टी मिट्टी ही रही । मंजरी - व - पत्ते भी अपने पूर्व रूप में ही रहे तथा जनेऊ जनेऊ ही रहा । सभी भाभी की बुराई करने लगे । ससुराल में भी सभी लड़की की बुराई ही कर रहे थे । भाभी ननद को कभी घर नहीं बुलाती थी । भाई ने सोचा मैं ही बहन से मिल आऊँ । उसने अपनी इच्छा अपनी पत्नी को बतायी तथा सौगात ले जाने के लिए कुछ माँगा तो भाभी ने थैले में ज्वार भरकर कहा और तो कुछ नहीं है , यही ले जाओ । वह दुःखी मन से चल दिया । बहन के नगर के समीप पहुँचकर एक गोशाला में गाय के सामने उसने ज्वार का थैला उलट दिया तो गोपालक ने कहाकि सोना - मोती गाय के आगे क्यों डाल रहे हो । उसने उससे सारी बात बता दी तथा सोना - मोती लेकर प्रसन्न मन से बहन के घर गया । बहन बड़ी प्रसन्न हुई । जैसी प्रसन्नता बहन को मिली वैसी सबको मिले ।
दुबड़ी सातें और सन्तान सप्तमी व्रत
दुबड़ी सातें और सन्तान सप्तमी व्रत
( भाद्रपद शुक्ला सप्तमी )
अधिकांश क्षेत्रों में तो आज के दिन दुबड़ी साते या दुबड़ी सप्तमी का व्रत और त्यौहार मनाया जाता है , तोकुछ परिवारो में सन्तानों की मंगल कामना हेतु संतान सप्तमी के रूप में किया नी जाता है इस व्रत को । संतान सप्तमी व्रत के रूप में यह व्रत दोपहर तक होता है । दोपहर के समय चौक पूरकर शिव - पार्वती का चन्दन , अक्षत , धूप , दीप , नैवेद्य , सुपारी , नारियल आदि से पूजन किया नो जाता है । भोग के लिए खीर - पूड़ी और विशेषकर गुड़ डाले हुए पुए बनाकर तैयार किए जाते हैं। सन्तान की रक्षा हेतु एक डोरा शिवजी को अर्पण करके निवेदन करें - हे प्रभु ! इस कुल - वर्द्धनकारी डोरे को ग्रहण कीजिए । फिर उस डोरे को शिवजी से वरदान के रूप में लेकर स्वयं धारण किया जाता है ।
दुबड़ी सातें के रूप में इस व्रत को करते समय एक पटड़े पर दुबड़ी सातें की मूर्ति बनायें । फिर चावल , जल , दूध, रोली , आटा , घी , चीनी मिलाकर लोई बनायें और उससे दुबड़ी की पूजा करें तथा दक्षिणा चढ़ा कर भीगा हुआ बाजरा चढ़ावें । मोठ , बाजरे का बायना निकाल कर सास को दें और उनके पैर आशीष लें इसके पश्चात दुबड़ी सातें की कथा सुनें । इस दिन ठंडा अथवा बासी भोजन करना चाहिए । यदि किसी वर्ष में किसी के पुत्र का विवाह हुआ हो तो उद्यापन करना चाहिए । उद्यापन में मोठ - बाजरे की तेरह कुड़ी एक थाली में लेकर एक रुपया और एक धोती रखकर हाथ से स्पर्श करके अपनी सास , जेठानी अथवा ब्राह्मणी को दे देवें और आशीष ग्रहण करें ।
कथा -
एक साहूकार के सात बेटे थे । वह जब भी अपने बेटे का विवाह करता , वही मर जाता । इस प्रकार उसके छ : बेटे मर गये । कुछ समय बाद सबसे छोटे लड़के का विवाह भी तय हो गया । सभी नाते - रिश्तेदारों को निमंत्रित कर दिया गया । विवाह में शामिल होने के लिए लड़के की बुआ आ रही थी । रास्ते में वह एक बुढ़िया बेटी के पास बैठी और उसके पांव लगी । बुढ़िया ने पूछा तू कहां जा रही है ? लड़के की बुआ ने सारी बात बताई ।
बुढ़िया बोली - वह लड़का तो घर से निकलते ही दरवाजा गिरने से मर जायेगा । वहां से बच गया तो रास्ते में जिस पेड़ के नीचे बारात रुकेगी वहां पेड़ के गिरने से मर जायेगा । वहां से बच गया तो ससुराल में दरवाजा गिरने से मर जायेगा । अगर वहां से भी बच गया तो सातवीं भांवर पर सर्प के काटने से मर जायेगा ।
यह बात सुनकर लड़के की बुआ बोली - मां , इससे बचने का कोई उपाय है ।बुढ़िया बोली - उपाय तो है , परन्तु है कठिन । सुन , घर से लड़के को पीछे की दीवार फोड़ कर निकालना , रास्ते में किसी पेड़ के नीचे बारात को मत रुकने देना , ससुराल में भी पीछे दीवार फोड़कर वर को अंदर ले जाना और भांवरों के समय एक कटोरे में दूध भर कर रख देना और तांत का फांस बना लेना । जब सांप आवे तो उसे दूध पिलाकर बांध लेना । फिर सांपिन आयेगी तो सांप को मांगेगी , तब तुम उससे अपने छहो भतीजों को मांग लेना । वह उन्हें जीवित कर देगी । यह बात किसी से कहना भी मत , नहीं | तो कहने सुनने वाले दोनों की मृत्यु हो जायेगी और लड़का भी नहीं बचेगा ।
यह सब बताकर बुढ़िया ने अपना नाम दुबड़ी बताया और चली गई । यह सब जानकर बुआ घर आई । जब बारात चलने लगी तो बुआ रास्ता रोककर खड़ी हो गई और बोली मेरे भतीजे को पीछे से दीवार फोड़कर निकालो । जैसे ही लड़का बाहर आया , आगे का दरवाजा गिर पड़ा । सबने कहा , बुआ ने अच्छा किया । लड़के को बचा लिया ।
जब बारात चल दी , तब सबके मना करने पर भी बुआ बारात के साथ चल दी । रास्ते में एक छायादार पेड़ के नीचे बारात कुछ देर को रुकी तो बुआ ने लड़के को पकड़कर खुले स्थान पर धूप में बैठाया । उसके बैठते ही पेड़ गिर गया । यह देखकर सब बुआ की बड़ाई करने लगे ।
जब बारात ससुराल पहुंची तो वहां भी वह पीछे की दीवार फोड़वा कर लड़के को अन्दर ले गई । लड़के के अंदर जाते ही दरवाजा गिर पड़ा । फेरों के समय बुआ दूध का कटोरा और तांत का फास लेकर बैठ गई । जैसे ही सांप वहां आया बुआ ने उसके आगे दूध रख दिया । दूध पीते समय ही उसने उसे तांत से बांध लिया । तब सांपिन आकर सांप को मांगने लगी । तब बुआ ने अपने छहो भतीजे मांगे । सांपिन ने उसके छहों भतीजे जीवित कर दिये और सांप को लेकर चली गई ।
बारात घर वापिस आई तब बुआ ने सप्तमी को दुबड़ी की पूजा कराई । इसी से इसको दुबड़ी सातें कहते हैं । हे दुबड़ी मैया ! जैसे तुमने बुआ को सातों भतीजे दिये वैसे ही सबको देना ।।
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पं हरीश चंद्र लखेड़ा
रविवार, 16 अगस्त 2020
बलदेव छठ और सूर्यषष्ठी व्रत
बलदेव छठ और सूर्यषष्ठी व्रत
( भाद्रपद शुक्ला षष्ठी )
सप्तमी युक्त भाद्रपद शुक्ला षष्ठी को स्नान , दान , जप , इसके व्रत करने से अक्षय फल प्राप्त होता है । विशेषकर सूर्य - पूजन , गंगा दर्शन और पंचगव्य - प्राशन का बड़ा माहात्म्य है । पूजा की सामग्री में गन्ध , पुष्प , धूप , दीप और नैवेद्य मुख्य हैं ।
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